जानें भारत में कैसे काम करती है वर्षा मापन प्रणाली
मानसून ने इस बार दो हफ्ते पहले ही आकर देश के ज़्यादातर इलाकों में अच्छी खासी बारिश कर दी है। भारतीय मौसम विभाग (IMD) की ओर से जारी वर्षा के आंकड़ों को देखकर आपके मन में भी यह सवाल उठा होगा कि आखिर IMD को कैसे पता चलता है कि कहां कितनी बारिश हुई। इस लेख में आपको बताया जाएगा कि वर्षा के आंकड़े कैसे जुटाए जाते हैं।
वर्षा मापन का इतिहास
वर्षा मापन का ऐतिहासिक उल्लेख भारत से लेकर, ग्रीस और कोरिया तक के प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। भारत में वर्षा का लेखा-जोखा 400 ईसा पूर्व में चाणक्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र में भी मिलता है, जिसमें वर्षा के आधार पर कर तय करने का उल्लेख है। 16वीं सदी में कोरिया में चोसेन राजवंश ने दुनिया का पहला औपचारिक रेनगेज ‘Cheugugi’ विकसित किया। भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान साल 1839 में चेन्नई में पहला आधिकारिक वर्षामापक स्टेशन स्थापित किया गया। इसके बाद 1875 में IMD की स्थापना हुई, जो अब दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी मौसम एजेंसी है।
क्यों ज़रूरी है वर्षा मापन?
देश की करीब 60% खेती मुख्य रूप से मानसून से होने वाली वर्षा पर निर्भर है। ऐसे में खेती, जल प्रबंधन, जल-संचयन, बाढ़-सूचना प्रणाली, पर्यावरण और हमारी समूची अर्थव्यवस्था के लिए वर्षा के सटीक मापन का विशेष महत्व है। वर्षा को मापने से हमें यह जानने में मदद मिलती है कि देश के किन क्षेत्रों में कम बारिश हुई है, कहां अत्यधिक बारिश हुई है और कहां सूखा पड़ा है। इससे बारिश की मात्रा को देखते हुए सिंचाई के इंतज़ाम करने और फसलों की पैदावार का पूर्वानुमान लगाने जैसे नीतिगत कार्यों और योजनाओं के निर्धारण में मदद मिलती है।
रेनगेज क्या है और कैसे काम करता है?
भारत में वर्षा मापन के लिए मौसम विभाग जिस यंत्र को इस्तेमाल करता है उसे रेनगेज (Rain Gauge) यानी वर्षा मापक यंत्र कहा जाता है। यह एक बेलनाकार पात्र होता है जिसका मुंह चौड़ा और कीपनुमा होता है। इसे खुले स्थान पर इस प्रकार रखा जाता है कि उसमें वर्षा का जल इकट्ठा हो। इसमें एक मापक सिलेंडर होता है जिसमें मिलीमीटर या सेंटीमीटर में वर्षा को मापने के चिह्न अंकित होते हैं। रेनगेज कई प्रकार के होते हैं:
मानक रेनगेज (Standard Rain Gauge) – मानक वर्षा गेज सबसे साधारण और सस्ता उपकरण है। इसकी संरचना सरल होती है, जिसमें एक फनल और एक मापक सिलेंडर होता है। वर्षा मापन के लिए इसे खुले क्षेत्र में रखा जाता है। बारिश खत्म होने पर फनल के ज़रिए मापक ट्यूब में गिरे वर्षा जल के स्तर को माप कर वर्षा की मात्रा को इंच के सौवें हिस्से तक सटीक रूप से मापा जा सकता है।
टिपिंग बकेट रेनगेज (Tipping Bucket Rain Gauge) – यह सीसॉ मॉडल पर अधारित यंत्र होता है जो एक निर्धारित मात्रा में वर्षा गिरने पर एक ओर झुक कर पानी को नीचे लगी बाल्टी में गिरा देता है। यह बाल्टी एक इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्डर से जुड़ी होती है, जो पानी गिरने पर इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल भेजता है। ये सिग्नल कंप्यूटर को भेजे जाते हैं, जो प्राप्त जानकारियों के आधार पर वर्षा का डेटा या ग्राफ तैयार करता है।
वज़न आधारित रेनगेज (Weighing Rain Gauge) – इसमें एक मैकेनिकल वाइंडिंग डिवाइस या काउंटरबैलेंस हैमर सिस्टम का इस्तेमाल होता है। इसके ज़रिए यह वर्षा का मापन बारिश के पानी के भार के आधार पर करता है। इसका उपयोग बारिश के अलावा ओलावृष्टि और बर्फबारी को मापने के लिए भी किया जाता है।
रडार वर्षा मापी (Weather Radar or Radar Rain Gauge) - यह तकनीक वर्षा को नापने के लिए बारिश की बूंदों से परावर्तित रेडियो तरंगों (microwave pulses) का उपयोग करती है। इन तरंगों के ज़रिए रडार वर्षा की तीव्रता, फैलाव और दिशा का अनुमान लगाता है। यह प्रणाली क्षेत्रीय स्तर पर काम करती है और बड़े इलाकों की वर्षा स्थिति को एक साथ स्कैन करती है। मौसम विभाग के पास डॉपलर वैदर रडार नेटवर्क है, जो पूरे भारत में रडार के माध्यम से वर्षा का आंकलन करता है।
ऑप्टिकल वर्षामापी (Optical Rain Gauge) - इस आधुनिक वर्षामापी में इन्फ्रारेड या लेज़र बीम का प्रयोग किया जाता है, जिससे वर्षा की बूंदों के रास्ते में रुकावटों के पैटर्न के आधार पर बारिश का आकलन किया जाता है। यह आकलन बूंदों के आकार, गति और घनत्व के आधार पर होता है। यह सिस्टम खासतौर पर शोध कार्यों, हवाई अड्डों, रक्षा प्रणाली और जलवायु निगरानी केंद्रों में इस्तेमाल होता है।
क्यों इस्तेमाल होते हैं कई तरह के रेनगेज?
वर्षा के मापन में बूंदों का आकार, गिरने की गति, तीव्रता और प्रकार (जैसे बर्फ या ओला) जैसी चीज़ों की जानकारी भी मायने रखती है। इसलिए अलग-अलग परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न प्रकार के रेनगेज इस्तेमाल होते हैं। IMD देश भर में फैले अपने 7000+ वर्षामापक केंद्रों के ज़रिए बारिश के आंकड़े इकट्ठा करता है। इसमें सतही वेधशाला नेटवर्क, स्वचालित मौसम स्टेशन (AWS), एग्रोमेट फील्ड इकाइयां और ज़िला वर्षा निगरानी स्टेशन शामिल हैं।
विभाग वर्षा का मापन कैसे करता है और इसमें क्या-क्या प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं, इसकी वैज्ञानिक जानकारी IMD की गाइड में विस्तार से दी गई है। विभाग ने 2020 में एक आधुनिक हाइड्रोमेट नेटवर्क आधुनिकीकरण योजना के तहत देशभर में सैकड़ों ऑटोमैटिक रेनगेज लगाए हैं, जो रियल टाइम डेटा भेजते हैं। इस डिजिटल प्रणाली से डेटा सीधे दिल्ली स्थित IMD के मुख्यालय को मिलता है, जहां से राष्ट्रीय स्तर पर वर्षा के आंकड़े और पूर्वानुमान जारी किए जाते हैं।
मौसम विभाग INSAT और डॉपलर रडार आधारित मॉडलों को बारिश के वास्तविक मापन से क्रॉस-वैलिडेट करता है, जिससे चेतावनियों को सटीक और ज़्यादा विश्वसनीय बनाया जाता है। इस सबके ज़रिए मौसम विभाग अब एक हाइब्रिड वर्षा मापन प्रणाली की ओर बढ़ रहा है।
कहां-कहां होता है बारिश के डेटा का इस्तेमाल
बारिश केवल मौसम से जुड़ी घटना नहीं है। इसके वैज्ञानिक, भौगोलिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभाव भी काफी महत्वपूर्ण होते हैं। वर्षा के डेटा का इस्तेमाल योजनाओं व नीतियों को तैयार करने से लेकर उनके क्रियान्वयन तक में उपयोगी साबित होता है। उदाहरण के लिए:
जल संसाधन योजनाओं, बांधों झीलों, नहरों और नदियों के प्रबंधन में : वर्षा के डेटा का सबसे प्रत्यक्ष और व्यावहारिक इस्तेमाल जल संसाधनों से संबंधित योजनाओं में होता है। डेटा की मदद से पता चलता है कि किस क्षेत्र में कितना जल पुनर्भरण (recharge) हुआ, जिससे बांधों के जलाशय भरने की स्थिति, नदियों का जल प्रवाह और झीलों का जल स्तर तय किया जाता है।
जल आयोग, सिंचाई विभाग और नगर निकाय इन्हीं आंकड़ों के आधार पर जल वितरण, रिलीफ डिस्चार्ज और शहरी जलापूर्ति की रणनीति बनाते हैं। बारिश का डेटा खासकर मानसून सीजन में यह तय करने में मदद करता है कि कौन से जलाशय से कितना पानी छोड़ा जाए और किस इलाके को प्राथमिकता दी जाए।
बाढ़ और सूखा चेतावनी प्रणाली व चरम स्थितियों की निगरानी में : जब किसी क्षेत्र में लगातार अत्यधिक वर्षा होती है या कहीं पर अपेक्षाकृत बहुत कम बारिश दर्ज़ होती है, तब यह डेटा बाढ़ या सूखा चेतावनी प्रणाली के लिए बेहद अहम हो जाता है। मौसम विभाग वर्षा के रियल टाइम वर्षा आंकड़ों के आधार पर ही ‘रिवर बेसिन वार्निंग’, ‘फ्लड मॉनिटरिंग’ और ‘ड्रॉट इंडेक्सिंग’ जैसी प्रणालियों को सक्रिय करता है। इससे राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (NDRF), ज़िला प्रशासन और आपदा प्रबंधन इकाइयों को समय रहते काम शुरू करने की सूचना मिलती है।
किसानों के लिए कृषि सलाह और फसल परामर्श में : वर्षा का डेटा कृषि मंत्रालय की एग्रोमेट एडवाइजरी सर्विस (AAS) का मूल आधार होता है। इसमें किसानों को कई तरह की सलाहें दी जाती हैं। जैसे कि, किस सप्ताह में कौन सी फसल बोई जाए, सिंचाई की ज़रूरत है या नहीं और क्या बारिश की संभवना को देखते हुए खेतों में कीटनाशक छिड़काव किया जाए या नहीं?
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) और कृषि विज्ञान केंद्र (KVKs) इस डेटा का उपयोग करके मौसम आधारित कृषि मॉडल तैयार करते हैं, जिससे सूखा-सहिष्णु बीज के इस्तेमाल की योजना, सिंचाई तालिका और पोषण योजना बनती है। राज्य कृषि विभाग भी इससे ग्राम स्तर की योजनाएं तैयार करते हैं।
जलवायु परिवर्तन अध्ययन व दीर्घकालिक रुझानों की पहचान में : लगातार दशकों तक एकत्र किए गए वर्षा डेटा से यह समझा जा सकता है कि किसी क्षेत्र में वर्षा का स्वरूप कैसे बदल रहा है? क्या मानसून देर से आ रहा है, क्या शुष्क दिन बढ़ रहे हैं? क्या अचानक होने वाली भारी वर्षा की घटनाएं तेज़ी से बढ़ रही हैं? इस डेटा को जलवायु मॉडल (Climate Models) में डालकर इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) जैसे संगठन जलवायु जोखिम का मूल्यांकन करते हैं।
पर्यावरण मंत्रालय और वैज्ञानिक संस्थान जैसे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ ट्रॉपिकल मीटीयोरॉलॉजी (IITM), पुणे, IMD और द इनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (TERI) जैसे संस्थान इस डेटा का विश्लेषण कर जलवायु नीति बनाते हैं। यह नीति शहरी नियोजन, कृषि बीमा, जल संरक्षण योजनाओं और कार्बन न्यूट्रल रणनीतियों आदि के लिए आधार बनती है।
बहुस्तरीय नीति और निजी क्षेत्र उपयोग में : वर्षा मापन डेटा न सिर्फ सरकारी नीति निर्माताओं के लिए, बल्कि निजी कंपनियों और स्टार्टअप्स के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण होता जा रहा है। बीमा कंपनियां, कृषि बीमा दावे निपटाने में इसी डेटा का इस्तेमाल करती हैं, जबकि स्मार्ट एग्रीकल्चर कंपनियां फसलों के लिए मॉडलिंग और रिमोट-सेन्सिंग आधारित सिफारिशें तैयार करती हैं।
शहरी निकाय वर्षा जल संचयन योजनाओं के लिए इसका उपयोग करते हैं। इसके अलावा, Skymet और Weather Risk जैसे निजी मौसम सेवा प्रदाता IMD के डेटा का इस्तेमाल कर विस्तृत पूर्वानुमान और अलर्ट प्रदान करते हैं।