बसंती देवी: कोसी बचाओ आंदोलन की प्रमुख चेहरा
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कोसी बचाओ आंदोलन का चेहरा बसंती देवी

बसंती देवी: कोसी बचाओ आंदोलन की प्रमुख चेहरा, पर्यावरण संरक्षण में अहम भूमिका। सम्मानित नारी शक्ति और पद्मश्री पुरस्कार। पढ़िए कोसी बचाओ आंदोलन के लिए बसंती देवी का प्रेरणादायक संघर्ष और योगदान के बारे में
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बसंती देवी पर्यावरण संरक्षण, कोसी नदी बचाओ आंदोलन का एक चर्चित चेहरा हैं। इन्होंने समाज सेवा के साथ उत्तराखंड में पर्यावरण संरक्षण एवं कोसी नदी को बचाने में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है। 

कुमाउनी भाषा सम्मेलन 2023 में पिथौरागढ़ में बसंती दीदी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दुबली-पतली क्षीण काया, सरलता, सादगी से भरी, मुखमंडल में सौम्यता, एक दिव्य मुस्कान, इनको एक अलग रूप में प्रस्तुत करता है। बसंती दीदी की सरलता, सहजता देखकर अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि इन्होंने अपने जीवन में इतने संघर्षों का सामना किया होगा। बसंती दी के जीवनवृत को जानने पर नमन करती हूँ, मातृशक्ति को, इन्होंने कितने दर्द संभाले हैं। 

कष्टमय बचपन

सन् 1960 के आसपास पिता श्री कुंवर सिंह सामंत तथा माता तुलसी देवी के घर आपका जन्म हुआ। इनका जन्म स्थान पिथौरागढ़ जनपद का डिगरा गाँव है। इन्होंने कक्षा चार तक पढ़ाई की, फिर कक्षा 5 वीं परीक्षा हेतु दूसरी जगह जाना पड़ता था, इसलिए पढ़ाई छूट गई। मात्र 12 वर्ष की अल्पायु में इनका विवाह हो गया। उस समय इनके पति 11वीं में पढ़ रहे थे। दो वर्ष बाद ही कनाली छीना में उनका निधन हो गया। वैधव्य की मार झेलते हुए इनको न ढंग से भोजन मिलता, न  कपड़े, उल्टे काल का ग्रास बने पति का लांछन भी इनको झेलना पड़ा। जब जिंदगी कष्ट से बोझिल हो गई तो इन्होंने मायके जाने का निश्चय किया। ये मायके के लिए चल पड़ी। इत्तेफाक से उसी दिन इनके पिता इनको ले जाने आ रहे थे लेकिन अलग-अलग रास्तों से चलने के कारण दोनों की मुलाकात नहीं हुई। ससुराल में कहा गया 'हम आपकी बेटी के बारे में कुछ नहीं जानते हैं, पता नहीं कहाँ चली गईं।' पिताजी वापस आए तो बिटिया घर पहुँच गई थी। लोगों ने इनका पुनर्विवाह करने की सलाह दी, लेकिन पिताजी का मानना था कि बेटी के रूप में हमने इसका विवाह कर दिया। अब बेटे के रूप में इसको पढ़ा-लिखा कर आगे बढ़ाना है।

लक्ष्मी आश्रम, कौसानी में बसंती बहन

एक विकलांग लड़की 'लक्ष्मी आश्रम, कौसानी' में पढ़‌ती थी। वहाँ का वातावरण बहुत अच्छा था तो इनको भी पढ़ाई हेतु वहाँ भेज दिया गया। वहाँ से इंटर तक की पढ़ाई की। समाज सेविका सुश्री राधा बहन के आग्रह पर वहीं रहने लगीं। 42 वर्ष तक वे आश्रम में ही अपनी सेवाएँ देती रहीं।

इन्होंने महिला सशक्तिकरण, बेटियों की शिक्षा, नशा मुक्ति, 200 गाँव में बालवाड़ी खोलना आदि कई कार्य किए। साथ ही उस समय ईंधन के लिए लकड़ियाँ ही काटी जाती थीं, अतएव लकड़ी न काटे जाने और कोसी नदी को बचाने के लिए आगे आईं। इन्होंने लोगों को बहुत जागरूक भी किया। सन् 1980 के दशक में जंगल बचाने के कार्य किये। एक ओर कोसी नदी के अस्तित्व को बचाने की मुहिम महिला समूह के माध्यम से शुरू की, इसके साथ ही घरेलू हिंसा, महिला शिक्षा, नशा उन्मूलन और महिलाओं पर होने वाले प्रताड़ना को रोकने के लिए जन जागरण किया। इनके प्रयासों से ही ग्राम पंचायतों में महिला सशक्तिकरण देखने को मिला। इन्होंने ग्रामीण महिलाओं को वन न काटने हेतु एकजुट किया और कोसी नदी के पुनरुद्धार हेतु प्रयास किये। इसके लिए आश्रम की संचालिका सुश्री राधा बहन का विशेष संरक्षण भी इनको मिला। 

कोसी बचाओ आंदोलन की प्रमुख चेहरा बनीं बसंती बहन

20 वर्षों में कई गाँव की सैकड महिलाओं को पेड़ों की रक्षा करने और पौधे लगाने हेतु एकजुट किया इन महिलाओं ने न केवल मृत लकड़ी का उपयोग करके नदी बचाने का संकल्प लिया, बल्कि हजारों चौड़ी पत्ती वाले ओक के पेड़ लगाए। इस प्रकार जंगल की आग बुझाने और रोकने में भी सक्षम रहीं बसंती दीदी क्षेत्र की महिलाओं की शिक्षित करने के लिए कोसी नदी क्षेत्र में पदयात्रा पर भी गईं। यह आंदोलन 'कोसी बचाओ आंदोलन' के नाम से जाना गया। इसका उद्देश्य जल, जंगल, जमीन की रक्षा करना था। कोसी नदी के पुनरुद्धार और समाज में महिलाओं को इनके योगदान के फलस्वरूप 2016 में 'नारी शक्ति पुरस्कार और सन 2022 में देश का प्रतिष्ठित 'पद्मश्री पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। वर्तमान में बसंती दीदी पिथौरागढ़ में ही निवास कर रही हैं।

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