वृक्ष मानव : विश्वेश्वर दत्त सकलानी
बचपन की सीख बनी जुनून
टिहरी गढ़वाल के सकलाना पट्टी की बंजर भूमि पर पचास लाख से अधिक पेड़ लगाने वाले विश्वेश्वर दत्त सकलानी को अपने वृक्ष प्रेम के कारण ही वृक्ष मानव की उपाधि मिली। विश्वेश्वर दत्त सकलानी का जन्म टिहरी गढ़वाल के सकलाना पट्टी के ग्राम पुजार में 2 जून सन् 1922 को हुआ था। विश्वेश्वर दत्त को अपने दादा से प्रकृति को सुंदर और हरा-भरा बनाए रखने की प्रेरणा मिली थी। उनके दादा हमेशा उन्हें यही बताया और सिखाया करते थे कि हमारे चारों ओर अगर पेड़ रहेंगे तो हम भी जिंदा रहेंगे। अगर पेड़ खत्म हुए तो मानव सभ्यता को भी खत्म होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। उनके दादा पेड़ लगाने को लेकर बहुत अधिक जुनून वाले तो नहीं थे, लेकिन वह गाँव के आसपास पौधारोपण किया करते थे। विश्वेश्वर दत्त अपने दादा के साथ पौधारोपण करने जाते थे। यहीं से उनके मन में पेड़ों के प्रति अगाध स्नेह और प्रेम उपजा। जो जीवन पर्यंत बना रहा।
उनके बड़े भाई नागेंद्र सकलानी टिहरी रियासत के खिलाफ हुए जन विद्रोह में बलिदान हो गए थे। टिहरी रियासत के जन आंदोलन में नागेंद्र हमेशा के लिए इतिहास पुरुष बन गए। बड़े भाई के बलिदान होने के कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी शारदा देवी का भी देहांत हो गया। इससे उनका वृक्ष प्रेम और अधिक बढ़ गया, क्योंकि वह अपने दुख और एकाकीपन को दूर करने के लिए पौधरोपण के लिए निकल जाते और उनकी देखभाल करने लगते। जहाँ स्थान मिलता, वहां वे पौधारोपण करने लगे।
बेटी के शादी के समय भी पेड़ लगा रहे थे
उनका यह वृक्ष प्रेम इतना अधिक बढ़ गया था कि 1985 में उनकी बेटी मंजू का विवाह हो रहा था तो पारंपरिक रस्म वाले कन्यादान के समय जब उनको विवाह स्थल पर बुलाया गया तो विश्वेश्वर दत्त कहीं नहीं मिले। जब उनकी खोजबीन की गई तो पता चला कि वे कुछ पौधों को लेकर गाँव के ऊपर जंगल में चले गए हैं। गाँव वाले जब उन्हें जंगल में बुलाने गए तो वे वहाँ पौधारोपण करने में डूबे हुए थे। गाँव वालों के कहने पर विश्वेश्वर दत्त अपनी बेटी के विदाई के वक्त घर लौटे। पर, उन्होंने बारात की विदाई से पहले अपनी बेटी और दामाद से पौधारोपण कराया।
उनका आदर्श वाक्य था, 'वृक्ष मेरे माता-पिता, वृक्ष मेरी संतान, वृक्ष ही मेरे संगी-साथी।' उन्होंने अपने इस आदर्श वाक्य को अपने जीवन में हमेशा अपनाया। उनके वृक्ष प्रेम के संकल्प ने पूरे सकलाना पट्टी की तस्वीर ही बदल दी थी। पूरी पट्टी बाँज, बुराँश, भीमल, देवदार आदि विभिन्न प्रजाति के पेड़ों से आच्छादित हो गई थी। पट्टी के पहाड़ के खाली पड़े मैदानों में पौधे लगाने के कारण शुरुआती दौर में गाँव वालों द्वारा विरोध भी किया गया, क्योंकि वह मानते थे कि खाली जमीन में घास उगने से जानवरों को घास चरने की सुविधा मिल जाती है। पौधारोपण किये जाने से जानवरों को घास चुगने को नहीं मिल रही है।
गाँव वालों के विरोध के बाद भी विश्वेश्वर दत्त सकलानी ने पौधारोपण करना नहीं छोड़ा। बाद में उनका यही जुनून गाँव वालों के लिए वरदान बन गया। उन्हें काफी मात्रा में चारापत्ती वाले पेड़ उपलब्ध हो गए। जिनमें से ये आसानी से अपने जानवरों के लिए चारापत्ती ले जाने लगे। जब उनके लगाए पौधे पेड़ बनकर खड़े हुए हो सकलाना पट्टी में अनेक नई जलधाराएँ भी फूटने लगी। इससे प्रकृति का यह सत्य एक बार फिर सच साबित हुआ कि जहाँ वृक्ष होते हैं, वहीं पानी भी होता है। अगर वृक्ष होंगे तो पानी को कोई कमी कभी नहीं होगी। उनके पौधारोपण के कारण इस तरह का बदलाव देखने के बाद गाँव वाले उनके पौधारोपण में सहयोग करने लगे।
कीमत पेड़ों की 4.5 हजार करोड़
उनके इसी जुनून का परिणाम था कि संकल्पना पट्टी में 1,200 हेक्टेयर से भी अधिक इलाके में उनके द्वारा लगाए गए पौधे बड़े पेड़ों के रूप में उनके द्वारा की गई मेहनत को चरितार्थ करने लगे। अपने बड़े भाई शहीद नागेंद्र सकलानी की याद में उन्होंने सकलाना पट्टी में 'नागेंद्र स्मृति बन' भी तैयार किया। पर, यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और चिंताजनक है कि साल 2024 में जब गर्मी के मौसम में पहाड़ के जंगलों में भीषण आग लगी तो विश्वेश्वर दत्त सकलानी द्वारा बनाए, उगाए और अपने बच्चों की तरह पाले गए विशाल जंगल को भी उसने अपनी चपेट में ले लिया। जिसकी वजह से वहाँ से सैकड़ों प्रजाति के अनेक पेड़ हमेशा के लिए खत्म हो गए।
बिना किसी स्वार्थ के इस तरह की जनसेवा करने और पर्यावरण को बेहतर बनाने में अपना अतुलनीय योगदान देने के कारण हो 19 नवंबर 1986 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने विश्वेश्वर दत्त सकलानी को 'इंदिरा प्रियदर्शनी वृक्ष मित्र' पुरस्कार से सम्मानित किया था। प्रधानमंत्री राजीव गाँधी द्वारा सम्मानित किए जाने के कुछ समय बाद ही उन्हें एक फर्जी मुकदमे का सामना करना पड़ा था। यह एक दुभर्भाग्यपूर्ण स्थिति थी कि प्रधानमंत्री द्वारा उन्हें सम्मानित किए जाने के बाद भी सन 1987 में वन विभाग द्वारा उनके विरुद्ध एक मुकदमा दर्ज किया गया। जिसमें आरोप लगाया कि वह बिना विभाग की अनुमति के जंगल में पौधारोपण कर रहे थे। उन्हें इसके लिए कई वर्षों तक अदालत में कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी। यह बात अलग है कि बाद में न्यायालय ने उनकी लगन और मेहनत को स्वीकार करते हुए उनकी सराहना की और उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया। साथ ही वन विभाग को इस तरह का मुकदमा दर्ज करने पर कड़ी फटकार लगाई। न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि वन कानून की धारा-16 के तहत पौधारोपण करना कोई अपराध नहीं है।
बाद में वन विभाग ने 2004 में एक निजी संस्था के साथ जब उनके द्वारा लगाए गए पौधों और उससे बने जंगल का अध्ययन किया तो पता चला कि उस वन संपदा की कीमत लगभग 4.50 हजार करोड़ रुपये थी। पौधे लगाने के अपने जुनून के कारण वह हमेशा धूल-मिट्टी में ही रहते थे। जिसकी वजह से उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनकी नजर कमजोर हो चली थी। डाक्टर ने उन्हें इसके लिए धूल-मिट्टी से दूर रहने को कहा, लेकिन विश्वेश्वर दत्त सकलानी को यह बिल्कुल मंजूर नहीं हुआ। वह कहते थे कि अगर मैं पेड़-पौधों के बीच नहीं रहूँगा और नए पौधे नहीं लगाऊँगा तो बहुत जल्दी ही इस अनमोल जीवन को खो दूँगा।
जीवन के अंतिम दिनों तक पेड़ का जुनून
जीवन के अंतिम दिनों में आँखों की बेहद कम हो चली रोशनी के कारण उन्हें घर में रहने को मजबूर होना पड़ा। पेड़ों के प्रति इस तरह का प्रेम रखने वाले ऐसे वृक्ष मानव ने 18 जनवरी 2019 को अपना जर्जर देह त्याग दिया और अपने पीछे छोड़ गए पेड़-पौधों के प्रेम की एक अनंत गाथा।
मुनि की रेती 'टिहरी गढ़वाल' के पूर्णानंद घाट में राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार 19 जनवरी 2019 को किया गया। गंगा तट पर उनके बड़े पुत्र विवेक सकलानी ने अपने छोटे भाइयों शैलेंद्र सकलानी, संतोष सकलानी, राकेश सकलानी के साथ इन्हें मुखाग्नि देकर अंतिम विदाई दी। उनकी अंतिम इच्छा अनुसार, पुजार गाँव स्थित वृक्ष वंशावली वन में उनको याद में परिजनों ने पौधे लगाए। विश्वेश्वर दत्त सकलानी द्वारा तैयार किए गए वृक्ष वंशावली वन में सकलानी वंश के अनेक पूर्वज आज भी पेड़ के रूप में जिंदा हैं। इस वृक्ष वन में जब दिवंगतों के परिजन पहुँचते हैं तो उन्हें अपने पुरखे वहाँ ताजी हवा देते हुए महसूस होते हैं।'