हरियाणा राज्य में जल संसाधनों के प्रबंधन की समस्याएं एवं जियोइंफॉर्मेटिक्स तकनीक द्वारा उनका निदान
जल संसाधनों के सतत विकास व प्रबंधन के लिए इन संसाधनों की सही मात्रा का पता चलना तथा प्रयोग के स्तर के बारे में जानकारी होना बेहद जरूरी है। बढ़ती आबादी, औद्योगिकीकरण व शहरीकरण के कारण जल संसाधनों की उपलब्धता पर लगातार विपरीत प्रभाव पड़ता जा रहा है। एक तरफ पानी की मांग बढ़ी है और दूसरी तरफ पानी की गुणवत्ता पर लगातार प्रदूषण का प्रकोप जारी है। नयी तकनीकों के प्रयोग से इन संसाधनों की मात्रा तथा प्रयोग के स्तर के बारे में कम समय में तथा सही जानकारी प्राप्त करना बेहद सुगम हो गया है। इस तकनीक का नाम है जीयोइनफार्मेटिक्स जियोइंफॉर्मेटिक्स तकनीक सुदूर संवेदन, भौगोलिक सूचना तंत्र, ग्लोबल पोजीशनिंग तंत्र तथा सूचना एवं संवाद प्रौद्योगिकी के संयुक्त प्रयोग की कला है। इन तकनीकों के प्रयोग से किसी भी प्राकृतिक संसाधनों की स्थिति, मात्रा तथा उसके बदलाव के बारे में सुगमता से कम समय में तथा कम खर्चे में तुरंत प्रभाव से जाना जा सकता है। हरियाणा राज्य गंगा तथा सिंधु नदी के जल विभाजन क्षेत्रों के मध्य स्थित है। समय के साथ राज्य में जल संसाधनों के उपयोग व प्रबंधन की दृष्टि से दो तरह की समस्याएं उभरकर सामने आयीं।
राज्य के ऐसे क्षेत्र जहाँ भूजल की गुणवत्ता अच्छे किस्म की है। इन क्षेत्रों में भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण पानी का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। इसका मुख्य कारण गेहूँ तथा चावल की खेती का फसल चक्र भी समझा जाता रहा है। उत्तर तथा दक्षिणी हरियाणा के क्षेत्र इस समस्या से ग्रस्त हैं। इन क्षेत्रों में 1976 से 2010 के बीच कई जगहों पर पानी 15 से 25 मीटर तक नीचे जा चुका है। दूसरी तरफ हरियाणा का मध्य क्षेत्र है। हरियाणा की प्राकृतिक भूआकृति को देखने से पता चलता है कि यह तश्तरीनुमा है। उत्तर में शिवालिक की पहाड़ियां, दक्षिण में अरावली की पहाड़ियाँ तथा पश्चिम में रेतीला क्षेत्र व बालू के टीले हैं। इन सब की उपस्थिति से भूमिगत जल का प्रवाह केन्द्रीय मध्य क्षेत्र की तरफ है। इस कारण इस हिस्से में पानी का स्तर लगातार ऊपर आता जा रहा है। इन क्षेत्रों में भूजल की गुणवत्ता भी खराब है, जिसके कारण इसका उपयोग कृषि तथा अन्य क्षेत्रों में नहीं किया जा सकता। उधर इन क्षेत्रों में सतही जल नहरों द्वारा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अतः उसके उपयोग से भी भूजल का स्तर लगातार ऊपर बना रहता है। सिंचाई की विधियाँ भी काफी पुरानी हैं जिनमें पानी एक मुहाने से खोला जाता है तथा पूरा खेत पर दिया जाता है। इस कारण भी काफी पानी वापिस बहाव के जरिये भूजल से जा मिलता है। हरियाणा के मध्य क्षेत्र में पानी की निकासी के लिए कोई सतही ड्रेन भी नहीं है। इस कारण भी बरसात का पानी इस क्षेत्र से बाहर नहीं जा सकता। इन सभी कारणों का मिला-जुला असर इस क्षेत्र को सेम की समस्या से ग्रसित कर गया है तथा कई क्षेत्रों में पानी का स्तर जड़ क्षेत्र (0-3 मीटर) तक पहुँच चुका है। इन समस्याओं से निपटने के लिए प्रदेश में समग्र जल प्रबंधन नीति की आवश्यकता है। इसके तहत उन क्षेत्रों में जहाँ पानी का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है, वहाँ कृत्रिम जल रिचार्ज की विधियों को अपनाने की जरूरत है तथा ऐसे क्षेत्र जहाँ भूजल की गुणवत्ता खराब है वहाँ ऐसी फसलों की किस्में इजाद करनी पड़ेंगी जो नमकीन पानी को सहन कर सके तथा सही उत्पादन भी दे सके साथ ही सिंचाई की ऐसी विधियों अपनानी पड़ेंगी, जिनसे पानी का उचित प्रयोग हो सके। जीओइनफॉर्मेटिक्स के द्वारा ऐसे क्षेत्रों का पता लगाना, समस्याओं का अध्ययन करना तथा उनसे निजात पाने के लिए उपाय सुझाना आदि बेहतरीन तरीके से तथा जल्द पूरे किये जा सकते हैं। इस तकनीक द्वारा भू-आकृति, मृदा, भू-उपयोग, जल विभाजन क्षेत्रों आदि का चित्रण तथा संख्यात्मक अध्ययन, जल विभाजन क्षेत्रों का प्रबन्धन जैसे चैक डैम, मृदा बांध, गल्ली प्लगिंग, संभावित भूजल क्षेत्रों का चित्रण आदि थोड़े समय में ही तैयार किए जा सकते हैं। इन सभी मानचित्रों के एकीकृत अध्ययन से जल तथा भू-संसाधनों के समुचित प्रबन्धन की कार्य विधि तैयार की जा सकती है। इस प्रपत्र में राज्य में जल प्रबंधन की समस्याओं का तथा जियोइंफॉर्मेटिक्स तकनीक द्वारा उनके निदान को उदाहरणों की सहायता से उद्धृत किया गया है। जियोइंफॉर्मेटिक्स विधि द्वारा तैयार किये गये मानचित्र तथा उन पर आधारित कार्यों को भी उदाहरण की सहायता से दर्शाया गया है।
Critical issues in water resource management of Haryana State, India : Geoinformatics is the solution
The pressure on water resource availability is continuously increasing due to population explosion, industrialization, urbanization and climatic vagaries. Geoinformation technology which emphasizes on the synergistic use of Geographical Information System (GIS), space based Remote Sensing (RS), Global Positioning System (GPS) and Information and Communication Technology (ICT) can easily help in tackling such problems in a better, faster, economic and more efficient manner. These techniques have an edge over the conventional methods due to the advantages of synoptic view, repetitive coverage, and multi resolution satellite data. This helps us in generation of water resources information on various scales. The effective planning for water resources conservation and management at district level can be made if the data is generated on 1:50,000 scale by using medium resolution satellite images. Haryana state may be divided in to three basins, namely the Yamuna basin, the Ghaggar basin and internal basin which are parts of Ganges and Indus system. In northern Haryana, the land area slopes from northeast to southwest, whereas in south, it slopes from southwest to northeast. This makes almost a latitudinal depression along Sirsa- Fatehabad- Hisar-Jind- Rohtak-Delhi axis. This saucer shaped physiography of the state is responsible for many problems related to water resources along this central axis. The groundwater conditions in northern and southern parts of the state are fresh but facing the problem of water level decline due to over exploitation for intensive agriculture purposes. As a result, at present Haryana have problems of over drafting of fresh quality water in northern and southern districts and excessive canal irrigation in the areas of poor/ marginal ground water conditions due to highly water intensive & multiple cropping systems as a result of green revolution. This is creating the two diverse problems that of ground water table declining in the northern and southern part whereas the water logging and salinity in the central portion. This calls for integrated study of water resources in the state for its sustained use.
Looking to the benefits of Geoinformatics technology a number of projects have been taken up in the state by various organizations. The present paper discusses the preparation of ground water prospects maps in various parts of Haryana state on one side and the site selection for artificial recharge of ground water in some other parts. Firstly, Hydrogeomorphological maps on 1:50,000 scale showing different groundwater prospect zones are prepared for different districts in Haryana State, India. These depict ground water worthy features. This information has been supplemented with the available inputs from existing sources about the depth to water level and ground water quality etc. The other maps such as land use land cover, geomorphology, drainage canal network and soils etc have also been consulted for preparing water resources action plan. The maps thus prepared depict different units for further groundwater prospecting. The surface water resources action plan maps have been prepared by integrating geomorphology, slope, drainage, soil maps and various sites have been suggested for site specific water resources conservation measures such check dams/ gully plugging, earthen dams etc. The information thus developed has been submitted to various departments involved in the planning and management of natural resources in the state for further implementation of the activities suggested in different areas.
हरियाणा राज्य एक कृषि प्रधान प्रदेश है तथा हरित क्रांति का फायदा उठाने में इस राज्य ने अग्रणी भूमिका अदा की है। उच्च उत्पादकता वाली फसलों की किस्म तैयार करने की बात हो या कृषि की सघनता व उत्पादकता की बात हो यह राज्य सदैव अग्रणी श्रेणी में रहा है।
प्राकृतिक कारणों में सबसे महत्वपूर्ण कारण इसकी स्थिति है। हरियाणा राज्य गंगा तथा सिंधु नदी के विभाजन क्षेत्रों के मध्य स्थित यमुना गंगा का मैदान है। यह क्षेत्र उत्पादकता की दृष्टि से तो सर्वोत्तम है ही लेकिन पानी की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता, इस राज्य की उच्च उत्पादकता का एक महत्वपूर्ण कारक है। हर कामयाबी कुछ समस्याओं को भी जन्म देती है, उसी तरह इस राज्य में भी भूजल के अत्यधिक दोहन तथा सतही पानी की अधिक उपलब्धता के कारण कई तरह की समस्याएं उत्पन्न हो गयीं।
ऐसे क्षेत्र जहाँ भूजल की गुणवत्ता अच्छी थी, अधिक दोहन के कारण भू-जल स्तर लगातार नीचे गिरता चला गया तथा कृषि क्षेत्र जहाँ भू-जल की गुणवत्ता खराब थी, अधिक सतही पानी के प्रयोग के कारण तथा भूजल की अनुपयोगिता के कारण भूजल स्तर लगातार ऊपर आता चला गया। इसका एक प्रमुख कारण गेहूं-चावल फसल चक्र को भी माना जाता है। परिणामतः इस राज्य के उत्तरी, पूर्वी तथा दक्षिणी क्षेत्रों में जहाँ भूजल की गुणवत्ता अच्छी थी भूजल स्तर 1970 से लेकर अब तक कई जगहों पर पन्द्रह से बीस मीटर तक नीचे चला गया। जबकि मध्य क्षेत्र में जिसे झज्जर, रोहतक, जींद तथा सिरसा अक्ष के नाम से भी जाना जाता है भूजल की गुणवत्ता खराब होने के कारण सेम व कई जगह दल दल जैसी समस्याएँ भी उत्पन्न हो गयीं। इस वजह से इन क्षेत्रों में सतह पर नमक जमा होना शुरू हो गया।
इस राज्य की प्राकृतिक संरचना का भी इन समस्याओं में एक अहम योगदान है। इस राज्य की तश्तरीनुमा भू-आकृति जिसमें उत्तर में शिवालिक की पहाड़ियां तथा दक्षिण में अरावली की पहाड़ियां काफी हद तक उत्तरदायी हैं। इस कारण इस राज्य के जल संसाधनों की समस्याओं तथा निदान के बारे में जानना और प्रेरणास्पद बन जाता है। जल संसाधनों के उचित प्रबन्धन के लिए 1:50,000 स्केल पर तैयार नक्शे तथा आँकड़े काफी लाभदायक होंगे। जल संसाधनों के उचित प्रबन्धन के लिए सबसे अहम् जानकारी उसकी स्थिति तथा बदलाव के बारे में मूल सूचना प्राप्त करना है। उसके साथ फसल चक्र, फसलों द्वारा पानी की मात्रा का प्रयोग व उससे जुड़े आँकड़े अगर मिल जाएं तो जल संसाधनों के उचित प्रबन्धन का रास्ता साफ हो जाता है। इस दिशा में सुदूर संवेदन तकनीक, भौगोलिक सूचना प्रणाली, भू स्थित तन्त्र तथा सूचना एवं संचार तकनीक काफी भरोसेमंद व फायदेमंद साबित होंगी। इन तकनीकों के समग्र वर्ग को ही जियोइनफॉर्मेटिक्स के नाम से जाना जाता है। जीयोइनफॉर्मेटिक्स विधि द्वारा जल संसाधनों का मापन, आंकलन तथा प्रबंधन बेहतर तथा प्रबुद्ध तरीके से किया जा सकता है तथा यह अन्य प्रचलित तकनीकों से ज्यादा तेज, सुगम तथा कम लागत में बेहतर जानकारी उपलब्ध करवा सकते हैं। जीयोइनफॉर्मेटिक्स तकनीक का प्रयोग भारत तथा विदेशों में इक्कीसवीं सदी में शुरू हुआ तथा अब इसके अनुप्रयोग प्रभावी तरीके से कई क्षेत्रों में फैल गये हैं।
भारत में जल संसाधनों के क्षेत्र में नये क्षेत्रों का पता लगाना, नई प्रबंधन तकनीकों का सुझाव, गुणवत्ता का क्षेत्रीय वर्णन, जल बजट आदि क्षेत्रों में कार्य हुए हैं। इसी तरह के कार्य अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी चल रहे हैं। इन सभी कार्यों में जियोइंफॉर्मेटिक्स के अलग-अलग घटकों पर ज्यादा जोर दिया गया था जबकि अब इन सभी विधियों में सामंजस्य बिठाकर चलने की जरूरत है।
इस शोध पत्र के निम्न दो मुख्य उद्देश्य हैं:
- हरियाणा राज्य के जल संसाधनों की समस्याओं के बारे में जानना।
- उनके उचित निदान के लिए जियोइंफॉर्मेटिक्स विधि के उपयोग पर एक दृष्टान्त डालना।
हरियाणा जो कि भारत का एक उत्तरी राज्य है, 44212 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैला हुआ है। यह 21°35 से 31°55.5' उत्तरी अक्षांश तथा 74°22.85 से 77 35.6' पूर्व देशान्तर में फैला हुआ है। इसके उत्तर में शिवालिक की पहाड़ियाँ, दक्षिण में अरावली की पहाड़ियाँ, पूर्व में यमुना नदी तथा पश्चिम में घग्गर नदी है। यह क्षेत्र भारतीय सर्वेक्षण विभाग की मानचित्र संख्या 44K, O, P] 53-C, D.F.GH तथा E में आता है। पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर, पूरा प्रदेश औसत समुद्र स्तर से 200 से 300 मीटर की ऊँचाई पर है। इसकी सतह का औसत ढलान उत्तर पूर्व से दक्षिण पश्चिम की तरफ है तथा उत्तरी भाग में दक्षिण की तरफ तथा दक्षिण भाग में उत्तर की तरफ होने के कारण तश्तरीनुमा भू-आकृति को चित्रित करता है।
इस प्रदेश का ज्यादातर क्षेत्र गंगा के मैदानी क्षेत्र में आता है। इस राज्य की घग्घर, टांगरी, मारकंडा, चौटांग तथा सरस्वती नदियां शिवालिक क्षेत्र से उत्पन्न होती हैं जबकि साहिबी, कृष्णावती व दोहन नदियां अरावली क्षेत्र से उत्पन्न होती हैं। ये सभी नदियाँ बरसाती नदियाँ हैं। केवल पूर्वी क्षेत्र में यमुना नदी ही एक मात्र ऐसी नदी है जो सभी ऋतुओं में बहती रहती है। हालांकि इसमें गरमी के मौसम में पानी बहुत ही कम रह जाता है। प्रदेश का 88% हिस्सा पर खेती होती है तथा फसल सघनता 150% से भी ज्यादा है। प्रदेश की प्रमुख फसलों में गेहूँ, चावल, मक्का, चना, ज्वार, बाजरा, ग्वार आदि प्रमुख हैं। प्रदेश की भौगोलिक स्थिति तथा सुदूर संवेदी उपग्रह चित्र क्रमशः चित्र 1 व चित्र 2 में दर्शाए गए हैं।
इस शोध कार्य के लिए भारतीय सुदूर संवेदी उपग्रह (आई. आर. एस.) 1 के चित्र उपयोग में लाए गए हैं। यह चित्र फरवरी, अक्तूबर तथा मई महीनों के हैं। फरवरी तथा अक्टूबर माह के चित्रों की सहायता से फसलों के बारे में जानकारी प्राप्त हो जाती है तथा उनकी सघनता के आधार पर जल की उपलब्धता तथा प्रयोग का मापन किया जा सकता है। भू-आकृति के मानचित्रण के लिए मई का चित्र काफी उपयोगी रहता है, क्योंकि इस समय फसलों की कटाई होने के कारण जमीन खाली होती है तथा छोटी-छोटी भू-आकृतियों के मापन में भी यह काफी मददगार होती है। इसके साथ ही विभिन्न जिलों से भू-जल की गहराई तथा गुणवत्ता के आँकड़े भू-जलकोष कृषि विभाग हरियाणा से बिन्दु आंकड़ों के रूप में इकट्ठा किए गए। इसके अलावा भारतीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा तैयार किये गये मानचित्रों को आधारभूत सूचना के लिए प्रयोग किया गया। इन सभी मानचित्रों को सिलसिलेवार भौगोलिक सूचना प्रणाली में डिजिटाइज कर डाला गया तथा सभी में त्रुटियों को दूर करके एक ही प्रोजेक्शन में तथा एक ही स्केल पर तैयार किया गया।
उपग्रह चित्रों को भू-आकृति मानचित्र बनाने के लिए प्रयोग किया गया तथा इसके साथ ही भू-जल की गहराई तथा गुणवत्ता के बिन्दु आंकड़ों को बहुआयामी क्षेत्रों में बदल कर नक्शे तैयार किए गए। इन सभी नक्शों को समान मापन तथा विभिन्न क्षेत्रों के दौरे पर प्राप्त की गई सूचना के साथ सही किया गया। इस प्रकार इन नक्शों को अंतिम रूप दिया गया। फिर भौगोलिक सूचना प्रणाली द्वारा इन सभी को इन्टीग्रेट किया गया तथा अंतिम नक्शा इन सभी नक्शों के कारकों पर आधारित एक समग्र नक्शा बन पाया। इस एक नक्शे में जल उपलब्धता, दोहन, गुणवत्ता का गहराई इन सभी की जानकारी एक साथ दर्शाई गई है। इस तरह के नक्शे सिलसिलेवार सभी राज्यों के तैयार किए गए तथा इन पर आधारित निष्कर्षो पर पहुंचा गया।
प्राप्त सूचना को दो भागों में प्रदर्शित किया गया है। पहला भाग भू-जल की समग्र जानकारी तथा चित्रण व दूसरा भाग सतही जल के बारे में जानकारी व चित्रण, इनको भू-जल संसाधन प्रबन्धन योजना तथा सतही जल प्रबन्धन योजना के तहत तैयार किया गया। इनको एक उदाहरण के साथ यहाँ वर्णित किया जा रहा है। समग्र भू-जल प्रबंधन योजना चित्र 3 में दर्शायी गई है।
यह चित्र हरियाणा के दक्षिणी जिले महेन्द्रगढ़ का दक्षिणी हिस्सा है। इसमें भू-आकृति, संभावित भू-जल क्षेत्र, भू-जल गुणवत्ता तथा 'भू-जल गहराई के मानचित्रों को एक साथ संग्रहित किया गया है। इस क्षेत्र के ज्यादातर हिस्से में नदी-वायु मैदान है जो मूलतः नदी द्वारा लायी गई मिट्टी से बना है, लेकिन उसके ऊपर वायु द्वारा लाया गया रेत जमा हो गया है। इस क्षेत्र की पहाड़ियाँ उत्तर दक्षिण में संकरी लम्बाई में हैं जो मूलतः अरावली की पहाड़ियाँ हैं । कुछ क्षेत्रों में जलोढ़ मैदान तथा अन्य क्षेत्र में वायूढ़ मैदान तथा बालू रेत के ढेरों की उपस्थिति है। यह सभी वस्तुस्थितियाँ शुष्क क्षेत्र का इशारा करती हैं।
इस क्षेत्र में रेगिस्तान किस्म की वनस्पतियों की प्रचुरता है तथा कुछ औषधीय पौधे भी पाये जाते हैं। इस चित्र में दर्शाये गये विभिन्न क्षेत्रों का वर्णन निम्न प्रकार है:
क्षेत्र संख्या | क्षेत्रों का वर्णन |
क्षेत्रफल वर्ग किमी. |
1 | 0.52 | .08 |
2 | 21.13 | 3.25 |
3 | 77.95 | 12.00 |
4 | 8.31 | 1.28 |
5 | 8.86 | 1.36 |
6 | 122.71 | 18.89 |
7 | 163.40 | 25.15 |
8 | 11.19 | 1.72 |
9 | 235.33 | 36.72 |
कुल योग | 649.58 | 100.00 |
सभी नक्शों को एकीकृत कर बनाये गये अन्तिम नक्शे में उन सभी भागों को जिनमें भू-जल मिलने की संभावना बहुत अच्छी है तथा गुणवत्ता भी अच्छी है क्षेत्र में रखा गया है। इसका कुल क्षेत्र बहुत ही कम है। क्षेत्र 2 में उन सभी क्षेत्रों को रखा गया है, जहां भू-जल मिलने की संभावना अच्छी है तथा गुणवत्ता भी अच्छी है। ऐसा क्षेत्र कुल क्षेत्रफल का कुल 3.25% है। तीसरे क्षेत्र में उन सभी क्षेत्रों को शामिल किया गया है, जहाँ भू-जल मिलने की संभावना मध्यम है। लेकिन गुणवत्ता अच्छी है, उदाहरण के लिए बालू रेल के टिब्बे । चौथे क्षेत्र में उन सभी जगहों को रखा गया है जहाँ भू-जल मिलने की संभावना कम है, लेकिन गुणवत्ता अच्छी है। ये क्षेत्र हैं पहाड़ों की तलहटी वाले क्षेत्र तथा पहाड़ों में अपभ्रंश तथा दरारों की वजह से बने क्षेत्र पाँचवें क्षेत्र में ऐसी जगहों को रखा गया है जहाँ भू-जल मिलने की संभावना बहुत अच्छी है। लेकिन गुणवत्ता मध्य क्रम की है। छठें क्षेत्र में ऐसी जगह हैं जहाँ पर भू-जल मिलने की संभावना अच्छी तथा गुणवत्ता मध्यम किस्म की है। सातवाँ जोन ऐसी जगहों को दर्शाता है। जहाँ भू-जल की गुणवत्ता तथा मिलने की संभावना दोनों मध्यम स्तर की हैं। आठवें जोन में उन जगहों को दर्शाया गया है जहाँ भू जल मिलने की संभावना कम है लेकिन गुणवत्ता मध्यम है। नौवें क्षेत्र में उन सभी जगहों को रखा गया है जहाँ पानी की गुणवत्ता खराब या ज्यादा खराब है। यह क्षेत्र कुल क्षेत्रफल का 36.27% है तथा सबसे ज्यादा जगह पर पाया जाता है।
इस नक्शे के ऊपर भू-जल की गहराई को दर्शाते हुए समोच्च रेखाओं को भी अंकित किया गया है जिससे किसी भी क्षेत्र में संभावनाओं के साथ-साथ गुणवत्ता व गहराई का आंकलन भी एक नक्शे से हो जाय। इस तरह के नक्शे पूरे प्रदेश स्तर पर तैयार होने से किसानों को इसका बहुत लाभ होगा। इसी तरह सतही जल प्रबन्धन योजना भी इस क्षेत्र में तैयार की गई है। जिसमें किस जगह चेक बाँध बनाना है, कहाँ पर मिट्टी का बाँध बनाना है तथा कहाँ कहाँ पर अवनालिका मुँहबन्दी (गली प्लगिंग) करनी है, आदि को दर्शाया गया है। यह कृत्रिम भू-जल पुनर्भरण तथा मृदा क्षय रोकने का काम करेगा। इन दोनों योजनाओं को एकीकृत ढंग से लागू करने से उस क्षेत्र के जल संसाधनों का बेहतर तरीके से प्रबन्धन किया जा सकता है।
प्रस्तुत शोध पत्र से पता चलता है कि यदि जियोइंफॉर्मेटिक्स विधि का सही तरीके से उपयोग किया जाए तो प्रदेश में जल के बेहतर प्रबंधन तथा उससे जुड़ी समस्याओं का बेहतर तरीके से निदान किया जा सकता है। इस विधि से समस्या ग्रस्त क्षेत्रों का सचित्र प्रतिनिधित्व किया जा सकता है। इस तरह प्रबन्धन स्तर पर, योजना स्तर पर व निर्णायकों के स्तर पर इन चीजों का बेहतर कार्यान्वयन किया जा सकता है।
- गोयल एस के एवं चौधरी बी एस. "हरियाणा राज्य के कैथल जिले में जीआईएस विधि द्वारा भू-जल की गहराई तथा गुणवत्ता का वितरण व अध्ययन" भारतीय भू-भौतिकी संघ शोध पत्रिका, 14 ( 2 ) (2010).
- चौधरी बी एस कुमार एम, रॉय ऐ के एवं रूहाल डी एम, "सुदूर संवेदन तथा भौगोलिक सूचना प्रणाली का भूजल खोज में उपयोग सोहना खण्ड, गुड़गांव जिला (हरियाणा) आई. ऐ. पी. आर. एस., 34 (बी-6) (1996) 18-29.
- चौधरी बी एस एवं सिन्हा ए के "सुदूर संवेदन तथा जी. आई. एस.द्वारा भू-जल स्रोतों का अध्ययन, हरियाणा राज्य के दक्षिणी हिस्से में II EARSEL वर्कशाप ग्रन्थ, दोन जर्मनी (2002) 199-202.
- चौधरी बी एस, पीएच. डी. शोध ग्रन्थ, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर, (2003).
- चौधरी बी एस एवं अग्रवाल सन्दीप, हिसार जिले के हिस्सों में लुप्त नदी तथा भूजल का सुदूर संवेदन तथा भौगोलिक सूचना प्रणाली विधि द्वारा चित्रण, स्प्रिंगर शोध पत्रिका फोटो निर्वाचक 37 (2009)
- 251-260. 6. चौधरी बी एस, सुदूर संवेदन व जी. आई. एस. से भारत के जल संसाधनों का सर्वेक्षण व आकलन अन्तर्राष्ट्रीय गोष्ठी, भू-भौतिकी विभाग, विशाखापतनम विश्वविद्यालय (2011).
लेखक परिचय - लेखक भू-भौतिकी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र 136 119 में कार्यरत हैं।
स्रोत :