जल एवं नदी घाटी प्रबंधन एक चक्रीय प्रक्रिया,PC-exammaharathi
जल एवं नदी घाटी प्रबंधन एक चक्रीय प्रक्रिया,PC-exammaharathi

जल एवं नदी घाटी प्रबंधन एक चक्रीय प्रक्रिया

नदी घाटी प्रबंधन के लिए सर्वप्रथम घाटी में उन सभी अवयवों जो नदी एवं संबंधित जल, जमीन और जंगलों जैसे संसाधनों पर अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव डालते हों की पहचान की जानी चाहिए उपलब्ध आँकड़ों एवं जानकारी के आधार पर क्षेत्र में सभी जल, जमीन और जंगलों से जुड़े संसाधनों की पहचान करके सभी हितधारकों के सहयोग से संबंधित मुद्दों का व्यापक विश्लेषण एवं उस पर समग्र चिंतन होना चाहिये। सभी समस्याओं एवं विघटन की ओर बढ़ रहे संसाधनों को चिन्हित कर इनके स्थानीय स्तर पर संभावित समाधान ढूँढने चाहिए। विषय विशेषज्ञ एवं तकनीकी जानकारों के सहयोग से प्रकृति संरक्षण समन्चित वैज्ञानिक समाधानों का अध्ययन होना चाहिए।
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नदी घाटी प्रबंधन से अभिप्राय उन सभी प्राकृतिक अथवा कृत्रिम संरचनाओं एवं प्रक्रियाओं के प्रबंधन से है जो नदी घाटी क्षेत्र में सभी जल संसाधनों के माध्यम से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नदी से जुड़े हैं चित्र के माध्यम से इस प्रक्रिया को समझाने का प्रयास किया गया है। सामान्य समय मे जल एवं जल संसाधन के उचित एवं सतत उपयोग के अतिरिक्त नदी घाटी प्रबंधन में निम्म कुछ बिन्दु अवश्य सम्मिलित होने चाहिए।  

  • विपरीत परिस्थितियों में भी जल सुरक्षा, जल बजट 
  •  नदी घाटी क्षेत्र में जलीय स्थलीय जीव एवं पादपों का संरक्षण एवं विकास
  • जल स्रोतों से होने वाले बाद एवं सूखे जैसे हालातों के प्रबंधन हेतु योजना 
  • स्थानीय एवं क्षेत्रीय जरूरतों जैसे खाद्यान / कृषि, ऊर्जा, परिवहन एवं जलीय जीवों हेतु आवश्यकताओं के लिए जल, जमीन और जंगलों का संतुलित उपयोग 
  • स्थानीय स्तर पर नदी घाटी प्रबंधन समिति का गठन समिति का सभी हितधारकों के सहयोग सेक्षेत्र के गणमान्य एवं सर्वमान्य प्रतिनिधि के नेत्रत्व में नदी संरक्षण के कार्यों हेतु मार्गदर्शन

इन सबके अतिरिक्त स्थानीय समस्याओं के निराकरण हेतु प्राथमिकता के आधार पर उनके समधान एवं लक्ष्य निर्धारित कर उनको प्राप्त करने का संभावित मार्ग एक नदी घाटी प्रबंधन को और अधिक प्रभावी बना सकता है। जैसा कि ऊपर चित्र में दिखाया गया है, नदी घाटी प्रबंधन के लिए सर्वप्रथम घाटी में उन सभी अवयवों जो नदी एवं संबंधित जल, जमीन और जंगलों जैसे संसाधनों पर अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव डालते हों की पहचान की जानी चाहिए उपलब्ध आँकड़ों एवं जानकारी के आधार पर क्षेत्र में सभी जल, जमीन और जंगलों से जुड़े संसाधनों की पहचान करके सभी हितधारकों के सहयोग से संबंधित मुद्दों का व्यापक विश्लेषण एवं उस पर समग्र चिंतन होना चाहिये। सभी समस्याओं एवं विघटन की ओर बढ़ रहे संसाधनों को चिन्हित कर इनके स्थानीय स्तर पर संभावित समाधान ढूँढने चाहिए। विषय विशेषज्ञ एवं तकनीकी जानकारों के सहयोग से प्रकृति संरक्षण समन्चित वैज्ञानिक समाधानों का अध्ययन होना चाहिए। यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि नदी एवं क्षेत्र के सभी संसाधनों की मानव उपयोग हेतु सीमा निर्धारित होनी चाहिए ताकि नदी के स्वरूप को अक्षुण रखते हुए उससे प्राप्त होने वाले मूर्त एवं अमूर्त लागों लाभों की सतत उपलब्धता निश्चित की जा सके। इसके लिए आवश्यक है कि स्थानीय स्तर पर भौगोलिक सीमा में सभी प्राकृतिक एवं कृत्रिम रूप से आवक एवं जावक जल के अनुमान के साथ विभिन्न उपयोगों हेतु वार्षिक जल बजट तैयार किया जाये। इस बजट के आधार पर सतत उपयोग के साथ, नदी घाटी में अन्य अवयवों के प्रभावों का अध्ययन करना चाहिए।

मानव समाज के विकास एवं जनसंख्या वृद्धि के साथ प्राकृतिक संसाधनो के दोहन एवं उपयोग में भी वृद्धि हुई है। आवश्यक साधनों के उत्पादन के लिए भू-जल के अत्यधिक उपयोग के अतिरिक्त सतही जल से भी जल निकाला जा रहा है, प्राकृतिक रूप से वर्षा जल पर निर्भरता की अपेक्षा यह स्थिति असंतुलन उत्पन्न कर रही है। इसके अलावा अन्य कई कृत्रिम कारणों से जल की गुणवत्ता, मात्रा, एवं स्थान में परिवर्तन हुए है एवं निरंतर होते जा रहे हैं। मानव सभ्यता के सतत विकास के लिए यह आवश्यक है कि जल जैसे अति आवश्यक तत्व के  संरक्षण इसके के विकास के माध्यम से समन्धित मानव विकास के बारे मे सोचा जायें।

अगर मानव नदियों एवं जलीय जीवों के हित न  सोच कर केवल मानव हित का सोचता है तो भी यह समझा आना चाहिए कि नदियों के सतत एवं अत्यधिक उपयोगी होने के लिए उन एवं उनके घाटी क्षेत्र का स्वस्थ होना बहुत आवश्यक है पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते यह सटीक लगती है क्यूंकी कोई भी बड़ी नदी किस रूप में होगी इसका निर्धारण उसमें आकर मिलने वाली छोटी नदियों की स्थिति से हो सकता है. यह छोटी नदियों के मिलकर इसकी नदी का निर्माण करती है बल्कि नदी के बेसिन की वास्तविकता से परिचित करवाती हैं। अतः यह आवश्यक है कि नदी संरक्षण की पहल इन छोटी नदियों के संरक्षण से ही की जाये।

अर्थ-गंगा का तात्पर्य किसी भी नदी का समग्र मूल्यांकन है। मूल्याकन में मूर्त मूल्य भौतिक या आर्थिक ( वस्तुएं जैसे पानी तलछट, पोषक तत्व जैव विविधता आदिय और सेवाएं जैसे बाढ जल निकासी, नेविगेशन, आदि) और अमूर्त मूल्य (अगणनीय लाभ जैसे सौंदर्य, गूढ़ आध्यात्मिक और अन्य कालातीत मूल्य) दोनों को समुचित आकार एवं प्रकार में सम्मिलित करना है। यह मूर्त तथा अमूर्त मूल्य संयुक्त रूप से किसी भी नदी के समग्र मूल्य को दर्शाता है जो कि 'अर्थ-गंगा' का सही मायना समझाता हैं। उपरोक्त दो प्रकार के मूल्यों में से केवल मूर्त मूल्यों की ही मानव उपयोग अथवा आर्थिक आधार पर गणना की जा सकती है। किसी भी स्वस्थ नदी, जिसमे मानव उपयोग की वजह से केवल अल्प परिवर्तन आए हो, के मूर्त तथा अमूर्त दोनों ही मूल्य अधिकतम हो सकते हैं, परंतु यदि नदी के किसी भी स्वरूप में विघटन होता है तो यह दोनों ही मूल्य अपने निम्न स्तर की ओर जा सकते हैं (चित्र 2)। इस प्रकार अमूर्त एवं मूर्त मूल्य आपस में जुड़े है, तथा नदी संरक्षण के बिना इनका अधिकतम योग प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

जब नदी पुनरुद्धार और संरक्षण की बात की जाती है तो यह समझना आवश्यक है कि नदियों का विघटन होने के पीछे जो कारण या अवयव है उनका मानव एवं अन्य जीवों के जीवन में भी प्रभाव है, नदी संरक्षण के समय कुछ निम्न बातों का विशेष ध्यान रखना आवश्यक हैं 

  • नदी को प्रभावित करने वाले कृत्रिम कारकों के महत्व अथवा प्रभाव को किस सीमा तक कम किया जा सकता है नदियों के सतत संरक्षित रहने में इनसे प्राप्त लाभों का सीमा क्या होनी चाहिए?
  • नदियों से प्राप्त अधिकतम मूर्त एवं अमूर्त लाभों को सतत बनाए रखने के लिए नदी के प्राकृतिक स्वरूप मे अधिकतम कितना बदलाव संभव है?
  • नदी एवं जल संसाधनों के संरक्षण के साथ आर्थिक विकास को समन्वित रूप से देखा जाना चाहिए 

नदियों का पुनरुद्धार और संरक्षण एक लगातार बदलते रहने वाली प्रक्रिया है जो बदलती मानवीय जरूरतो गतिविधियों और विकास पर निर्भर है। अक्सर नदी संरक्षण के लिए किए जाने वाले कार्यों को उचित आंकलन  केबिना अनौपचारिक आधार पर तय किया जाता है जबकि सही लक्ष्यों को  प्राप्त करने के लिए नदी संरक्षण की शुरुआत नदी प्रक्रियाओं और मानव गतिविधियों के जटिल प्रभावों की समझ और इस समझ को हितधारको से चर्चा और आपसी सहमति / समझौते के माध्यम से रणनीति और नीति निर्माण यदि आवश्यक हो तो कानून बनाकर योजनाओं के माध्यम से, उचित संसाधनों का आवंटन कर डिजाइन, मूल्यांकन एवं फीडबैक के द्वारा किया जाना चाहिये। जैसा की चित्र 3 (अ) मे दिखाया गया है कि इस पूरी चक्रीय प्रक्रिया में हित धारकों से वार्ता और समझौताकारी तालमेल बनाना एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम है, चित्र 3(ब) मे इस तालमेल के विभिन्न संभावित घटकों को प्रदर्शित किया गया है। विशेषज्ञों की समझ, विषय पर व्यापक चर्चा विभिन्न विकल्पों की पहचान करना हितधारकों के बीच विकल्पों का प्रभावी आदान प्रदान हितधारकों के हितों की पहचान करना और व्यापक चर्चा द्वारा समझौताकारी समन्वय तक पहुंचना, प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा है। ये सभी घटक मिलकर एक चक्रीय प्रक्रिया बनाते हैं जो पिछली चक्रीय प्रक्रिया के फीडबैक, नई वैज्ञानिक समझ और नदियों पर नए मानवजनित प्रभावों की समझ के आधार पर समय के साथ स्वयं में सुधार करता रहता है।

नदियों ना केवल जल एवं उपजाऊ मृदा का स्रोत है बल्कि समय के साथ इनका उपयोग ऊर्जा उत्पादन नौपरिवहन मनोरंजन एवं पर्यटन हेतु जल खेल इत्यादि के लिए भी होने लगा है। इन सबके अतिरिक्त, नदियों अपने बेसिन क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए आवश्यक वस्तुऐं एवं परिस्थितियाँ प्रदान करती है। जैसा कि अब हम जानते हैं कि छोटी नदियाँ बड़ी नदियों के लिए जल एवं उपजाऊ मृदा लाती है यह समझना भी आवश्यक है कि जलीय जीव जन्तुओं में अनेक प्रजातियाँ ऐसी है जो या तो छोटी नदियों के माध्यम से बड़ी नदी में जाती है अथवा वर्ष या अपने जीवन काल के कुछ महत्वपूर्ण समय से बढ़ी नदियों से छोटी नदियों की तरफ जाती है। कुछ प्रजातियाँ प्रजनन एवं सुरक्षा के लिए कुछ समय के लिए छोटी नदियों को बड़ी नदियों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण एवं सुरक्षित मानती हैं। अब यह समझना संभवतः और भी आसान हो गया है कि नदी संरक्षण की शुरुआत उसकी प्राथमिक इकाई छोटी नदियों से किया जाना ही सार्थक एवं उचित है। बढ़ते औद्योगीकरण एवं शहरीकरण के कारण छोटी-छोटी सहायक नदियाँ जो शहरी बस्तियों से या उसके आस-पास से बहती है, की स्थिति अवसर खराब होना शुरू होती है जो बाद में धीरे धीरे उच्चस्तर की नदियों को दूषित करने लगती हैं। इन परिवर्तनों का अवसर नदिया और जल निकायों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। आधुनिक समय में नदियों / जल सम्पदा की खराब होती स्थिति का मनुष्यों पर भी समान रूप से विनाशकारी परिणाम हुआ है अप्रत्याशित बाढ़, सूखा और जल जनित रोग सबसे आम समस्याएं हैं। मानव के बदलते हुए रहन-सहन के तौर तरीकों जल उपयोग की बढ़ती हुई जरूरतो एवं पैटर्न में बदलाव के कारण जल सम्पदा पर एक अतिरिक्त दबाव उत्पन्न हुआ है जो हमें जल संसाधनों के इष्टतम उपयोग के बारे में सोचने के लिए मजबूर करता है। नदियों और जल निकायों से प्राप्त होने वाले सतत लाभों को वर्तमान और भावी पीड़ियो के लिए भी सतत बनाए रखने के लिए नदियों का पुनरुद्धार और संरक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण है।

  • नदी से जुड़े विभिन्न मुद्दों को ठीक प्रकार से समझना ताकि अन्य हितधारकों को आसानी से समझाया जा सके एवं चर्चा के लिए उचित मुद्दों का चयन किया जा सके मुद्दों को सुलझाने के लिए उचित संभावित समाधानों पर भली प्रकार से सभी हितधारकों के माध्य तटस्थ रूप से चर्चा की जा सके, यह प्रस्तावित समाधान किसी भी हितधारक के व्यक्तिगत हित को पोषित ना करते हो। 
  • परस्पर तालमेल से नदी संरक्षण एवं आवश्यक आर्थिक एवं क्षेत्रीय विकास के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की जाये

छोटी-छोटी सहायक नदियों / नालों के पुनरुद्धार से तत्कालीन आर्थिक, पर्यावरणीय, सौंदर्य और सांस्कृतिक लाभ प्राप्त होते हैं, और वे बड़े जनसंख्या समूहों को प्रभावित करते हैं। जैसा की इस पत्र मे पहले भी चर्चा की जा चुकी है सहायक नदियों / नालों का पुनरुद्धार शेष बेसिन में उच्च स्तर की नदियों के पुनरुद्धार पर व्यापक प्रभाव डाल सकते है। यह एक बॉटम-अप अप्रोच (एक सही पिरामिड का निर्माण) है जो टॉप-डाउन प्रक्रिया (उल्टे पिरामिड) के विपरीत स्थिरता सुनिश्चित करता है (चित्र 4) अगर किसी नदी का अधिकतम घाटी क्षेत्र पठारी हो परंतु उसकी एक विशेष सहायक नदी अपेक्षाकृत कम पठारी क्षेत्र से आती हो तो संभवतः यह सहायक नदी उस मुख्य नदी एवं उसमे जीव जन्तुओं के लिए आवश्यक मृदा की आपूर्ति के लिए एक मात्र स्त्रोत हो सकती है। इस प्रकार किसी भी नदी के सतत संभावित अधिकतम उपयोग के लिए भी यह आवश्यक है कि उसकी समस्त सहायक नदियाँ अपना अधिकतम योगदान दें। कृषि हेतु जल, उपजाऊ भूमि निर्माण कार्य हेतु सामग्री, पे जल स्रोत के रूप मे तथा अन्य विभिन्न प्रकारों से नदियाँ अपने बहाव क्षेत्र के आर्थिक विकास मैं सतत योगदान देती हैं, इस विकास को सतत बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि नदी के प्राकृतिक स्वरूप में बदलाव से प्राप्त लाभों की सीमा निर्धारित हो।

किसी भी नदी के संरक्षण एवं घाटी प्रबंधन का कार्य एक स्थिर प्रक्रिया ना होकर परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशील होना चाहिए, नदी तंत्र से संबंधित पर्यावरणीय समस्याओं की पहचान एवं उनके निवारण के लिए उपाय तात्कालिक उपलब्ध ज्ञान एवं संसाधनों के अनुरूप बदलते रहते हैं। इन समाध्यनों में विभिन्न व्यक्तियों राजनीतिक नेतृत्व, समाजसेवी, गणमान्य व्यक्ति, धर्म गुरु वैज्ञानिक एवं तकनीकी विषय विशेषज्ञ औद्योगिक संगठनों, शासकीय घटकों, कार्यकारी एवं अन्य संस्थानों, समाचार जगत एवं हितधारकों इत्यादि की राय सदैव निर्णायक भूमिका वहन करती है जैसा कि चित्र 5 में दर्शाया गाया है। चूंकि इन सभी के अपने व्यक्तिगत हित हो सकते हैं, इन सभी को वार्ता एवं समझौते के माध्यम से एक पटल पर लाना आवश्यक है जहाँ से नदी घाटी संरक्षण के बारे में उचित निर्णय लिए जा सकें।

यथा संभव इन सभी के सहयोग से स्थानीय स्तर पर प्रत्येक नदी घाटी के प्रबंधन के लिए एक समिति एवं कार्यकारी समूह का गठन किया जाना चाहिए जो कि निम्न कुछ प्रमुख कार्यों को नदी संरक्षण को ध्यान में रखते हुए क्षेत्रीय प्राथमिकता के आधार पर पूर्ण कर सकें।

  • आवश्यक सूचना एवं राज्यों का संकलन कर उनके आधार पर नदी पुनरुद्धार एवं संरक्षण के स्तर का निर्धारण
  • घाटी क्षेत्र में नदी संरक्षण में बाक अवयवों की पहचान 
  •  नदी में आवश्यक जल, नदी के बहाव क्षेत्र संबंधित जल-तंत्र, जीव जन्तु भू-आकृति इत्यादि की पहचान
  • नदी संरक्षण के तात्कालिक एवं दीर्घकालिक लक्ष्यों का प्राथमिकता के आधार पर निर्धारण
  • मुद्दे को समझ कर आम हितधारक तक पहुंचाना एवं तालमेल के साथ उनके समाधान निकालना

नदी घाटी प्रबंधन एक सतत प्रक्रिया होनी चाहिए जिसमे कुछ विशेष कार्य निम्न प्रकार सुझाए जा सकते हैं:

सभी बारहमासी नदियों, अथवा जो बारहमासी बनाई जा सकती हैं ऐसी नदियों मे अनवरत जल, गाद एवं अन्य आवश्यक प्राकृतिक बहाव सुनिश्चित करना आवश्यक है। इस बहाव के निर्धारण के समय सभी कारकों एवं जलीय जीव जन्तुओं एवं नदी के स्वरूप को ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है । इसमें क्षेत्रीय जल बजट महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

नदी मे जल की गुणवत्ता उसमे रहने वाले जलीय जीवों एवं इससे प्राप्त मूर्त एवं अमूर्त लाभों को सतत प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। इसलिए, क्षेत्र में विभिन प्रकार के प्रदूषण स्रोतों की पहचान कर उनके उचित निस्तारण का प्रबंध हेतु कार्य करना आवश्यक है।पारिस्थितिक बहाली मानव जनित कारणों से जलीय जैव विविधता को हो रहा नुकसान रोकने के लिए तत्काल प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए। जल के बहाव कृत्रिम अथवा प्राकृतिक परिवर्तन, जल प्रदूषण, आवश्यक गाद एवं मृदा की कमी से आवास निवास, एवं प्रजनन के स्थानों को नुकसान एवं इनके कम होने की वजह से अनेक जीव प्रजातियाँ लुप्त हो गई है अथवा लुप्त होने की कगार पर हैं। संधारणीय कृषि आधुनिक कृषि पद्धति, रासायनिक खाद एवं कीटनाशक का उपयोग अधिकांश कृषि भूमि मे मृदा के उपजाऊ गुण कम होने का मुख्य कारण हैं। इसके अतिरिक्त, अधिक जल उपयोग करने वाली कृषि, सिंचाई पद्धति, एकल कृषि पद्धति, इत्यादि के कारण होने वाले प्रभावों का अध्ययन कर स्थानीय जल एवं अन्य पर्यावरणीय एवं भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर समाधान खोजे जाने चाहिए ।

खनन एवं अन्य मानव जनित कारकों की वजह से नदी के भौतिक स्वरूप में परिवर्तन, भू-जल का अत्यधिक दोहन, घाटी क्षेत्र में भूगर्भिक खनन एवं बड़े बांधों एवं जालाशयों के निर्माण इत्यादि के प्रभावों का अध्ययन कर आवश्यक कदम उठाने चाहिए।

बाढ़, अल्पवृष्टि, अतिवृष्टि, नल, तूफान, भूस्खलन इत्यादि के समय आवश्यक सुरक्षात्मक उपायों हेतु प्रयत्न करने चाहिए। इस क्रम मे नदी एवं घाटी क्षेत्र मे जल निकासी, बहाव मार्ग मे अतिक्रमण को दूर करना, बाढ़ सुरक्षा हेतु आद्रभूमि एवं अन्य संभावित उपयोग इत्यादि के बारे मे कार्य की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए ।

हाल के वर्षों में, नदी संबंधी कई आपदाएं इस तथ्य की गवाही देती हैं कि मानवीय प्रभावों ने इन आपदाओं की तीव्रता और इनके प्रति समुदायों की संवेदनशीलता को बढ़ा दिया है। इसलिए मानवजनित कारकों कि वजह से नदी पर प्रभावों कि पहचान कि जायें एवं इससे होने वाले संभावित खतरों और जोखिम को कम करने के लिए उपयुक्त साधन तैयार किये जायें । 
पर्यावरणीय ज्ञान संकलन, प्रसार एवं संवेदीकरण 

संसाधन, भूमि एवं जैविक संपदा एवं प्रक्रियाओं के बारे मे अध्ययन करने हेतु आवश्यक सूचना एवं तथ्यों का संकलन करना चाहिए। भारत मे प्राचीन ग्रंथों एवं पुस्तकों मे जल एवं जल संपदा के बारे मे बहुत जानकारी दी गई है, इस प्राचीन ज्ञान एवं आधुनिक विज्ञान के उचित मेल से नदी घाटी मे संभावित पर्यावरणीय परिवर्तनों का अध्ययन कर आम जन तक उसका प्रसार करना चाहिए। इस प्रकार आम जन में नदी संरक्षण के प्रति जागरूकता आएगी। इस कार्य में सर्वप्रथम आवश्यक तथ्यों एवं जानकारी का संकलन अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्षेत्र के जल संसाधन, उनकी संख्या, स्थिति, उनका आपस मे संबंध, उन पर या उनका अन्य प्राकृतिक एवं कृत्रिम अवयवों एवं प्रक्रियाओं पर प्रभाव इत्यादि का अध्ययन अति आवश्यक है। -

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