अपने दफ्तर में रोज़मर्रा के काम में मशरूफ एनएलसीओ संस्‍था के संस्थापक मंज़ूर वांगनू।
अपने दफ्तर में रोज़मर्रा के काम में मशरूफ एनएलसीओ संस्‍था के संस्थापक मंज़ूर वांगनू।फ़ोटो: वाहिद भट

हिम्मत-ए-मर्दां, मदद-ए-खुदा : एक आदमी का जज़्बा और यकीन दे रहा है कश्मीर की झीलों और सोतों को जीवन

निगीन लेक कंज़रर्वेशन ऑर्गेनाइज़ेशन (एनएलसीओ) के संस्थापक मंज़ूर वांगनू की जीवन-यात्रा कश्मीर के जलस्रोतों के संरक्षण के लिए उनकी प्रतिबद्धता कहानी कहती है। पर्यावरण के लिए पूरी शिद्दत से काम करने के साथ-साथ वह लोगों को समझाते हैं कि समुदायिक प्रयासों से स्‍थानीय स्‍तर पर बड़े परिवर्तन लाए जा सकते हैं।
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लगभग दो दशक पहले, कश्मीर की झीलों और प्राकृतिक सोतों में पानी की कोई कमी न थी। उनका पानी इतना साफ़ था पानी के नीचे सोतों की सतह तक आराम से दिखाई देती थी। 1990 के दशक में, जब कश्‍मीरी घाटी उग्रवाद से संघर्ष के कठिन दौर से गुज़र रही थी, लोग सुरक्षित पेयजल की तलाश से ज़्यादा भारी बारिश के दौरान झेलम नदी के उफ़ान की चिंता करते थे।

आज, यह तस्वीर नाटकीय रूप से बदल गई है। आज ज़्यादातर बड़ी झीलें और सोते सूखते जा रहे हैं। जिन जलाशयों में कभी लिली के मनमोहक फूल खिला करते थे, वहां अब प्लास्टिक और कचरा जमा हो गया है। जल प्रदूषण और सीवेज की गंदगी ने जहां साफ़ पानी को मैला कर दिया है, वहीं अतिक्रमण ने झीलों का बड़ा हिस्‍सा निगल लिया है। सोते सूख गए हैं, और झीलों, जलाशयों के आसपास की आर्द्रभूमि निर्माण कार्यों से निकलने वाले मलबे तले दबती चली जा रही है।

कश्मीर की जल विरासत पर मंडराते इन खतरों के बीच एक व्यक्ति ने आगे बढ़ कर हालात से लड़ने का बीड़ा उठाया। मंज़ूर वांगनू ने पानी की रखवाली की अपनी मुहिम फावड़ा उठा कर अपने घर के पास मौजूद झील की सफ़ाई के साथ शुरू की।

एक छोटे से सफ़ाई अभियान के रूप में शुरू हुई उनकी यह मुहिम देखते ही देखते कश्मीर की सबसे बड़ी जन-पहल और पर्यावरण आंदोलनों में शामिल हो गई है। निगीन झील संरक्षण संगठन (एनएलसीओ) के तहत फरवरी 2021 में शुरू किया गया मिशन ‘एहसास’ जलाशयों को पुनर्जीवित करने, सोतों की धाराओं को वापस लौटाने, आर्द्रभूमि को उनके असली रूप में लाने की एक मुकम्‍मल मुहिम बन गया।

लोगों को जागरूक कर और स्थानीय अधिकारियों की मदद लेकर आगे बढ़ाया गया। आज यह अभियान राज्‍य में पानी से जुड़े नीतिगत फैसलों और योजनाओं को ज़मीन पर उतारने में भी योगदान दे रहा है। इसके ज़रिये यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जा रहा है कि पानी से जुड़ी सरकारी योजनाओं में इलाके की पारिस्थितिकीय ज़रूरतों और चिंताओं पर समुचित ध्यान दिया जाए।

निगीन, खुशालसर और गिलसर जैसी झीलों की हालत में मंज़ूर वांगनू की इस पहल से काफी सुधार आया है। इंडिया वाटर पोर्टल के साथ साक्षात्कार में वांगनू ने अपने मिशन, नज़रिए और संघर्षों के बारे में विस्तार से बात की।

Q

आपके बचपन की यादें कश्मीर की झीलों या सोतों से जुड़ी हुई होंगी। उन दिनों की यादों ने आपको प्रकृति और पर्यावरण के लिए काम करने को किस तरह प्रेरित किया?

A

बिल्कुल। मैंने बिस्को स्कूल में पढ़ाई की। हम क्रॉस-कंट्री दौड़ में हिस्‍सा लेते थे, निगीन पर वाटर-स्कीइंग करते थे, कश्मीर के पहाड़ों पर ट्रेकिंग करते थे, झीलों में तैरते थे। पर्यटकों के झील में फेंके गए सिक्‍कों को पाने के लिए हम डल झील में गोता भी लगाते थे। उस समय झील बिल्कुल साफ़ होती थी, आप पानी के नीचे अपनी आंखें खोलकर अपने बगल में अथाना और पॉम्फ्रेट मछलियों को तैरते हुए देख सकते थे। हमारा जीवन प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ था।

मेरे पिता ने एक बार एक ब्रिटिश महिला के बारे में बताया था जो निगीन हाउसबोट पर रुकी थी। वह अकसर गहरी सांस लेकर कहती, "यह हवा अपने आप में एक दवा जैसी है।" इस सुकून और ताज़गी भरे अहसास के लिए वह हर साल यहां आती थी। पर, आज कश्‍मीर की हवाओं की वह जादुई तासीर कहीं गु़म सी हो गई है।

1970 के दशक में, हमारे शिक्षक, शादीलाल, सतलाल और नूर मोहम्मद पढ़ाई से कहीं ज़्यादा ज्ञान हमें कुदरत के बारे में देते थे। उनकी इन बातों ने ही हमारे भीतर प्रकृति-प्रेम जगाया और पर्यावरण के प्रति हमें हमारी ज़िम्मेदारियों का अहसास कराया। हमारी हर कैंपिंग ट्रिप आखिरी दिन उस जगह की सफ़ाई के साथ ही खत्‍म होती थी। यह एक ऐसी आदत बन गई, जिसे मैं आज भी अपने फ़र्ज़ की तरह निभाता हूं।

आज मैं एक स्कूल चलाता हूं। जब हमारे छात्र कैंपिंग या सैर के लिए सोनमर्ग या कहीं और जाते हैं, तो लौटते वक्‍त उन्हें उस जगह की सफ़ाई करनी होती है। वे हमेशा इकट्ठा किए गए कचरे की तस्वीरें मुझे भेजते हैं।

मेरे स्कूल के बच्चे पर्यावरण से जुड़ी तस्वीरें भी बनाते हैं। बरसों पहले मेरे एक छात्र ने ऐसी ही एक पेंटिंग मुझे तोहफ़े में दी थी, जो आज भी मेरी दीवार पर लगी है। हाल ही में एक साढ़े तीन साल के बच्चे ने पेड़, पानी और पहाड़ों के चित्र बनाए। मैंने उसकी तस्वीरें खींचीं। ये पल और ये बच्चे मुझे अहसास कराते हैं कि यह काम क्यों मायने रखता है और मुझे इसे क्‍यों करते रहना चाहिए।

मैं हमेशा कहता हूं, "अत्तहुरु शतरुल ईमान यानी सफ़ाई हमारे ईमान का आधा हिस्‍सा है " यही हर बच्चे के लिए हमारा संदेश है।

हाल के वर्षों में सरकार ने कुछ कदम उठाए हैं, खासकर डल झील के लिए, लेकिन ये काफ़ी नहीं हैं। इसे मुकम्‍मल करने के लिए आधुनिक सीवेज ट्रीटमेंट, लैंडफिलिंग को खत्‍म करने और अतिक्रमण को पूरी तरह से हटाए जाने की ज़रूरत है। खुशालसर उस चीज़ से जूझ रहा है जिसे मैं "मिडनाइट माफ़िया" कहता हूं। वे झीलों में विलो के पेड़ लगाते हैं, उन्हें बड़ा करते हैं और फिर रातों-रात झील को मिट्टी से भरकर ज़मीन करोड़ों में बेच देते हैं।

एनएलसीओ के 'एहसास' अभियान के तहत साफ की गई मशहूर गिलसार झील
एनएलसीओ के 'एहसास' अभियान के तहत साफ की गई मशहूर गिलसार झीलफ़ोटो: वाहिद भट
Q

पर्यावरण को बचाने की मुहिम में जुटने से पहले आप एक सफल व्यवसायी के रूप में एक अच्‍छा खासा कारोबार चला रहे थे। तो फिर आपके जीवन में इस बड़े बदलाव की वजह क्‍या रही? क्या आप हमें उस बात, उस पल के बारे में बताएंगे, जिसने आपको कश्मीर की आबोहवा के लिए काम करने को प्रेरित किया?

A

साल 1989 तक, श्रीनगर में हमारा एक फलता-फूलता पारिवारिक व्यवसाय था। जब हालात बिगड़े, तो हमें दिल्ली जाना पड़ा। मेरे पिता और चार भाइयों को सबकुछ नए सिरे खड़ा करना पड़ा। मैंने सालों तक जीतोड़ मेहनत की और आखिरकार इस जद्दोजहद से पूरी तरह थक कर मैं एक ब्रेक के लिए श्रीनगर लौट आया।

एक सुबह, मैं निगीन झील में अपनी मनपसंद हाउसबोट पर बैठा था। उस वक्‍त मैंने जो देखा, उससे मेरा दिल टूट गया। झील पॉलीथीन, मरे हुए जानवरों, लिली के सड़े हुए पत्तों और अतिक्रमण से बदहाल हो चुकी थी। मानों इसने अपनी आत्मा को ही खो दिया हो। फिर, मुझे 1989 से पहले की इसकी सुंदरता याद आई। उस विरोधाभास ने मुझे झकझोर कर रख दिया। बस उसी पल ने सब कुछ बदल दिया। यह 2000 के दशक की शुरुआत की बात है। 

मैंने कुछ दोस्तों से पूछा, "हम झील को साफ क्यों नहीं करते?" उन्होंने कहा, "क्या इतनी बड़ी झील को साफ करना मुमकिन है क्‍या?" मैंने उनसे कहा, "हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-खुदा ('इंसान जब हिम्मत दिखाता है, तो खुदा उसकी मदद करता है)।" इसके बाद मैं झील के आस-पास रहने वाले लोगों से घर-घर जाकर मिलने लगा।

साढ़े तीन महीनों की कोशिशों के बाद झील फिर से ज़िंदा नज़र आने लगी, पानी फिर से बहने लगा। फिर एक दिन, एक दोस्त ने मुझे फ़ोन करके पूछा: "क्या आपने आज का ग्रेटर कश्मीर (एक स्थानीय अखबार) पढ़ा है?" अखबार में छपे लेख का शीर्षक था "निगीन झील को बचाने वालों को सलाम।" इसमें हमारी कोशिशों की सराहना की गई थी। इससे हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली।

Q

आपका काम आपदा राहत और व्यापक सामुदायिक समर्थन जुटाने की ओर कैसे बढ़ा?

A

निगीन झील की सफाई में मिली सफलता के बाद हमें एहसास हुआ कि हमें ऐसे प्रयास जारी रखने चाहिए। इसलिए साल 2000 में हमने निगीन झील संरक्षण संगठन (एनएलसीओ) नाम से एक गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) का रजिस्‍ट्रशन कराया। हमारा अगला लक्ष्‍य श्रीनगर की छोटी निगीन झील थी। यह एक छोटी सी मगर काफ़ी बदहाल झील थी।

यह तैरते हुए बगीचों के नीचे दबी हुई थी, जिनमें से कुछ में पगड़ियां और धार्मिक प्रतीक रख दिए गए थे, ताकि कोई उन्हें छू न सके। इसके बावज़ूद हमने इन सबको हटा दिया। हमें धमकियों और गाली-गलौज का सामना करना पड़ा, लेकिन जनता हमारे साथ खड़ी रही और हमने काम जारी रखा।

इसके बाद 2005 में जब कश्‍मीर में बड़ा भूकंप आया, तब दिल्ली के एक दोस्त ने मुझे उरी और तंगधार में अपने साथ चलने के लिए कहा। जब हम वहां पहुंचे, तो किसी बुरे सपने जैसा बर्बादी का मंज़र देखने को मिला। सब कुछ तहस-नहस हो गया था, घर, अस्पताल, मंदिर, मस्जिद।

मैं सदमे में था और समझ नहीं पा रहा था कि क्या किया जाए? हमने वहीं रुकने का फैसला किया और कुछ दिनों तक भूकंप पीडि़तों के लिए खाने के पैकेटों का इंतज़ाम करके और स्थानीय लोगों की मदद से उन्हें बांटने में मदद की।

इसके तुरंत बाद, मुंबई से एक अजनबी ने फ़ोन करके कहा, "मंज़ूर भाई, अपना कामकाज छोड़कर समाज सेवा करो।" उन्होंने आश्रय स्थल बनाने के लिए 70 लाख रुपये की जीआई शीट भेजीं। यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था और एक तरह से सबकुछ यहीं से शुरू हुआ। तब से, हमने 2014 की बाढ़ सहित आपदाओं के दौरान हज़ारों लोगों की मदद की है। साथ ही, हम झीलों के जीर्णोद्धार के काम में भी लगे हैं।

श्रीनगर में एक जलस्रोत की सफ़ाई करते एहसास संस्‍था के वॉलेंटियर।
श्रीनगर में एक जलस्रोत की सफ़ाई करते एहसास संस्‍था के वॉलेंटियर। फ़ोटो: वाहिद भट
Q

मिशन एहसास की शुरुआत छोटी थी, लेकिन अब यह काफ़ी बढ़ गया है। क्या आपने कभी सोचा था कि यह इस मुकाम तक पहुंचेगा?

A

नहीं, कभी नहीं। मिशन एहसास की शुरुआत फरवरी 2021 में झीलों और सोतों की सफ़ाई के एक साधारण प्रयास के रूप में हुई थी। लेकिन यह आगे बढ़ता गया। लोग जुड़ते गए और ज़िम्मेदारियां बढ़ती गईं। आज यह मेरी उम्मीद से कहीं आगे बढ़ चुका है।

स्कूल के दिनों में, हम किशनसर और विशनसर जैसी जगहों पर ट्रैकिंग करते थे। पानी बिल्कुल साफ़ दिखता था। मछलियां तैरती नज़र आती थीं। लेकिन समय के साथ, हमने सब कुछ प्रदूषित कर दिया। डल झील में नालियां गिराई जाने लगीं, और यही हश्र गिलसर, खुशालसर और निगीन का भी हुआ। हमारी झीलें कूड़ेदान बन गई।

मैं सरकार को, खासकर डल और निगीन के आसपास, हाउसबोट्स को सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से जोड़ने का श्रेय देता हूं। आज, भारी पर्यटन के बावजूद, आपको टॉफ़ी का एक रैपर या केले का एक भी छिलका झील में तैरता हुआ नहीं दिखेगा।

लोग जागरूक हो गए हैं। मेरी टीम ने ईद से तीन दिन पहले जानवरों के गोश्‍त का मलबा झील में फेंकने से रोकने के लिए पहरा देना शुरू किया। तब से स्थानीय लोग खुद झील की रक्षा करने लगे हैं। अगर कुछ भी होता है, तो लोग तुरंत मुझे या हमारे वॉलेंटियर को फ़ोन करते हैं। एसएमसी तुरंत जवाब देती है।

Q

आपको यह विश्वास कैसे हुआ कि जहां सरकारी कोशिशें नाकाम हो गई, वहां आप चंद लोगों के साथ काम करके कामयाब हो सकते हैं?

A

साल 2013 में, मेरे वालिद का इंतक़ाल हो गया, जो इस सामाजिक कार्य में मेरे मार्गदर्शक और गुरु थे। उनके निधन के तुरंत बाद, मुझे दूरदर्शन पर निगीन झील पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। मैंने साक्षात्कार यह कहकर समाप्त किया, "यह काम सिर्फ़ सरकार का नहीं है। यह हमारी ज़िम्मेदारी है।"

अगली सुबह, मैं अपने चचेरे भाइयों, लतीफ़ और रियाज़ के साथ गिलसर और खुशालसर गया। झील एकदम बदहाल हो चुकी थी, जानवरों की लाशें तैर रही थीं और बेइंतेहां बदबू भरी पड़ी थी। वहां खड़े रहने के लिए भी हमें एक के ऊपर एक, तीन मास्क पहनने पड़े। मैंने कहा, "चलो इसे साफ़ करते हैं।" लोग हंसे: "बड़ी-बड़ी एजेंसियां नाकाम हो गईं, आप क्या करेंगे?" मैंने उनसे कहा, "हमें 5 से 10 दिन दीजिए।"

मुझे एक पंक्ति याद आई: मैं अकेला ही चला था, जानिबे मंज़िल मगर। लोग साथ आते गए और कांरवां बढ़ता गया…। आखिरकार, संभागीय आयुक्त ने पहल की और प्रशासन को मदद करने का निर्देश दिया। झील से कुल 5,000 ट्रक कचरा हटाया गया। श्रीनगर नगर निगम (एसएमसी) के रिकॉर्ड में यह बात दर्ज़ है।

यह आसान काम नहीं था। अतिक्रमणकारियों और भू-माफियाओं ने हमें रोकने की कोशिश की। लेकिन मुझे हमेशा नेक इरादों की ताकत पर यकीन रहा है। अगर इखलास (ईमानदारी) हो, तो अल्लाह भी मदद करता है।

अपनी टीम के साथ झील की सफाई के काम का जायज़ा लेते मंज़ूर वांगनू।
अपनी टीम के साथ झील की सफाई के काम का जायज़ा लेते मंज़ूर वांगनू।फ़ोटो: वाहिद भट
Q

आपने सोतों को पुनर्जीवित करने की परियोजनाओं का भी नेतृत्व किया है। इसकी प्रेरणा क्या है और आप इस पर कैसे काम करते हैं?

A

सोतों से मेरा जुड़ाव बचपन से है। मां हमें नागास्पेठ से ठंडा पानी लाने के लिए भेजती थीं। आज वहां के ज़्यादातर सोते बदहाल हैं, लेकिन उन्हें पुनर्जीवित किया जा सकता है।

यह कोई करोड़ों के खर्च वाला काम नहीं है। ईमानदारी से किया जाए, तो इसकी लागत महज़ डेढ़ से दो लाख रुपये तक ही बैठती है। हम नए सोते नहीं बनाते। हम तो बस जलस्रोतों की सफ़ाई करते हैं, रुकावटें हटाते हैं, इनलेट और आउटलेट बनाते हैं, और उन्हें पत्थरों से सहारा देते हैं। गांदरबल और श्रीनगर में हमें बहुत अच्छे नतीजे मिले हैं।

यह काम मुझे ज़िन्दगी जीने का एक मक़सद देता है। हमने एक व्हाट्सएप ग्रुप भी बनाया है, जहां स्थानीय लोग अतिक्रमण की सूचना देते हैं। मैंने सरकार से झील की सीमाओं की सही ढंग से निशानदेही करने का आग्रह किया है। ये किसी की निजी संपत्ति नहीं हैं, ये हम सबकी हैं और किसी के लिए भी पानी के बिना जीना मुमकिन नहीं है।

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Q

क्या आप हमें बता सकते हैं कि आप लोगों ने अब कितने सोतों को पुनर्जीवित किया है, कितना कचरा हटाया है, और कितने लोग इसमें शामिल हुए हैं? कश्मीर के किन इलाकों को सबसे ज़्यादा फ़ायदा हुआ है?

A

हमने अब तक 14 सोतों का जीर्णोद्धार किया है, जिनमें से 12 का पानी लैब में जांचने पर इस्‍तेमाल के लिए सुरक्षित पाया गया। इनमें से 13 अच्‍छी हालत में हैं, जबकि एक की मरम्मत का काम चल रहा है। इसमें पानी अच्‍छी तरह से बह रहा था, लेकिन टाइलें पानी का दबाव नहीं झेल पा रही थीं। हम इसे ठीक कर रहे हैं। हमारे ज़्यादातर वॉलेंटियर उत्तर, दक्षिण और मध्य कश्मीर से आते हैं। युवा लोग मुझे रोज़ाना संदेश भेजते हैं, जैसे, "सर, यहां एक सोता है।" मैं उन्‍हें कभी मना नहीं करता।

हम जो कुछ भी करते हैं, वह जनता के सहयोग से होता है, अपना माल, अपनी मेहनत। इसी के सहारे थोड़ा-थोड़ा करके काम चल रहा है। मैं सरकारी पैसा नहीं लेता। जब हमने खुशालसर की सफाई की, तो एक जेसीबी ऑपरेटर ने कहते हुए अपना पेमेंट घटाकर हमारी मदद की कि, "आपके लिए मैं हाफ रेट में काम कर दूंगा।" इसी तरह हम लोगों को प्रेरित करते हैं।

यह हम सबके भविष्य के लिए है, मेरे लिए नहीं। हमने वन विभाग के साथ मिलकर पौधरोपण अभियान भी चलाया है। हम सिर्फ़ सर्दियों में ही पौधे लगाते हैं। फ़ोटो खिंचवाने के लिए नहीं, बल्कि असली ज़िंदगी के लिए। पौधे जब मज़बूत हो जाते हैं, तो हम उन्हें लोगों को सौंप देते हैं और कहते हैं, "अब यह आपकी ज़िम्मेदारी है।" इस तरह हम स्थानीय लोगों को पौधों की देखभाल के लिए प्रेरित करते हैं।

सफ़ाई अभियान के बाद शीशे सा चमकता खुशहालसर झील का पानी।
सफ़ाई अभियान के बाद शीशे सा चमकता खुशहालसर झील का पानी।फ़ोटो: वाहिद भट
Q

दोबारा चालू किए गए कुछ जल स्रोत फिर से बदहाल होते दिख रहे हैं। क्या आपको इस बात की चिंता सता रही है कि यह ज़्यादा समय तक नहीं चलेेंगे?

A

नहीं, मुझे ऐसी कोई चिंता नहीं है और यह बात मैं यह पूरे यक़ीन के साथ कह रहा हूं। कश्मीर में, खासकर ग्रामीण इलाकों के लोगों में और सरकारी महकमे के लोगों के बीच, इनकी ज़िम्‍मेदारी लेने की भावना बढ़ रही है। लोग चाहते हैं कि फिर से चालू हुए सोते और झीलें लंबे समय तक चलें। इसलिए, मुझे उम्मीद है, इंशाअल्लाह, इससे कुछ अच्छा ज़रूर होगा।

हालांकि हमें कभी-कभी आलोचनाओं और व्‍यक्तिगत आरोपों का सामना भी करना पड़ा है। हाल ही में एक कथित पत्रकार माइक लेकर आया। उसने भू-माफियाओं से बात की और ख़बर चला दी कि मैंने सरकार से 300 करोड़ रुपये लिए हैं। मैंने कोई जवाब नहीं दिया। क्‍योंकि, अतिक्रमणकारियों, असफल राजनेताओ और माफिया को स्वाभाविक रूप से हमसे तकलीफ़ है। वे झूठे पत्र लिखते हैं और झूठ फैलाते हैं।

लेकिन, जब प्रधानमंत्री मन की बात में आपके काम का ज़िक्र करते हैं, या आपके हाथों साफ़ की गई साज़गरी पोरा जैसी झील का उद्घाटन करने माननीय उपराज्यपाल स्‍वयं आते हैं, तो आपको और क्या चाहिए? कुछ लोग तो उस झील को पाटकर वहां अपने कॉलेज की बिल्डिंग खड़ी करना चाहते थे ! क्या वे कभी मेरा साथ देंगे? मैं कहता हूं, रहने दें। अल्लाह हमारे साथ है।

Q

कश्मीर में सोतों की सांस्कृतिक और पारिस्थितिक भूमिका के बारे में आप क्या सोचते हैं? आज की पीढ़ी को इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए?

A

कई युवा पहले से ही अपने इलाकों में सोतों का जीर्णोद्धार कर रहे हैं। वे मुझे अपने इन कामों का वीडियो भेजते हैं, और मैं हमेशा उन्हें प्रोत्साहित करता हूं। मैं उनसे कहता हूं, "आप सिर्फ़ पानी की धारा को बहाल नहीं कर रहे, बल्कि दूसरों को प्रेरित भी कर रहे हैं।" सोते हमारी जीवन रेखा हैं। अगर हम अपनी वेटलैंड्स और सोतों का रख-रखाव करेंगे, तभी कश्मीर बचेगा।

लोगों को यहां की प्राकृतिक व्यवस्था को समझने की ज़रूरत है। हम एक ऐसी जगह पर रहते हैं जो एक कटोरे जैसी है। ग्‍लेशियर का पानी जलग्रहण क्षेत्रों से श्रीनगर में और फिर आगे अंचार तक और उससे भी आगे तक बहता है। पानी को अपने इस सफ़र के लिए एक साफ़, निर्बाध रास्ते की ज़रूरत है। अगर हम उस व्यवस्था को अवरुद्ध या प्रदूषित करते हैं, तो इसका असर नीचे के इलाक़ों में हर चीज़ पर पड़ेगा।

मैंने सरकार से इन व्यवस्थाओं का सही ढंग से मानचित्रण करने को कहा है। मेरा मानना ​​है कि सोते पवित्र हैं, ये हमारी साझा विरासत हैं, निजी संपत्ति नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने भी यही कहा है। इसलिए मैं इससे जुड़े कामों में जुटा रहता हूं, क्योंकि यह विरासत का सवाल है। अगर हम कार्रवाई नहीं करेंगे, तो हम कश्मीर की आत्‍मा को ही खो देंगे।

श्रीनगर में एक जलधारा पर बने पुराने लकड़ी के पुल के टूट जाने पर उसके बगल में बनाया गया नया फुट ओवरब्रिज।
श्रीनगर में एक जलधारा पर बने पुराने लकड़ी के पुल के टूट जाने पर उसके बगल में बनाया गया नया फुट ओवरब्रिज। फ़ोटो: वाहिद भट
Q

जब आप अपना कारोबार छोड़ कर पूरी तहर से पर्यावरण से जुड़े काम में आए उस वक्‍त आपके परिवार और दोस्तों की क्या प्रतिक्रिया थी? उनसे कितना सहयोग मिला और इसने आपकी यात्रा को कैसे आकार दिया?

A

अगर आपका परिवार आपका साथ नहीं देता, तो आप इस तरह का मुश्किल काम नहीं कर पाएंगे। कभी-कभी आग लगने, बाढ़ आने या आपात स्थिति में लोगों की मदद के लिए मैं सुबह से आधी रात तक बाहर रहता हूं। यह केवल पर्यावरण के काम से कहीं बढ़कर है। यह सामाजिक कार्य है।

मैं इसका पूरा श्रेय अपनी पत्नी, अपनी जीवनसंगिनी को देता हूं। वह हर सुबह मुझे यह कहते हुए घर से रवाना करती हैं, "कोरमख खोदायस हवाल यानी मैं तुम्हें अल्लाह के हवाले कर रही हूं।" इससे मुझे ताकत मिलती है। वह दिन में मुझसे मिलने आती हैं और पूछती हैं कि मैंने खाना खाया, चाय पी या नहीं? ये छोटी-छोटी बातें काफ़ी मायने रखती हैं।

कई लोगों ने मुझे नीचा दिखाने की कोशिशें भी की हैं। असफल नेताओं ने मेरे खिलाफ ट्वीट किए। पर, मैं चुप रहा। चार दिन बाद, माननीय उपराज्यपाल मनोज सिन्हा का फ़ोन आया: "अपना काम करते रहो।" इससे मुझे काफ़ी तसल्ली मिली।

नए एसएमसी कमिश्नर का रवैया भी काफी मददगार है। हमने साथ मिलकर कई कामों को आगे बढ़ाया है। मेरा सपना है कि खुशालसर और गिलसर जैसी झीलों के आसपास पैदल रास्ते बनाए जाएं, इन्हें अतिक्रमण से मुक्त, फिर से सार्वजनिक स्थान बनाया जाए और इनमें सुनहरी मछलियों को फिर से छोड़ा जाए ।

Q

आपको पर्यावरण से जुड़ी कौन सी चुनौती सबसे ज़्यादा परेशान करती है और क्या चीज़ आपको उस पर काम करते रहने की ताकत देती है?

A

हमारी जाम हो चुकी जल निकासी व्यवस्था मुझे सबसे ज़्यादा चिंतित करती है। खुदा न खास्ता, अगर कई दिनों तक लगातार बारिश हो जाए, तो हम अपनी ही लापरवाही में डूब जाएंगे। हम नालियों में पॉलीथीन फेंकते हैं। ऐसी चीज़ों के लिए हम सब दोषी हैं।

मुझे जो चीज़ आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है, वह है लोगों का विश्वास, उम्‍मीदें और जनता का समर्थन। अगर इरादे नेक हों, तो अधिकारी भी आपकी बातों का जवाब देते हैं। हमें ग्लेशियरों, झीलों और जंगलों पर मिलकर काम करना होगा। यह हमारा साझा कर्तव्य है। मुझे किसी भी ऐसे सोते की समस्‍या बताइये, जिसे मैं नहीं जानता। मैं पहुंच जाउंगा। यह टीम वर्क है, अकेले का काम नहीं।

सोते की सफ़ाई के बाद उसमें फिर से बहती साफ़ पानी की धारा।
सोते की सफ़ाई के बाद उसमें फिर से बहती साफ़ पानी की धारा। फ़ोटो: वाहिद भट
Q

क्या आप सोतों के संरक्षण के किसी पारंपरिक तरीके का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे भारत के अन्य हिस्‍सों के लोग भी सीख सकें?

A

बिल्कुल। सबसे पहले, हम इलाके को समझे बिना भारी मशीनों का इस्तेमाल नहीं करते। मेरी टेक्निकल टीम हमेशा कहती है, पानी के इनलेट्स को कभी न छेड़ें। यह हमारे शरीर की तरह होते हैं। जिस तरह शरीर में नसें बंद होने पर हकारी सेहत बिगड़ जाती है। ठीक ऐसा ही सोतों के साथ भी होता है।

सोतों के तल पर जमा कीचड़ को जेसीबी से नहीं, बल्कि हाथ से हटाना होता है। पानी के प्रवेश और निकास के चैनलों को सावधानीपूर्वक डिज़ाइन करना होता है, ताकि पानी प्राकृतिक रूप से बह सके। हम लोगों को यह भी सिखाते हैं कि सोतों में रसायन न डालें।

दुख की बात है कि कुछ लोग अभी भी उन्हें कूड़ेदान की तरह इस्तेमाल करते हैं। लेकिन हमारा काम जारी है। आज भी, बच्चे कुछ सोतों की धाराओं में तैरते दिखाई देते हैं। हमें अगर किसी सोते को कई बार साफ़ करना पड़े, तो भी हम करते हैं। हम उसे छोड़ते नहीं हैं। यह हमारे दिलों से जुड़ा काम है, और यही बात हमें आगे बढ़ाती रहती है।

Q

आध्यात्मिक और सामुदायिक नेता कश्मीर में पर्यावरण जागरूकता बढ़ाने में कैसे मदद कर सकते हैं?

A

हर मस्जिद और स्कूल में पूरी जागरूकता होनी चाहिए। मैं एक बोर्डिंग स्कूल चलाता हूं, आप आधी रात को भी, खुद इसे देखने के लिए आ सकते हैं। मेरे दफ़्तर में, सभी के साथ एक दोस्‍ताना व्यवहार किया जाता है। हमारे शिक्षक भी साफ़-सफ़ाई की गतिविधियों में शामिल होते हैं।

एक बार दूरदर्शन पर प्रोफ़ेसर शकील अहमद रोमशू से इसी तरह की चर्चा के दौरान उन्होंने ज़ोर देकर कहा था कि मौलवी साहबों को इस मुहिम में शामिल किया जा चाहिए। हम पहले से ही ऐसा करते आ रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। जब सम्मानित बुज़ुर्ग या आध्यात्मिक नेता स्वच्छता के बारे में बोलते हैं, तो लोग सुनते हैं। इसलिए हमें अपने उलेमा और मौलानाओं को पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर ध्यान देने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

श्रीनगर में झील की सफ़ाई करके निकाले गए कचरे को सूखने के बाद हटवाने की तैयारी में मंज़ूर और उनके सहयोगी।
श्रीनगर में झील की सफ़ाई करके निकाले गए कचरे को सूखने के बाद हटवाने की तैयारी में मंज़ूर और उनके सहयोगी। फ़ोटो: वाहिद भट
Q

क्या आपको लगता है कि आज कश्मीर में एक मज़बूत पर्यावरण आंदोलन शुरू हो चुका है? क्या आपको उम्मीद है कि अगली पीढ़ी इस काम को आगे बढ़ाएगी?

A

हां, मुझे उम्मीद है। यह आंदोलन अब शुरू हो गया है। स्कूल और यहां तक कि सरकार भी लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक कर रही है। अगर हम टिकाऊ पर्यटन चाहते हैं, तो हमें सबसे पहले पर्यावरण पर काम करना होगा। हमारे ग्लेशियर पिघल रहे हैं। हमारे सोतों की हालत ठीक नहीं है। हमारे जलाशय लगभग खत्म हो चुके हैं।

ये सभी मुद्दे आपस में जुड़े हुए हैं। लेकिन मुझे बेहतरी की उम्मीद है और हम इस मिशन पर काम कर रहे हैं। हम इसे पूरा करने की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। चीज़ें बदल रही हैं। आज आप खुशालसर, गिलसर में काम देख सकते हैं। अभी भी बहुत सारा काम करना बाकी है। जब आप कोई नेक काम शुरू करते हैं, तो अल्लाह मदद करता है। वह हमारी मदद ज़रूर करेगा।

Q

क्या आप कोई ऐसा पल साझा करना चाहेंगे जिसने आपको जल और प्रकृति के संरक्षण में सामुदायिक भगीदारी की ताकत को दिखाया हो?

A

मैं गांदरबल के एक गांव, वटलार के एक बुज़ुर्ग को कभी नहीं भूलूंगा, जो लगभग 80 वर्ष के थे और उन्होंने मेरी टीम से कहा था, "आज इतने सालों के बाद यह पानी फिर से हमारा हो गया है। हम फिर से इसे पी सकते हैं।" उस एक पल ने काफी गहरी बात कह दी। जब लोग कुदरती पानी पर अपना हक़ महसूस करने लगें, तो समझिए कि हमारी कोशिश कामयाब हुई।

लेकिन, हमें यह काम मोहब्बत से करना चाहिए, ताकत से नहीं। कश्मीरी होने के नाते, हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। ग्लेशियर, जंगल, सोते, हमें सबकी रक्षा करनी चाहिए। प्रशासन के साथ मिलकर काम करें। बातचीत करें। अगर कोई बच्चा भी मुझे किसी सोते के बारे में बताता है, तो मैं उसकी बात सुनता हूं। यह ज़मीन हमारी है। हमें मिलकर ही इसे संवारना होगा।

(यह स्‍टोरी इंडिया वाटर पोर्टल क्षेत्रीय पत्रकारिता फ़ेलोशिप 2025 के तहत लिखी गई है।)

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