पर्वतीय कृषि में प्लास्टिक पोंड
पर्वतीय कृषि में प्लास्टिक पोंड

वर्षा आधारित पर्वतीय कृषि और जल संकटः एक चुनौती

नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 50 प्रतिशत झरने सूख चुके हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से इस क्षेत्र में जल की आपूर्ति को प्रभावित करते हैं। पिछले कुछ समय से पर्यावरण में हो रहे प्राकृतिक व मानवजनित परिवर्तनों से प्राकृतिक जलस्रोत (नौले व धारे आदि) सूख रहे हैं।
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तेज ढलानों और पेचीदा भौगोलिक संरचना के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा के पानी को भूजल में संचय के साथ सतही वर्षा जल को रोकना चुनौतीपूर्ण कार्य है। प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, संरक्षण का अभाव, अनियोजित शहरीकरण तथा बढ़ती जनसंख्या का दबाव पर्वतीय क्षेत्रों में जल संकट के प्रमुख कारण हैं। वनों में भीषण आग हिमालयी क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारण है। प्राकृतिक झरने, नौले-धारे  हिमालयी क्षेत्र में जलापूर्ति के प्रमुख स्रोत रहे हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 50 प्रतिशत झरने सूख चुके हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से इस क्षेत्र में जल की आपूर्ति को प्रभावित करते हैं। पिछले कुछ समय से पर्यावरण में हो रहे प्राकृतिक व मानवजनित परिवर्तनों से प्राकृतिक जलस्रोत (नौले व धारे आदि) सूख रहे हैं।

जल प्रकृति द्वारा प्रदान किया गया एक अनमोल उपहार है, जिसका कोई विकल्प संभव नहीं है। वर्तमान में पर्वतीय क्षेत्रों में उत्पन्न जल संकट देश के ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए एक गंभीर समस्या बन गया है। विश्व भर के जल वैज्ञानिकों का मानना है कि वर्षा के जल का संग्रहण कर उसे भूमि में संचित करके भू-जल स्तर को बढ़ाया जा सकता है। वर्षा के जल का टैंकों में संग्रहण कर जल की कमी को कम किया जा सकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में विलुप्त होते झरने जल संकट का जीता जागता उदाहरण हैं तथा भविष्य में आने वाले घोर जल संकट के संकेत हैं। मृदा और जल प्रकृति के दो महत्वपूर्ण संसाधन हैं, जिन के बिना खेती की कल्पना नहीं की जा सकती है। जल एक महत्वपूर्ण संसाधन है जहाँ तुरंत कदम उठाने की आवश्यकता है। पृथ्वी पर उपलब्ध पानी की कुल मात्रा में से मात्र तीन प्रतिशत पानी ही स्वच्छ है और उसमें से भी करीब दो प्रतिशत पानी पहाड़ों व ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा है, बचे एक प्रतिशत पानी का इस्तेमाल पेयजल, सिंचाई, कृषि और उद्योगों आदि के लिए किया जाता है। नीति (NITI) आयोग के अनुसार वर्ष 2030 तक 40 फीसदी भारतीयों के पास पीने का पानी नहीं होगा। इस किल्लत का सामना सबसे ज्यादा दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद के लोगों को करना पड़ेगा।

नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में करीब 60 करोड़ लोग भयंकर जल संकट से जूझ रहे हैं, प्रति वर्ष करीब दो लाख लोगों की मौत का कारण स्वच्छ जल का नहीं मिलना बताया गया है। जैसा कि हमें विदित है कि जलवायु परिवर्तन के कारण अनियमित वर्षा से सिंचाई पर असर पड़ा है। इसके फलस्वरूप फसलों की पैदावार घटी है। देश के विभिन्न क्षेत्रों में भूजल के स्तर में गिरावट देखने को मिली है। कृषि कार्य में सिंचाई के लिए भूजल का 90 प्रतिशत भाग उपयोग होता है। भारत के लिए जलवायु परिवर्तन मुख्य रूप से विकट और गंभीर समस्या है क्योंकि भारतीय कृषि का एक बड़ा भाग मानसून से होने वाली वर्षा पर निर्भर करता है। देश में प्रतिवर्ष 1120 मिली मीटर वर्षा होती है परन्तु हम इसका सिर्फ दो प्रतिशत भाग ही उपयोग कर पाते हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण सूखा, वाढ, चक्रवात, तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं की गहनता और बारंबारता में वृद्धि हुई है। एक अनुमान के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में सन् 2010 से 2039 के दौरान कृषि उत्पादन में लगभग 45 से 9.5 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है।

पर्वतीय क्षेत्रों में जल संकट

तेज ढलानों और पेचीदा भौगोलिक संरचना के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा के पानी को भूजल में संचय के साथ सतही वर्षा जल को रोकना चुनौतीपूर्ण कार्य है। प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, संरक्षण का अभाव, अनियोजित शहरीकरण तथा बढ़ती जनसंख्या का दबाव पर्वतीय क्षेत्रों में जल संकट के प्रमुख कारण हैं। वनों में भीषण आग हिमालयी क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारण है। प्राकृतिक झरने हिमालयी क्षेत्र में जलापूर्ति के प्रमुख स्रोत रहे हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 50 प्रतिशत झरने सूख चुके हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से इस क्षेत्र में जल की आपूर्ति को प्रभावित करते हैं। पिछले कुछ समय से पर्यावरण में हो रहे प्राकृतिक व मानवजनित परिवर्तनों से प्राकृतिक जल स्रोत (नौले व धारे आदि) सूख रहे हैं और कुछ पूर्णतया सूख चुके है। जो हैं उनका जल बहाव व उपलब्धता अत्यधिक कम हो गयी है। पर्वतीय क्षेत्रों में अनियमित वर्षा और मौसम की विभीषिकाओं से किसानों का सामना होना कोई असामान्य बात नही है। ग्रीष्मकालीन तापमान में बदलाव, देरी से एवं अनियमित वर्षा, कम समय में अधिक मात्रा में वर्षा सामान्य बात हो गई है। जलवायु परिवर्तन का उपज पर प्रभाव अब किसान भी महसूस कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त पर्वतीय क्षेत्रों में ऊँची-नीची ढलान वाली भूमि और सीढ़ीनुमा खेतों में वर्षा के जल का संरक्षण बड़ी चुनौती है। उत्तराखंड की औसत वार्षिक वर्षा 1550 मिलीमीटर है। एक अनुमान के अनुसार उत्तराखंड राज्य में यदि वर्षा जल के मात्र 3-4 प्रतिशत जल को संरक्षित कर लिया जाये तो इससे पेय-जल एवं सिंचाई सहित उत्तराखंड की सम्पूर्ण जल की आवश्यकता पूरी हो सकती है।

पर्वतीय क्षेत्रों में मिट्टी के कटाव की दर सामान्य से अधिक पाई गई है। एक सेंटीमीटर मोटी मिट्टी की परत निर्माण में लगभग 400 साल लगते हैं। मिट्टी के कटाव में यह परत कुछ ही समय में बह जाती है। उपजाऊ मिट्टी के बहकर चले जाने का पर्वतीय कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उत्तराखंड का लगभग 48 फीसदी से अधिक भाग मिट्टी के कटाव से प्रभावित है। यह बदलता हुआ पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र, स्थानीय कृषि, और आजीविका के लिए भविष्य में एक प्रमुख चुनौती वन सकता है। इस लेख में बारिश के कारण होने वाले मिट्टी के कटाव और जल संरक्षण के बारे में विश्लेषण किया गया है। बारिश के पानी के बहाव से लगातार जमीन की ऊपरी सतह का पतली सतहों के रूप में निरंतर कटाव जारी रहता है। मिट्टी की इस ऊपरी सतह पर ही वनस्पतियों का जीवन, वनों की सेहत, वन्य जीवों और मानव आबादी का भोजन निर्भर करता है। मिट्टी के कटाव में मिट्टी की सबसे उपयोगी परत बहती है, और जहाँ यह जमा होती है वहाँ अत्यधिक मात्रा में खरपतवार सहित अन्य वनस्पतियों की वृद्धि होती है। इससे बड़े पैमाने पर मिट्टी का क्षरण होता है। इससे कृषि भूमि की फसल उत्पादकता क्षमता में कमी होती है। मानवीय गतिविधियां जैसे जंगलों की कटाई, पर्वतीय क्षेत्रों में अनियंत्रित शहरीकरण मिट्टी के हो रहे कटाव का एक प्रमुख कारण हैं। इसके अलावा भौगोलिक संरचना, भूकंपीय सक्रियता, अधिक वर्षा और बादलों के फटने जैसी प्राकृतिक घटना होती रहती हैं। यदि समय रहते हुए पर्वतीय क्षेत्रों में मिट्टी के कटाव को नहीं रोका गया तो सतत कृषि (sustainable agriculture) के लिए एक गंभीर समस्या उत्पन्न हो जाएगी। जल चक्र भी प्रभावित हो जाएगा और मिट्टी भी किसी काम की नहीं रह जाएगी। इसलिए इन क्षेत्रों में भूमि और जल संरक्षण के उपायों पर अमल करना बेहद जरूरी है। पर्वतीय क्षेत्रों में मिट्टी के कटाव के परिणाम को नीतिगत स्तर पर अधिक गंभीरता से लेने की जरूरत है। वर्तमान समय में इसके परिणाम दिखने भी लगे हैं। जलवायु परिवर्तन से अनियमित वर्षा और वर्षा की अवधि में कमी हो रही है लेकिन वर्षा की मात्रा उतनी ही है। जो यह दर्शाता है कि वर्षा की तीव्रता चढ़ी है।

पर्वतीय क्षेत्र की संरचना और जलवायु

पर्वतीय क्षेत्रों में जलवायु का वर्गीकरण उनकी ऊँचाइयों के आधार पर होता है। भौगोलिक संरचना के अनुसार जहाँ पर्वतीय क्षेत्रों में हवा आने वाली दिशा में अधिक वर्षा होती है, वहीं दूसरी ओर ढलानों पर और दो पहाड़ों के बीच की घाटियों में कम वर्षा होती है। पर्वतीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन का सीधा असर वहाँ के नदियों के जल प्रवाह पर पड़ता है। पर्वतीय क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र में वर्षा महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करती है। पर्वतीय क्षेत्र के भौगोलिक संरचना के कारण धीमी और लंबी समय तक चलने वाली वर्षा सबसे अधिक उपयोगी होती है। पर्वतीय क्षेत्र में वर्तमान में होने वाली प्राकृतिक आपदाएं वैश्विक जलवायु परिवर्तन के शुरुआती संकेत मात्र हैं। वन पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक हैं। वर्तमान के वर्षों में वनों में लगने वाली आग की संख्या में काफी वृद्धि होना पर्वतीय जलवायु के लिए एक प्रमुख चिंता का विषय है। ग्रीष्मकालीन वर्षा दक्षिण पश्चिमी मानसून से शीतकालीन वर्षा पश्चिमी विक्षोभों से होती है।

वर्षा एवं वर्षा काल की अवधि में कमी

पिछले तीन दशकों से हम देख रहे हैं कि मानसूनी वर्षा चार महीने की जगह अब दो महीने की रह गई है। वर्षा बहुत तेजी से बहुत कम समय के लिए होती है। तेज वर्षा के कारण पर्वतीय ढलानों को वर्षा के पानी को सोखने का मौका नहीं मिल पाता है।

मिट्टी कटाव के दुष्परिणाम

मिट्टी के कटाव से दो क्षेत्र सीधे प्रभावित होते हैं। एक जहाँ से मिट्टी का कटाव हुआ (on-site) और दूसरी जगह जहाँ मिट्टी बहकर पहुंची (off-site)। ऑफ साइट भूमिकटाव से बाँध और जलाशयों की जल संग्रहण क्षमता घटती है, अर्थात इनकी आयु कम हो जाती है। जिससे बिजली उत्पादन व सिंचाई पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

पर्वतीय क्षेत्रों में मिट्टी के कटाव की रोकथाम के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:-

  • 1. पर्वतीय ढालों पर वृक्षारोपण द्वारा जल प्रवाह को रोक कर या धीमा करके।
  • 2. पर्वतीय क्षेत्रों में सीढ़ीनुमा कृषि कर ढाल को कम किया जा सकता है। इससे सतही अपवाह के वेग को कम कर मिट्टी के कटाव को रोका जा सकता है। इन सीढ़ीदार खेतों की मेढ़ों पर घास उगाकर उसको और अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
  • 3. समोच्य जुताई द्वारा, इससे जल ऊपर से नीचे प्रवाहित नहीं होता है।
  • 4. बाँध बनाकर अवनालिका अपरदन को रोका जा सकता है।
  • 5. पशु चराई पर नियंत्रण कर भू संरक्षण किया जा सकता है।
  • 6. अधिक मिट्टी कटाव वाले क्षेत्र की पहचान करें और सबसे पहले यहीं कटाव रोकने की कोशिश करें।
  • 7. वनस्पतियाँ जितनी अधिक होंगी मिट्टी का कटाव उतना ही कम होगा।
  • 8. जलवायु परिवर्तन के कारण मिट्टी के कटाव में तेजी आई है, भू-उपयोग भी एक मुख्य कारण है। इस तरह की नीतियाँ बननी चाहिए जिससे मिट्टी कटाव के प्रभाव को कम किया जा सके।

पर्वतीय क्षेत्रों में जल संकट के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:-

1. अनियोजित शहरीकरण और वनों का कटाव ।
2. जलवायु परिवर्तन ।
3. वर्षा की आवृति में परिवर्तन
4. अनियोजित खनन और औद्योगिकीकरण

पर्वतीय क्षेत्रों में जल संकट के निवारण के लिए आवश्यक कदमः-

1. जल संचयन।
2. प्राकृितिक स्रोतों का संरक्षण।
3. प्रदूषित जल का पुनर्चक्रण।
4. समग्र जल प्रबन्धन दृष्टिकोण।

पर्वतीय कृषि को प्रभावित करने वाले घटक निम्नलिखित हैं:-

1. विषम भौगोलिक स्थिति।
2. जलवायु परिवर्तन।
3. जल की उपलब्धता और संग्रहण क्षमता।
वर्षा जल का संरक्षण

इसका मुख्य सिद्धांत है वर्षा की प्रत्येक बूँद का संग्रहण करना। वर्षा जल का संग्रहण कर पुनः घरेलू तथा कृषि कार्य के लिए प्रयोग करना वर्षा जल संग्रहण कहलाता है। वर्षा जल संग्रहण वर्तमान में उत्पन्न हुए जल संकट से निपटने के लिए कारगर और प्रभावी उपाय है।

संग्रहित वर्षा जल का सर्वोत्तम उपयोग

मानसून के समय में वर्षा जल को पालीटेंक में संग्रहण कर बाद में कृषि कार्य के लिए अधिक लाभ देने वाले फसलों के लिए करना चाहिए। यदि संचित जल की मात्रा बहुत कम हो तो जल उपयोग क्षमता नवीन सिंचाई प्रणाली द्वारा बढ़ाई जा सकती है।

आज के समय में भूमि प्रबंधन अत्यन्त आवश्यक है। पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि कार्य इस तरह से किया जाए कि मिट्टी का कटाव कम से कम हो। जहाँ मिट्टी का कटाव हो वहाँ इसे रोकने का प्रयास प्राथमिक स्तर पर किया जाना चाहिए। यह साफ समझा जाये कि मिट्टी के कटाव के कारण सभी प्राणी किसी न किसी रूप से प्रभावित होते हैं। इसका सबसे बड़ा प्रभाव पर्वतीय कृषि पर देखने को मिलता है। पर्वतीय कृषि में मिट्टी के कटाव को कम करने के लिए वानिकी एवं बागवानी जैसी गतिविधियों के जरिए कृषि विविधिकरण पर जोर देने की जरूरत है। इस तरह की संरक्षण - गतिविधियों से भूमि एवं जल संसाधन में - हो रहे क्षरण को कम करके संवेदनशील - पारिस्थितिकी तंत्र को पुनः स्थापित किया जा सकता है। साथ ही पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा आधारित कृषि से रोजगार के - अवसर पैदा किये जा सकते हैं।

सपंर्क करेंः उत्कर्ष कुमार एवं रश्मि, विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोडा, उत्तराखंड, 263 601
मो. 9875436063, इमेलः utkarsh kumar@icar.gov.in


 

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