भूजल प्रबंधन ही सिंचाई की जरूरत
भूजल प्रबंधन ही सिंचाई की जरूरत

भारत की कृषि और आर्थिक स्थिरता के लिए व्यापक जल प्रबंधन रणनीतियाँ (भाग 2)

जलभराव, लवणता, समुद्री जल के अन्तर्वेधन, आर्द्रभूमि के शुष्कीकरण, और निम्न धारा प्रवाह जैसे पर्यावरणीय मुद्दे इन चुनौतियों में वृद्धि करते हैं। जलवायु परिवर्तन और चरम मौसम की नियमित घटनाओं के कारण इन समस्याओं के समाधान के लिए अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जिसके लिए, भूजल निष्कर्षण को विनियमित करना, कृत्रिम पुनर्भरण को बढ़ावा देना और वर्षा जल संचयन और उन्नत उपचार विधियों का उपयोग आवश्यक है।
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भूजल विकास में क्षेत्रीय असमानता 

देश में माध्य भूजल विकास राष्ट्रीय स्तर पर 63.3% है, जबकि पूर्वी (40.7%) और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों (2.4%) में इसका मान कम है। असम (11%), बिहार (46%), छत्तीसगढ़ (44%), झारखंड (28%), ओडिशा (42%), पश्चिम बंगाल (45%), और पूर्वी उत्तर प्रदेश (69%) का भूजल विकास प्रतिशत, दक्षिणी (64.6%), उत्तरी (94.3%), और पश्चिमी (84.7%) क्षेत्रों की तुलना में काफी कम है। 

गिरता भूजल स्तर 

देश में स्वतंत्रता के बाद से सिंचाई के लिए भूमि से निष्कासित जल के उपयोग में वृद्धि हुई है। क्षेत्र में 89% भूजल का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है। 2007 से 2020 तक, भूजल स्तर में 61% की गिरावट आई है। उत्तर-पश्चिमी भारत में भूजल में सबसे गंभीर गिरावट पाई गई है, जिसमें 17% मूल्यांकन इकाइयों को 'अति-दोहित' और 5% को 'गंभीर' के रूप में वर्गीकृत किया गया है। 

सूक्ष्म सिंचाई के प्रसार में स्थानिक विविधता 

सूक्ष्म सिंचाई में भारत की सिंचित भूमि का केवल 19% भाग सम्मिलित है, जिसमें महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और गुजरात के अंतर्गत 85% भागों में ड्रिप सिंचाई द्वारा कृषि भूमि को सिंचित किया जाता है। देश का पूर्वी भू-भाग काफी पिछड़ा हुआ है, जिसमें केवल 1.82% क्षेत्रों में ड्रिप सिंचाई और 10.39% क्षेत्रों में स्प्रिंकलर सिंचाई का प्रयोग किया जाता हैं। 

खराब भूजल गुणवत्ता 

भूजल गुणवत्ता के मुद्दे, जैसे कि लवणता और भूजनित तत्वों के साथ संदूषण, भूजल की खराब गुणवत्ता को बढ़ाते हैं। उच्च फ्लोराइड का स्तर 13 राज्यों को प्रभावित करता है, आर्सेनिक संदूषण पश्चिम बंगाल में गंभीर स्थिति में है, और लौह संदूषण पूर्वोत्तर राज्यों और ओडिशा में व्यापक स्तर पर पाया जाता है। नाइट्रोजन उर्वरक के अत्यधिक उपयोग ने भूजल में नाइट्रेट संदूषण को जन्म दिया है, जो जनमानस के स्वास्थ्य के लिए जोखिम पैदा कर रहा है।

सिंचित कृषि-

पारिस्थितिकी तंत्र में जल प्रबंधन के लिए रणनीतियाँ 

भूजल उपयोग और प्रबंधन 

1. सतत भूजल स्तर को संतुलित करना 

भूजल निकासी के विनियमन को सुनिश्चित करने के लिये नियमों को लागू करना, जिससे भूजल निकासी पुनर्भरण दरों से अधिक न हो। भूजल स्तर को संतुलित करने के लिए निकासी के उपयुक्त तरीकों को अभिकल्पित किया जाना चाहिए। 

2. सौर पंपों पर सब्सिडी देनाः 

भूजल निष्कर्षण से जुड़ी लागत और पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने के लिये सौर पंपों के उपयोग को प्रोत्साहित करना, विशेष रूप से कम शुल्क एवं उच्च मूल्य वाली फसलों के लिये फायदेमंद रहेगा।

3. पुनर्भरण पद्धतियों को बढ़ानाः 

कृत्रिम भूजल पुनर्भरण के लिए कठोर चट्टान जलभृतों में फ्रैक्चर का दोहन करने वाले कुओं के उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए। संभावित क्षेत्रों की पहचान करने के लिए प्रतिरोधकता सर्वेक्षण किया जाना आवश्यक है। 

4. जल विभाजक प्रबंधन संरचनाएंः 

कठोर चट्टानी जलदायक क्षेत्रों में भूजल पुनर्भरण को बढ़ाने के लिए अंतःस्त्रवण टैंक, चेक डैम और फील्ड बंड का निर्माण किया जाना चाहिए।

 5. भूजल संदूषण को प्रतिबंधित करनाः 

दूषित जलभृतों के जल के उपयोग से बचाव हेतु आर्सेनिक द्वारा प्रदूषित जलभृतों के दोहन से दूर रहना और वर्षा जल संचयन में वृद्धि करना आवश्यक है। 

6. सयुग्मी उपयोगः 

संदूषण प्रभावों को कम करने के लिए सतही जल और भूजल का संयुग्मी उपयोग किया जाना चाहिए। 

7. भूजल प्रदूषण के उपचार के तरीकेः 

भूजल से आर्सेनिक, फ्लोराइड और लोहे जैसे प्रदूषित पदार्थों को दूर करने के लिए सोखना, आयन एक्सचेंज, जमावट और झिल्ली तकनीकों का उपयोग किया जाना चाहिए।

नहर के जल का कुशल उपयोग 

1 - जल प्रयोक्ता संघों का सुदृढ़ीकरण 

सिंचाई प्रणालियों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने, सदस्यों के लिये समय पर और किफायती इनपुट सुनिश्चित करने तथा फसल विविधीकरण एवं मूल्यवर्धन के लिये बाज़ार अवसंरचना विकसित करने हेतु जल प्रयोक्ता संघों की क्षमता में वृद्धि किया जाना आवश्यक है। 

2. नहर जल वितरण का अनुकूलन 

चक्रानुक्रमानुसार जल वितरणः 

फसल जल की मांग से मेल खाने के लिए चक्रानुक्रमानुसार वितरण कार्यक्रम के अनुप्रयोग द्वारा निरंतर वितरण प्रणालियों की तुलना में पर्याप्त मात्रा में जल की बचत होती है। 

द्वितीयक भंडारण जलाशयः 

अतिरिक्त वर्षा जल और सिंचाई अपवाह को संग्रहीत करने के लिए द्वितीयक जलाशयों के निर्माण द्वारा शुष्क मौसम के दौरान जल की उपलब्धता को अनुकूलित किया जा सकता है।

3. बेहतर जल वितरण की तकनीकें 

वाराबंदी प्रणालीः 

इस अवधि में एक निश्चित चक्रानुसार किसानों के मध्य समान रूप से जल वितरित करके यह सुनिश्चित किया जाता है कि प्रत्येक किसान को प्रति यूनिट क्षेत्र में समान सिंचाई जल प्राप्त हो सके।

भूतल से उच्च या निम्न तलीय सिंचाई प्रणालीः 

उपलब्ध जल के उपयोग को अनुकूलित करने और फसलों की पैदावार में सुधार लाने के लिये जलभराव वाले क्षेत्रों में भूतल से उच्च या निम्न तलीय क्यारियों को लागू किया जा सकता है। 

दबावयुक्त सिंचाई प्रणाली 

1. ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई को अपनानाः 

ड्रिप एवं स्प्रिंकलर विधि को अपनाने के लिये सब्सिडीः 

ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणालियों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिये सरकारी सब्सिडी प्रदान की जानी चाहिए जिसमें उच्च अनुप्रयोग क्षमता, जल की बचत, पैदावार में वृद्धि और कम श्रम और ऊर्जा लागत जैसे कई लाभ प्राप्त होते हैं।

2. ड्रिप फर्टिगेशन -

पोषक तत्व दक्षताः 

ड्रिप सिंचाई के माध्यम से उर्वरकों का उपयोग करने के लिए फर्टिगेशन के उपयोग द्वारा पोषक तत्वों की अवशोषण दर में वृद्धि की जा सकती है और अपवाह और लीचिंग को कम कर सकते हैं। इस पद्धति के उपयोग द्वारा उपज में काफी सुधार प्राप्त हुआ है, जैसे कि टमाटर की पैदावार में 71% की वृद्धि प्राप्त हुई है।

3. आंशिक जड़ क्षेत्रों को शुष्क बनाना 

जल उपयोग दक्षता में सुधारः 

विशेष रूप से बागवानी फसलों के लिए उपयुक्त, जड़ क्षेत्र के विभिन्न भागों के मध्य बारी-बारी से सिंचाई करके जल के उपयोग को अनुकूलित करने के लिए जल उपयोग दक्षता में सुधार आवश्यक है। 

4. सेंसर आधारित सिंचाई परिशुद्धता के लिए स्वचालन 

वास्तविक समय जल अनुप्रयोगः 

वास्तविक समय में मिट्टी की आर्द्रता के स्तर के आधार पर उपयुक्त जल अनुप्रयोग प्रदान करने के लिए मिट्टी की आर्द्रता मापने वाले सेंसर के साथ स्वचालित सिंचाई प्रणालियों का उपयोग किया जाना चाहिए। यह तकनीक जल उपयोग दक्षता को बढ़ाती है और फसल की पैदावार में सुधार करती है। 

अनुसंधान और कार्यान्वयनः 

अध्ययनों ने सेंसर-आधारित सिंचाई प्रणालियों के साथ महत्वपूर्ण जल बचत और उपज में सुधार दर्शाया है। उदाहरण के लिए, केले की फसलों में स्वचालित ड्रिप सिंचाई के परिणामस्वरूप मैनुअल सिंचाई प्रणालियों की तुलना में उच्च पैदावार और बेहतर जल उत्पादकता पाई गयी है। 

निष्कर्ष 

भविष्य की पीढ़ियों के लिए स्वच्छ जल संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए वैज्ञानिक जल प्रबंधन अत्यधिक आवश्यक है। कृषि विस्तार तथा शहरीकरण और औद्योगिक विकास के कारण जल की बढ़ती मांग के कारण सतही और भूजल दोनों संसाधनों का अत्यधिक दोहन हुआ है, जिससे भूजल स्तर में कमी और जल गुणवत्ता का ह्रास हुआ है। जलभराव, लवणता, समुद्री जल के अन्तर्वेधन, आर्द्रभूमि के शुष्कीकरण और निम्न धारा प्रवाह जैसे पर्यावरणीय मुद्दे इन चुनौतियों में वृद्धि करते हैं। जलवायु परिवर्तन और लगातार चरम मौसम की घटनाओं के कारण अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं के समाधान के लिए, भूजल निष्कर्षण को विनियमित करना, कृत्रिम पुनर्भरण को बढ़ावा देना और वर्षा जल संचयन और उन्नत उपचार विधियों का उपयोग आवश्यक है। जल प्रयोक्ता संघों को सुदृढ़ बनाकर और चक्रीय जल आपूर्ति अनुसूचियों को कार्यान्वित करके सतही जल उपयोग में सुधार किया जा सकता है। 

द्वितीयक जलाशयों के विकास से जल की उपलब्धता में वृद्धि हो सकती है। ड्रिप और स्प्रिंकलर सिस्टम, ड्रिप फर्टिगेशन, और आंशिक जड़ क्षेत्र को शुष्क बनाने जैसी उन्नत सिंचाई तकनीकें, जल और पोषक तत्वों के उपयोग को अनुकूलित करती हैं, जिससे दक्षता और फसल की पैदावार में वृद्धि होती है। सेंसर-आधारित स्वचालित सिंचाई प्रणाली के उपयोग द्वारा जल उपयोग दक्षता में अधिक वृद्धि हुई है। 

क्षेत्रीय असमानताओं को संबोधित करने में पूर्वी क्षेत्र में भूजल विकास और पश्चिमी क्षेत्र में पुनर्भरण पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है। उपयुक्त तकनीकों के साथ जलभराव और बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के प्रबंधन द्वारा कृषि पर नकारात्मक प्रभावों को कम किया जा सकता है। इन कार्यनीतियों को लागू सकता है। इन कार्यनीतियों को लागू करने से सिंचित कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र के जल प्रबंधन में काफी सुधार किया जा सकता है। 

सतत भूजल निष्कर्षण, कुशल नहर जल उपयोग, दबावयुक्त सिंचाई प्रणालियों के व्यापक उपयोग और सेंसर-आधारित सिंचाई जैसी उन्नत तकनीकों के उपयोग द्वारा जल उपयोग दक्षता में वृद्धि की जा सकती है। इसके अतिरिक्त इन तकनीकों से फसल की पैदावार में सुधार किया जा सकता है और कृषि में जल संसाधनों की दीर्घकालिक स्थिरता को सुनिश्चित किया जा सकता है। 

यह आलेख दो भागों में है

सपंर्क करेंः डॉ. चन्द्र प्रकाश, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की, उत्तराखंड। 

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