समुद्र पर निर्भर जीवन: भारत के दक्षिणी छोर पर समुद्री शैवाल की खेती का बदलता स्वरूप
मन्नार की खाड़ी में जब सूरज की पहली किरण फैल रही होती है, तमिलनाडु के रामनाथपुरम ज़िले की महिलाएं अपने घर के कामकाज पूरे कर चुकी होती हैं। वे अपने लिए दिन का खाना, डाइविंग मास्क और शैवाल इकट्ठा करने में काम आने वाले कुछ ज़रूरी सामान लेकर अपनी नावों से मन्नार की खाड़ी के कुछ उथले इलाकों और टापुओं की ओर निकल पड़ती हैं।
डाइविंग मास्क माथे पर ठीक से कसकर और कमर में प्लास्टिक की बड़ी थैलियां मज़बूती से बांधकर वे समुद्र के नीले जल में डुबकी लगाती हैं। वे चट्टानी समुद्र तल पर फैली शैवाल को चुनकर अपने थैले में इकट्ठा करती हैं। तीन-चार घंटे तक वे बहुत तन्मयता से यह काम करती हैं। इस बीच, उनके साथ आए पुरुष पिछली रात को बिछाए गए मछली पकड़ने के जालों को खींचते हैं और ताज़ा समुद्री मछलियाँ इकट्ठा करते हैं। दोपहर होते-होते धीरे-धीरे वे किनारे पर लौट आते हैं और इकट्ठे किए गए शैवाल को धूप में सूखने के लिए रख दिया जाता है। सुखाने के बाद इसे बंडलों में बांधा जाता है। फिर रामनाथपुरम और उसके आसपास के स्थानीय बाज़ारों में बेच दिया जाता है।
दक्षिण भारत के रामनाथपुरम और पड़ोसी तटीय ज़िलों की कई महिलाओं के लिए यह रोज़ाना की जीवन शैली है। रामनाथपुरम की तटरेखा मन्नार की खाड़ी के पूर्वी किनारे की ओर फैली हुई है, जहां से कई स्थानीय टापुओं और प्रवाल भित्तियों तक पहुंचा जा सकता है। समुद्र से शैवाल लाना इस इलाके का पारंपरिक व्यवसाय है। शैवाल इकट्ठा करने का हुनर मछुआरा समुदाय में पीढ़ी-दर-पीढ़ी माँ से बेटी तक का सफर तय करता आ रहा है। अब इनमें से कई महिलाएं समुद्र के उथले पानी में शैवाल की खेती भी करने लगी हैं।
मन्नार की खाड़ी: जैव-विविधता का अनमोल खज़ाना
‘मन्नार की खाड़ी’ हिंद महासागर के किनारे भारत के दक्षिण-पूर्वी तट पर बसी एक विशाल उथली खाड़ी है। यह 21 छोटे टापुओं से घिरी है। साथ ही, भारत से लगभग श्रीलंका तक जाने वाली चूना पत्थर की चट्टानों की वह शृंखला भी यहीं से शुरू होती है, जिसे राम सेतु के नाम से जाना जाता है। यूनेस्को द्वारा वैश्विक जैव-विविधता धरोहर के रूप में मान्यता प्राप्त यह क्षेत्र अपनी समृद्ध समुद्री जैव-विविधता के लिए प्रसिद्ध है।
साल 1986 में इस क्षेत्र को वन विभाग के अधीन लाकर 10,500 वर्ग किलोमीटर में फैला एक राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया। यह दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया का सबसे बड़ा समुद्री जैवमंडल रिजर्व (मरीन बायोस्फीयर रिज़र्व) है, जो समुद्री गायों (डुगोंग), बॉटल-नोज़ डॉल्फ़िनों और प्रवाल भित्तियों जैसी दुर्लभ प्रजातियों का आश्रय स्थल है।
यह खाड़ी मैंग्रोव वनों, समुद्री घास के मैदानों के लिए भी जानी जाती है। साथ ही, यह भारत व श्रीलंका के बीच व्यापार और आपसी संपर्क के समृद्ध इतिहास की साक्षी है। तमिलनाडु वन विभाग इस क्षेत्र के टापुओं से प्राकृतिक समुद्री शैवाल इकट्ठा करने के लिए गोताखोरी की परंपरा को धीरे-धीरे रोक रहा है और इसके लिए दंडात्मक कार्रवाई भी कर रहा है। नतीजतन, शैवाल इकट्ठा करने का पारंपरिक व्यवसाय अब खतरे में आने लगा है।
समुद्री शैवाल की खेती की ओर बढ़ता रुझान
समुद्री शैवाल, जिसे केल्प के नाम से भी जाना जाता है, इसका उपयोग भोजन, रसायन, उर्वरक और दवा उद्योग में होता है। जापान, कोरिया और फिलीपींस जैसे पूर्वी एशियाई देशों में शैवाल की खेती का लंबा इतिहास रहा है, लेकिन भारत में यह 1980 के दशक से लोकप्रिय हुआ। केंद्र सरकार के संस्थानों ने तटीय समुदायों के लिए आजीविका के नए अवसर प्रदान करने के लिए कप्पाफाइकस (पासी) जैसी आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण शैवाल प्रजातियों को उगाने और इकट्ठा करने की तकनीकें उपलब्ध कराईं।
यह इसलिए किया गया, ताकि स्वस्थ सीमा से ज़्यादा मछली और अन्य समुद्री संसाधनों के समुद्र से निकाले जाने के कारण ईको सिस्टम पर बने दबाव को कम किया जा सके, खासकर संकटग्रस्त समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों और संरक्षित क्षेत्रों में। 2000 के दशक में, पेप्सिको ने तमिलनाडु के कुछ क्षेत्रों में कप्पाफाइकस अल्वारेज़ी (पेप्सी पासी) की वाणिज्यिक खेती शुरू कराई, जिससे स्थानीय निवासियों के लिए रोज़गार के अवसर और आय के स्रोत बने।
वैश्विक समुद्री शैवाल के उत्पादन में भारत का लगभग 0.2% योगदान है। अमेरिका के फ़ूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइज़ेशन के अनुमानों के अनुसार भारत विश्व में 13वें स्थान पर है। फिर भी, साल 2023 में 72,000 टन से अधिक के शैवाल उत्पादन और 2025 तक इसे 1.12 मिलियन टन तक बढ़ाने की सरकारी योजनाओं के साथ, भारत वैश्विक शैवाल अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन रहा है।
तमिलनाडु के रामनाथपुरम, तूतीकोरिन, तिरुनलवेली और नागरकोइल ज़िलों के बफर ज़ोन क्षेत्रों में गाँवों ने समुद्री शैवाल की खेती को उत्साहपूर्वक अपनाया है। केवल रामेश्वरम में ही 126 गाँवों के एक हज़ार से अधिक परिवार उथले जल में कप्पाफाइकस शैवाल की खेती करते हैं। मन्नार की खाड़ी के दक्षिणी तमिलनाडु तट से एकत्र किए गए शैवाल से कथित तौर पर 17 से अधिक प्रकार के उत्पाद तैयार किए जाते हैं।
खेती की प्रक्रिया में छोटे शैवाल के गुच्छों, जिन्हें तमिल में ‘पासी’ के नाम से जाना जाता है, को बांस के बेड़ों पर बांधा जाता है और उथले पानी में लगभग चालीस दिनों तक रख कर उन्हें बढ़ने दिया जाता है। फसल तैयार होने के बाद उसे निकाल कर शैवाल को सुखाया जाता है और बंडलों में बांध कर स्थानीय समुद्री उद्योगों को बिक्री के लिए भेज दिया जाता है।
समुद्री शैवाल की खेती को इसके पर्यावरणीय और सामाजिक लाभों के लिए व्यापक रूप से सराहा जाता है। ये कार्बन का अवशोषण करने, पानी में पोषक तत्वों के प्रदूषण को कम करने और तटीय समुदायों को आजीविका देने के लिए जाने जाते हैं। पोषक तत्वों से भरपूर होने के कारण इसे 'सुपरफूड' भी माना जाता है, जो खाद्य और पोषण सुरक्षा को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। इसके व्यावसायिक मूल्य को देखते हुए, तो यह अच्छा सौदा है ही। इस खेती में शामिल सभी लोगों को अपेक्षाकृत अच्छी आय हो जाती है।
हालांकि, मन्नार की खाड़ी क्षेत्र में गैर-मूल शैवाल प्रजाति, कप्पाफाइकस के प्रसार और प्रवाल भित्तियों पर इसके संभावित नकारात्मक प्रभाव को लेकर चिंताएँ बढ़ रही हैं। कुछ स्थानीय समुदायों का मानना है कि कप्पाफाइकस अल्वारेज़ी के कारण अन्य शैवाल प्रजातियों की बढ़वार कम हो रही है। कुछ विशेषज्ञ इन आशंकाओं को खारिज करते हुए कहते हैं कि इसके कारण हुए पारिस्थितिकी नुकसान को साबित करने के लिए अभी तक पुख्ता सबूत नहीं हैं। इसके बावजूद, यह विषय पर्यावरणविदों और स्थानीय समुदायों के बीच चर्चा का एक महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है।
कठिन जल में राह तलाशते समुदाय
जैव-विविध खाड़ी में कई संकटग्रस्त समुद्री जीव बी पाए जाते हैं। इनमें डुगोंग, इंडो-पैसिफिक बॉटलनोज़ डॉल्फ़िन, व्हेल की कई प्रजातियाँ और कछुए शामिल हैं। मछुआरा समुदाय के लोग अक्सर अपनी यात्राओं के दौरान इन जीवों के संपर्क में आते हैं। वन विभाग ने अब इस क्षेत्र में समुद्र से कुछ भी निकालने पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिसके चलते प्राकृतिक शैवाल इकट्ठा करने वाली महिलाओं का रोज़गार संकट में पड़ गया है।
जबकि दूसरी ओर, समुद्र में औद्योगिक प्रदूषण और सीमा से अधिक मछली पकड़ना बिना रुकावट जारी है। गैर-मूल शैवाल प्रजातियों की खेती भी अनियंत्रित रूप से चल रही है। इसके विपरीत, स्थानीय समुदायों की छोटे पैमाने की गतिविधियों पर भी सख्त कार्रवाई की जा रही है। यह असमानता चिंता का विषय है।
यह स्थिति तटीय समुदायों के समुद्र संरक्षण के प्रयासों को समर्थन देने और उन्हें सरकारी प्रयासों में सक्रिय रूप से शामिल करने की तत्काल आवश्यकता को उजागर करती है। यह अब और ज़्यादा ज़रूरी है जब समुद्री शैवाल के जलवायु और पोषण संबंधी लाभों को व्यापक मान्यता मिल रही है। उन्हें समर्थन मिलेगा तो उनकी आजीविका बनी रहेगी और पर्यावरण संरक्षण को भी बढ़ावा मिलेगा।
लेख: विक्रम आदित्य | संपादन: अदिति सजवान | कला: मुस्कान गुप्ता | हिंदी अनुवाद: केसर सिंह
डॉ. विक्रम आदित्य वर्तमान में बेंगलुरु स्थित सेंटर फॉर वाइल्डलाइफ़ स्टडीज़ (CWS) में प्रधान वैज्ञानिक और संकाय सदस्य के रूप में कार्यरत हैं, जहाँ वे शिकार, वन्यजीव व्यापार तथा हाथियों पर शोध कार्यक्रमों का नेतृत्व करते हैं।
यह लेख भारत में जैव-विविधता और शाश्वत कृषि पर केंद्रित तीन भागों की एक विशेष श्रृंखला का हिस्सा है, जिसे बायोडायवर्सिटी कोलैबोरेटिव की जैव-विविधता और कृषि टीम ने शुरू किया है। इस महत्वपूर्ण पहल को रोहिणी नीलेकणि फिलैंथ्रपीज़ का सहयोग प्राप्त है।
यह श्रृंखला भारत के तटीय समुदायों की कहानियों को सामने लाती है, जो समुद्री शैवाल की कटाई और खेती के जरिए अपनी आजीविका और परंपराओं को जीवित रख रहे हैं। यह लेख मन्नार की खाड़ी के उन लोगों के संघर्ष और उम्मीदों को दर्शाता है, जो पर्यावरण संरक्षण की चुनौतियों के बीच अपनी सांस्कृतिक विरासत और आर्थिक जरूरतों को संतुलित करने की कोशिश कर रहे हैं।