पंजाब के किसानों ने सिंचाई के लिए वैकल्पिक गीला-सूखा (Alternate Wetting and Drying) यानी एडब्लूडी विधि अपनाना शुरू कर दिया है।
पंजाब के किसानों ने सिंचाई के लिए वैकल्पिक गीला-सूखा (Alternate Wetting and Drying) यानी एडब्लूडी विधि अपनाना शुरू कर दिया है।चित्र: स्विचऑन फाउंडेशन

पंजाब भूजल संकट: क्या एडब्लूडी सिंचाई से मिलेगी राहत?

भूजल स्तर में लगातार आ रही गिरावट और उसके कारण होने वाली की समस्याओं से निपटने के लिए पंजाब के किसान अब सिंचाई के वैकल्पिक तरीके अपनाने लगे हैं। इसी प्रयास में एडब्लूडी विधि का प्रयोग न केवल पानी की खपत को कम करने में सहायक है बल्कि पर्यावरण और फसल दोनों के लिए लाभकारी साबित हो रहा है।
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किसी भी फसल की अच्छी पैदावार में सिंचाई की भूमिका अहम होती है। पंजाब में होने वाली धान, गेहूं और गन्ने की अच्छी पैदावार भी इसका अपवाद नहीं है। इन तीनों ही फसलों में धान को सबसे ज़्यादा सिंचाई की ज़रूरत होती है। जहां गेहूं, गन्ने और अन्य फसलों को बीच-बीच में पानी चाहिए, वहीं धान के मामले में पानी की पर्याप्त आपूर्ति का महत्त्व बहुत ज़्यादा है। भारत के कुल धान और गेहूं उत्पादन में जहां पंजाब का योगदान क्रमशः लगभग 10 और 14 प्रतिशत है वहीं वर्ष 2023-24 में केंद्रीय पूल में इन दोनों फसलों के लिए कुल योगदान का यह आंकड़ा 31 प्रतिशत था।

पंजाब में धान की फसल के लिए आमतौर पर सिंचाई के परंपरागत तरीके यानी बाढ़ सिंचाई (continuous flooding irrigation) का ही उपयोग होता रहा है। इसमें, खेतों में पानी को लगातार जमा करके रखा जाता है, क्योंकि धान के लिए बीज अंकुरण से लेकर कटाई से पहले तक के सभी चरणों में पर्याप्त मात्रा में पानी ज़रूरी होता है।

लेकिन सिंचाई की इस पारंपरिक विधि की वजह से पंजाब के भूजल संसाधनों पर बहुत दबाव पड़ा है। केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक, पंजाब का भू-जल असंतुलन चिंताजनक स्तर पर पहुंच चुका है। इसकी गंभीरता को केंद्रीय भूमिजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) के अध्ययन से समझा जा सकता है, जिसमें बताया गया है कि पंजाब का भूजल स्तर साल 2039 तक लगभग 1,000 फ़ीट नीचे गिर सकता है। इसके अलावा, दूसरे अध्ययनों में कहा गया है कि पंजाब के पास केवल अगले बीस सालों का ही पानी बचा है और राज्य के 78 प्रतिशत ब्लॉक अतिदोहन के शिकार हैं।

राज्य में भूजल के लगातार गिर रहे स्तर का असर यहां की खेती पर पड़ रहा है। लेकिन, यह असर केवल फसलों की पैदावार तक ही सीमित नहीं है। दरअसल, बाढ़ सिंचाई से मिट्टी की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है। इन प्रभावों में मिट्टी का कटाव, पोषक तत्वों की कमी या उनका एक जगह जमा हो जाना, मिट्टी की संरचना में गिरावट, लवणता (सोडियम की मात्रा) में वृद्धि, और जलभराव के कारण पौधों के लिए ऑक्सीजन की कमी आदि शामिल हैं।

जहां एक तरफ़ ऑक्सीजन की कमी से पौधों के तनावग्रस्त होने की संभावना बढ़ जाती है, वहीं मिट्टी के कटाव से जल धारण क्षमता में आई कमी के कारण बाढ़ जैसी आपदाओं का खतरा भी बढ़ने लगता है।

कैसे रोका जाए ज़रूरत से ज़्यादा पानी का इस्तेमाल?

लगातार गिर रहे भूजल स्तर और इससे प्रभावित होती व्यवस्थाओं (खेती, मिट्टी की गुणवत्ता, सिंचाई, जनजीवन) से जुड़ी समस्याओं के समाधान के लिए पंजाब में सरकारी और व्यक्तिगत दोनों ही स्तरों पर खेती और सिंचाई के नए विकल्पों पर काम किया जा रहा है।

जहां सरकार अलग-अलग परियोजनाओं को लागू करके किसानों को पानी की बचत के लिए प्रशिक्षित करने और उन्हें सिंचाई के नए तरीके अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने का काम कर रही है वहीं राज्य के किसान निजी स्तर पर इसके प्रयास करते देखे जा रहे हैं। पंजाब के किसानों ने सिंचाई के लिए वैकल्पिक गीला-सूखा (Alternate Wetting and Drying) यानी एडब्लूडी विधि का उपयोग शुरू कर दिया है। सिंचाई का यह तरीका, व्यावहारिक और वैज्ञानिक रूप से परखा गया विकल्प है।

क्या है एडब्लूडी सिंचाई

सिंचाई के इस वैकल्पिक तरीके का उपयोग पानी की बचत के लिए किया जाता है। एडब्लूडी तकनीक से किसान धान की पैदावार में कमी लाए बिना, सिंचाई में लगने वाले पानी की खपत को कम कर सकते हैं।

इस तरह की सिंचाई में खेतों में एक साधारण मैदान-जल मापक पाइप (field water tube/pipe) रखकर जल-स्तर पर नज़र रखी जाती है। जब इन पाइपों में पानी का स्तर निर्धारित सीमा से नीचे चला जाता है तब सिंचाई की जाती है। इस प्रक्रिया में मिट्टी के प्रकार, मौसम और फसल के बढ़ने की अवस्था जैसे कई कारकों के आधार पर यह निर्भर करता है कि मिट्टी को कितने दिनों तक पानी में डुबाकर रखना है या फिर पानी के बिना।

खेत को पानी देने या सूखा रखने के बीच का यह अंतर एक से लेकर दस दिन तक का हो सकता है।

कैसे काम करती है एडब्लूडी तकनीक

सिंचाई की इस व्यवस्था को सुरक्षित रूप से लागू करने के लिए एक फ़ील्ड वाटर ट्यूब का इस्तेमाल किया जाता है। यह ट्यूब पॉलीविनाइल क्लोराइड यानी PVC का बना होता है। इस ट्यूब को इस तरह से डिज़ाइन किया जाता है कि इसका निचला हिस्सा (लगभग ⅔ भाग) मिट्टी में दबा होता है और उसमें छेद होता है। जबकि ऊपरी हिस्से को मिट्टी की सतह से ऊपर रखा जाता है। इस ट्यूब की मदद से खेत में पानी का स्तर मालूम किया जाता है। स्वाभाविक ही है कि सिंचाई के बाद पानी के स्तर में धीरे-धीरे कमी आने लगती है। जब पानी का स्तर मिट्टी की सतह से लगभग 15 सेमी से कम होने लगता है तब यह मान लिया जाता है कि फसल को सिंचाई की ज़रूरत है।

ऐसी स्थिति में तब तक सिंचाई की जाती है जब तक कि पानी का स्तर मिट्टी के सतह से 5 सेमी नीचे तक न आ जाए। धान की खेती में पौधों में फूल आने से एक सप्ताह पहले से लेकर एक सप्ताह बाद तक, खेत में पानी भरा रहना चाहिए और आवश्यकतानुसार 5 सेमी की गहराई तक पानी भरता रहना चाहिए। फूल आने के बाद, दानों के भरने और पकने के दौरान, पुनः सिंचाई से पहले पानी के स्तर को मिट्टी की सतह से 15 सेमी नीचे तक गिरने दिया जा सकता है।

ऐसा माना जाता है कि एडब्लूडी सिंचाई को बीज की रोपनी के 1-2 सप्ताह बाद शुरू करना अच्छा होता है। अगर खेतों में खरपतवार की मात्रा ज़्यादा हो तो इसे 2-3 सप्ताह बाद लागू करने की सलाह दी जाती है। इसके अलावा सिंचाई से ठीक पहले सूखी मिट्टी पर नाइट्रोजन उर्वरक के छिड़काव को फसल के लिए अच्छा माना जाता है।

एडब्लूडी सिंचाई को बीज की रोपनी के 1-2 सप्ताह बाद शुरू करना अच्छा होता है।
एडब्लूडी सिंचाई को बीज की रोपनी के 1-2 सप्ताह बाद शुरू करना अच्छा होता है।चित्र: रेनन एग्रीकल्चर

एडब्लूडी के फ़ायदे

  1. पानी की बचत: एडब्लूडी सिंचाई विधि में पानी की बचत 15 से 50 प्रतिशत तक बताई गई है। इस विधि में भूजल दोहन में भी कमी आती है और पानी की उपलब्धता बेहतर रह सकती है।

  2. ग्रीनहाउस गैस मिथेन (CH₄) के उत्सर्जन में कमी: दरअसल खेती मिथेन यानी CH4 उत्सर्जन के मुख्य स्रोतों में से एक है। इस नाते कुल मानव जनित ग्रीनहाउस उत्सर्जन में धान यानी चावल का योगदान लगभग 9 प्रतिशत होता है। ऐसे में सिंचाई की इस तकनीक का उपयोग करके पानी की खपत में कमी लाकर CH4 उत्सर्जन को भी कम किया जाता है।

    दरअसल, एडब्लूडी से मिट्टी में सूक्ष्म-ऑक्सीजन की उपस्थिति बढ़ने के कारण मीथेन उत्सर्जन कम होता है। कुछ मामलों में तो 30 से 50 प्रतिशत तक की कमी भी देखी गई है। यह जल-प्रबंधन और जलवायु अनुकूल खेती के दोहरे लाभ को रेखांकित करता है।

  3. जल उत्पादकता में सुधार: कम पानी में समान या कभी-कभी बेहतर पानी-उत्पादकता (kg/m³) मिलनी शुरू होती है। इसका मतलब है, प्रति यूनिट पानी में ज़्यादा मात्रा में अनाज का पैदा होना। सिंचाई की इस विधि के इस्तेमाल से कीट/रोगों में कमी, सिंचाई की लागत में कमी और कम लागत में अधिक पैदावार जैसे आर्थिक फ़ायदे भी देखे गए हैं।

पंजाब में एडब्लूडी की प्रासंगिकता

पंजाब सरकार ने हाल के वर्षों में जल-बचत तकनीकों (जैसे, डीएसआर यानी डायरेक्ट सीडिंग राइस, सीडिंग ऑन बेड्स, एडब्लूडी आदि) को बढ़ावा देने की पहल की है। लेकिन इसे अपनाने में मिट्टी के प्रकार, किसानों के व्यवहार, और मशीन से जुड़े मुद्दे बाधा बनते आए हैं।

एडब्लूडी सीधे तौर पर उन इलाकों में सबसे ज्यादा उपयोगी है जहां सिंचाई-नेटवर्क नियंत्रित है और सिंचाई-समय के नियंत्रण की डोर किसानों के हाथ में हैं। पंजाब के अधिकांश हिस्सों में सिंचित खेतों का स्वरूप यही है। इसलिए एडब्लूडी का पायलट-आधारित विस्तार पंजाब के लिए तर्कसंगत विकल्प बनकर उभर रहा है।

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) के विशेषज्ञों ने जल-बचत की सलाह में एडब्लूडी का जिक्र और समर्थन दोनों किया है। लेकिन इसके साथ ही, सिंचाई के इस तरीके को अपनाने के लिए स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार प्रशिक्षण और निगरानी को भी ज़रूरी बताया है।

साइंस डायरेक्ट की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि अलग-अलग जलवायु और मिट्टी के लिए एडब्लूडी के फ़ायदे और उपज पर पड़ने वाले प्रभाव भी अलग होते हैं। लेकिन यह ध्यान देने लायक बात है कि स्थानिक विविधता यानी मिट्टी की बनावट, जल स्तर की गहराई आदि के कारण हर जगह इसके नतीजे एक जैसे नहीं होते।

क्या कहते हैं इस तरह सिंचाई करने वाले किसान

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब में लुधियाना ज़िले के लीहान गांव के दरबार सिंह 15 एकड़ ज़मीन पर खेती करते हैं। दूसरे किसानों की तरह ही वे भी धान की खेती के लिए सिंचाई के पारंपरिक तरीके ही अपनाते थे। लेकिन इस साल उन्होंने अपने खेत के एक हिस्से में सिंचाई के लिए एडब्लूडी विधि अपनाई।

"पहले हम अपने खेतों में लगभग रोज़ ही पानी पटाते थे लेकिन इस विधि से सिंचाई करने पर अब सप्ताह में एक बार या कई मामलों में 4-5 दिनों में एक बार सिंचाई की ज़रूरत पड़ती है। इससे औसतन 20 और कभी-कभी तो 35 से 40 प्रतिशत पानी बच जाता है," दरबार सिंह बताते हैं।

इस विधि से सिंचाई करके पानी की बचत करने वाले दरबार सिंह अकेले नहीं हैं। मोगा ज़िले के पूरनेवाल गांव के हरप्रीत सिंह का भी कुछ ऐसा ही अनुभव है। हरप्रीत सिंह ने पिछले साल अपनी 2 एकड़ ज़मीन पर एडब्लूडी विधि से सिंचाई की थी और इस साल उन्होंने इसे बढ़ाकर 5 एकड़ पर करने का मन बनाया है।

वहीं फतेहगढ़ साहिब ज़िले के धतोंदा गांव के मंदीप सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस से अपनी बातचीत में कहा कि उन्होंने कुल 9 एकड़ ज़मीन में एडब्लूडी पाइप लगाए थे। उनका कहना है कि इस तरह से सिंचाई करने से न केवल पानी की बचत होती है, बल्कि पौधों को ज़्यादा पानी के कारण होने वाली पत्ता लपेट, शीथ ब्लाइट जैसी बीमारियों और फ़ंगस से भी बचाया जा सकता है।

मंदीप सिंह किसान मित्र भी हैं, इसलिए उनका कहना है कि अगले साल वे अपने गांव के अलावा आसपास के 4-5 गांवों के किसानों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करेंगे कि वे भी अपने खेतों की सिंचाई इसी विधि से करें।

स्थानीय स्तर पर ‘सुका सुका के पानी लाऊं दी विधि’ नाम से प्रचलित, सिंचाई का यह तरीका धीरे-धीरे पंजाब के दूसरे ज़िलों में भी किसानों का ध्यान अपनी तरफ़ खींच रहा है।

चुनौतियां और जोखिम

‘सुका सुका के पानी लाऊं दी विधि’ नाम से स्थानीय स्तर पर प्रचलित सिंचाई का यह तरीका धीरे-धीरे पंजाब के दूसरे ज़िलों में भी किसानों का ध्यान अपनी तरफ़ खींच रहा है।
‘सुका सुका के पानी लाऊं दी विधि’ नाम से स्थानीय स्तर पर प्रचलित सिंचाई का यह तरीका धीरे-धीरे पंजाब के दूसरे ज़िलों में भी किसानों का ध्यान अपनी तरफ़ खींच रहा है।चित्र: रेनन एग्रीकल्चर

खरपतवार में तेज़ी: एडब्लूडी के सूखा चरण में खेतों पर खरपतवार का दबाव (Weed-pressure) बढ़ा सकता है। ट्रांसप्लान्टेड (स्थानांतरित) धान के मामले में यह समस्या ज़्यादा बड़ी हो सकती है। इसलिए, फसल के शुरुआती चरण में इनकी साफ़-सफ़ाई, कटाई और नियंत्रण पर विशेष ध्यान दिये जाने की ज़रूरत होती है।

इस विधि में पानी की उचित मात्रा के कारण धान के पौधों के साथ ही मिट्टी में पहले से बीज की शक्ल में मौजूद खरपतवारों को भी विकसित होने के लिए अनुकूल वातावरण मिलता है। नतीजतन, धान के पौधों को विकसित होने के लिए इनसे प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। इसलिए सिंचाई की इस विधि में खेतों की ज़्यादा जुताई के साथ ही समय-समय पर खरपतवारों से निवारण के उपाय भी करने पड़ सकते हैं।

मिट्टी के प्रकार को ध्यान में रखना: बहुत हल्की बनावट वाली मिट्टी, जैसे बलुआ मिट्टी में पानी का निकास जल्दी हो जाता है और इसकी जलधारण क्षमता कम होती है। ऐसी में एडब्लूडी को ठीक तरह इस्तेमाल करने के लिए मिट्टी के हिसाब से यह तय करना ज़रूरी होता है कि यहां कितने दिन सूखा रखा जाए और कब पानी दिया जाए। पंजाब के कई हिस्सों में मिट्टी की प्रकृति अलग-अलग है, इसलिए एडब्लूडी के इस्तेमाल से पहले पर्याप्त सूझबूझ और रणनीति ज़रूरी है।

किसानों की समझ और प्रशिक्षण: एडब्लूडी के लिए फील्ड-वाटर-ट्यूब लगाना, नियमित मॉनिटरिंग और समय-समय पर सिंचाई करना बहुत ज़रूरी होता है। इसके लिए किसानों को प्रशिक्षण दिये जाने और सरकारी समर्थन का राज्य के अंतिम किसान तक पहुंचना ज़रूरी है।

नीतियों में प्रोत्साहन की कमी: टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के अनुसार पंजाब सरकार की नीतियों में डाइरेक्ट सीडिंग राइस जैस पानी-सचेत विकल्प हैं, पर कई तकनीकी विकल्पों को अपनाने पर मिलने वाली छूट और स्टॉक/मशीनरी सब्सिडी को कम कर दिया गया है। नतीजतन, बहुत से किसान बड़े खर्च के कारण इन तरीकों को नहीं अपना पा रहे हैं।

एडब्लूडी के लिए लक्ष्य-आधारित प्रोत्साहन और प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। पंजाब के लिए एडब्लूडी केवल एक तकनीक नहीं, बल्कि यह जल-सुरक्षा, जलवायु संबंधित लचीलेपन और खेती को नियमित बनाए रखने का एक व्यावहारिक रास्ता है।

उचित पायलट, प्रशिक्षण, आर्थिक प्रोत्साहन और लगातार वैज्ञानिक निगरानी की मदद से सिंचाई की इस वैकल्पिक व्यवस्था को लागू करके बिना पैदावार में कमी लाए राज्य की पानी की समस्या को कम किया जा सकता है। इसके अलावा, मिट्टी और पानी की गुणवत्ता को फिर से बहाल करने में भी सिंचाई का यह तरीका कारगर साबित हो सकता है।

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