ऊसर मृदाएँ एवं उनका प्रबंधन
विश्व का बहुत बड़ा भूभाग ऊसर मृदाओं के रूप में पाया जाता है। कृषि खाद्य संगठन (FAO) के अनुसार विश्व में ऊसर मृदाओं का क्षेत्रफल लगभग 952 मिलियन हेक्टेयर है। वहीं भारत में इनका क्षेत्रफल लगभग 7.0 मिलियन हेक्टेयर है जो सन 1959 ई. के क्षेत्रफल से लगभग साढ़े तीन गुना अधिक है। इससे स्पष्ट होता है कि ऊसर सुधार के तमाम प्रयासों के बावजूद भी इन मृदाओं का क्षेत्रफल कम होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है, जो देश के कृषि के लिये एक गम्भीर समस्या है।
ऊसर संस्कृत के ‘ऊसर’ शब्द से विकसित हुआ है जिसका अर्थ होता है- अनुपयुक्त भूमि। ऊसर शब्द सभी प्रकार की लवणी, क्षारीय एवं लवणीय-क्षारीय मृदाओं के लिये प्रयोग किया जाता है। ऊसर मृदाओं को आम बोलचाल की भाषा में ‘रेह’ कहा जाता है। उत्तरी भारत में इन मृदाओं को कुछ अन्य नामों जैसे- लोना, शोरा, रेह, रेहटा, क्षार एवं खार के नाम से भी जाना जाता है। वहीं पंजाब एवं दिल्ली में लवणीय मृदाओं को ‘थर’ एवं क्षारीय मृदाओं को ‘रक्कर’ तथा ‘बारा या वारी’ के नाम से जाना जाता है। राजस्थान में लवणीय मृदाओं को रेह, खारी, कल्लर या नमकीन तथा क्षारीय मृदाओं को ऊसर तथा लवणीय-क्षारीय मृदाओं को रेह, खारी के नामों से पुकारा जाता है।
ऊसर भूमियों में घुलनशील लवणों या विनिमय सोडियम की अधिकता पायी जाती है। ये घुलनशील लवण वाष्पीकरण प्रक्रिया द्वारा धरातल पर एकत्र होते रहते हैं, परिणामस्वरूप मिट्टी की ऊपरी सतह सफेद दिखाई पड़ने लगती है। मृदा घोल में इन लवणों की सांद्रता बढ़ जाने के कारण पौधे मिट्टी से जल तथा पोषक तत्व सुगमता से नहीं ले पाते जिसका पौधों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। सोडियम की अधिकता से मृदा की भौतिक दशा अत्यंत खराब हो जाती है। साथ ही मृदा का पी एच भी काफी बढ़ जाता है जो पौधों के लिये जानलेवा साबित होता है। अत: ये मृदाएँ कृषि की दृष्टिकोण से अत्यंत निम्नकोटि की मानी जाती हैं।
भारत में ऊसर मृदाओं का अध्ययन : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
तालिका-1 : भारत में ऊसर मृदाओं का विवरण | |
राज्य | क्षेत्रफल (मिलियन हेक्टेयर) |
उत्तर प्रदेश | 1.295 |
गुजरात | 1.214 |
पं. बंगाल | 0.850 |
राजस्थान | 0.728 |
पंजाब | 0.688 |
महाराष्ट्र | 0.534 |
हरियाणा | 0.526 |
ओडि़सा | 0.404 |
कर्नाटक | 0.404 |
मध्य प्रदेश | 0.224 |
आंध्र प्रदेश | 0.042 |
अन्य राज्य | 0.040 |
कुल | 6.949 |
तालिका- 2 : ऊसर मृदाओं के भौतिक एवं रसायनिक गुण | |||
मृदा के गुण | ऊसर मृदाएँ | ||
लवणीय | लवणीय-क्षारीय | क्षारीय | |
पी. एच. | < 8.5 | < 8.5 | 8.5-10 |
ई. सी. (डे.सी./मी.) | > 4 | > 4 | < 4 |
विनिमय सोडियम प्रतिशत | < 15 | > 15 | > 15 |
प्रबलता से पाये जाने वाले लवण | कैल्सियम के साथ सल्फेट, क्लोराइड एवं नाइट्रेट | - | सोडियम कार्बोनेट |
सोडियम अवशोषण अनुपात | < 13 | > 13 | > 13 |
कुल घुलनशील लवण सान्द्रता (%) | > 1 | > 1 | < 1 |
श्रंग | सफेद | - | काला |
भौतिक दशा | मृदा कण संगठित | सोडियम लवणों के आधार पर मृदा कण संगठित | असंगठित मृदा कण |
भारत में ऊसर मृदाओं का वितरण
ऊसर मृदाओं का वर्गीकरण
लवणीय मृदाएँ
लवणीय-क्षारीय मृदाएँ
(क) कार्बोनेट टाइप :
इस प्रकार की मृदा को प्रबल घुलनशील आयन सोडियम होता है जो कि सोडियम कार्बोनेट (Na2Co3) के रूप में रहता है इसके संतृप्त सोडियम की मात्रा 90-95 प्रतिशत तक पायी जाती है जिसके चलते मृदा गठन छिन्न-भिन्न हो जाता है, परिणामस्वरूप आंतरिक जल निकास अवरुद्ध हो जाता है इन मृदाओं में 50-60 सेमी की गहराई पर कंकड़ जैसी एक ठोस परत पायी जाती है। इनका रंग धूसर-भूरा से लेकर धूसर लिये हुए पीला होता है। इनमें चूने की पर्याप्त मात्रा पायी जाती है।
(ख) सल्फेट टाइप :
ये मृदाएँ उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में कहीं-कहीं पायी जाती है। इनमें प्रबल सोडियम घनायन सोडियम सल्फेट के रूप में उपस्थित रहता है। इनका रंग सतह पर तो राख की तरह धूसर परंतु कुछ गहराई पर पीला होता है। ये मृदाएँ ठोस संरचना वाली होती है लेकिन सतह मुलायम होने के कारण धूल से आच्छादित रहती है।
क्षारीय मृदाएँ
1. वनस्पति -
क्षारीय मृदाओं के निर्माण में मृदा पर आने वाली वनस्पतियों का नि:संदेह योगदान है जिसका समर्थन केल्लाग (1934) एवं कुछ रूसी वैज्ञानिकों ने भी किया है। केंद्रीय लवणीय मृदा संस्थान करनाल (हरियाणा) के अनेक शोधकर्ताओं ने यह बताया कि क्षारीय मृदाओं में निक्षालन की क्रिया इस हद तक अपनाने पर कि उसमें कुछ पौधों की बढ़वार अग्रसर होने लगे हैं। पौधों के इस बढ़वार के कारण केवल बचे हुए लवण ही निक्षालित नहीं होते वरन मृदा के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में भी परिवर्तन होने लगता है।
2. Na लवण के प्रकार -
कावदा एवं इवानोवा ने क्षारीय मृदाओं के विकास के संबंध में लवणों से संबंधित निम्न 6 कारकों का उल्लेख किया है -
(क) संचित होने वाले सोडियम लवण के प्रकार
(ख) CaCO3 या NaSo4 की उपस्थिति अनुपस्थिति तथा मृदा परिच्छेदिका (Soil profile) में इनकी स्थिति।
(ग) घुलित Ca++ या Na- की अनुपात
(घ) संपूर्ण सांद्रण
(ड़) निक्षालन की मात्रा
(च) ऐसी मृदाओं में उगने वाली वनस्पतियाँ।
इनके अनुसार सोलोनेज (क्षारीय) मृदाओं का निर्माण क्लोराइड सल्फेट एवं कार्बोनेट के धारण करने वाली सोलनचक (लवणीय) मृदा के कारण हुआ है एवं सल्फ़ेट सोलनचक की अपेक्षा क्लोराइड सोलनचक से सोलोनेज मृदाओं का निर्माण शीघ्र होता है। क्लोराइड मृदाओं में यदि घुलनशील Ca++ तथा Na+ का अनुपात 1:9 हो तो सोलोनेज मृदाओं का निर्माण शीघ्र होता है। परंतु सल्फेट सोलनचक मृदाओं के उपस्थित होने पर Ca++ एवं Na+ का अनुपात 1:18 होना ही प्रभावकारी होता है।
मृदा में जैसे-जैसे विनिमय की सांद्रता बढ़ती जाती है घुलनशील लवणों की सांद्रता में कमी होती जाती है तथा पी एच बढ़ता जाता है। इसलिये इन मृदाओं में घुलनशील लवणों की अधिक मात्रा नहीं पाई जाती। साधारणतया यह मात्रा 0.3-0.5 प्रतिशत तक होती है परंतु कभी-कभी यह 1 प्रतिशत तक भी पहुँच जाती है। जाड़े एवं गर्मियों के मौसम में इन मृदाओं की सतह पर सफेद एवं कभी-कभी काले रंग की पपड़ी दिखाई पड़ती है। सतह पर काले रंग की यह पपड़ी मांटमोरिल्लोंनाइट खनिज के गहरे ह्यू (hue) के कारण होती है। इस तरह मृदा को यदि हाथ में लेकर पानी मिलाया जाय तो साबुन जैसा अनुभव होता है।
क्षारीय मृदा बनने के वर्तमान अवधारणा के अनुसार मृदा जल में सोडियम (Na), कैल्सियम (Ca), क्लोराइड (CI), सल्फेट (SO4), कार्बोनेट (CO3) तथा बाइ्रकार्बोनेट (HCO3) होते हैं जो मृदा कलिल के साथ साम्य बनाए रहते हैं। मृदा जल में इन लवणों के सांद्रण बढ़ने पर कैल्सियम कार्बोनेट, पहले अवक्षेपित हो जाता है क्योंकि इसकी घुलनशीलता सोडियम कार्बोनेट की अपेक्षा 100 कम होती है। अत: मृदा कलिल पर विनिमय सोडियम की अधिकता होने से मृदा का पी एच (>8.5) बढ़ जाता है तथा मृदा की भौतिक दशा अत्यंत खराब हो जाती है। परिणामस्वरूप फसलोत्पादन अच्छी नहीं होती है।
ऊसर मृदाओं में उगायी जाने वाली फसलें
ऊसर मृदा सुधार
तालिका-3 लवण सहनशील फसलें | ||
उच्च सहनशील फसलें | मध्यम सहनशील फसलें | संवेदनशील फसलें |
धान | गेहूँ | मटर |
गन्ना | सरसों | चना |
जौ | मक्का | सेम |
जई | बाजरा | चना |
मेंथी | ज्वार | मूंगफली |
लहसुन | कपास | मूंग |
ढैचा | अरण्डी | लेबिया |
चुकंदर | बरसीम | |
स्रोत : उप्पल एवं साथी (1961), एबोल एवं फरमैन (1977) |
लवणीय मृदाओं की सुधार की विधि
मेड़बंदी :
इस विधि के अंतर्गत खेत के चारों ओर मजबूत मेढ़ बनाये जाते हैं। तत्पश्चात उसमें पानी भर दिया जाता है अथवा वर्षा के पानी को एकत्र होने दिया जाता है जिससे घुलनशील लवण घुल मृदा के निचली सतहों में चले जाते हैं। यदि ऊसर भूमि का पी एच मान 8.5 से नीचे हो तो सिर्फ इस विधि के प्रयोग से ही उसे सुधारा जा सकता है। खेतों में मेड़बंदी का कार्य गर्मियों (अप्रैल से जून) में जब जल स्तर पर्याप्त गहराई पर चला जाता है तथा खेत परती (खाली) रहता है कर देना सुविधाजनक एवं लाभप्रद होता है।
समतलीकरण :
समतलीकरण ऊसर भूमि के सुधार का एक महत्त्वपूर्ण विधि है। यदि जमीन समतल नहीं है या उबड़-खाबड़ है तो खनिज लवण या जैव पदार्थ कहीं-कहीं गड्ढों में एकत्रित हो जाते हैं। इस प्रकार एक उपजाऊ भूमि में जगह-जगह ऊसर भूमि बन जाती है जिसका सुधार बहुत कठिनाई से हो पाता है।
निक्षालन :
इस विधि का प्रयोग लवणीय एवं क्षारीय दोनों प्रकार की मृदाओं में सुगमतापूर्वक किया जा सकता है। लवणीय मृदाओं में निक्षालन जल निकास का समुचित प्रबंध करने के तत्काल बाद ही किया जा सकता है, परंतु क्षारीय मृदाओं में निक्षालन के पूर्व किसी सुधार (जैसे जिप्सम या पाइराइट्स) का प्रयोग करना अति आवश्यक होता है। संयुक्त राज्य लवणीय प्रयोगशाला में किये गये अपने अध्ययनों से बोअर एवं फारमैन (1957) इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जड़ों के आस-पास उपस्थित लवणों में से आधे लवणों को जड़ों से 30 सेमी. तक दूर करने के लिये लगभग 15 सेमी जल की आवश्यकता होती है। निक्षालन क्रिया से फसलों के लिये आवश्यक अधिकांश पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं मैग्नीज की मृदा में कमी हो जाती है।
जल-निकास :
जैसा कि हम जानते हैं मृदा में लवणों की उत्पत्ति में सबसे अधिक योगदान जल-निकास का अवरुद्ध होना है। अत: इन मृदाओं के सुधार एवं प्रबंध में जल निकास पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
क्षारीय मृदाओं का सुधार
1. जिप्सम :
जिप्सम घुलनशील कैल्सियम का एक अत्यंत सस्ता स्रोत है। अत: इसका प्रयोग प्राय: सभी मृदाओं के लिये सुगमतापूर्वक किया जा सकता है। जिप्सम का प्रभाव भारी गठन, ऊँचे जल-स्तर तथा अधिक पी एच एवं विनिमेय सोडियम आयन वाली मृदाओं में सबसे अच्छा दिखता है। भारत में जिप्सम का प्रयोग सर्वप्रथम लीथर (भारतीय मृदा विज्ञान के पिता) ने सन 1897 में किया। भुंभला एवं साथियों (1971) के अनुसार औसतन 15-22.5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से जिप्सम की प्रयोग, अधिकांश मृदाओं के लिये उत्तम होता है। अगर जिप्सम का प्रयोग 10 सेमी की गहराई पर किया जाय तो इसका प्रभाव अच्छा पड़ता है।
2. पाइराइट्स :
निम्न कोटि के पाइराइट्स में लौह 39-40 प्रतिशत एवं गंधक (सल्फर) 43-44 प्रतिशत पाया जाता है। जिसको मृदा में डालने पर ऑक्सीकरन के कारण गंधक एवं लौह गंधक बनाते हैं जो हवा और पानी से क्रिया करके गंधक का अम्ल (सल्फ़्यूरिक अम्ल) बनाते हैं। फिर सल्फ़्यूरिक अम्ल मृदा में उपस्थित कैल्सियम कार्बोनेट से क्रिया कर कैल्सियम सल्फेट बनाता है जो मृत्तिका अधिशोषित सोडियम आयन को हटाने का काम करता है। कैल्सियम सल्फेट से कैल्सियम अलग होकर सोडियम का स्थान ग्रहण कर लेता है तथा विस्थापित सोडियम, सल्फेट के साथ मिलकर सोडियम सल्फेट बनाकर, पानी के साथ निक्षालित हो जाता है। इस प्रकार मृदा का सुधार हो जाता है। प्रो. संत सिंह के देखरेख में वाराणसी जिले के किसानों के खेत में किये गये प्रयोगों ने प्रमाणित कर दिया है कि जिस ऊसर भूमि में पहले बीज अंकुरित तक नहीं होता था वहाँ पाइराइट डालकर अच्छी फसल उगाई गयी। डा. मुंगला एवं डा. एब्राल के 1971-72 में किये गये परीक्षणों से साबित हुआ है कि धान की खेती में पाइराइट्स का प्रयोग करने से 35 प्रतिशत तक फसलोत्पादन में वृद्धि देखी गयी। इन्हीं खेतों में बिना पाइराइट्स के प्रयोग से गेहूँ की फसल में भी 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई। पाइराइटस के प्रयोग हेतु मई के अंतिम सप्ताह या जून के प्रथम सप्ताह में (सितंबर के अंत या अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में) खेत की एक जुताई करने के बाद उसे समतल करके, मजबूत मेढ़ बना देनी चाहिए। तत्पश्चात, पाइराइट्स को खेत में बराबर बिखेर कर 10 सेमी की गहराई तक मिट्टी में मिला देनी चाहिए और तुरंत 5-7 सेमी पानी भर देनी चाहिए। फिर जुलाई के प्रथम सप्ताह में धान की रोपाई करनी चाहिए। अक्टूबर के अंतिम सप्ताह या उसके बाद से गेहूँ की बुवाई करनी चाहिए।