भारत की कृषि और आर्थिक स्थिरता के लिए व्यापक जल प्रबंधन रणनीतियाँ (भाग 1)
किसी भी सभ्यता के विकास के लिए जल आवश्यक है। जबकि वैश्विक मीठे जल की उपलब्धता स्थिर बनी हुई है, जलविज्ञानीय संतुलन में बदलाव, अतिदोहन और प्रदूषण के कारण क्षेत्रीय आपूर्ति निरंतर घट रही है। कई विकासशील देश पहले से ही जल की भारी कमी का सामना कर रहे हैं। ये कमियाँ खाद्य उत्पादन, पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण और स्वास्थ्य, सामाजिक स्थिरता और शांति बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियां पेश करती हैं, इस क्षेत्र में भारत भी कोई अपवाद नहीं है। कृषि, नगरपालिका सेवाओं, उद्योग और पर्यावरण जैसे क्षेत्रों में जल अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उपरोक्त सभी क्षेत्रों में से कृषि के लिए सबसे अधिक जल की 36 आवश्यकता होती है। प्रेस सूचना ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार, उच्च मांग परिदृश्यों के तहत 2025 तक सिंचाई के लिए उपलब्ध जल का 72.48% उपयोग अनुमानित है। भारत का शुद्ध सिंचित क्षेत्र 1950-51 में 20.85 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 2022-23 तक 77 मिलियन हेक्टेयर हो गया है। इसी अवधि के दौरान, खाद्यान्न उत्पादन 50 मीट्रिक टन से बढ़कर 329.68 मीट्रिक टन हो गया है, जो सिंचाई विकास में निवेश से प्रेरित है, विशेषतः वित्तीय वर्ष 2022-23 में, नलकूपों ने भारत में 36 मिलियन हेक्टेयर से अधिक शुद्ध क्षेत्रों को सिंचित किया है। इसके बाद नहरों का निर्माण किया गया जो 19 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र को सिंचित करती हैं।
वर्तमान दशकों में, जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण, खाद्य उत्पादन में वृद्धि और औद्योगिक विस्तार के कारण भारत की जल की मांग में वृद्धि हुई है, जिसके कारण भूजल का अत्यधिक दोहन, गुणवत्ता में गिरावट और प्रदूषण बढ़ गया है। मीठे जल के संसाधनों को औद्योगिक और नगरीय अपशिष्टों से खतरा बढ़ रहा है। स्वतंत्रता के समय, भारत की प्रति व्यक्ति मीठे जल की उपलब्धता 6008 वर्ग मीटर/वर्ष थी। जिसमें 1997 तक, लगभग 2200 वर्ग मीटर/वर्ष तक कमी हो गई। जल की यह उपलब्धता 2001 में घटकर 1816 वर्ग मी./वर्ष, 2011 में 1545 वर्ग मी./वर्ष एवं 2021 में 1486 वर्ग मी./वर्ष हो गयी थी। वर्ष 2031 एवं 2050 में इस उपलब्धता का क्रमशः 1367 वर्ग मी./वर्ष और 1140 वर्ग मी./वर्ष तक होना अनुमानित है। भारत के 20 प्रमुख नदी बेसिनों में से छह में पहले से ही प्रति व्यक्ति स्वच्छ जल की उपलब्धता क्रमशः 1000 वर्ग मीटर/वर्ष से कम है। भारत में जल संबंधी चुनौतियां जटिल हैं और इन उभरते मुद्दों के समाधान के लिए व्यापक विश्लेषण और प्रबंधन की आवश्यकता है।
भारत के जल संसाधन
भारत में उपलब्ध सतही जल संसाधन, विश्व के 2.45% सतही क्षेत्र को कवर करते हैं जो वैश्विक जल संसाधनों का 4% है और विश्व की 17% जनसंख्या की जल संबंधी मांगों की पूर्ति करते हैं। इसके बावजूद, जल वितरण की असमानता तथा जलवायु परिवर्तन में वृद्धि के कारण प्रभावी जल प्रबंधन और संरक्षण की आवश्यकता है।
देश में 1180 मिमी माध्य वार्षिक वर्षा होती है, जो असमान वितरण के कारण कृषि के क्षेत्र में चुनौतियां खड़ी करती है। भारत को प्राप्त वर्षा से कुल जल संसाधनों के 4,000 बिलियन घन मी. (BCM) में से केवल 1123 बिलियन घन मीटर (690 बिलियन घन मीटर सतही जल और 433 बिलियन घन मीटर भूजल) उपयोग के योग्य हैं। सतही जल स्रोतों में नदियां, झीलें, तालाब और टैंक सम्मिलित हैं। भारत की सभी नदी घाटियों में प्रवाहित होने वाली नदियों एवं सहायक नदियों का अनुमानित औसत वार्षिक प्रवाह 1,869 किमी है। वर्ष 2050 तक, जल की औसत मांग 1447 बिलियन घन मीटर तक पहुंचने का अनुमान है, जो वर्तमान उपयोगी जल संसाधनों से 324 बिलियन घन मीटर अधिक है। कृषि, भूजल दोहन, उद्योग, ऊर्जा और नगरपालिकाओं की निरन्तर बढ़ती मांगें, बेहतर जल प्रबंधन की आवश्यकता को दर्शाती हैं, जिसमें मुख्य हैं:
1. वर्षा द्वारा सिंचित और जलभराव वाले क्षेत्रों की उत्पादकता में वृद्धि।
2. सिंचित क्षेत्रों में सतही और भूजल का कुशल संयुग्मी उपयोग।
3. कृषि में ग्रेवाटर का सतत उपयोग।
भूजल संसाधन
भूजल भारत की अर्थव्यवस्था के विकास के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है, परन्तु अनियमित निष्कर्षण के कारण हरियाणा, पंजाब और राजस्थान जैसे क्षेत्रों में, जहां निष्कर्षण की मात्रा पुनःपूरण से अधिक है, इसका अतिशय प्रयोग हुआ है। भारत में उपलब्ध वार्षिक पुनःपूरण योग्य भूजल संसाधन 433 बिलियन घन मीटर एवं शुद्ध वार्षिक भूजल उपलब्धता 399 बिलियन घन मीटर है। जिसमें से 245 बीसीएम जल सिंचाई के लिए उपयोग किया जाता है, जो शुद्ध उपलब्ध जल का 62% है।
भूजल पुनर्भरण क्षेत्रीय रूप से भिन्न होता है, पूर्वी भारत में उच्चतम पुनर्भरण होता है लेकिन यहां विकास स्तर सबसे कम (40.7%) है। राष्ट्रीय स्तर पर, भूजल विकास 63.3% है।
2005 और 2020 की अवधि में, उत्तरी और पूर्वी भारत में उपयोगी भूजल में तेजी से कमी पाई गई, जिससे क्रमशः 8.5 किमी/वर्ष और 5 किमी वर्ष की हानि हुई। भारत में 85% से अधिक भूजल का उपयोग गैर-मानसून महीनों के दौरान सिंचाई के लिए किया जाता है। वर्तमान में, भारत के 3% ब्लॉक गंभीर और 11% अर्ध-गंभीर चरण में हैं। वृहत्त पैमाने पर भूजल की निरंतर कमी भविष्य की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल सकती है, गर्मियों में सूखे के कारण भूजल के प्रभावित होने और 2050 तक सभी मौसमों के संभावित रूप से प्रभावित होने का अनुमान है।
भारत में जल प्रबंधन में चुनौतियाँ
वर्षा आधारित कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र की चुनौतियाँ
भारत के वर्षा आधारित कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र में वर्षा आधारित कृषि के अन्तर्गत 72 मिलियन हेक्टेयर कृषि भूमि के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण जल प्रबंधन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसमें भी कम कृषि उत्पादकता वाले सूखा-प्रभावित और बाढ़-प्रभावित दोनों क्षेत्र शामिल हैं। लगभग 33% वर्षा आधारित क्षेत्रों में 1100 मिमी से अधिक वर्षा होती है, जबकि अन्य 33% क्षेत्रों में 750-1100 मिमी वर्षा होती है, जो जल की उपलब्धता की स्थानिक और कालिक विविधता को दर्शाता है।
बाढ़ और सूखे की स्थानिक और कालिक विविधता
वर्ष 2000 और 2020 के बीच भारत में बाढ़ और सूखे के कारण 51% प्राकृतिक आपदाएं और 76% हानि हुई है। दक्षिण-पश्चिम मानसून (जून-अक्टूबर) द्वारा वार्षिक वर्षा का 70% से अधिक जल प्राप्त होता है, जिससे सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदी घाटियों में विनाशकारी बाढ़ आ जाती है। लगभग 43% जनसंख्या आवर्ती बाढ़ से ग्रस्त है, जबकि सूखे से भी प्रतिवर्ष एक विशाल भू-भाग प्रभावित होता है, जिससे ग्रामीण क्षेत्र वर्षा आधारित कृषि पर निर्भर होते हैं।
बिहार और असम में बाढ़ के कारण एक विशाल भू-भाग में निवास करने वाले जनमानस प्रभावित होते हैं, जबकि गुजरात और राजस्थान में सूखे की विभीषिका में कमी पाई गई है, जो 2000 के दशक के प्रारम्भ में 35% से अधिक से घटकर 2015 में 5% से कम हो गई है।
फसल उत्पादन में उच्च स्थानिक भिन्नता
वर्ष 2022-23 में भारत ने 329.68 मीट्रिक टन खाद्यान्न का उत्पादन किया, जिसमें पूर्वी क्षेत्र का राष्ट्रीय उत्पादन में 29.6% का योगदान रहा। फसल उत्पादकता देशभर में व्यापक रूप से भिन्न होती है, उदाहरणतः पंजाब (4.2 टन/हेक्टेयर), हरियाणा (3.3 टन/हेक्टेयर), आंध्र प्रदेश (2.7 टन/हेक्टेयर), असम (1.5 टन/हेक्टेयर), बिहार (1.7 टन/हेक्टेयर), और छत्तीसगढ़ (1.0 टन/हेक्टेयर)। कुशल सिंचाई प्रबंधन इस उत्पादकता के अंतर को दूर करने में सहायता कर सकता है। भारत में 11.6 मिलियन हेक्टेयर खारे और जलभराव वाले क्षेत्र हैं, जो सिंचित क्षेत्रों में खराब जल निकासी के कारण उत्पन्न होते हैं। इनमें से 2.16 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र अधिक सिंचाई के कारण जल स्तर में वृद्धि से प्रभावित हैं।
शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में, जलभराव से मृदा की लवणता में वृद्धि होती है, जिससे कृषि उत्पादकता और कम हो जाती है।
पूर्वी भारत में उच्च वर्षा और विशिष्ट स्थलाकृति के कारण, अत्यधिक जलभराव वाले क्षेत्र पाये जाते हैं, जिनके प्रभावी प्रबंधन के लिए तकनीकी हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
सिंचित कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र की चुनौतियाँ
राष्ट्रीय स्तर पर सिंचित क्षेत्र के विस्तार में स्थानिक असमानता के कारण, 49.2% कृषि योग्य भूमि सिंचित है, जिसमें पंजाब (98.6%) और हरियाणा (91.4%) प्रमुख राज्य हैं। पूर्वी भारत 47.7% सिंचित क्षेत्र के साथ काफी पीछे हैं। सिंचाई क्षेत्र में वृद्धि किये जाने के लिए देश के पूर्वी भाग में अधिक सिंचाई बुनियादी ढांचा तैयार करने की आवश्यकता है। विकसित देशों की 50-60% सिंचाई क्षमता की तुलना में भारत की सिंचाई क्षमता 38% कम है। इसका तात्पर्य है कि प्रति यूनिट फसल उत्पादन में अधिक जल का उपयोग किया जाता है, जो बेहतर सिंचाई प्रौद्योगिकियों की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।
यह आलेख दो भागों में है
1- भारत की कृषि और आर्थिक स्थिरता के लिए व्यापक जल प्रबंधन रणनीतियाँ (भाग 1)
2 - भारत की कृषि और आर्थिक स्थिरता के लिए व्यापक जल प्रबंधन रणनीतियाँ (भाग 2)
सपंर्क करेंः डॉ. चन्द्र प्रकाश, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की, उत्तराखंड।