जब कभी गाँव जाता हूँ तो देखता हूँ कि सब लोग सहमे-सहमे से अपने काम पर लगे हुए हैं। लोगों में एक प्रकार का शीत युद्ध छिड़ा हुआ है। हमारी त्यबारी में तम्बाकू पीने के बहाने आकर आधी रात तक इधर-उधर की गप्प मारने वाले लोग कहीं गायब हो गए हैं। वह पीढ़ी ही समाप्त हो गई है। परिवार पर चलने वाले दादा के शासन के दिन अब लद चुके हैं। अब दादा अशक्त, असहाय होकर त्यबारी के एक कोने में दुबके रहते हैं। इन बीस सालों में कितना बदल गया है मेरा गाँव।

दलेबू दादा के नेतृत्व में भैंस्वाड़ी और बाखेत के चारागाह ग्वाल-बालों के कोलाहल से सजीव हो उठते थे। एक तरफ गायें चुगती थीं और दूसरी तरफ दलेबू दादा के कुशल सेनापतित्व में कुश्ती, गिली डंडा और कबड्डी का खेल खेला जाता था लेकिन आज मेरे गाँव से गाय नाम की वस्तु समाप्त हो गई है।
गाँव के गली-कूचे अब अपेक्षाकृत अधिक साफ सुथरे रहते हैं। लोगों के घर-आँगन में भी अब अपेक्षाकृत अधिक सफाई नजर आती है। गली-कूचों में मेरी तरह ही नन्हें-मुन्ने आज भी खेलते हैं। हाँ, वे अब क्रिकेट खेल की नकल भी उतारने लगे हैं। मेरे साथ खेलने वाली पीढ़ी जवान होकर परिवार के झंझटों में उलझ गयी है।
कभी गाँव की युवतियाँ ठांक डाँडे से बाँज के बोझ काटकर लाती थीं। अब मैं देखता हूँ पूरा डंडा ही खल्वाट हो गया है। वहाँ अब मात्र कंटीली झाड़ी रह गई है। इसलिये लोगों का डांडा जाना भी छूट गया है। वैसे भी परिश्रमी और शक्तिशाली लोगों का अभाव सा हो गया है। प्रत्येक युवती चाहती है कि वह भी पति के साथ शहर में जाकर गुलछर्रे उड़ाये। हाथी की धार में खड़ा तोण का विशाल वृक्ष अब वहाँ पर नहीं रहा है। विद्यालय से आते हुए हम वहाँ पर विश्राम किया करते थे। कभी-कभी उस वृक्ष की छाया में चन्दन भाई मेरी और सत्तू चाचा की लड़ाई करवा देते थे। चन्दन भाई स्वयं कुशल और पक्षपाती रैफरी का रोल करते हुए कहता था, ‘झुड़-झुड़ लड़ै, सिंग न तुड़ै, हाँ बे, कैकी चुफली पर लग्दू थूक’। हार जाने पर चोटी पर थूल लग जाने के भय से हम पूरी शक्ति से मल्ल युद्ध करते थे। अब तो विद्यालय गाँव में ही खुल गया है। पढ़ने वालों की संख्या भी अधिक हो गई है।
सूबेदार फतहसिंह ताऊ और हवलदार हीरा सिंह दादा ड्यूटी पर जाते समय घर-घर जाकर सबसे मिला करते थे। दादी उन्हें अखरोट, बुखणा और भंगजीर देकर विदा करती थी अब तो दादी चल बसी है और वे दोनों अवकाश प्राप्त कर चुके हैं। उनके द्वारा डाली गई परम्परा नई पीढ़ी के सैनिकों ने समाप्त कर दी है। वे चुपचाप घर आते हैं और चुपचाप नौकरी पर चले जाते हैं। कौन आ रहा है और कौन जा रहा है, इससे किसी को कोई सरोकार भी नहीं रहता है। बीरू बडा अब वृद्ध हो गया है। अब भी वह बच्चों को डराया करता है। किसी समय वह भाँति-भाँति की बोली बोल कर और तरह-तरह से मुँह बनाकर हम बच्चों को डराया करते थे। बगड़ के हम बच्चों में वह ‘कानकतरू’ के नाम से जाना जाता था। किसी चीज के लिये जिद करने पर दादी ‘कानकतरू’ और ‘कौण्या बूड’ का भय दिखा कर मुझे जिद छोड़ने के लिये बाध्य करती थी। जाजल स्कूल जाते समय दादी मेरी जेब में चाकू और ‘हनुमान चालीसा’ रखना नहीं भूलती थी। डिब्या पाणी से गुजरते समय कई बार रुम्क पड़ जाती थी। तब मैं चाकू हाथ में लेकर जोर-जोर से कहता था- ‘जै हनुमान ज्ञान गुन सागर, जै कपीस तिहूँ लोक उजागर ….., भूत पिशाच निकट नहीं आवें, महावीर जब नाम सुनावें।’….छछराण के पास वाली जमीन खाली पड़ी रहती थी। बरसात में वहाँ खूब झाड़ी उग जाती थी। वहाँ पर अब किसी ने खेत बना दिया है। वहाँ से गुजरने में मुझे अब भी उस काले नाग का भय बना रहता है जिसने कभी मुझे वहाँ पर डंसा था।


भंडाण की चर्चा करते हुए बरबस दादा की याद आ जाती है। गाँव भर में दादा सर्वोत्तम किस्म के नचाड़ माने जाते थे। कुंजापुरी देवी, घंटाकरण महादेव और नागराजा देवता उनके सिर बारी-बारी से आते थे। जब किसी भंडाण में दादा नहीं जाते थे तो सोये-सोये उन पर देवी आ जाती थी। देवी के गण सौंराल्या का पश्वा आकर दादा को कंधे पर उठा कर भंडाण में ले जाता था। भागीरथ ताऊ भी बहुत वृद्ध हो गये हैं। कभी वे भैरू देवता के ‘पश्वा’ हुआ करते थे और एक विशेष शैली में नाचा करते थे। अब उस तरह के ‘नचाड़’ लोगों का अभाव हो गया है। वर्ष भर में दीपावली के अवसर पर ही गाँव में भंडाण लगाया जाता है। अब तो लोगों के पास रेडियो और टेलीविजन आ गये हैं। भंडाण से लोगों की रुचि हट गई है। भंडाण के शैकीन लोग ही ‘खाती’ राजा के इन शब्दों का आनन्द ले सकते हैं।
हे म्यरा ढोली कालीदासऽऽ
माछू भारी खैल्योड, कपट रंचल्योऽऽ
बजौ म्यरा दास, चंडी-मंडी बाजूऽऽ, चंडी का औतारऽऽ
हेऽऽ, देख दौं, गजब ह्वैगेऽऽ, जैन्ती सुन्नकार रैगेऽऽ
हैऽऽ, जब आली देवी द्रोपदी, तब सजली हमारी जैंती
पिंगली मंडाणीऽऽ।
दार-सांग जैसा बड़ा काम मिल-जुल कर करने के बदले लोग उसे मजदूरी में करना अधिक पसन्द करते हैं। ढाई किलोमीटर दूर खाड़ी के होटलों में दूध बेच कर तो चाय-चीनी का खर्च निकाल देते हैं। पीने का पानी नलों द्वारा गाँव में आ गया है। अब महिलाओं को पानी लाने के लिये एक किलोमीटर की चढ़ाई नहीं चढ़नी पड़ती है। बिजली आने से सारा गाँव प्रकाश से जगमगा उठा है। लेकिन मुझे लगता है, मेरे गाँव की आत्मा मर रही है और उसमें शहर की आत्मा प्रविष्ट हो रही है।
एक थी टिहरी (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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