चन्देल और बुन्देलाकालीन जल विज्ञान के साक्ष्य

चन्देल और बुन्देलाकालीन जल विज्ञान के साक्ष्य

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बुन्देलखण्ड परिचय

बुन्देलखण्ड का प्राकृतिक परिदृश्य

बुन्देलखण्ड में जल विज्ञान और जल प्रणालियाँ

चन्देलों द्वारा बनवाए तालाबों को मुख्यतः निम्न दो वर्गो में बाँटा जा सकता है-

अ.

पेयजल और स्नान हेतु तालाब-इन तालाबों पर घाट बनाए जाते थे।

ब.

सिंचाई और पशुओं के लिये निस्तारी तालाब

चन्देलों द्वारा बनवाए तालाबों का एक और वर्गीकरण है। यह वर्गीकरण अधिक प्रसिद्ध है। इस वर्गीकरण के अन्तर्गत तालाबों को निम्नलिखित दो वर्गो में बाँटा जाता है-

क.

स्वतंत्र तालाब (स्वतंत्र एकल संरचना)

ख.

तालाब शृंखला (सम्बद्ध तालाबों की शृंखला, सांकल या शृंखलाबद्ध तालाब)

पन्द्रहवीं सदी के मध्यकाल से लेकर अट्ठारहवीं सदी तक बुन्देलखण्ड पर बुन्देला राजाओं का आधिपत्य रहा। छत्रसाल सहित लगभग सभी बुन्देला राजाओं ने तालाब निर्माण की चन्देल परिपाटी को आगे बढ़ाया। उन्होंने चन्देल काल में बने कुछ तालाबों की मरम्मत की, कुछ का पुनर्निर्माण किया और अनेक नए तालाब बनवाए। कुछ तालाबों से सिंचाई के लिये नहरें निकालीं। उनके शासनकाल में बनाए तालाबों का आकार अपेक्षाकृत बड़ा था जो यह सिद्ध करता है कि चन्देल काल में जल विज्ञान की समझ, तालाब निर्माण की तकनीक और उसे प्रभावित एवं नियंत्रित करने वाले घटकों पर जल वैज्ञानिकों की निर्णायक पकड़ थी। तालाबों के आकार में हुई उत्तरोत्तर वृद्धि सिद्ध करती है कि बुन्देलखण्ड की धरती पर भारतीय जल विज्ञान का क्रमिक विकास हुआ था। उसी विकास ने दीर्घायु जल संरचनाओं के निर्माण का रास्ता सुगम किया।

अनुपम मिश्र ने महाराजा छत्रसाल के बारे में एक कहानी का जिक्र किया है। इस कहानी के अनुसार छत्रसाल के बेटे जगतराज को गड़े हुए खजाने के बारे में एक बीजक मिला था। बीजक में अंकित सूचना के आधार पर जगतराज ने खजाना खोद लिया। जब इसकी जानकारी महाराजा छत्रसाल को लगी तो वे बहुत नाराज हुए। उन्होंने अपने बेटे को उस धन की मदद से चन्देल राजाओं द्वारा बनवाए सभी तालाबों की मरम्मत और नए तालाब बनवाने का आदेश दिया। कहा जाता है कि उस धन से 22 विशाल तालाबों का निर्माण हुआ। यह कहानी, तालाब निर्माण तकनीकों की सहज उपलब्धता, सामाजिक स्वीकार्यता और गड़े धन को परोपकार के कामों पर खर्च करने के सोच को उजागर करती है। बुन्देलों की नजर में परोपकार का अर्थ तालाब बनवाना या उनकी मरम्मत करवाना था। चित्र सत्रह में टीकमगढ़ का महेन्द्र सागर तालाब दर्शाया गया है।

कहा जाता है कि निर्माण लागत की दृष्टि से बुन्देला राजाओं द्वारा बनवाए तालाब, चन्देल राजाओं द्वारा बनवाए तालाबों की तुलना में महंगे और निर्माण की दृष्टि से जटिल थे बुन्देला तालाबों की जल संग्रहण क्षमता अधिक थी। वे पानी/नमी की बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अधिक मुफीद, अधिक वैज्ञानिक और दीर्घजीवी थे दूसरे शब्दों में, वे बुन्देलखण्ड में उपलब्ध उन्नत भारतीय जल विज्ञान और निर्दोष निर्माणकला के कालजयी साक्ष्य थे। इन विशाल तालाबों का रखरखाव राजकीय अमले के द्वारा किया जाता था वहीं निजी तालाबों के रखरखाव की जिम्मेदारी ग्रामवासियों की थी।

बुन्देलखण्ड के राजाओं द्वारा बसाहट के निकट और छोटी-छोटी पहाड़ियों के ढाल पर बनवाए तालाब सामान्यतः छोटे आकार के हैं। ग़ौरतलब है कि बुन्देलखण्ड के कुछ इलाकों में, जहाँ छोटे आकार के तालाब बनाने के लिये उपयुक्त स्थल और अधिक मात्रा में बरसाती पानी मिलता था, वहाँ राजाओं ने पानी सहेजने के लिये तालाबों की शृंखलाएँ बनवाई थी। जो बरसाती पानी के अधिकतम संचय की साक्ष्य थीं। यह साक्ष्य स्थानीय टोपोग्राफी के सदुपयोग और रन-आफ के बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग का द्योतक है।

बुन्देलखण्ड के राजाओं ने उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियों में विशाल जलाशयों का भी निर्माण कराया था। बड़े तालाबों को सागर कहा जाता था। कुछ स्थानीय लोग, विशाल तालाबों को बनवाने वाले राजा की कीर्ति और उसकी महानता के प्रतीक के रूप में देखते हैं। इन तालाबों का नाम, उनको बनवाने वाले राजाओं के नाम पर रखा जाता था। बुन्देलखण्ड में बने विशाल तालाबों में कीरतसागर, मदनसागर और रहेलियासागर प्रमुख तालाब हैं।

चन्देल राजाओं के बाद जल संचय की परम्परा को आगे बढ़ाने का सिलसिला बुन्देला राजाओं के शासनकाल में भी जारी रहा। ओरछा नरेश महाराजा प्रतापसिंह ने 7086 कुएँ-बावड़ियाँ, 73 नए तालाब बनवाए और 450 चन्देल तालाबों का जीर्णोंद्धार कराया था। इनमें कुछ मिट्टी के तो कुछ चूने से जुड़े पक्के तालाब थे। महाराजा प्रतापसिंह ने सिंचाई सुविधा के लिये स्लूइस बनवाए और खेतों तक नहरों का निर्माण करवाया। तालाब बनवाने का सिलसिला विकसित बसाहटों तक सीमित नहीं था। कहा जाता है कि चन्देल और बुन्देला राजाओं ने टीकमगढ़ जिले के सघन वन क्षेत्रों में जंगली जीवों और जनजातीय लोगों के लिये लगभग 40 तालाब, बनवाए थे। इनमें से अभी भी 24 तालाब अस्तित्व में हैं। इतने सालों तक इन तालाबों का बने रहना बेहतर तकनीकी समझ का जीता-जागता प्रमाण है।

पिछले कुछ सालों में बुन्देलखण्ड के प्राचीन तालाबों के विभिन्न घटकों की भूमिका को ग्रहण लगा है। सबसे अधिक नुकसान तालाबों के कैचमेंटों का हुआ है। लगभग सभी कैचमेंटों में जंगल कटे हैं। उनके चारागाह विलुप्त हुए हैं। उनमें भूमि कटाव बढ़ा है। भूमि कटाव के कारण मुक्त हुई मिट्टी (गाद) पुराने तालाबों में जमा हो रही है। कैचमेंटों की भूमिका पर ग्रहण लगने के कारण तालाबों में गाद जमा होने लगी है। गाद जमा होने के कारण पुराने तालाबों की मूल भूमिका खतरे में पड़ गई है।अनुपम मिश्र कहते हैं कि तालाब निर्माण की परम्परा को समाज और बंजारों ने भी आगे बढ़ाया था। इसी क्रम में लाखा बंजारा द्वारा सागर नहर में बने तालाब का जिक्र मौजूं है। कहा जाता है कि पुराने वक्त में हजारों पशुओं का कारवाँ लेकर बंजारे व्यापार के लिये निकलते थे। वे गन्ने के क्षेत्र से धान के क्षेत्र में गुड़ ले जाते और फिर वहाँ से धान लाकर दूसरे इलाकों में बेचते थे। बंजारों के कारवाँ में सैकड़ों की तादाद में चरवाहे होते थे। बंजारे जहाँ पड़ाव डालते वहाँ पानी का प्रबन्ध होना आवश्यक होता था इसलिये जहाँ वे जाते वहाँ यदि पहले से बना तालाब नहीं होता तो वे वहाँ तालाब बनाना अपना कर्तव्य समझते थे। ऐसे ही किसी लाखा बंजारे ने सागर शहर में विशाल तालाब बनवाया था। यह उदाहरण इंगित करता है कि भारतीय जल विज्ञान तथा तालाबों के निर्माण की कला समाज की धरोहर थी और समाज का हर वर्ग उनके निर्माण के लिये स्वतंत्र था। बुन्देलखण्ड क्षेत्र के लोगों के अनुसार आज भी, हर गाँव में कम-से-कम एक पुराना तालाब जरूर है। आज भले ही पुराने तालाब बदहाली झेल रहे हों या विलुप्त हो गए हों, पर गुजरे वक्त में उन्होंने बखूबी अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह किया था।

मध्य प्रदेश के झील संरक्षण प्राधिकरण द्वारा प्रकाशित लेख एटलस में कुछ प्रमुख तालाबों की सूची, मौजूदा आकार, गाद की स्थिति और पानी की गुणवत्ता के बारे में संक्षिप्त विवरण दिया गया है। उपर्युक्त एटलस के अनुसार दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर और पन्ना जिलों में बने कुछ पुराने तालाबों का विवरण निम्नानुसार है-

जिला

तालाब का नाम

प्रकार, वर्तमान क्षेत्रफल, गहराई और समस्या

दतिया

करनसागर

मिट्टी का बाँध, 20 हेक्टेयर एवं 6 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

सीतासागर

मिट्टी का बाँध, 25 हेक्टेयर एवं 8 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

लाला का ताल

मिट्टी का बाँध, 148 हेक्टेयर एवं 7 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

असनई ताल

मिट्टी का बाँध, 15 हेक्टेयर एवं 6.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

नया ताल

मिट्टी का बाँध, 8 हेक्टेयर एवं 5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

राधासागर

मिट्टी का बाँध, 2 हेक्टेयर एवं 4 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

रामसागर

मिट्टी का बाँध, 5 हेक्टेयर एवं 6 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

लक्ष्मणताल

मिट्टी का बाँध, 3 हेक्टेयर एवं 3.1 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

तरणतारण ताल

मिट्टी का बाँध, 10 हेक्टेयर एवं 8 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

छतरपुर

किशोर सागर

मिट्टी का बाँध, 3.318 हेक्टेयर एवं 10 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

सनतरी तलैया

मेसनरी, 3.602 हेक्टेयर एवं 3 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

परमानन्द तलैया

मिट्टी का बाँध, 0.664 हेक्टेयर एवं 4 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

ग्वालमंगरा या सिद्धेश्वर तालाब

मेसनरी, 3.642 हेक्टेयर एवं 5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

रावसागर तालाब

मेसनरी, 5.163 हेक्टेयर एवं 6 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

रानी तलैया

मेसनरी, 3.035 हेक्टेयर एवं 5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

प्रताप सागर

मेसनरी, 14.2 हेक्टेयर एवं 8 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

छुई खदान तलैया

मिट्टी का बाँध, 0.8 हेक्टेयर एवं 2.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

नरसिंह तलैया

मिट्टी का बाँध, 0.8 हेक्टेयर एवं 2.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

पाथापुर तलैया

मिट्टी का बाँध, 0.607 हेक्टेयर एवं 2 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

भैंसासुर मुक्तिधाम तलैया

मिट्टी का बाँध, 0.8 हेक्टेयर एवं 6 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

पन्ना

बेनीसागर

मिट्टी का बाँध/ मेसनरी बाँध, 7.9 हेक्टेयर एवं 6 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

धर्मसागर

मिट्टी का बाँध, 23.07 हेक्टेयर एवं 6 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

निरपत सागर

मिट्टी का बाँध, 75 हेक्टेयर एवं 5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

लोकपाल सागर

मिट्टी का बाँध, 25 हेक्टेयर एवं 20 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

दहालन ताल

मिट्टी का बाँध, 7.33 हेक्टेयर एवं 4 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

पथरिया तालाब

मिट्टी का बाँध, 0.82.286 हेक्टेयर एवं 2 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

मिरजा राजा की तलैया

मिट्टी का बाँध, 0.94 हेक्टेयर एवं 2.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

राम तलैया

मिट्टी का बाँध, 1.315 हेक्टेयर एवं 2 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

मिसर तलैया

मिट्टी का बाँध, 1.376 हेक्टेयर एवं 2.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

मठिया तालाब

मिट्टी का बाँध, 4.043 हेक्टेयर एवं 3 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

सिंगपुर तालाब

मिट्टी का बाँध, 5.706 हेक्टेयर एवं 2.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

महाराजा सागर

मिट्टी का बाँध, 4.323 हेक्टेयर एवं 2.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

टीकमगढ़

महेन्द्र सागर

मिट्टी का बाँध, 150-200 हेक्टेयर एवं 12.0 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

रेहिरा तालाब

मिट्टी का बाँध, 83 हेक्टेयर एवं 12.0 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

दीपताल (कारी ग्राम)

मिट्टी का बाँध, 250 हेक्टेयर एवं 8.0 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

बिंदावन सागर

मिट्टी का बाँध, 8.09 हेक्टेयर एवं 3.0 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

सैल सागर

मिट्टी का बाँध, 3.23 हेक्टेयर एवं 0.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

 

रोरैया ताल

मिट्टी का बाँध, अप्राप्त एवं 0.5 मीटर, गाद भराव और बिगड़ती गुणवत्ता

इस विवरण में तालाब बनाने का उद्देश्य, निर्माण वर्ष, जल उपयोग पर सामन्ती एवं वर्ण व्यवस्था का प्रभाव, निर्माण एवं जल संग्रह में भारतीय जल विज्ञान की भूमिका, धरती का चरित्र और तालाबों के पर्यावरणी योगदान तथा बदहाली के कारण सम्मिलित नहीं है। झील प्राधिकरण द्वारा प्रकाशित एटलस बताता है कि लगभग सभी पुराने तालाबों में गाद का जमाव हुआ है। उनका पानी, पीने योग्य नहीं है।

मध्य प्रदेश के बंदोबस्त विभाग के रिकार्ड के अनुसार टीकमगढ़ जिले में चन्देल राजाओं द्वारा बनवाए तालाबों की संख्या 962 है। अधिकांश पुराने तालाब अब समाप्ति की कगार पर हैं। इनमें से 125 पुराने तालाबों की जमीन (डूब क्षेत्र) पर खेती होती है। उल्लेख के योग्य बचे तालाबों की संख्या 421 से कम है।

पिछले कुछ सालों में बुन्देलखण्ड के प्राचीन तालाबों के विभिन्न घटकों की भूमिका को ग्रहण लगा है। सबसे अधिक नुकसान तालाबों के कैचमेंटों का हुआ है। लगभग सभी कैचमेंटों में जंगल कटे हैं। उनके चारागाह विलुप्त हुए हैं। उनमें भूमि कटाव बढ़ा है। भूमि कटाव के कारण मुक्त हुई मिट्टी (गाद) पुराने तालाबों में जमा हो रही है। कैचमेंटों की भूमिका पर ग्रहण लगने के कारण तालाबों में गाद जमा होने लगी है। गाद जमा होने के कारण पुराने तालाबों की मूल भूमिका खतरे में पड़ गई है। कई तालाब सूख गए हैं। कुछ अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रहे हैं तो कुछ इतिहास के पन्नों में खो गए हैं। मध्य प्रदेश के जल संसाधन विभाग ने कुछ पुराने जलाशयों में बदलाव कर सिंचाई प्रारम्भ की है। यह बदलाव आधुनिक मापदंडों के अनुसार हुआ है। इन बदलावों के कारण, जलाशयों का भारतीय जल विज्ञान पक्ष नष्ट हो गया है। इसका असर तालाब के मूल अवदान और उम्र पर पड़ा है।

काशीप्रसाद त्रिपाठी के अनुसार चन्देल काल में तालाबों के आगौर में खेती वर्जित थी। इस वर्जना के कारण गाद जमाव और जल संग्रहण क्षमता कम होने का खतरा बहुत कम था। यही बुन्देलखण्डी वर्जना, तालाब के कैचमेंट की शुद्धता और येागदान को परिभाषित करती है। बुन्देलखण्ड में तालाब के आगौर को चारागाह के रूप में सुरक्षित रखा जाता था। चारागाहों के कारण, भूमि संरक्षित रहती थी और कैचमेंट से न्यूनतम गाद आती थी। तालाब के आसपास और निचले क्षेत्र में खेती की जाती थी। उसके निचले क्षेत्रों की मिट्टी में अधिक समय तक नमी बनी रहती थी। नमी उपलब्धता की लम्बी अवधि के कारण फसल का सही विकास होता था और उसके सूखने का खतरा कम रहता था। यह उदाहरण पानी और नमी की भूमिका को प्रतिपादित करता है। यह भारतीय जल विज्ञान है। यह विज्ञान पारिस्थितिकी गहन समझ के आधार पर येागदान को निर्धारित करता है।

काशीप्रसाद त्रिपाठी कहते हैं कि तालाब में जल भराव की हकीक़त को दर्शाने के लिये स्नानघाट की सीढ़ियों पर संकेतक लगाए जाते थे। इन संकेतकों से लोग परिचित होते थे। उन्हें हथनी, कुड़ी, चरई अथवा चौका के नाम से जाना जाता था। त्रिपाठी कहते हैं कि किन्हीं-किन्हीं तालाबों के बीच में अधिकतम जलस्तर दर्शाने के लिये पत्थर का खम्भा लगाया जाता था। इस खम्भे के शीर्ष पर जल स्तर के पहुँचते ही वेस्टवियर सक्रिय हो जाता था और समाज को तालाब के ओवर फ्लो होने की जानकारी हो जाती थी। यह बाढ़ की चेतावनी देने वाली सामाजिक व्यवस्था थी जिसके मूल में देशज जल विज्ञान था। त्रिपाठी के अनुसार बुन्देलखण्ड का इलाका व्यवसाय की दृष्टि से अविकसित और खेती आधारित इलाका था। बुन्देलखण्ड में राजाओं को करों से बहुत कम आय होती थी। इसके बावजूद, चन्देल राजाओं ने तालाब निर्माण पर अपार धन व्यय किया था। चन्देल राजाओं के राजधर्म पालन करने के कारण, अल्प जल और कम आबादी वाले बुन्देलखण्ड को जीवन मिला। इसने उनकी कीर्ति में चार चाँद लगाए। किंवदन्तियाँ हैं कि चन्देल राजाओं के पास पारस पत्थर था। उन्होंने इस पत्थर की मदद से लोहे को सोने में बदला और प्राप्त धन को तालाबों की पाल पर बने मन्दिरों के आसपास गाड़ दिया। किवदन्तियों के फेर में पड़े बिना कहा जा सकता है कि तालाबों के निर्माण के माध्यम से राजाओं का राजधर्म और जल विज्ञान का मानवीय चेहरा उजागर हुआ।

चन्देल राजाओं की आय का मुख्य साधन कृषि राजस्व था। त्रिपाठी कहते हैं कि अधिसंख्य तालाबों का निर्माण हुआ तो खेती का रकबा बढ़ा। लोग रोज़गार में लग गए। व्यापारी व्यवसाय में, किसान खेती में और मजदूरी बेलदार एवं दक्ष कारीगर तालाब निर्माण और उनकी मरम्मत में लग गए। जल विज्ञान का अवदानी घटक, समज की आजीविका का ज़रिया बना। जब पूरे समाज के हाथ में काम आया तो समाज में सम्पन्नता आई। यही चन्देलों के सुशासन का मूल मंत्र था। यही जल विज्ञान आधारित अर्थ व्यवस्था थी।

चन्देल राजाओं ने अपने शासनकाल में बुन्देलखण्ड के विभिन्न इलाकों में तालाबों (तड़ागों), कुओं, (कूपों) और बावड़ियों (बेरे या वापियों) का निर्माण कराया था। कहा जाता है कि चन्देल राजाओं ने तालाब निर्माण की शुरुआत बेतवा से केन नदी के बीच के सूखा प्रभावित, लम्बे और अविकसित इलाके से की थी। कुओं और बावड़ियों का निर्माण उन्होंने बसाहटों और प्रमुख मार्गों पर कराया था। राजाओं द्वारा बनवाए अधिकांश तालाब नहर विहीन थे यह तथ्य इंगित करता है कि तालाबों के निर्माण का उद्देश्य सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराना नहीं था। चन्देल और बुन्देला राजाओं के वक्त में, बुन्देलखण्ड के मध्य प्रदेश वाले हिस्से में तालाबों, बंधियाओं और बावड़ियों का निर्माण हुआ था। भारतीय एवं विदेशी पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों ने बंधियाओं को छोड़कर तालाबों और बावड़ियों के पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक पक्षों पर काफी शोध किया है। लेकिन शोध पत्रों में तलाबों और बावड़ियों के निर्माण का प्रयोजन, प्रयुक्त तकनीकों, पर्यावरणी पक्ष और धरती से उनके सह-सम्बन्धों का विवरण अनुपलब्ध है। यही बात, किसी हद तक बंधियाओं के बारे में कही जा सकती है। खैर, कारण कुछ भी हों पर एक बात साफ है कि बुन्देलखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों की परिस्थितियों से मेल खाती तालाब निर्माण की तकनीकों और बरसात की अनिश्चितता के कुप्रभाव को यथासम्भव कम करने वाली जल प्रणालियों से सम्बल पाती निरापद सूखी खेती के तकनीकी पक्षों को समझने की दिशा में बहुत कम काम हुआ है। इसके अतिरिक्त, भारतीय जल विज्ञान और जल प्रणालियों की प्रासंगिकता को आधुनिक विज्ञान के नजरिए से कभी परखा या समझा ही नहीं गया है। हो सकता है, प्रस्तुत समझ कुछ नए विकल्प पेश करे।

बुन्देलखण्ड में जल विज्ञान के आयाम

बुन्देलखण्ड में जल संरक्षण

बुन्देलखण्ड में निरापद खेती

पुराने तालाबों का तकनीकी पक्ष

बूँदों की विरसतों की भूमिका की बहाली

बदलता परिदृश्य


बुन्देलखण्ड में नैसर्गिक संसाधनों का परिदृश्य और खेती के नजरिए में बदलाव हो रहा है। बुन्देलखण्ड में पहला बदलाव नैसर्गिक संसाधनों को लेकर है। ज्ञातव्य है कि सन 1950 में बुन्देलखण्ड में लगभग 40 प्रतिशत जंगल थे जो अब घटकर 26 प्रतिशत से भी कम हैं। दूसरा नैसर्गिक बदलाव बरसात को लेकर है। पिछले कुछ सालों से बरसात के चरित्र में असामान्य बदलाव देखा जा रहा है। इस बदलाव के कारण सूखे की अवधि और बाढ़ की फ्रीक्वेन्सी बढ़ रही है। आईआईटी दिल्ली, सेंटर फॉर रूरल डेवलपमेंट एंड टेक्नोलॉजी और विज्ञान शिक्षण केन्द्र उत्तर प्रदेश ने पिछले बीस (सन 1978 से 1998 तक) साल के आँकड़ों का अध्ययन कर अनुमान लगाया है कि 1978, 1980, 1982, 1984, 1986 और 1992 से 1995 के सालों में बाढ़ का प्रकोप और सन 1978 1979, 1980, 1984, 1986, 1990 और 1993 से 1995 में बुन्देलखण्ड के चार जिलों में गम्भीर सूखा देखा गया था।

सन 1995 की गर्मी में बाँदा (उत्तर प्रदेश) में दिन का अधिकतम तापमान 52 डिग्री सेंटीग्रेड पहुँच गया था। ज्ञातव्य है कि मध्य प्रदेश का सर्वाधिक तापमान छतरपुर, नौगाँव और खजुराहो में रिकॉर्ड किया जाता है। मौसम के असामान्य व्यवहार के कारण बुन्देलखण्ड में वर्षा दिवस घट रहे हैं, कम समय में अधिक पानी बरस रहा है और उसकी फसल हितैषी भूमिका घट रही है। किसी-किसी साल ठंड के मौसम में पाला पड़ रहा है। कुछ लोगों को यह बदलाव, जलवायु बदलाव के सम्भावित प्रभाव से घटित होता प्रतीत हो रहा है। उनका मानना है कि आने वाले दिनों में यह प्रवृत्ति और अधिक गम्भीर स्वरूप लेगी।

बुन्देलखण्ड में तीसरा बदलाव खेती के पुराने नज़रिए में है। यह बदलाव सन 1960 के दशक के बाद हरित क्रान्ति के रूप में सामने आया। परिणामस्वरूप उन्नत खेती की अवधारणा लागू हुई और अधिक पानी चाहने वाले उन्नत बीज, रासायनिक खाद, कीटनाशक, ट्रैक्टर, बिजली से चलने वाले सेंट्रीयूगल और समर्सिबल पम्प प्रचलन में आये। सरकार ने उन्नत खेती से जुड़े लगभग हर इनपुट को सब्सिडी और कर्ज के माध्यम से प्रोत्साहित किया। सरकार और वित्तीय संस्थाओं के मिलेजुले प्रयासों से किसान की प्रवृत्ति में बदलाव आया और कर्ज आधारित खेती को प्रोत्साहन मिला।

तीसरे बदलाव के अनुक्रम में लेखक का मानना है कि आधुनिक खेती बाह्य इनपुट आधारित खेती है। वह एक जटिल डायनिमिक सिस्टम की तरह से होती है। उससे लाभ तभी मिलता है जब पूरा सिस्टम बिना व्यवधान के काम करे। अर्थात आधुनिक खेती तभी सफल है जब मौसम साथ दे, पूरे वक्त आदर्श परिस्थितियाँ उपलब्ध हों और सभी बाहरी घटकों का उपयुक्त समय पर पूरा-पूरा सहयोग मिले। प्रसंगवश उल्लेख है कि आधुनिक खेती अपनाने के कारण कतिपय प्रकरणों में छोटी जोत वाले किसानों को प्रति हेक्टेयर अधिक उत्पादन मिला पर यह स्थिति हर साल नहीं रही। कुछ लोगों को लगता है कि छोटे किसानों के लिये परम्परागत खेती का देशज मॉडल ही निरापद है। लगता है कि बुन्देलखण्ड का मौजूदा जल संकट और खेती के क्षेत्र में आ रही दुश्वारियाँ, बूँदों की विरासत के समयसिद्ध नजरिए में आये बदलाव के कारण हैं।

पुराने तालाबों की भूमिका की बहाली - सम्भावनाएँ


झील संरक्षण प्राधिकरण का लेक एटलस इंगित करता है कि बुन्देलखण्ड के प्राचीन तालाब बदहाली के दौर से गुजर रहे हैं। सही मायनों में वे लगभग वेन्टीलेटर पर हैं। नजरिया, हालात एवं परिस्थितियों के बदलने के कारण उनकी वास्तविक भूमिका की बहाली की राह में अन्तहीन कठिनाइयाँ हैं। बुन्देलखण्ड के प्राचीन तालाबों का निर्माण भारतीय जल विज्ञान की फिलासफी के आधार पर हुआ था। चूँकि उस जल विज्ञान को जानने समझने और काम में लाने वाली पीढ़ी लगभग अनुपलब्ध है इसलिये लेखक को लगता है कि पाश्चात्य जल विज्ञान की मदद से बुन्देलखण्ड के प्राचीन तालाबों की मूल भूमिका की बहाली सम्भव नहीं है।

विदित हो कि भूमि उपयोग को छोड़कर बुन्देलखण्ड का भूगोल और भूविज्ञान यथावत है इसलिये उनकी भूमिका की आंशिक बहाली की सम्भावनाएँ मरी नहीं हैं। यह कहना किसी हद तक सही होगा कि चन्देल और बुन्देला काल के तालाबों के वैज्ञानिक पक्ष की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी पुराने समय में थी।

भारतीय जल विज्ञान की समझ के आधार पर आगे बढ़ने से आंशिक बहाली सम्भव है। अतः जो लोग, भारतीय जल विज्ञान की पुरातन समझ के आधार पर पुराने तालाबों के बारहमासी और गाद मुक्त चरित्र को सुनिश्चित कर सकें, को ही जिम्मेदारी सौंपी जाये।

यह कहना प्रासंगिक है कि आधुनिक युग में जल संरचनाओं के निर्माण के काम में कोताही बिल्कुल नहीं है। पहले की तुलना में कई गुना अधिक धन और अवसर उपलब्ध हैं पर जल संरचनाओं की आत्मा और निर्माणकर्ताओं का दृष्टिबोध विदेशी हो गया है। इसी कारण, जल संचय का काम, अपनी धार, अपना बारहमासी चरित्र तथा समाज से लगाव खो रहा है। यह किताब, बुन्देलखण्ड क्षेत्र के विसराए ज्ञान को आगे लाने, प्राचीन तालाबों और खेती की पुरानी निरापद एवं समयसिद्ध पद्धति के पक्ष में शोध करने और सम्भावित अवसरों तथा साक्ष्यों को खोजने की पुरजोर वकालत करती है।

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