Anupam Mishra
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राज, समाज और पानी : चार

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अनुपम मिश्र


मरुभूमि में वर्षा नहीं, सूरज बरसता है। औसत तापमान 50 डिग्री पर रहता है। तो पानी, वर्षा बहुत ही कम और सूरज खूब ज्यादा - ये दो बातें जहाँ एक हो जाएं वहाँ आज की पढ़ाई तो हमें यही बताती है कि जीवन दूभर हो जाता है। इसमें एक तीसरी चीज और जोड़ लें- यहाँ ज्यादतर हिस्सों में पाताल पानी, भूजल खारा है। पीने लायक नहीं है।

जीवन को बहुत ही कठिन बनाने वाले इन तीन बिन्दुओं से घिरा यह रेगिस्तान दुनिया के अन्य रेगिस्तानी इलाकों की तुलना में बहुत ही अलग है। यहाँ उनके मुकाबले ज्यादा बसावट है और उस बसावट में सुगंध भी है।

इस सुगंध का क्या रहस्य है। रहस्य है यहाँ के समाज में। मरुप्रदेश के समाज ने प्रकृति से मिलने वाले इतने कम पानी का, वर्षा का कभी रोना नहीं रोया। उसने इस सबको एक चुनौती की तरह लिया और अपने को ऊपर से नीचे तक इतना संगठित किया, कुछ इस ढंग से खड़ा किया कि पानी का स्वभाव पूरे समाज के स्वभाव में बहुत ही सरल और तरल ढंग से बहने लगा 'साइं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय' के बदले उसने कहा होगा 'साइं जितना दीजिए, वामे कुटुंब समाय'। इतने कम पानी में उसने इतना ठीक प्रबंध कर दिखाया कि वह भी प्यासा न रहे और साधु तो क्या असाधु को भी पानी मिल जाए।

पानी का काम यहाँ भाग्य भी है और कर्तव्य भी। वह सचमुच भाग्य ही तो था कि महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र; हरियाणा से अर्जुन को साथ लेकर वापस द्वारिका इसी मरुप्रदेश के रास्ते लौटे थे। यह विचित्र किस्सा बताता है कि उनका शानदार रथ जैसलमेर से गुजर रहा था। जैसलमेर के पास त्रिकूट पर्वत पर उन्हें उवुंग ऋषि तपस्या करते मिले। श्री कृष्ण ने उन्हें प्रणाम किया। फिर उनके तप से प्रसन्न होकर उन्होंने ऋषि से वर माँगने को कहा था। उवुंग का अर्थ है उँचा। ये ऋषि सचमुच ऊँचे निकले। उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा। प्रभू से यार्थना की कि यदि मेरे कुछ पुण्य हैं तो भगवन वर दें कि इस मरुभूमि पर कभी जल का अकाल न रहे।

'तथास्तु', भगवान ने वरदान दे दिया था। कोई और समाज होता तो इस वरदान के बाद हाथ पर हाथ रख बैठ जाता। सोचता, कहता कि लो भगवान कृष्ण ने वरदान दे दिया है कि यहाँ पानी का अकाल नहीं पड़ेगा तो अब हमें क्या चिंता, हम काहे को कुछ करें। अब तो वही सब कुछ करेगा।

लेकिन मरुभूमि का भाग्यवान समाज मरुनायक “श्रीकृष्ण को मरुनायक भी कहा जाता है।“ से ऐसा वरदान पाकर हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठा। उसने अपने को पानी के मामले में तरह-तरह से कसा। गाँव-गाँव, ठाँव-ठाँव, वर्षा को रोक लेने की, सहेज लेने की एक से एक सुंदर रीतियाँ खोजीं।

रीति के लिए यहाँ एक पुराना शब्द है वोज। वोज यानी रचना, मुक्ति और उपाय भी। इस वोज के अर्थ में विस्तार भी होता जाता है। हम पाते है कि पुराने प्रयोगों में वोज का उपयोग सामर्थ्य, विवेक और फिर विनम्रता के अर्थ में भी होता था। वर्षा की बूँदों को सहेज लेने का वोज यानी विवेक भी रहा और उसके साथ ही पूरी विनम्रता भी।

इसीलिए यहाँ समाज ने वर्षा को इंचों या सेंटीमीटरों में नहीं नापा। उसने तो उसे बूँदें में मापा होगा। पानी कम गिरता है? जी नहीं। पानी तो करोड़ों बूँदें में गिरता है। फिर ये बूँदों भी मामूली नहीं। उसने इन्हें 'रजत बूँदों' कहा। उसी ढंग से इनको देखा और समझा। अपनी इस अद्भुत समझ से, वोज से उसने इन रजत बूँदों को सहेजने की एक ऐसी भव्य परंपरा बना ली जिसकी धवल धारा इतिहास से निकल कर वर्तमान में तो बह ही रही है, वह भविष्य में भी बहेगी।

इतिहास, वर्तमान और भविष्य का ध्यान रखना, आज विज्ञान, पर्यावरण आदि के क्षेत्र में विकास की नई शब्दावली में एक आदर्श की तरह देखा जाता है। धरती के संसाधनों का उपयोग वर्तमान पीढ़ी किस संतुलन से करे कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी साफ हवा, पानी, जमीन, खेती, खनिज और शायद पैट्रोल भी उसी तरह मिले-जैसे आज मिलता है- ऐसी बात करने, कहने वाले बड़े पर्यावरणविद् कहलाते हैं। ऐसी बात तो यहाँ गाँव-गाँव में न जाने कब से न सिर्फ कही गई, उस पर लोगों ने अमल की भी लंबी परंपरा डाल कर दिखाई है।

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