Anupam mishra
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राज, समाज और पानी : दो

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अनुपम मिश्र


मेरा परिचय भी कोई लंबा चौड़ा नहीं होगा। ऐसा कुछ न तो मैंने पढ़ा-पढ़ाया है, न कोई उल्लेखनीय काम ही किया है। एक पीढ़ी पहले के शब्दों में जिसे 'तार की भाषा' टेलिग्राम की भाषा कहते थे, या आज की पीढ़ी में जिसे एस.एम.एस कहने लगे हैं, कुछ वैसे ही गिने चुने 20-20 शब्दों में मेरा परिचय, सचमुच बहुत सस्ते में निपट जाएगा। पहले परिचय ही दे दूँ अपना। सन् 1947 में मेरा जन्म वर्धा, महाराष्ट्र में हुआ। प्राथमिक साधारण पढ़ाई-लिखाई हैदराबाद, बंबई और फिर अब छत्तीसगढ़ के एक गाँव बेमेतरा में। माध्यमिक स्कूल और फिर कॉलेज की और भी साधारण सी, काम चलाने की पढ़ाई दिल्ली में। फिर पहली और आज आखिरी भी साबित हो रही है, ऐसी नौकरी दिल्ली में। एक बार फिर दोहरा दूँ कि गांधी शाँति प्रतिष्ठान की नौकरी की दिल्ली में, पर चाकरी की राजस्थान में। इस चाकरी ने मुझे बहुत कुछ दिया है। इतना कि यह छोटा-सा जीवन खूब संतोष से गुजर रहा है।

गांधी विचार क्या है, उसकी बारहखड़ी में क्या-क्या आता है - यह मैं न तब जानता था न आज भी कुछ कहने लायक जान पाया हूँ। पर राजस्थान की चाकरी ने मुझे समाज की बारहखड़ी से परिचित कराया। कोई 30 बरस से इस बारहखड़ी को सीख रहा हूँ और हर रोज इसमें कुछ नया जुड़ता ही चला जा रहा है। समाज की वर्णमाला में सचमुच अनगिनत वर्ण, रंग हैं। हमारी नई शिक्षा कुछ ऐसी हो गई है कि हम समाज के उदास रंग देखते रह जाते हैं, काले रंग को, उसके दोषों को कोसते रहते हैं पर उसके उजले चमकीले रंग देख नहीं पाते।

समाज कैसे चलता है, वह अपने सारे सदस्यों को कैसे संगठित करता है, कैसे उनका शिक्षण-प्रशिक्षण करता है, उन सब का उपयोग वह कैसी कुशलता से करता है, यह सब मुझे उसके एक सदस्य की तरह देखने-समझने का मौका मिला। वह कितनी लंबी योजना बना कर काम करता है, उसे भी देखने का मौका लगा। समाज का भूताकल, वर्तमान और भविष्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी जुड़ता रहे, सधता रहे, सँभला रहे और छीजने के बदले सँवरता रहे-इस सब का विराट दर्शन मुझे विशाल पसरे रेगिस्तान में, मरुप्रदेश में मिला और आज भी मिलता ही चला जा रहा है।

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