Toxic in food
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रसायनों की मारी, खेती हमारी (Chemical farming in India)

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भारत कृषि प्रधान देश है। देश की बहुत बड़ी आबादी की रोजी रोटी खेती के सहारे है। एक मान्यता जो सच्चाई पर आधारित है कि कृषि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। समाज में खेती का क्या दर्जा था, इस बारे में पुराने जमाने में एक कहावत प्रचलित थी-

“उत्तम खेती, मध्यम बान,
अधम चाकरी, भीख निदान”



इस कहावत में उस दौर में खेती के प्रति सामाजिक नजरिए की झलक मिलती है। इसमें खेती को सबसे ऊँचा दर्जा दिया गया है। इस कहावत की यहाँ चर्चा का उद्देश्य समाज विज्ञान की नजर से सामाजिक विश्लेषण करना नहीं है। बल्कि विकास के बढ़ते क्रम में खेती की भूमिका को समझने में एक कालखण्ड की यह झलक कुछ मददगार साबित हो सकती है। परम्परागत खेती बनाम आज की आधुनिक खेती के गुण-दोषों को परस्पर जाँचा परखा जा सकता है।

जरा सोचिए कि यह कहावत किन हालात में तैयार हुई होगी तथा उसके पीछे किस तरह का सोच रहा होगा? रोजी रोटी की जरूरत तो सबको होती है और रोजी-रोटी कमाने के लिये साधन भी चाहिए, लेकिन इसके साथ ही यह भी कहा जाता है कि इज्जत के साथ रोटी मिले, भले वह रूखी सूखी क्यों न हो। श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के अपमान भरे राजकीय आतिथ्य के व्यंजन छोड़कर महात्मा विदुर की पत्नी के भाव भीने आतिथ्य के कारण उनके हाथों दिये गए केले के छिलके बड़े प्रेम से खाये थे। इसका कारण यह है कि आत्मसम्मान सबको प्यारा होता है।

कहावत में वक्त के उस दौर में आजीविका के लिये जो मुख्य चार माध्यम या साधन उपलब्ध थे, उनका जिक्र किया गया है। उनके वर्गीकरण में जो क्रम दिया गया है, उसके मूल में ऐसा भाव शामिल रहा होगा कि आजीविका के किस माध्यम में आत्मसम्मान किस हद तक बरकरार रह सकता है। इसी आधार पर परस्पर तुलना कर आजीविका के किसी साधन को बेहतर माना गया एवं किसी को कमतर। ऐसी कहावतें उन बुजुर्गों ने गढ़ी होंगी जो तत्कालीन समाज के ताने बाने को अच्छी तरह से समझते थे। उन्होंने अपने अनुभव और विवेक से सामूहिक तौर पर नतीजे निकाले होंगे। उन नतीजों को कहावतों में ढालकर जन-जन तक फैला दिया होगा।

यह कहावत, परिवार के स्वाभिमान सहित उदर पोषण के पक्ष में एक अभिव्यक्ति है जो तत्कालीन समाज के सामूहिक सोच को उजागर करती है। इसी के मद्देनजर ही उस दौर में खेती किसानी सबसे अच्छी मानी गई। पुराणों के अनुसार त्रेता युग में मिथिला नरेश महाराजा जनक द्वारा खेत में हल चलाने का उल्लेख है। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम खेती के लिये अपने कन्धे पर ‘हल’ धारण कर ‘हलधर’ के नाम से विख्यात हुए हैं।

आज भी किसान भगवान बलराम को खेती के आराध्य देव के रूप में मानते हैं। जिस किसान के पास जितनी भी निजी खेती होती थी वह उतने में ही गुजर-बसर करता था। सामाजिक परम्पराओं के आधार पर उस समय एक जीवनशैली विकसित थी। सुख से जीने का एक तरीका यह था कि

‘जेती चादर तेते पैर’

यानी जितनी चादर हो उतने पैर फैलाएँ। किसी दूसरे के सामने हाथ फैलाना या दूसरे के भरोसे रहना अच्छा नहीं माना जाता था।

‘खेती आप सेती’, ‘खाओ मोटा पहनो मोटा, कभी न आवे टोटा’

की सीख परम्परागत रूप से लोगों को अपने पूर्वजों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी मिलती थी।

‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’

की सीख को व्यक्तिगत तौर पर और सामाजिक तौर पर भी स्वीकार किया गया था। इसलिये पराधीनता को लाचारी में ही स्वीकार किया जाता होगा।

सम्भवतः तत्कालीन समाज ने चार्वाक दर्शन को स्वीकार नहीं किया था। इसलिये कर्ज लेने को भी अच्छा नहीं माना जाता था। इसके सन्दर्भ में कहावत थी

‘कर्ज भला ना बाप का’

। जिनके पास खेती करने के लिये जमीन की खुद की मिलकियत नहीं थी अथवा खेती की जमीन होते हुए भी अन्यान्य कारणों से जो स्वयं किसानी नहीं करते थे, उन्हें आजीविका के अन्य साधन अपनाने पड़ते थे। गाँव में खेती के अलावा आजीविका के कुछ और साधन होते थे। वे साधन थे व्यापार, नौकरी और भिक्षा वृत्ति।

खेती के बाद दूसरे क्रम पर व्यापार माना जाता था। जिनके पास कुछ पूँजी होती थी तथा जिनमें खरीद फरोख्त का हुनर होता था, वे व्यापार करते थे। कुछ लोग अपनी पूँजी से साहूकारी भी करते थे। जो लोग खेती और व्यापार दोनों करने में सक्षम नहीं थे, वे किसानों के खेतों में मजदूरी करते थे या गाँव के बड़े आदमी के यहाँ सेवा-टहल करते थे। यानी दूसरों की नौकरी-चाकरी। व्यापार के बाद तीसरे नम्बर पर चाकरी थी जिसे पसन्दगी से नहीं बल्कि लाचारी में अपनाना पड़ता होगा, इसलिये इसे अधम कहा गया और जिनके उदर पोषण के लिये उपर्युक्त तीनों माध्यमों के दरवाजे बन्द थे, उन्हें भीख माँगकर गुजारा करना पड़ता था। इसलिये भिक्षा को सबसे हेय, निकृष्ट साधन माना जाता था।

खेती क्यों उत्तम मानी जाती थी?

खेती की परम्परागत प्रणाली और व्यवस्था

खेती संरक्षण का परम्परागत विज्ञान

अनुकूल टेक्नोलॉजी

किसान की मजबूरियाँ और संकट

“खेती से नौकरी ही भली जिस पर न तो ओले गिरें और न आग लगे। न सूखे का कोई खतरा और न बाढ़ का डर। न लगान पटाने की फिकर और न साहूकार का डर।”

क्योंकि ऐसे भी प्रसंग आये थे जब लगान नहीं चुका पाने वाले किसान कारिन्दों के डर या साहूकार की कुर्की के डर से खेत छोड़कर भाग गए।

मानसून की राजी-नाराजी के बीच खेती के तत्कालीन सफल तौर-तरीके

मौसम में बेईमानी क्यों बढ़ रही है?

“आषाढ़ का चूका किसान और डाल का चूका बन्दर”

दोनों ही बर्बाद होते हैं। यदि किसान आषाढ़ में समय पर बीज बो दे लेकिन मानसून ही धोखा दे जाये तब भी बर्बाद तो किसान ही होगा।

कई-कई दिन तक पानी नहीं गिरने से सूखे की स्थिति बन जाती है। तालाब, बाँध खाली रह जाते हैं। कभी-कभी ऐसी स्थिति भी आती है कि आषाढ़ में बोया गया बीज पानी के अभाव में ठीक से अंकुरित ही नहीं हो पाता। अंकुर सूख जाते हैं। बाद में पानी गिरे तो भी कोई फायदा नहीं होता। बरसात के दिनों में ही सूखे अन्तराल के कारण खेतों की नमी उड़ जाती है। खरीफ की फसल सूखने लगती है।मानसून अनिश्चित है जो कभी जल्दी आ जाता है तो कभी देरी से। कभी वापस भी जल्दी हो जाता है। जितना पानी चार महीने में गिरना चाहिए था, उतना कभी दो, तीन हफ्ते में ही गिर जाता है। कम समय में ज्यादा बारिश होने से पानी जमीन की सतह पर बहकर सीधा नदियों में चला जाता है, जमीन के अन्दर नहीं पैठता। इससे कुओं, ट्यूबवेलों का जलस्तर नहीं बढ़ पाता। बरसात के मौसम में जितने दिन पानी गिरना अपेक्षित होता है, मौसम की बेरुखी से उन दिनों में कमी आ रही है। कम दिनों में ज्यादा बारिश होने से नदियों में बाढ़ आती है। तटबन्ध तोड़कर दोनों किनारों पर पानी का फैलाव हो जाता है। नदियों पर बने बाँध उफनने लगते हैं और उनके फूटने का खतरा बढ़ जाता है। उन्हें बचाने के लिये बाँध के गेट खोलकर अतिरिक्त पानी बहाना पड़ता है। इससे निचले इलाकों में बरसात से आई हुई बाढ़ में बाँध का छोड़ा गया पानी और मिल जाता है तो तबाही का मंजर कई गुना बढ़ जाता है। खेतों में पानी भर जाता है और जल्दी नहीं निकलता। इसके अलावा तेज बहाव से भूमि का कटाव हो जाता है।

खरीफ की फसलें क्यों चौपट होती हैं?

“का बरसा जब कृषि सुखाने,
समय चूकि पुनि का पछताने”



दूसरी तरफ मौसम की बेरुखी के कारण कभी बरसात के मौसम में औसत से कम पानी बरसता है। कई-कई दिन तक पानी नहीं गिरने से सूखे की स्थिति बन जाती है। तालाब, बाँध खाली रह जाते हैं। कभी-कभी ऐसी स्थिति भी आती है कि आषाढ़ में बोया गया बीज पानी के अभाव में ठीक से अंकुरित ही नहीं हो पाता। अंकुर सूख जाते हैं। बाद में पानी गिरे तो भी कोई फायदा नहीं होता।

बरसात के दिनों में ही सूखे अन्तराल के कारण खेतों की नमी उड़ जाती है। खरीफ की फसल सूखने लगती है। पानी नहीं गिरने से प्यासी फसल इतनी कमजोर हो जाती है कि किसान उस फसल के सम्भावित घटे उत्पादन से निराश होकर फसल को बखर कर खेत साफ करता है ताकि रबी फसल के लिये खेत की जुताई कर तैयार कर सके।

रबी की फसलें क्यों चौपट होती हैं?

खेती का अंग्रेजी हुकूमत से रिश्ता

आजादी के बाद

हरित क्रान्ति (प्रथम चरण)

हरित क्रान्ति : प्रारम्भिक वर्षों में असर

‘कर्ज भला न बाप का’

हरित क्रान्ति ने भुला दी। किसानों ने बैंकों के पास अपनी जमीनें रहन रखकर आसानी से कर्ज लेना शुरू कर दिया। इस कर्ज की बदौलत किसान के पास नई खेती में लगने वाली भारी लागत का इन्तजाम हो गया।

व्यापारियों, सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों ने बाजार में संकर बीज, रासायनिक खाद, दवाइयाँ, मशीनें, डीजल, पेट्रोल, कम्पनियों के महँगे-महँगे नए औजार आदि सहज उपलब्ध करा दिये जिससे किसान के लिये आधुनिक उन्नत खेती की व्यवस्थाएँ जुटाई जा सकीं। मशीनों ने काम हल्का कर दिया। बैलों का स्थान ट्रैक्टर ने ले लिया। कम मेहनत में ज्यादा काम होने लगा। काम जल्दी निपटने लगा। बखरनी, पस्टारनी और बोवनी आसान हो गई। हरित क्रान्ति ने प्रारम्भिक दौर में एकदम चमत्कार दिखाना शुरू किया।

रासायनिक खाद और सिंचाई से खेत के चारों कोनों में फसलें लहलहा उठीं। खेत अनाज उगलने लगे। प्रारम्भिक सालों में विपुल उत्पादन होता रहा। गोदाम अनाज से भर गए। देश की जरूरत का अनाज किसानों ने पैदा कर लिया। आयात की निर्भरता समाप्त हो गई। कृषि उपज मंडियों में आवकें बढ़ गईं। किसान के पास अच्छा पैसा आने लगा। किसानों की सामान खरीदने की ताकत बढ़ गई।

बाजार में अच्छी क्रय शक्ति वाले ग्राहकों की उपस्थिति दर्ज होने से बाजार चमकने लगे और दुकानदारों के व्यापार में इजाफा हुआ। उस दौर में किसानों के पास मनोरंजन के साधन के रूप में रेडियो, ट्रांजिस्टर सेट गाँवों में पहुँच गए तथा बाद में टीवी सेटों के एंटीना घरों के छप्पर पर खड़े हो गए। गाँवों में छिटपुट पक्के मकानों का बनना भी शुरू हो गया। मोटर साइकिलें, स्कूटर और जीप आदि भी किसानों के पास हो गए। गाँवों में बिजली पहुँचने लगी। उपभोग के टिकाऊ सामानों (कंज्यूमर ड्यूरेबल्स) के बाजार को गाँवों में अच्छी ग्राहकी मिल गई। किसान के रहन-सहन का स्तर ऊँचा होने लगा तथा उसके जीवन में सम्पन्नता दिखने लगी।

गाँवों में बड़ी जोत वाले किसानों के खपरैल वाले बड़े मकान बदल गए और उनकी जगह आधुनिक शहरी डिजाइन के सीमेंट कांक्रीट के सुविधाओं से सज्जित अच्छे भवन बन गए। बच्चों को महँगे स्कूलों से कॉलेजों में दाखिल कराने की आर्थिक क्षमता बढ़ गई। मशीनी खेती करने से किसानों की आदतें बदलने लगीं। किसानों की हालत बदलने लगी जैसे हरित क्रान्ति ने किसानों के लिये खेतों में टकसाल खोल दी है। अलग-अलग तरह के संकर बीजों वाली खेती का कमाल दिखने लगा। लेकिन वे परम्परागत बीज जिनमें रोगों से लड़ने की ताकत थी, मौसम के उतार-चढ़ाव को खेलने की ताकत थी, वे गुमनामी में खोकर नष्ट हो गए। गौ-वंश बेघर हो गया।

जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर से सम्बद्ध कृषि प्रयोग प्रक्षेत्र पवारखेड़ा, जिला होशंगाबाद में गेहूँ की ऐसी किस्म विकसित की जा रही थी, जो कम खाद एवं कम पानी में अच्छा उत्पादन देती थी। चूँकि जबलपुर, नरसिंहपुर और होशंगाबाद जिले में नर्मदा नदी बहती है तथा उसे धार्मिक दृष्टि से पूजनीय माना जाता है, इसलिये शोध किये जाने वाले बीजों को नर्मदा सीरीज का नाम दिया गया। इसमें ‘नर्मदा-4’ नाम के बीजों को किसानों ने गर्मजोशी से स्वीकार किया। पहले तो ग्रान्ट देने वालों ने गौर नहीं किया। लेकिन जब ‘नर्मदा-4’ की लोकप्रियता बढ़ी और अखबारों में सुर्खियाँ बनने लगी तो पवारखेड़ा के कृषि वैज्ञानिक को नर्मदा सीरीज के शोध बन्द करने के आदेश दिये गए। आदेश में ग्रान्ट बन्द करने की चेतावनी थी। उसकी जगह लोक-1 (लोकवन) के बीज के प्रसार के आदेश थे। इसके बाद ही नर्मदा-4 और नर्मदा सीरीज पर काम बन्द करना पड़ा। यह एक नमूना था कि कैसे अमेरिकी पूँजी भारत में खेती की शिक्षा एवं अनुसन्धान पर नियंत्रण कर रही थी।

सोयाबीन की खेती

‘सोया बीन यानी सोना बीन’

(सोयाबीन का मतलब सोना बीनना)। उद्योग जगत ने बड़ी पूँजी लगाकर जगह-जगह सोयाबीन से तेल निकालने की फैक्टरियाँ खड़ी कर दीं। उल्लेखनीय है कि भारतीय मूल के तिलहन जैसे मूँगफली या सींगदाना, तिल, सरसों, बिनौला आदि का तेल निकालने के लिये उद्योग गाँव में ही थे। गाँव के कोल्हू में उपर्युक्त तिलहन पेरकर आसानी से खाने का तेल निकाला जाता था। इनकी खली का उपयोग यहीं के मवेशियों को खिलाने में होता था। दुधारू पशुओं के आहार में खली मिलाने से दूध बढ़ जाता था। सोयाबीन की खेती से यह क्रम टूट गया।

हरित क्रान्ति के कुछ वर्ष बाद के असर जमीन, पानी, हवा में जहर – जमीन नसेड़ी बनी

“आजकल जमीन का उपजाऊपन अधिक बढ़ाने की लम्बी-लम्बी बातों के नाम पर खेती में रासायनिक खाद दाखिल करने के बड़े प्रयत्न चल रहे हैं। दुनिया भर में इस तरह के रासायनिक खादों का जो अनुभव हुआ है, उससे यह साफ चेतावनी मिलती है कि हमें इन खादों को अपनी खेती में नहीं घुसने देना चाहिए। इन खादों से जमीन का उपजाऊपन किसी भी प्रकार नहीं बढ़ता। अफीम या शराब जैसी चीजें जिस प्रकार आदमी को नशे में झूठी शक्ति का आभास कराती हैं, उसी प्रकार ये सब खाद जमीन को उत्तेजित करके थोड़े समय के लिये काफी फसल पैदा कर देते हैं, लेकिन अन्त में जमीन का सारा रस-कस चूस लेते हैं। खेती के लिये अत्यन्त जरूरी माने जाने वाले जीव जन्तुओं का, जो जमीन में रहते हैं, ये खाद नाश कर देते हैं। ये रासायनिक खाद कुल मिलाकर लम्बे समय के बाद खेती को नुकसान पहुँचाने वाले ही साबित हुए हैं। रासायनिक खादों के बारे में जो बड़ी-बड़ी बातें कही जाती हैं, उनके पीछे उन खादों के कारखानों के मालिकों की अपने माल की बिक्री बढ़ाने की चिन्ता के सिवा और कोई बात नहीं है और जमीन को उनसे लाभ होता है या हानि, इस बात से वे एकदम लापरवाह होते हैं।”

कीटनाशकों से किसानों का पहला परिचय, हेलीकाप्टर से छिड़काव के भी प्रयोग हुए

रासायनिक कीटनाशक खतरा बने

कीटनाशकों की मात्रा बढ़ाने किसान क्यों मजबूर हैं?

कीटनाशक का इंसानों पर घातक असर पंजाब की ‘कैंसर ट्रेन’ की बहुचर्चित कहानी

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में कैंसर वाली सब्जियाँ

बिना कीटनाशक दवा छिड़के इल्ली मारने के किसानों के कुछ देसी सफल प्रयोग

खेती : मुनाफे का या घाटे का सौदा

दूध, फल और सब्जी में लालच के खतरनाक प्रपंच

सरकार की भूमिका ज्यादा बड़ी है

किसान क्रेडिट कार्ड

गर्मी के मौसम में अतिरिक्त फसल का रूझान : भूजल संकट को न्यौता

हरित क्रान्ति असफल हुई

हरित क्रान्ति के दूसरे चरण की तैयारी जी.एम. सीड

परम्परागत बीजों का संरक्षण

घड़े से टपक सिंचाई

जैविक खेती

जीरो बजट प्राकृतिक खेती (जैविक खेती नहीं)

बीजामृत (बीजशोधन)

जीवामृत

घन जीवामृत

“सुना था दरख्तों में छाँव होती है,
हम बबूल के साये में आके बैठ गए।”



देश ने बड़ी उम्मीद से हरित क्रान्ति अपनाई थी, मगर क्या हुआ? परम्परागत खेती हजारों साल तक टिकी रही, लेकिन हरित क्रान्ति के पैर पचास साल में ही उखड़ गए। शुरू-शुरू में विपुल उत्पादन हुआ जैसे तपती धूप में छाया महसूस हुई हो, मगर कुछ साल बीतने के बाद वह छाया गायब हो चुकी है। अब कड़ी चिलचिलाती धूप है और बबूल के काँटे-ही-काँटे हैं।

आज केन्द्र और राज्य सरकारें इस कोशिश में लगी हैं और चाहती हैं कि खेती लाभ का धन्धा बने। सरकार मददगार हो सकती है, मगर किसान को पुश्तैनी तजुर्बा, पारम्परिक ज्ञान और आज के विज्ञान की रोशनी में आगे का रास्ता खोजना पड़ेगा जहाँ उसे बबूल के बजाय भरोसेमन्द घनी छाया वाला फलदार दरख्त मिले। इसलिये चक्रव्यूह से बाहर निकलने के लिये उसे परम्परागत खेती के कुछ सूत्र पकड़ने पड़ेंगे।

कुछ विचारणीय बिन्दु यहाँ प्रस्तुत हैं

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