मेरी टीरी

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(70 के दशक में टिहरी में जिस नौजवान पीढ़ी की धूम थी और जिन्हें शहर का हर छोटा-बड़ा व्यक्ति बखूबी जानता-पहचानता था, उनमें से एक हैं राकेश थपलियाल। लब्ध-प्रतिष्ठित शिक्षक आदरणीय राम प्रसाद थपलियाल जी के ज्येष्ठ पुत्र राकेश काफी लम्बे समय से महाराष्ट्र में हिन्दुस्तान इन्सैक्टिसाइट में हिन्दी अधिकारी के पद पर तैनात हैं प्रस्तुत आलेख उनका संस्मरण है, जिसमें उस दौर की टिहरी, वहाँ की आबो-हवा, संस्कृृति और जन-जीवन की झाँकी दिखाई पड़ती है।)

कुछ लोग नई टिहरी की ठंड व उतराई-चढ़ाई से घबराकर देहरादून रहने चले गए। टिहरी शहर व्यापार का एक ऐसा सुविधाजनक केन्द्र था जहाँ चम्बा, लम्बगाँव, छाम, प्रतापनगर, घोंटी, घणसाली, पौखाल, जाखणीधार, क्यारी चारों तरफ के लोग सामान लेने आते थे। बाँध से इनके लिये ये सुविधा समाप्त हो गई। दूरियाँ बढ़ गई, इसका अहसास अब नई टिहरी के दुकानदारों को भी होता है। टीएचडीसी टिहरी वालों के लिये वैसे ही काल बनकर आई जैसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने हिन्दुस्तान को फूट डालो और राज करो की नीति से गुलाम बना लिया था।

‘हरा समंदर, गोपी-चन्दन, बोल मेरी मछली कितना पानी?’
‘साहिल से खुदा हाफिज, जब उसने कहा होगा,
उस डूबने-वाले का क्या हाल हुआ होगा।
मिल-मिल के गले आपस में जब कोई जुदा होगा
दुश्मन ही सही लेकिन देखा न गया होगा’
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