भारत में बाढ़ और सूखे का कहर।
भारत में बाढ़ और सूखे का कहर।

जलवायु परिवर्तन और सूखे की बढ़ती आवृत्ति

जलवायु परिवर्तन और सूखे की बढ़ती समस्या पर विस्तृत विश्लेषण। जानें कैसे मानवीय गतिविधियाँ और प्राकृतिक आपदाएँ मिलकर वैश्विक संकट को बढ़ा रही हैं।
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सूखा एक ऐसी चुनौती है, जो केवल जलवायु परिवर्तन की देन नहीं है, बल्कि इसमें मानवीय गतिविधियों की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। आधुनिक युग में जहाँ एक तरफ प्रौद्योगिकी और शहरीकरण ने विकास की नई ऊँचाइयों को छुआ है, वहीं दूसरी तरफ सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं का बढ़ता प्रभाव एक गम्भीर चिन्ता का विषय बना हुआ है। विश्व के कई हिस्सों में सूखे के कारण कृषि, उद्योग और मानव जीवन पर व्यापक असर पड़ा है। 

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम सम्मेलन (UNCCD) और यूरोपीय आयोग के संयुक्त अनुसंधान केन्द्र द्वारा प्रकाशित 'विश्व सूखा एटलस' ने यह खुलासा किया है कि वर्ष 2050 तक दुनिया की 75% आबादी सूखे से प्रभावित हो सकती है। यह रिपोर्ट न केवल सूखे की गम्भीरता को दर्शाती है, बल्कि इसके प्रभावों और समाधान पर भी प्रकाश डालती है। इस सन्दर्भ में सूखा अब केवल एक प्राकृतिक आपदा नहीं रह गया है, बल्कि यह मानवीय गतिविधियों के साथ जुड़ा एक जटिल संकट बन चुका है। 

भारत जैसे देश में जहाँ कृषि अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार है, सूखे का प्रभाव बहुत व्यापक है। यहाँ की बड़ी आबादी कृषि पर निर्भर है और मानसून के अनियमित होने से फसल उत्पादन पर सीधा असर पड़ता है, साथ ही तेजी से बढ़ते शहरीकरण और जल संसाधनों के अनुचित प्रबंधन ने जल संकट को और गम्भीर बना दिया है। 

सूखे के कारण और प्रभाव 

• सूखे के कारण बहुआयामी हैं। जलवायु परिवर्तन ने वर्षा के पारम्परिक पैटर्न को बदल दिया है, इसलिए कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा होती है और कुछ स्थानों पर वर्षा की भारी कमी देखी जाती है, साथ ही बढ़ता तापमान मिट्टी की नमी को तेजी से खत्म कर रहा है, जिससे भूमि बंजर होती जा रही है। 

• इसके अलावा मानवीय गतिविधियों ने भी सूखे की गंभीरता को बढ़ाया है, जल संसाधनों का अत्यधिक उपयोग, भूजल स्तर का दोहन और वनों की कटाई ने पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ दिया है। 

• सूखे का प्रभाव केवल पर्यावरण तक सीमित नहीं है। यह समाज और अर्थव्यवस्था को भी गहराई से प्रभावित करता है। कृषि उत्पादन में गिरावट, पानी की कमी और ऊर्जा उत्पादन पर असर इसके प्रमुख परिणाम हैं। 

• भारत जैसे देशों में सूखा किसानों की आजीविका के लिए गंभीर संकट खड़ा करता है। फसल की विफलता न केवल आर्थिक नुकसान पहुँचाती है, बल्कि यह खाद्य सुरक्षा को भी खतरे में डालती है। 

• शहरी क्षेत्रों में सूखे का प्रभाव जल संकट के रूप में दिखाई देता है। चेन्नई का 'डे जीरो' संकट इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि जल संसाधनों का अनुचित प्रबंधन और तेजी से बढ़ता शहरीकरण कैसे सूखे जैसी परिस्थितियों को जन्म देता है। सूखा केवल ग्रामीण समस्या नहीं है, बल्कि यह शहरी जीवन पर भी गहरा प्रभाव डालता है। 

• सूखा सामाजिक समस्याओं को भी जन्म देता है। जल की कमी के कारण दंगे, हिंसा और विस्थापन जैसी स्थितियां उत्पन्न होती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन बढ़ता है, जिससे शहरी संरचना पर दबाव बढ़ता है। 

• इसके अलावा महिलाएं और बच्चे सूखे के प्रभावों का सबसे अधिक भार उठाते हैं। महिलाओं को जल संग्रहण के लिए लम्बी दूरी तय करनी पड़ती है, जबकि बच्चों की शिक्षा प्रभावित होती है। 

भारत में सूखे की समस्या

• भारत में सूखे की समस्या अत्यधिक जटिल है, क्योंकि यहाँ की अर्थव्यवस्था, समाज और पर्यावरण सूखे से गहराई से प्रभावित हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि सूखे की समस्या से सर्वाधिक प्रभावित है और इसके कारण फसल उत्पादन में आई गिरावट किसानों की आय को घटा कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कमजोर करती है, जिसके परिणाम-स्वरूप किसानों में आत्महत्या की घटनाएं बढ़ती हैं। 

• शहरी क्षेत्रों में जल संकट सूखे की समस्या को और बढ़ा देता है। अनियोजित शहरीकरण, पारम्परिक जल निकायों की अनदेखी और जल पुनर्भरण की प्रक्रिया में बाधा ने इस संकट को और गम्भीर बना दिया है। 

• नीतिगत स्तर पर सूखे से निपटने के लिए भारत में कई चुनौतियाँ हैं। जल संसाधनों के प्रबंधन में पारदर्शिता और जवाबदेही का अभाव, पारम्परिक जल संरक्षण प्रणालियों की अनदेखी और वर्षा जल संचयन की अपर्याप्तता सूखे की समस्या को बढ़ाते हैं। 

सरकार की पहल

• भारत सरकार ने सूखे से निपटने के लिए कई प्रभावी कदम उठाए हैं, जो नीति निर्माण, प्रौद्योगिकी के उपयोग और सामुदायिक भागीदारी पर आधारित हैं। सूखे का प्रभाव खासतौर पर कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। इसलिए सरकार ने इन क्षेत्रों को प्राथमिकता दी है। 

• प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के माध्यम से सिंचाई के लिए जल के कुशल उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है। सूखा प्रभावित क्षेत्रों में ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई जैसी तकनीकों को अपनाने पर जोर दिया गया है, ताकि फसलों के लिए कम पानी की आवश्यकता हो। 

इसके साथ ही महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना (मनरेगा) के तहत् जल संरक्षण और भूजल पुनर्भरण के लिए तालाबों, चेक डैम और वाटरशेड विकास जैसे कार्य किए जा रहे हैं, जिससे ग्रामीण समुदायों को रोजगार के साथ-साथ जल संकट से राहत मिले। 

• जल शक्ति अभियान के तहत् देशभर में वर्षा जल संचयन और पारम्परिक जल निकायों के पुनर्निर्माण को प्राथमिकता दी गई है। यह अभियान सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से जल संरक्षण को बढ़ावा देता है। 

इसके अलावा 'पर ड्रॉप मोर क्रॉप' कार्यक्रम सूखा प्रभावित क्षेत्रों में जल की बचत करने वाली तकनीकों और सूखा प्रतिरोधी फसलों को बढ़ावा देता है। 

• सूखे की रोकथाम और प्रभावी प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सूखा प्रबन्धन नीति लागू की गई है। इसके अन्तर्गत पूर्वानुमान और निगरानी प्रणालियों को सशक्त बनाया गया है। 

सूखे का समाधान

• सूखे से निपटने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसमें जल संरक्षण, कृषि सुधार, नीतिगत परिवर्तन और वैश्विक सहयोग शामिल हैं। जल संरक्षण के लिए पारम्परिक जल निकायों को पुनर्जीवित करना और वर्षा जल संचयन को अनिवार्य बनाना आवश्यक है। 

• सिंचाई में कुशल प्रौद्योगिकियों का उपयोग, जैसे-ड्रिप सिंचाई और माइक्रो-इरिगेशन पानी की बर्बादी को कम कर सकते हैं। कृषि में सुधार के लिए सूखा प्रतिरोधी फसलों का उपयोग और जैविक खेती को बढ़ावा देना चाहिए। 

• इसके अलावा मृदा संरक्षण तकनीकों का उपयोग और मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने के लिए उपयुक्त उपाय अपनाने चाहिए। 

• शहरी क्षेत्रों में जल संकट से निपटने के लिए जल निकायों का संरक्षण और पानी के कुशल प्रबन्धन की आवश्यकता है। 

• जल-विभाजन की समस्याओं को हल करने के लिए एकीकृत जल प्रबन्धन नीतियों की आवश्यकता है। नीतिगत स्तर पर सूखे से निपटने के लिए एक समन्वित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। 

• राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग और अनुभवों का आदान-प्रदान सूखे के प्रभाव को कम कर सकता है। 

इजरायल की मिसाल

• सूखे से निपटने में इजरायल ने उल्लेखनीय सफलता हासिल की है और यह दुनिया के लिए एक प्रेरणा बन चुका है। एक ऐसा देश जो अधिकांशतः रेगिस्तान से घिरा हुआ है और जहाँ प्राकृतिक जल संसाधन अत्यधिक सीमित हैं, उसने अपनी सूझबूझ और नवाचार के माध्यम से जल संकट पर विजय प्राप्त की है। 

• इजरायल की सफलता का आधार उसकी जल प्रबन्धन नीति, अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी और सामुदायिक जागरूकता है। इजरायल ने जल संकट से निपटने के लिए जल संरक्षण और पुनर्चक्रण को अपनी प्राथमिकता बनाया। देश में उपयोग किए गए 80% जल का पुनर्चक्रण किया जाता है, जो विश्व में सबसे अधिक है। यह पुनर्चक्रित जल मुख्य रूप से कृषि के लिए उपयोग किया जाता है, जिससे पानी की खपत में कमी आती है। 

• इसके अतिरिक्त इजरायल ने ड्रिप सिंचाई प्रणाली का आविष्कार किया, जो फसलों की जड़ों तक पानी पहुँचाने की एक कुशल तकनीक है। इस प्रणाली ने कृषि में पानी की बर्बादी को लगभग समाप्त कर दिया है और सूखे से प्रभावित क्षेत्रों में फसल उत्पादन को बनाए रखने में मदद की है। 

• समुद्री जल को पीने योग्य बनाने की प्रक्रिया (जिसे डीसैलिनेशन कहा जाता है) इजरायल की सफलता की एक और कुंजी है। देश ने बड़े पैमाने पर डीसैलिनेशन संयंत्र स्थापित किए हैं, जो भूमध्य सागर के खारे पानी को पीने योग्य पानी में बदलते हैं। आज इजरायल की पीने के पानी की लगभग 60% आवश्यकता इन्हीं संयन्त्रों से पूरी होती है। 

• इसके अलावा इजरायल में जल संरक्षण को लेकर व्यापक जनजागरूकता अभियान चलाए गए हैं। स्कूलों में जल संरक्षण की शिक्षा दी जाती है और आम जनता को यह सिखाया जाता है कि पानी का उपयोग कैसे जिम्मेदारी से किया जाए। सरकार और समाज के इस संयुक्त प्रयास ने पानी की खपत को कम करने और जल संकट से बचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 

• इजरायल ने अपने सूखे से प्रभावित क्षेत्रों में पर्यावरणीय सन्तुलन बनाए रखने के लिए वनारोपण कार्यक्रम भी चलाए हैं। इससे मिट्टी के कटाव को रोका गया और जल पुनर्भरण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिला। 

• इजरायल की सूखे से निपटने की सफलता यह साबित करती है कि सही नीतियों, तकनीकी नवाचार और सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से जल संकट जैसी गम्भीर समस्या को भी प्रभावी ढंग से हल किया जा सकता है। यह मॉडल अन्य देशों के लिए अनुकरणीय है, खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ जल-संकट और सूखे का खतरा गम्भीर है। 

निष्कर्ष

सूखा एक जटिल समस्या है, जिसका समाधान केवल प्राकृतिक संसाधनों के कुशल प्रबन्धन से ही सम्भव है। 'विश्व सूखा एटलस' ने सूखे की गम्भीरता और समाधान के लिए एक रोडमैप प्रस्तुत किया है। भारत जैसे विकासशील देशों को जलवायु अनुकूल नीतियों, स्थानीय प्रयासों और वैश्विक सहयोग के माध्यम से इस संकट से निपटना होगा। सही नीतियाँ, जागरूकता और सामूहिक प्रयास ही इस संकट का स्थायी समाधान निकाल सकते हैं। यदि अब भी ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो सूखा न केवल पर्यावरण के लिए, बल्कि मानवता के लिए एक बड़ा संकट बन जाएगा। 

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