फूलों के मौसम में: महाराष्ट्र में अनिश्चित जलवायु के बीच बदल रही है फूलों से जुड़ी अर्थव्यवस्था और आजीविका
सुबह दो बजे से दादर स्टेशन से मुंबई के सौ मीनाताई ठाकरे फूल बाज़ार की तरफ़ जाने वाली सड़क पर चहल-पहल शुरू हो जाती है। महाराष्ट्र के सांगली, सातारा, कोल्हापुर, पुणे और नासिक जैसे ज़िलों से 8 से 20 टन गेंदे और शेवंती (क्रिसेंथेमम) फूलों से लदे ट्रकों की आवाजाही नगरपालिका बाज़ार में होने लगती है।
उसके एक घंटे बाद, पूरे राज्य के गांवों से आने वाले किसान दादरी रेलवे स्टेशन पहुँचते हैं। उनके हाथों में फूल और पत्तियों की छोटी-छोटी गड्डियाँ होती हैं और कई बार वे उन ट्रकों से भी लंबी दूरी तय करके वहां जमा होते हैं। अपना नाम पंचशीला बताने वाली एक महिला दादर स्टेशन और फूल मंडी के बीच के फुटपाथ पर अपने फूलों की दुकान सजाती है। उसकी गड्डी में शिव को अर्पित किए जाने वाले धतूरा जैसे विषैले काँटे से लेकर अकोला ज़िले के वाडेगांव से लाई गई चिकनी वटवृक्ष की पत्तियाँ (बड़ के पत्ते) तक होती हैं। चाहे बरसात हो या चिलचिलाती धूप, उसकी रोज़ी-रोटी इन्हीं फूल-पत्तियों पर टिकी होती है। भले ही इनपर उसका मालिकाना हक नहीं है, पर ऊबड़-खाबड़ जंगलों और खेतों में दूर तक चलकर, यहां-वहां से चुन-बीनकर जुटाई चीज़ों को पहचानना और समझना उसने मेहनत से सीखा है।
पूरी सादगी के साथ पंचशीला बताती है, “हमारे पास अपने खेत नहीं है।” वह आगे कहती है, “हम जंगलों और दूसरों के खेतों से बचा-खुचा माल चुनकर लाते हैं और उसे ही बेचते हैं। हमें वहां फिरना पड़ता है, फिर-फिर कर कुछ मिलता है।” उसके लिए फूलों को इकट्ठा करने का सीधा मतलब है गोल चक्करों में घूमना और उन जगहों पर बार-बार वापस लौटकर जाना जहां कुछ बचे रहने की संभावना होती है। प्रत्याशित मौसमों पर निर्भर रहने वाले व्यावसायिक किसानों के उलट, अप्रत्याशित जलवायु में बदल रही ज़मीन की हकीकतें उसकी आजीविका पर काले बादल की तरह छाई रहती हैं।
मई में मुंबई की बारिश और विदर्भ के सूखे के बीच
जब पंचशीला विदर्भ के सूखे खेतों में अपनी रोज़ी-रोटी के लिए चक्कर काट रही होती हैं, तब मुंबई की हकीकत कुछ और होती है। मई के महीने में शहर में पिछले सौ वर्षों में सबसे अधिक बारिश का रिकॉर्ड दर्ज़ हुआ है। कोलाबा में मानसून के आधिकारिक आगमन से पहले ही लगभग 300 मिलीमीटर वर्षा हो चुकी थी। ऐसे में पंचशीला की बातों में उसकी तकलीफ दिखाई देती है। वह कहती हैं, “हमारे यहां बरसात हुई ही नहीं है… धूप भी उतनी ही है। विदर्भ बोलते (यही विदर्भ है)।”
भारत मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, 1 से 25 जून के बीच महाराष्ट्र के 36 ज़िलों में से विदर्भ सहित 19 ज़िले वर्षा की मध्यम से लेकर गंभीर स्तर की कमी से जूझ रहे थे। नवम्बर से मई के महीने तक आने वाला यह सूखा अपने साथ न केवल गर्मी लाता है बल्कि बेरोज़गारी की समस्या भी लेकर आता है। नतीजतन, इन मौसमों में लोग काम की तलाश में चीनी मिलों, ईंट की भट्ठियों या कपास की खेतों की तरफ़ पलायन के लिए मजबूर हो जाते हैं।
मुंबई की फूल मंडी में बेचने के लिए जंगलों और खेतों से बचा-खुचा माल बीनने वाली पंचशीला जैसी महिलाएं अक्सर गोंड, पारधी और कटकारी जैसे वंचित आदिवासी समुदायों से आती हैं, जिन्हें विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTG) के रूप में मान्यता प्राप्त है। जंगली खाद्य पदार्थों और फूलों के खिलने से जुड़ा उनका ज्ञान जंगलों और खेतों के किनारों पर रहते-रहते कई पीढ़ियों के दौरान विकसित हुआ है।
ज़मीन से ज़रूरत तक: मौसमों का पहिया और आजीविका की चुनौती
पंचशीला बताती हैं कि ज्वारी, चना, तुअर (अरहर), और कपास जैसी फसलें ऐसी हैं जो जून में बुआई के बाद लगातार होने वाली बारिश में अच्छी फसल देती हैं। बारिश जब लौटने लगती है तो हरी सब्ज़ियों का मौसम आ जाता है: चने की भाजी, चावली, बैंगन, मिर्ची और बटवे की भजिया (जंगली पालक) जैसी सब्ज़ियाँ मिलने लगती हैं।
उसे अच्छी तरह पता है कि खेत में जो उगता है और जो वह बीन पाती है, उनके बीच कितना बड़ा फासला होता है। वह कहती है कि अगर पुलिस ने मुझे यहां से हटाया नहीं तो अगले महीने आप उसे यहीं इसी जगह पर सनई के चटख पीले फूलों के साथ देख सकते हैं। सनई क्रॉटलैरिया जंसिया परिवार का फूल है और इसकी खेती मिट्टी की उपजाऊ क्षमता को बनाए रखने के लिए, जानवरों के चारों के लिए या मोटे रेशों के लिए की जाती है। कभी-कभी इसे खेतों के किनारे फलने-फूलने के लिए छोड़ दिया जाता है। वह आगे बताती है कि इसके पकौड़े भी बहुत स्वादिष्ट होते हैं। फूलों से लदे ट्रकों से अलग उसके पास वही होता है जो ज़मीन पर छोड़ दिया जाता है।
फूल मंडी फुटपाथ से बस एक किलोमीटर दूर ही सही, लेकिन यह छोटी-सी दूरी कई दुनियाओं को जोड़ती है। विदर्भ की एक फूल-पत्तियां बीनने वाली महिला से लेकर सतारा, सांगली, कोल्हापुर और पुणे से ट्रकों में फूल लाने वाले व्यापारियों तक। मई के तीसरे सप्ताह में, इन पश्चिमी घाटों वाले ज़िलों में असामान्य रूप से भारी बारिश हुई। पुणे में 119 मिमी से अधिक वर्षा दर्ज की गई - जो 1961 के बाद से सबसे अधिक थी, जबकि कोल्हापुर में 130 मिमी बारिश हुई, जो 2010 के बाद की सबसे बड़ी मात्रा थी।
बेमौसम मूसलाधार बारिश और लू
मई की भारी बारिश के बाद मुंबई की फूल मंडी में चिंता का माहौल छा गया। फूल व्यापारियों ने बताया कि आपूर्ति में कमी, दामों में उतार-चढ़ाव और पौधों की दोबारा रोपाई में देरी जैसी समस्याएँ सामने खड़ी हो गई हैं। सांगली, सातारा, जुन्नर और कोल्हापुर सबसे अधिक प्रभावित इलाक़े हैं। इन ज़िलों का संतुलित मौसम फूलों की खेती के लिए उपयुक्त होता है। हाल के दशकों में, कई लोगों ने पानी की अधिक खपत वाले गन्ने की खेती छोड़कर फूलों की खेती शुरू कर दी है, इसे अक्सर सब्ज़ियों के साथ या दो सब्ज़ियों की खेती के बीच के समय में उगाया जाता है।
कुल 35 वर्षों से फूलों का व्यापार कर रहे कमीशन एजेंट राजेंद्र लक्ष्मणराव हींगने सतारा के निकमवाड़ी गांव के बारे में बताते हैं, जहां सौ से अधिक परिवार टपक सिंचाई (ड्रिप इरीगेशन) और नहर-आधारित कुओं के सहारे गेंदे की छह किस्में और शेवंती की आठ किस्में उगाते हैं।
जुन्नर के 28 वर्षीय किसान प्रतीक ने बताया, “हमने फूलों की खेती इसलिए शुरू की क्योंकि इससे बेहतर मुनाफ़ा मिलता है। फूल 45 दिनों में तैयार हो जाते हैं और तीन से चार महीने तक तुड़ाई दी जा सकती है। जबकि गन्ना डेढ़ साल लेता है और उसकी सिंचाई के लिए बहुत सारा पानी चाहिए। फूलों को हम सीधे मंडी में बेच सकते हैं।
जलवायु परिवर्तन और खेती की बदलती अर्थव्यवस्था के चलते किसानों ने बेहतर मुनाफ़े की उम्मीद में फूलों की खेती की ओर रुख किया था। लेकिन मई में आई बेमौसम तूफ़ानी बारिश ने किसानों को पूरी तरह चौंका दिया। विशेषकर सांगली और सतारा में हुई तेज़ और समय से पहले बरसी बारिश ने गेंदे की फसलों को उस वक्त तबाह कर दिया, जब उनमें कलियाँ आनी शुरू ही हुई थीं। किशन ताजदार, जो एक कमीशन एजेंट और खुद भी फूल किसान हैं, ने बताया कि उनके पाँच एकड़ में खिले हुए फूल तुड़ाई के लिए लगभग तैयार थे। बारिश से वे पूरी तरह बर्बाद हो गए।
मुंबई की फूल मंडी में बाज़ार प्रभारी अविराज पवार ने सांगली से आए किसानों के एक समूह से मुलाक़ात के बाद जलवायु परिवर्तन के खेती पर पड़ते असर की पुष्टि की। उन्होंने कहा, "उनके खेतों में फूल खिल चुके थे, लेकिन बेमौसम बारिश ने सब कुछ बर्बाद कर दिया। अब खेतों की सफाई करने का मतलब है पूरा नुकसान।”
सांगली के एक किसान ने आगे बताया, “यह हमारा मौसम था, लेकिन मई में लगातार आठ दिनों तक होने वाली बारिश ने हमारी फसलें बर्बाद कर दीं। हमें प्रति एकड़ कम से कम एक लाख का घाटा हुआ है।” सांगली की कठोर मिट्टी की प्रकृति प्रत्येक बीस किलोमीटर पर बदल जाती है। इसके कारण बारिश का पानी खेतों में ही रुका रह गया। नतीजतन, जब तक बारिश रुक नहीं गई तब तक किसान लाचार ही रहे।
उसके बाद, झुलसा देने वाली लू ने नुकसान को और बढ़ा दिया। “बारिश के बाद धूप काफ़ी तेज हो गई। फूल वहीं अटके रह गए। न गिर पाए, न ठीक से खिल ही पाए। पौधों की जड़ें सड़ गईं क्योंकि पानी निकलने का रास्ता ही नहीं था।” बारिश और लू की इस दोहरी मार ने उन नाज़ुक प्राकृतिक चक्रों को तोड़ दिया जिन पर किसानों की आजीविका टिकी होती है।
देखभाल की क़ीमत: फफूंद, डीज़ल-पेट्रोल और गिरते दाम
बारिश और तेज़ गर्मी ने सिर्फ़ फसलों को बर्बाद ही नहीं किया, बल्कि जिन किसानों ने किसी तरह कुछ फूल बचा भी लिए उनकी लागत बहुत बढ़ा दी। यहां तक कि ऊँचाई वाले इलाक़ों से फूल लेकर मंडी तक पहुँचे किसानों के हाथों भी मायूसी ही लगी, क्योंकि बाज़ार में खरीदारों की भुगतान क्षमता उनकी बढ़ी हुई लागत के सामने टिक नहीं पाई।
जुन्नर और सतारा से फूलों की आपूर्ति देखने वाले विनोद बेडेकर बताते हैं, “जब गेंदों में कलियाँ आती हैं और अचानक बारिश हो जाती है, तो उसमें 'कर्पा' नाम की बैक्टीरियल फफूंद लग जाती है। इसके लिए फफूंदनाशक का छिड़काव करना पड़ता है, लेकिन बारिश उसे धो ले जाती है। इसलिए आप उसमें चिपचिपा घोल मिलाते हैं ताकि दवा टिकी रहे। इस तरह लागत लगातार बढ़ती जाती है।”
किसान आमतौर पर कार्बेन्डाज़िम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड जैसे फफूंदनाशकों का उपयोग करते हैं, साथ ही ऐसे एडजुवेंट्स (सहायक रसायनों) मिलाते हैं जो दवा को बारिश में भी पौधों की सतह पर टिकाए रखें। नमी वाली जलवायु में इन छिड़कावों को हर 7 से 10 दिन में दोहराना पड़ता है। इस तरह कुछ फूल मंडी तक पहुँचे, लेकिन उन्हें "नाशेवंता माल" (खराब या आंशिक रूप से सड़ा हुआ उत्पाद) कहा गया। एजेंटों के अनुसार, ये फूल भी केवल इसलिए बच सके क्योंकि वे नामधारी सीड्स जैसी कंपनियों के नए हाईब्रिड बीजों से उगाए गए थे, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कुछ हद तक टिक जाते हैं।
इन हाइब्रिड बीजों से ऐसे फूल उगते हैं जो लंबे समय तक टिकते हैं और मंडी तक पहुंचाए जाने के दौरान नमी को सहन कर सकते हैं। लेकिन बहुत अधिक नमी से पंखुड़ियों पर दाग उभर आते हैं। फूल व्यापारी आमतौर पर शुरुआत में ऊँचे दाम बताते हैं, लेकिन ज़्यादातर खराब माल अंत में फेंकना ही पड़ता है। एक व्यापारी बताते हैं, “दागी हुआ तो फेंकना पड़ता है।” कमीशन एजेंट इसे तभी बेचते हैं जब किसान मान लेते हैं कि नुकसान सहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वरना, ये फूल मंडी के पीछे फेंक दिए जाते हैं, जहां कभी-कभी उन्हें अगरबत्तियाँ या कंपोस्ट (जैविक खाद) बनाने के लिए दोबारा इस्तेमाल कर लिया जाता है।
टूटी सप्लाई चेन: जोखिम ज़्यादा मुनाफ़ा कम
फूल मंडी के पीछे फेंके गए फूल व्यापारी समुदाय पर चस्पा गहरे तनाव की बानगी हैं। अनुभवी कमीशन एजेंटों के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक कैलेंडर से जुड़ा बाज़ार का उतार-चढ़ाव आम बात है। उनकी दिनचर्या सूरज उगने से पहले ही शुरू हो जाती है ताकि मांग पूरी की जा सके। लेकिन पिछले तीन वर्षों से लगातार बिगड़ती फसलें, खासतौर पर सांगली, सतारा और पुणे जैसे ज़िलों में हो रहा नुकसान आपूर्ति शृंखला (सप्लाई चेन) को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है।
बाजीराव महादेव खेडेकर नाम के एक वरिष्ठ एजेंट ने किसानों से अपील की थी कि बारिश के बावजूद वे फसल भेजते रहें। वे बताते हैं, “मैंने खेती वालों को बोला, लगातार माल निकालते रहो। उन्होंने पानी में घुसकर रिस्क लिया, लेकिन माल डैमेज हो गया।” किसानों ने बाढ़ का जोखिम उठाया, पर उनका माल बर्बाद हो गया।
जब महाराष्ट्र से फूलों की आपूर्ति कमजोर पड़ती है, तो व्यापारी अन्य राज्यों से फूल मंगवाने लगते हैं। लेकिन जब एक साथ कई जगहों से फूल मंडी में पहुँचते हैं, तो बाज़ार मेंमाल ज़रूरत से ज़्यादा हो जाता है, जिससे दाम घटने लगते हैं। त्योहारी खरीदारों को भी अनिश्चित दाम का सामना करना पड़ता है। बाजीराव को केवल सरप्लस आपूर्ति की ही चिंता नहीं है; उनका कहना है कि मई की बारिश के बाद होने वाली जल्दी बुआई के कारण जुलाई में एक नई फसल तैयार हो जाएगी, जिससे माँग-आपूर्ति और क़ीमतों के चक्र पर गहरा सर पड़ेगा।
अब कुछ एजेंट व्यापार को स्थिर रखने के लिए आपूर्तिकर्ताओं में विविधता लाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन खेती और अर्थव्यवस्था के बीच जो नाज़ुक संतुलन कभी पारिस्थितिक दबाव के बावजूद कायम था, वह अब टूटने के कगार पर है।
सांगली और सतारा जैसे ज़िलों में किसान पर्यावरण से जुड़े खतरे के बढ़ने के बावजूद भी ऊँची लागत को यह सोच कर बर्दाश्त कर लेते थे कि मंडी में उन्हें ठीकठाक मुनाफ़ा मिल जाएगा। अब बाढ़, सूखा और फ़ंगल के प्रकोप जैसे जोखिम इस मुनाफ़े को भी अनिश्चित बना रहे हैं।
हाशिए पर बचा हुआ सच
संरक्षित खेती के लिए दी जाने वाली पॉलीहाउस और ग्रीनहाउस जैसी सरकारी सब्सिडी को जलवायु-संवेदनशील (क्लाइमेट-स्मार्ट) समाधान के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। इन योजनाओं का उद्देश्य नियंत्रित पर्यावरण में खेती को बढ़ावा देना है। लेकिन, मुंबई की दादर फूल मंडी में किसान और व्यापारी, नीतियों और कार्यान्वयन के बीच के अंतर ओर इशारा करते हैं।
वे कहते हैं कि इस तरह के सभी कार्यक्रमों में ऐसा पूर्वानुमान लगा लिया जाता है कि सभी किसानों की आर्थिक क्षमता ऐसी होती है कि वे इस तरह की तकनीकों का फ़ायदा उठा सकते हैं। जबकि हकीकत यह है कि बार-बार होने वाले नुकसान से उबरने के लिए किसानों को मौसमी और चक्रीय स्तर पर जुगाड़ और अनुकूलन करना पड़ता है। तेज़ी से बदलते पर्यावरणीय हालात को अब किसान केवल जोखिम के रूप में नहीं, बल्कि ऐसे कारक के रूप में देखने लगे हैं जो पूरे सीज़न को या तो अति-उत्पादन में बदल देते हैं या उत्पादन की कमी में। दोनों ही स्थितियाँ अस्थिर हैं। लंबे-समय तक मिलने वाले सहयोग और ज़मीनी समर्थन के बिना ऐसे तकनीकी समाधान सीमित ही रहेंगे, खासकर तब जब पूरी पारिस्थितिकी यानी मिट्टी, पानी और वातावरण एक असंतुलन से गुज़र रहा है।
हाल ही में लैंड (एमडीपीआई) में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि सतारा और सांगली जैसे इलाक़ों की ज़मीनें मरुस्थलीकरण को लेकर कितनी अधिक संवेदनशील हैं। अध्ययन में सामने आया है कि लगभग 60 फीसद ज़मीन पर ख़तरा है, जिसमें 28 फीसद को नाज़ुक और 12 फ़ीसद ज़मीन को गंभीर श्रेणी में रखा गया है। अध्ययन से यह भी पता चला है कि ज़मीन, जलवायु, वनस्पति और सामाजिक दबाव, ये सभी आपस में जुड़े हुए हैं। सिर्फ़ पॉलीहाउस जैसे संरक्षित ढाँचों में खेती करना इस जटिल समस्या का समाधान नहीं हो सकता। नीतियों का केवल पॉलीहाउस सब्सिडी पर ही केंद्रित रहने का मतलब है जलभराव, मिट्टी के क्षरण और अनिश्चित बारिश जैसी व्यवस्थागत समस्याओं को नज़रअंदाज़ करना। जबकि ये समस्याएं अब किसानों के लिए हर मौसम की चुनौती बन चुकी हैं।
फिर भी विदर्भ के सूखे खेतों में पंचशीला की बीन-बटोर कर जीने की प्रक्रिया खामोशी से कुछ सिखाती है। वह किसी सरकारी सब्सिडी से बंधी नहीं है, लेकिन अपने आसपास के परिदृश्य को बेहद सूक्ष्मता और समझदारी से पढ़ती है। वह धतूरा और वटवृक्ष की पत्तियाँ बटोरती है, बिना प्रकृति से ज़्यादा कुछ छीने। उसका तरीका कोई मॉडल नहीं है, बल्कि एक आईना है। ऐसा आईना जो उस सहनशीलता और समझ को दर्शाता है जिसकी कीमत बाज़ार समझ नहीं रहा है।
इससे एक महत्त्वपूर्ण सवाल उठता है कि अस्थिर समय से गुज़रने के लिए किस प्रकार का ज्ञान हमारे काम आएगा, और वह ज्ञान किनके पास पहले से मौजूद है? जलवायु से होने वाले नुकसान को आर्थिक झटकों के रूप में झेल रहे व्यापारी और किसान क्या इस लड़ाई को हार जाएंगे? या फिर वे पारिस्थितिक सोच (इकोलॉजिकल थिंकिंग) को अपने रोज़मर्रा के संघर्षों में वास्तविक और व्यावहारिक रूप से शामिल कर लेंगे?
इंडिया वाटर पोर्टल की पहली क्षेत्रीय पत्रकारिता फैलोशिप के दौरान लिखी गई वंशिका सिंह की रिपोर्ट का यह अनुवाद कुमारी रोहिणी ने किया है।