क्या बढ़ती बारिश सचमुच धरती को बंजर बना रही है?
यूं तो बारिश को धरती और किसानों का मित्र माना जाता है। अच्छी बारिश से अच्छी फसल की उम्मीदें जगती हैं और किसानों के चेहरे चमक उठते हैं। पर, जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाली भारी बारिशें अब किसानों के लिए परेशानी का सबब बनती जा रही हैं। हम, बेमौसम बरसात से खेती को होने वाले नुकसान या फसलों के डूब जाने जैसी समस्याओं की बात नहीं कर रहे, बल्कि यह समस्या इससे कहीं ज़्यादा गंभीर और लंबे समय तक असर दिखाने वाली है।
बात हो रही है, मौसम के बिगड़ते मिज़ाज के कारण होने वाली मूसलाधार बारिशों की। कम समय में काफ़ी ज़्यादा पानी बरसाने वाली बारिशें दरअसल ज़मीनों को बंजर बना रही हैं। खेत की उपजाऊ मिट्टी का इन बारिशों में बह जाना खेती के लिए एक बड़ा और दीर्घकालिक संकट बनता जा रहा है। समस्या की गंभीरता को इस बात से समझा जा सकता है कि ज़मीन की सबसे ऊपरी और उपजाऊ परत, एक साल में जितनी बन पाती है उससे 100 गुना तेज़ी से उसका नाश हो रहा है।
यह बात भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) द्वारा मिट्टी के नमूनों की जांच के आधार पर तैयार की गई एक रिपोर्ट में सामने आई है। इस रिपोर्ट का ज़िक्र ग्रामीण विकास, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में किया।
बारिश के कारण बंजर हो रही ज़मीन, बढ़ रही लवणता
डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के मुताबिक चौहान ने आईसीएआर के आंकड़ों का हवाला देते हुए संसद को बताया कि खरीफ सीजन में होने वाली बारिश में साल 2050 तक 4.9% से 10.1% और साल 2080 तक 5.5 % से 18.9% की वृद्धि होने का अनुमान है। इसी तरह रबी सीजन की वर्षा में साल 2050 तक क्रमशः 12% से17% और साल 2080 तक 13% से 26% तक की वृद्धि होने का अनुमान है। वर्षा में इस वृद्धि के कारण साल 2050 तक कृषि भूमि से प्रति वर्ष 10 टन प्रति हेक्टेयर मिट्टी कट कर बह सकती (अपरदन) है।
इससे मिट्टी की लवणता में भी बढ़ोतरी होगी, जिसके चलते लवणता से प्रभावित क्षेत्र यानी ऊसर भूमि 2030 तक 67 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 1.1 करोड़ हेक्टेयर हो जाने की संभावना है। संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक भारत सरकार की 'बंजर भूमि एटलस' (2019) के मुताबिक देश में कुल 5.58 करोड़ हेक्टेयर बंजर भूमि है। ये देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 16.96% है। आईसीएआर ने यह रिपोर्ट मिट्टी के कटाव, बारिश के पैटर्न और फसलों की पैदावार पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की सिमुलेशन मॉडलिंग पर आधारित अध्ययन करके तैयार की है।
एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल प्रोटोकॉल के मुताबिक कृषि में जोखिम और संवेदनशीलता का मूल्यांकन भी किया है। इस मूल्यांकन के आधार पर देश में कुल 109 ज़िलों की अति उच्च और 201 ज़िलों की अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्र के तौर पर पहचान की गई है।
देशभर में कुल 151 ज़िलों में कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से मिट्टी की गुणवत्ता को सुधारने के उपाय किए जा रहे हैं। साथ ही, मौसम की अनियमित स्थितियों यानी जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए कुल 651 ज़िलों के लिए ज़िला कृषि आकस्मिकता योजना भी तैयार की गई है।
आईसीएआर की रिपोर्ट में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते मौसम में आए बदलावों से बारिश का पैटर्न बदला है। अचानक और तेज़ बारिश यानी कम समय में ज्यादा बारिश होने के कारण मिट्टी की उपजाऊ परत बह जा रही रहा है। इसे देखते हुए सरकार कृषि क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के अनुमानित बुरे असर से निपटने के लिए कई तरह की तैयारियां कर रही है।
खराब मौसम की स्थितियों से निपटने के लिए संवेदनशील क्षेत्रों के लिए जलवायु परिवर्तन के अनुकूल खेती की तकनीकें विकसित की जा रही हैं। इसके लिए, उन जगहों की मिट्टी में पोषक तत्वों के प्रबंधन पर काम किया जा रहा है। मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार के साथ ही, अनुपूरक सिंचाई (बारिश के अलावा फसलों की ज़रूरत के अनुसार की जाने वाली सिंचाई), सूक्ष्म सिंचाई (माइक्रो इरिगेशन), पानी की बेहतर निकासी आदि को बढ़ाने का भी प्रयास किया जा रहा है।
रासायनिक खाद के इस्तेमाल की भूमिका
धरती के बंजर होने के मुख्य कारणों में जलवायु परिवर्तन के साथ ही, खेती में रासायनिक खाद, कीटनाशकों और रसायानों का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल भी शामिल है। इसके कारण मिट्टी की गुणवत्ता और उपजाऊपन में गिरावट आती है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक सबसे पहले सन 1840 के आसपास जर्मन वैज्ञानिक जस्टस फ़ॉन लीबीग ने खेती में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश के उपयोग की बात दुनिया के सामने रखी थी। लीबीग ने कहा था कि अगर रसायनों की कृत्रिम खाद बना कर खेतों में डाली जाए, तो फसलें तेज़ी से बढ़ सकती हैं। इस प्रयोग को दुनिया भर के किसानों ने अपनाया।
हालांकि, इसके लगातार इस्तेमाल ने मिट्टी की उर्वरता तो घटाई ही, बल्कि करोड़ों हेक्टेयर ज़मीन को भी बंजर बना डाला। हाल ही में एमपीडीआई जर्नल पर छपे एक पेपर के मुताबिक, दुनियाभर में 166 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन मानव गतिविधियों के कारण बंजर हो चुकी है, जिसमें 60 फीसद ज़मीन खेती की ज़मीन है।
दुनियाभर में बढ़ रही है बंजर भूमि की समस्या
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण ज़मीन के बंजर होने की समस्या भारत के अलावा विदेशों में भी देखने को मिल रही है। इसका खुलासा साल 2022 में संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) की रिपोर्ट में किया गया था। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक यूएन की इस रिपोर्ट में बताया गया था कि ग्लोबल लैंड आउटलुक-2 के अनुसार 2022 तक दुनिया की 40% से अधिक ज़मीन बंजर हो चुकी थी।
भूमि की उर्वरता तेज़ी से घटने या समाप्त होने का असर दुनिया की आधी से ज़्यादा आबादी पर पड़ रहा है। इसका मुख्य कारण कृषि क्षेत्र में सघन खेती का बढ़ता चलन है। यानी एक के बाद एक पूरे साल लगातार फसलें लेते रहने के कारण ज़मीन में मौज़ूद पोषक तत्वों की मात्रा बड़ी तेज़ी से घटती जा रही है। इसका अंजाम ज़मीन का बंजर हो जाना है।
यह सब केवल शुष्क क्षेत्रों यानी पानी की कमी वाले इलाक़ों में ही नहीं हो रहा। बल्कि, सामान्य जलवायु वाले क्षेत्रों में भी प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन, मिट्टी के घटते पोषण से भूमि उत्पादकता में कमी, वृक्षों के काटे जाने सहित जैव-विविधता से हो रहे खिलवाड़ जैसी वजहों ज़मीनें बंजर होती जा रही हैं।
दुनिया में जितनी तेज़ी से सघन खेती का दायरा बढ़ता जा रहा है, उतनी ही तेज़ी से ज़मीन भी बंजर होती जा रही है। इन मानवीय वजहों के अलावा बंजरीकरण के प्राकृतिक कारणों की बात करें, तो तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कारण भी इसकी दर बढ़ रही है।
आर्थिक प्रभाव: ग्लोबल जीडीपी का हो रहा 50% नुकसान
कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की अर्थव्यवस्था का सालाना सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) लगभग 93 खरब डॉलर है। यदि भूमि को बंजर होने से बचाने रोका जा सके, तो इसमें प्रतिवर्ष 125 से 140 खरब डॉलर की वृद्धि हो सकती है। यह ग्लोबल जीडीपी का करीब 50% है।
भूमि के बंजर होने का दूसरा आर्थिक प्रभाव यह हो रहा है कि इससे खेती करना महंगा होता जा रहा है, क्योंकि भूमि की उत्पादकता में कमी आने के कारण किसानों को फसलें उगाने के लिए सिंचाई, खाद, दवाओं और रसायनों पर ज़्यादा पैसे खर्च करने पड़ रहे हैं। इससे भारत सहित दुनिया के दर्ज़नों विकासशील और गरीब देशों के किसानों की स्थिति खराब होती जा रही है।
दूसरी ओर, खेती की लागत बढ़ने क कारण कृषि उपज की कीमतों में भी बढ़ोतरी हो रही है, जो ग्लोबल स्तर पर महंगाई बढ़ा रही है। वर्तमान में और खेती और उसमें इस्तेमाल होने वाले जीवाश्म ईंधन (डीज़ल, गैस आदि) के लिए दुनिया में प्रतिवर्ष 700 अरब डॉलर की सब्सिडी दी जा रही है। सब्सिडी के बोझ को इस ऊंचे स्तर तक पहुंचाने में भूमि बंजरीकरण या मरुस्थलीकरण का बड़ा हाथ है, क्योंकि इसके कारण फसल उगाने के लिए ज़्यादा सिंचाई की आवश्यकता होती है, जिसमें ज़्यादा ईंधन की खपत होती है।
इस समस्या का एक सीधा कारण दुनिया में पाई जाने वाली आर्थिक असमानता और ग्लोबल अर्थव्यवस्था का विकसित व संपन्न देशों की ओर झुका होना भी है। इसके चलते आर्थिक रूप से पिछड़े देश अमीर देशों की उपभोक्तावादी मांगों को पूरा करने का ज़रिया बनकर रह गए हैं। मिसाल के तौर पर अमीर देशों में कपड़ों की मांग को पूरा करने के लिए गरीब देशों में कपास जैसी पानी की मांग वाली फसलें उगाई जा रही हैं।
इसी तरह चीनी की आपूर्ति के लिए गन्ने की खेती और मांस की आपूर्ति के लिए विकसित देशों में पशु आहार में इस्तेमाल होने वाले सोयाबीन की खेती की जा रही है। यदि भूमि का उपयोग इसी तरह किया जाता रहा, तो दुनिया भर में अगले 30 वर्षों में पूरे दक्षिण अमेरिका के क्षेत्रफल के बराबर ज़मीन और बंजर हो जाएगी।
सामाजिक प्रभाव: मुश्किल हो रही औरतों की जिंदगी
भूमि के बंजरीकरण के सामाजिक प्रभाव का आकलन करते हुए यूएन की रिपोर्ट में बताया गया है कि समाज में इसका गहरा प्रभाव महिलाओं के जीवन पर पड़ रहा है। खेती में बड़ी संख्या में काम करने वाली महिलाओं को मिट्टी की उपजाऊ क्षमता घटने के कारण फसल के उत्पादन में पहले की तुलना में कहीं अधिक मेहनत करनी पड़ रही है।
साथ ही, उपज बनाए रखने के लिए उन्हें खेती में ज़्यादा समय भी देना पड़ रहा है। इसके अलावा, खेती की आमदनी कम होने पर महिलाओं पर गृहस्थी और परिवार की आजीविका चलाने का तनाव भी बढ़ जाता है। बंजर भूमि के कारण जल स्रोत भी सूखने लगते हैं, जिससे घरेलू उपयोग के लिए पानी लाने की जिम्मेदारी निभाने वाली महिलाओं को लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। इससे उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक भागीदारी पर नकारात्मक असर पड़ता है।
कुपोषण, भूख और विस्थापन भी बढ़ा
ज़मीन के बंजर होने से खाद्य उत्पादन घटता है, जिससे भूख और कुपोषण की समस्या तेज़ी से बढ़ती है। जब मिट्टी अपनी उपजाऊ शक्ति खो देती है, तो किसान अपनी जमीन छोड़कर रोज़गार की तलाश में शहरों या दूसरे देशों की ओर पलायन करने लगते हैं। यह बड़े पैमाने पर विस्थापन को जन्म देता है। संसाधनों की कमी के कारण स्थानीय स्तर पर तनाव बढ़ता है, जो कई बार समुदायों और देशों के बीच संघर्ष का रूप ले लेता है।
संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि यदि भूमि का क्षरण इसी गति से जारी रहा, तो यह भविष्य में भूख, गरीबी और प्रवासन से जुड़े मानवीय संकटों को और गहरा करेगा। इस तरह भूमि का बंजरीकरण केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं, बल्कि एक ऐसा विनाश-चक्र (विशियस सर्कल) है, जो समाज, अर्थव्यवस्था और वैश्विक शांति तीनों ही के लिए खतरा बनता जा रहा है।
बंजर भूमि सुधार के उपाय
बंजर भूमि को फिर से उपजाऊ बनाना संभव है। हालांकि. इसकी प्रक्रिया धीमी होती है, यानी इसमें अच्छा खासा वक्त और मेहनत लगती है। बंजर ज़मीन में उर्वरता लाने के लिए मिट्टी, पानी और वनस्पति का संतुलन बहाल करना सबसे अहम होता है। सबसे पहले, मिट्टी की गुणवत्ता और संरचना को सुधारना होता है।
साथ ही, मिट्टी में पर्याप्त नमी बनाए रखने के इंतज़ाम करने होते हैं, ताकि उसमें सूक्ष्म जीव पनप और जी सकें। सूक्ष्मजीवों को सक्रिय करने के लिए जैविक खाद, गोबर की खाद और हरी खाद का उपयोग किया जाता है। मिट्टी के कटाव को कम करने के लिए कंटूर बंडिंग, टेरेसिंग, और मल्चिंग जैसी तकनीकों को इस्तेमाल किया जाता है। इससे मिट्टी की ऊपरी परत को बारिश के पानी के साथ बहने से रोका जाता है।
इन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है-
कंटूर बंडिंग: ढालू ज़मीन पर ढलान के समानांतर मिट्टी या पत्थर की मेड़ें बनाई जाती हैं ताकि वर्षा का पानी के साथ होने वाले मिट्टी के कटाव को रोका जा सके।
टेरेसिंग: पहाड़ी इलाकों और ढलानदार क्षेत्रों में खेतों को सीढ़ीनुमा आकार दिया जाता है, जिससे पानी रुक सके और खेती करना संभव हो सके।
मल्चिंग: मिट्टी की सतह पर सूखी घास, पत्ते या प्लास्टिक की मल्चिंग शीट बिछाई जाती है, ताकि नमी बनी रहे, खरपतवार कम हों और मिट्टी का तापमान नियंत्रित रहे।
इन तरीकों के साथ ही, ज़मीन में पौधरोपण करके और घास उगाकर से मिट्टी को स्थिरता दी जाती है। इससे मिट्टी में नमी बनी रहती है और उसकी जल धारण क्षमता बढ़ती है। इसके अलावा, मिट्टी की गुणवत्ता सुधारना या उसकी लवणता या क्षारीयता को कम करना भी ज़रूरी होता है। इसके लिए जिप्सम या सल्फर जैसे सुधारक तत्व मिट्टी में मिलाए जाते हैं, जो इसकी रासायनिक संरचना को संतुलित करते हैं।
वर्षा जल संचयन के लिए पोखर, तालाबों और चेक डैम जैसी संरचनाएं बनाकर जल उपलब्धता बढ़ाई जाती है। इन सब उपायों को करने से धीरे-धीरे मिट्टी में जीवन लौटता है। इस तरह वैज्ञानिक तकनीक, पारंपरिक ज्ञान और सामुदायिक प्रयासों के ज़रिये बंजर भूमि पर फिर से हरियाली लाई जा सकती है।
भूमि सुधार की प्रक्रिया को सरल रूप में नीचे दिए गए बिंदुओं में समझा जा सकता है —
मिट्टी की जांच: सबसे पहले मिट्टी की रासायनिक, भौतिक और जैविक स्थिति की जांच की जाती है, ताकि यह पता चल सके कि उसमें कौन-से पोषक तत्वों की कमी है या लवणता/क्षारीयता कितनी है।
जैविक सुधार: गोबर की खाद, कम्पोस्ट, हरी खाद और अन्य जैविक उर्वरक डालकर मिट्टी में जैविक पदार्थों की मात्रा बढ़ाई जाती है। इससे मिट्टी की उर्वरता और जल धारण क्षमता सुधरती है।
भौतिक सुधार: टेरेसिंग, कंटूर बंडिंग, मेड़बंदी और मल्चिंग जैसी तकनीकों से मिट्टी के कटाव को रोका जाता है और वर्षा का पानी रोका जाता है।
रासायनिक सुधार: लवणीय या क्षारीय मिट्टी में जिप्सम, सल्फर या चूना मिलाकर मिट्टी की पीएच वैल्यू संतुलित की जाती है। खेती के लिए मिट्टी की आदर्श पीएच वैल्यू सामान्यतः 6.0 से 7.5 के बीच मानी जाती है। अगर pH 6.0 से कम है, तो मिट्टी अम्लीय कहलाती है, जिससे पौधों को पोषक तत्व सही तरह नहीं मिल पाते। वहीं पीएच 7.5 से ज़्यादा होने पर मिट्टी क्षारीय हो जाती है और उसमें सोडियम और लवण की मात्रा बढ़ने से फसलें ठीक से नहीं पनपतीं। इसलिए मिट्टी की पीएच वैल्यू को 6.0–7.5 के दायरे में लाना ज़रूरी होता है, ताकि पौधों की जड़ें पोषक तत्वों को सही तरह से अवशोषित कर सकें।
जल संरक्षण और प्रबंधन: वर्षा जल संचयन के लिए चेक डैम, तालाब या सोख्ता गड्ढे (परकोलेशन टैंक) बनाए जाते हैं, ताकि भूजल रिचार्ज हो सके और मिट्टी में खेती करने लायक नमी बनी रहे।
वनस्पतियों को लगाना: उपयुक्त घासों, झाड़ियों और वृक्षों को लगाया जाता है, ताकि मिट्टी की पकड़ मजबूत हो और धीरे-धीरे जैव विविधता लौट सके।
समेकित भूमि प्रबंधन: स्थानीय समुदायों, किसानों और वैज्ञानिकों की भागीदारी से भूमि के बेहतर उपयोग की दीर्घकालिक योजना बनाकर उसकी निगरानी की जाती है, ताकि सुधार टिकाऊ रहें।


