जलवायु परिवर्तन के चलते मानसून के पैटर्न में आ रहे बदलाव के कारण पूर्वोत्‍तर राज्‍यों में बारिश में कमी देखने को मिल रही है, जबकि सूखे राज्‍यों में बारिश में बढ़ोतरी हुई है।
जलवायु परिवर्तन के चलते मानसून के पैटर्न में आ रहे बदलाव के कारण पूर्वोत्‍तर राज्‍यों में बारिश में कमी देखने को मिल रही है, जबकि सूखे राज्‍यों में बारिश में बढ़ोतरी हुई है। स्रोत : इंडिया वाटर पोर्टल

क्यों बदल रहा मानसून का मिज़ाज: पूर्वोत्‍तर में घट रही बारिश, सूखे इलाकों में झमाझम बरसात

मौजूदा मानसून सीज़न में मेघालय में 48% कम बारिश हुई है, अरुणाचल प्रदेश में 42% और असम में बारिश में 40% की कमी दर्ज़ की गई। दूसरी ओर, राजस्थान जैसे रेगिस्‍तानी राज्‍य में 81% ज़्यादा बारिश हुई है।
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जलवायु परिवर्तन के चलते मानसून के पैटर्न में आ रहे बदलाव के कारण इस साल भारत में मानसून का रुख बदला हुआ दिखाई दिया। पूर्वोत्तर भारत में बारिश में कमी और राजस्थान जैसे सूखे इलाकों में ज़्यादा बारिश की खबरें सामने आई हैं। मौसम विभाग के डेटा के हवाले से दैनिक जागरण में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस बार 1 जून से 4 अगस्त तक पूर्वोत्‍तर भारत में सामान्य से कम बारिश हुई है। 

सबसे ज्‍़यादा कमी "बादलों का घर" कहे जाने वाले मेघालय में देखने को मिली है, जहां 48% कम बारिश हुई है। राज्य में इस अवधि के लिए सामान्य औसत 873.1 मिलीमीटर की तुलना में केवल 453.3 मिलीमीटर बारिश हुई। पृथ्वी के दो सबसे ज़्यादा बारिश वाली जगहों मावसिनराम और चेरापूंजी (सोहरा) वाले पूर्वी खासी हिल्स ज़िले में 40% कम वर्षा दर्ज़ की गई, जबकि पश्चिम गारो हिल्स ज़िले में सबसे ज़्याजा 79% कम बारिश हुई। 

इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश में 42% और असम में बारिश में 40% की कमी दर्ज़़ की गई है। अन्‍य पूर्वोत्‍तर राज्‍यों की बात करें तो सिक्किम में 21%, मणिपुर में 20%, नागालैंड में 4%, मिजोरम में 4%, त्रिपुरा में 4% कम बारिश हुई है। पूर्वोत्‍तर राज्‍यों से सटे पश्चिम बंगाल में भी अबतक के मानसून में 7% कम बारिश देखने को मिली है। 

हालांकि, जुलाई के आखिरी और अगस्‍त के शुरुआती हफ़्ते में बारिश में सुधार हुआ। मौसम विभाग की 12 अगस्‍त को जारी विज्ञप्ति के मुताबिक पूर्वात्‍तर भारत में बारिश की कमी घटकर 16% रह गई। इसमें असम+मेघालय में 2% की कमी दिखाई गई हे, जबकि अरुणाचल प्रदेश+नागालैंड में 13% और मणिपुर+त्रिपुरा+मिजोरम में 31% की कमी दिखाई गई है। 

दूसरी ओर, इसी मानसून सीज़न के दौरान राजस्थान जैसे सूखे रेगिस्‍तानी राज्‍य में इस अवधि में सामान्य से 81%  ज्यादा बारिश दर्ज़ की गई है। इसके अलावा देश के सूखे राज्‍यों में गिने जाने वाले झारखंड में 46% ज्यादा बारिश दर्ज़ की जा चुकी है। पब्लिक पॉलिसी थिंक टैंक सीईईडब्लू की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दश्क में दक्षिण-पश्चिम मानसून और पूर्वोत्तर मानसून के पैटर्न में बदलाव आया है। 

आंकड़ों के मुताबिक पिछले एक दशक (2012-2022) में देश की 55 प्रतिशत तहसीलों में दक्षिण-पश्चिम मानसून की बारिश में वृद्धि दर्ज़ की गई है। वहीं 11 फीसदी तहसीलों में बारिश में कमी देखी गई, जो जलवायु आधार रेखा (1982-2011) की तुलना में 10 फीसदी से ज्यादा है। राजस्थान, गुजरात, मध्य महाराष्ट्र और तमिलनाडु की कुछ तहसीलें जहां पारंपरिक रूप से सूखे की स्थिति रहती थी वहां बारिश में वृद्धि दर्ज़ की गई। 

इस साल जून-जुलाई में पूर्वोत्‍तर राज्‍यों में सामान्‍य से कम बारिश दर्ज़ की गई है।
इस साल जून-जुलाई में पूर्वोत्‍तर राज्‍यों में सामान्‍य से कम बारिश दर्ज़ की गई है। स्रोत : टाइम्‍स ऑफ इंडिया

कृषि, जल सुरक्षा से लेकर जैव-विविधता तक पर पड़ रहा असर

बारिश के पैटर्न में हुए इस उलटफेर ने खेती और जल सुरक्षा से लेकर जैव विविधता तक हर मोर्चे पर खतरे की घंटी बजा दी है। यह साफ़ है कि जलवायु परिवर्तन अब महज़ एक थ्‍योरी नहीं, बल्कि हमारे दरवाज़े पर आ खड़ी हुई सच्‍चाई है। पूर्वोत्तर राज्‍यों में बारिश की भारी कमी ने सिंचाई, धान की बुवाई और पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक कम बारिश के कारण जल स्रोतों और जलाशयों का स्तर गिर रहा है। पानी की कमी के चलते धान जैसी सिंचाई-प्रधान फसलों की बुवाई में दिक्कत आ रही है, जो कि पूर्वोत्‍तर राज्‍यों के कृषि उत्‍पादन में खास जगह रखती है। दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश वाली दो जगहों मासिनराम और चेरापूंजी के लिए दुनिया भर में मशहूर मेघालय की 83% आबादी की आजीविका बारिश पर निर्भर खेती से चलती है। ऐसे में, घटती बारिश ने यहां के लोगों के लिए आर्थिक चिंता भी बढ़ा दी है। 

सबसे ज्‍़यादा चावल उत्‍पादन करने वाले पूर्वोत्‍तर राज्‍य असम में चावल की खेती वाले प्रमुख जिलों में शामिल बाजली ज़िले में इस साल बारिश में 77% की कमी, दारांग 76%, गोला घाट 37% और डिब्रूगढ़ में 56% कमी दर्ज़़ की गई है। इससे राज्‍य में चावल की खेती पर संकट गहराता जा रहा है। कृषि उत्‍पादन में गिरावट सीधे तौर पर पोषण में कमी से जुड़े होने के कारण इसका प्रभाव और भी गहरा हो जाता है। दीर्घ अवधि में यह कुपोषण जैसे स्‍वास्‍थ्‍य प्रभावों के रूप में सामने आता है। 

पूर्वात्‍तर राज्‍यों में बारिश में कमी का असर चाय की खेती पर भी पड़ा है, जो कि यहां की अर्थव्‍यवस्‍था का मज़बूत हिस्सा है। प्रिंट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार असम में लगभग 40% और पश्चिम बंगाल में लगभग 23% की कमी दर्ज़ की गई। 

हालांकि टाइम्‍स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में भारतीय चाय बोर्ड के हवाले से असम के चाय उत्‍पादन में में लगभग 12% की गिरावट बात कही गई है। इसमें बताया गया है कि असम के डिब्रूगढ़, पानितोला, तेंगाकट और डूमडूमा जैसे चाय बागान वाले इलाकों में तापमान 36°C से ऊपर जाने के कारण पत्तियों के काले पड़ जाने से फसल को काफ़ी नुकसान हुआ है। 

बारिश में कमी का बुरा असर ऊर्जा यानी बिजली उत्‍पादन पर भी पड़ता है। इसे मेघालय के उदाहरण से ही आसानी से समझा जा सकता है। पूर्वोत्‍तर राज्‍यों की खबरों के पोर्टल सेंटीनियल की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्षा की कमी ने मेघालय की प्राकृतिक जल प्रणालियों को बाधित कर दिया है। इसके चलते राज्‍य में जल विद्युत उत्पादन पर काफी बुरा असर पड़ा है, जो इस क्षेत्र के लिए ऊर्जा का एक प्रमुख स्रोत है। 

बारिश की कमी के कारण शिलांग के पास स्थित उमियम झील का जलस्‍तर घटने से उसपर निर्भर 180 मेगावाट क्षमता वाली बारापानी जल विद्युत परियोजना ने बिजली उत्पादन में काफ़ी गिरावट दर्ज़ की है। नतीजतन, राज्‍य में बिजली कटौती (लोड-शेडिंग) बढ़ गई है।

द शिलॉग टाइम्‍स की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में मानसून की बारिश कमजोर रहने के कारण 14 जुलाई को उमियम झील का जल स्तर 3,182 फीट तक गिर गया, जो कुछ महीने पहले लगभग 3,220 फीट था। इसे लेकर राज्‍य के ऊर्जा मंत्री एटी मंडल ने चिंता जताई है। साथ ही परियोजना के इंजीनियरों ने अधिकारियों को चेतावनी दी है कि लंबे समय तक सूखे की स्थिति से परिचालन में और बाधा आ सकती है, जिससे राज्य में बिजली की कमी हो सकती है।

टाइम्‍स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक बारिश में कमी से पूर्वोत्‍तर राज्‍यों की जैव विविधता पर भी खतरा मंडराता दिखाई दे रहा है। कम बारिश के चलते जंगलों की सेहत बिगड़ने से इन राज्‍यों के वनों का पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित हो रहा है। रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों के मुताबिक असम में 2001 से 2024 के बीच 3,400 वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र का नुकसान हुआ, जिससे 174 मिलियन टन कार्बन डाईआक्‍साइड (CO₂) का उत्सर्जन हुआ, जो कि इलाके में ग्रीन हाउस इफेक्‍ट को बढ़ाकर तापमान में बढ़ोतरी का कारण बन रही है। इस तरह इस वर्षा चक्र में बदलाव के चलते हुए क्‍लाइमेट चेंज ने पूर्वोत्‍तर राज्‍यों के स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव बढ़ाकर उसके संतुलन को भी प्रभावित किया है। 

सूखे प्रदेशों में बाढ़ व कटाव की आपदा 

पूर्वोत्‍तर राज्‍यों में बारिश में कमी से जहां कई तरह की समस्‍याएं उत्‍पन्‍न हो रही हैं, वहीं देश के शुष्क प्रदेशों में बारिश बढ़ने से जल संसाधनों की क्षमता तो बढ़ी है, मगर अचानक बारिश बढ़ने के कारण बाढ़ और मिट्टी के कटाव जैसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। राजस्थान में अचानक हुई अत्यधिक वर्षा से कई इलाकों में जलभराव और फसल को नुकसान हुआ।

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) का अनुमान है कि इस मानसून सीज़न में देशभर में दक्षिण-पश्चिम मानसून दीर्घ कालिक औसत (Long Period Average) का लगभग 106% रहेगा, यानी सामान्य से लगभग 6% अधिक वर्षा होगी। 

सीईईडब्‍ल्‍यू यानी काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायर्नमेंट एंड वाटर की रिपोर्ट बताती है कि राजस्थान में इस अवधि में औसत से लगभग 30% से लेकर 58% तक ज़्यादा वर्षा हुई। रिपोर्ट के मुताबिक 2012 से 2022 के बीच भारत की लगभग 55% तहसीलों में मानसूनी वर्षा में 10% से अधिक की वृद्धि हुई, जो मुख्य रूप से राजस्थान, गुजरात, मध्य महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे क्षेत्रों में देखी गई। वहीं, लगभग 11% तहसीलों में 10% से अधिक की कमी दर्ज़़ हुई, खासकर पूर्वोत्तर, हिमालयी और इंडो-गैंगेटिक मैदानों में। 

यह बदलाव केवल औसत वर्षा तक सीमित नहीं है। भारी बारिश वाले दिनों की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। रिपोर्ट के अनुसार लगभग 64% तहसीलों में भारी वर्षा वाले दिनों की संख्या प्रति वर्ष 1 से 15 दिन तक बढ़ गई है। यह स्थिति केवल मौसमी अनियमितता नहीं है, बल्कि एक लम्बे समय से बन रहे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का हिस्सा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इस तरह के बदलाव अगले कुछ दशकों में और तेज़ी से सामने आएंगे।

मौसम विभाग के मुताबिक 1 जून से 12 अगस्‍त तक देश में वर्षा का वितरण इस प्रकार रहा।
मौसम विभाग के मुताबिक 1 जून से 12 अगस्‍त तक देश में वर्षा का वितरण इस प्रकार रहा। स्रोत : आईएमडी

अब मौसम की लगभग आधी वर्षा केवल 20 से 30 घंटों के भीतर ही हो जाती है, जो मानसून की अवधि का लगभग 20% हिस्सा है। बाकी 50% वर्षा 80% समय में हल्की से मध्यम वर्षा के रूप में होती है। मानसून के पैटर्न में यह बदलाव वर्षा के असमान वितरण का कारण बन रहा है। इसके अलावा, मानसून के समय में भी बदलाव दर्ज़ किया गया है। कभी सबसे अधिक वर्षा वाला महीना माने जाने वाले जुलाई में अब बारिश में गिरावट दर्ज़ की जा रही है, वहीं सितंबर में बारिश बढ़ रही है। देश के विभिन्न हिस्सों में मानसून के आगमन एवं वापसी के समय में भी बदलाव आया है। इसके अलावा, अल नीनो और ला नीना की लगातार बढ़ती घटनाएं भी वर्षा में अंतर लाने में योगदान दे रही हैं।

डॉ. राजीवन माधवन नायर, पूर्व सचिव, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय

मानसून को प्रभावित करने वाले जलवायु और मौसम विज्ञान कारक

मौसम विभाग की एक रिपोर्ट में डॉ. नायर ने कहा कि अल नीनो के कारण प्रशांत महासागर की सतह तापमान बढ़ने के कारण भारत में मानसून कमजोर होता है, जिससे भारत में कम वर्षा का जोखिम बढ़ जाता है। 

इसके अलावा हिंद महासागर द्विध्रुव (IOD) का मानसून पर प्रभाव पड़ने से भी वर्षा का पैटर्न प्रभावित होता है। IOD समुद्र से जुड़ा जलवायु चक्र है, जिसमें पश्चिमी हिंद महासागर के तापमान में वृद्धि (positive IOD) और पूर्वी हिंद महासागर (इंडोनेशिया के आसपास) में गिरावट होती है, जिसे पॉजिटव आईओडी कहा जाता है। इसके विपरीत (की स्थिति को निगेटिव आईओडी कहा जाता है। पॉजिटव आईओडी की स्थिति होने पर भारत में मानसून वर्षा बढ़ जाती है, जबकि निगे‍टिव आईओडी से बारिश में कमी आती है। 

दैनिक जागरण की एक रिपोर्ट के मुताबिक मानसून के पैटर्न में आए इस बदलाव के बारे में मौसम विज्ञानी समरजीत चौधरी का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण मानसून का पैटर्न बदल गया है। पहले जब मानसून आता था, तो पूर्वोत्तर राज्यों और तटीय इलाकों में भारी बारिश होती थी। लेकिन पिछले एक दशक में, पूर्वोत्तर में बारिश में तेज़ी से गिरावट आई है, खासकर मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, असम और पश्चिम बंगाल के तराई क्षेत्रों में।

दूसरी ओर, राजस्थान और गुजरात सहित मध्य भारत में औसत से कहीं ज़्यादा बारिश हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण राजस्थान से होते हुए उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम तक जाने वाली  "मानसून रेखा" 10 डिग्री तक खिसक गई है। इसी रेखा के आसपास सबसे ज्यादा मानसूनी वर्षा होती है। आने वाले वर्षों में यह वर्षा पट्टी दक्षिण की ओर और खिसक सकती है, जिससे उत्‍तर और दक्षिण भारत में जल उपलब्धता प्रभावित हो सकती है।

राष्ट्रीय अंटार्कटिक एवं महासागर अनुसंधान केंद्र (एनसीएओआर) के पूर्व निदेशक डॉ. प्रेम चंद पांडे चेतावनी देते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र की सतह का तापमान बढ़ रहा है, जिससे समुद्र का पानी 300 मीटर तक की गहराई तक गर्म हो गया है। इससे चक्रवातों की आवृत्ति में तेज़ी से वृद्धि हुई है। इससे एक ही समय में ज्‍यादा बारिश का पैटर्न बढ़ा है, जबकि कुल वर्षा में कमी आई है। 

वे कहते हैं कि अगर यह ट्रेंड जारी रहा, तो तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए मुश्किलें काफ़ी बढ़ जाएंगी। इसके अलावा भारतीय मानसून पर असर डालने वाले कई वायुमंडलीय कारक भी हैं। साल 1950 के बाद से उपोष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट (Tropical Easterly Jet) की गति में लगभग 25% की कमी आई है, जिससे अरुणाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और मध्य भारत के कुछ हिस्सों में वर्षा कम हुई है । साल 1950 से 2015 के बीच दक्षिण एशियाई मानसून में बदलाव के चलते पूर्वोत्‍तर से लेकर मध्य भारत तक मानसूनी वर्षा में औसतन 10% तक गिरावट दर्ज़ की गई है। 

भविष्‍य की चुनौतियां

मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट के पीवी राजेश व वीएन गोस्‍वामी के अध्ययन के मुताबिक आने वाले समय में मानसून के पैटर्न में ये बदलाव और अधिक दिखाई देगा। राजस्थान में 2020-2049 के बीच मानसूनी बारिश में 35 फीसदी तक बढ़ोतरी का अनुमान है। जलवायु मॉडल संकेत देते हैं कि भविष्य में वर्षा की यह कमी में 50–200% तक हो सकती है। बदलती जलवायु और गर्म होते समुद्रों के चलते आने वाले समय में देश के पश्चिमी तटीय इलाकों में बारिश और बढ़ेगी।

इन परिस्थितियों का प्रभाव केवल पानी की उपलब्धता तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इसका सीधा असर हमारी खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा। अगर वर्षा समय, स्थान और मात्रा के अनुसार अनिश्चित हो जाती है, तो वर्तमान फसल चक्र और फसल किस्में उतनी उपजाऊ या टिकाऊ नहीं रह पाएंगी।

बारिश के पैटर्न को देखते हुए हमें आने अपनी खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए अपने फसलों की प्रजातियों और फसल चक्र में भी बदलाव करने होंगे। हमें सूखा-सहिष्णु और बाढ़-सहिष्णु किस्मों को अपनाना होगा, फसल चक्र में लचीलापन लाना होगा और सूक्ष्म सिंचाई तकनीकों को तेजी से फैलाना होगा। इसके अलावा मानसून के अनियमित व्यवहार के अनुसार कृषि योजनाओं, पानी की भंडारण और आपदा प्रबंधन से जुड़ी व्‍यवस्‍थाओं को भी पुनः समायोजित करने की आवश्यकता होगी।

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