मुंबई के कोली: समुद्र के रखवाले और मछली पकड़ने की विरासत के संरक्षक
मुंबई की गगनचुंबी इमारतें शहर की अथक महत्वाकांक्षा को दर्शाती हैं—शीशे और स्टील से बनी ये ऊँची अट्टालिकाएँ शहरी विकास की तेज़ रफ्तार की प्रतीक हैं। लेकिन इन्हीं इमारतों के साये में, लक्ज़री अपार्टमेंट्स और विशाल निर्माण स्थलों के बीच, कोलीवाड़े बसे हुए हैं—वह मछुआरा बस्तियाँ जो इस शहर के अस्तित्व से भी पुरानी हैं। कोली समुदाय, जो मुंबई का मूल निवासी है, आज भी अपनी समुद्री संस्कृति को सहेजने के लिए संघर्ष कर रहा है, जबकि शहर इसे मिटाने पर आमादा दिखता है।
सिमटती कोलीवाड़ा की ज़िंदगी
कफ परेड के मछुआरा गाँव ‘मछीमारनगर’ में कदम रखते ही वहाँ की ऊर्जा ने मुझे अपने घेरे में ले लिया। संकरी गलियों में बनी रंग-बिरंगी भित्ति चित्र (म्यूरल्स), जिनमें मछुआरे जाल फेंकते और महिलाएँ टोकरी में मछलियाँ उठाए दिखती थीं, इस समुदाय की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की कहानी बयां कर रही थीं। यहाँ की ज़िंदगी समुद्र की लहरों की लय के साथ चलती है।
एक कोने में कुछ मछुआरे जाल बुन रहे थे, हर जाल खास प्रकार की मछली पकड़ने के लिए तैयार किया जा रहा था। गणेश टंडेल, एक अनुभवी मछुआरे ने बताया,
“हम जो भी करते हैं, उसमें एक हुनर छिपा होता है। जाल सिर्फ़ एक औज़ार नहीं है—यह तय करता है कि हम क्या पकड़ते हैं और क्या छोड़ते हैं। अगर हमें कोई लुप्तप्राय प्रजाति मिलती है, तो हम उसे वापस समुद्र में छोड़ देते हैं।”
यह सावधानीपूर्वक अपनाई गई टिकाऊ (सस्टेनेबल) मछली पकड़ने की विधि उन बड़े ट्रॉलर जहाज़ों के पूरी तरह विपरीत थी, जो समुद्री जीवों को बेरहमी से खत्म कर रहे हैं।
लीला एक मछुआरिन हैं। बाज़ार से लौटते हुए उन्होंने मुझे अपने दो कमरों के घर में आने का न्योता दिया। यहां उनका नौ लोगों का परिवार एक साथ रहता है। वे बताती हैं, “मैं रोज़ तड़के 3 बजे उठकर ससून डॉक जाती हूं। वहां अपने पति से मछली लेती हूं या फिर व्यापारियों से खरीदती हूं। सफाई करने के बाद, 4 घंटे बाज़ार में बैठकर बेचती हूं। 9 बजे तक घर लौटकर नाश्ता बनाती हूं, बच्चों को स्कूल भेजती हूं और फिर घर का बाकी काम करती हूं।”
दिनभर की मेहनत के बाद भी, उन्हें मुश्किल से ₹700 मिलते हैं, जो परिवार के गुज़ारे के लिए नाकाफी हैं।
सिकुड़ता समुद्र और बढ़ती मुश्किलें
गणेश मुझे घाट पर ले गए, जहां उनकी नाव खड़ी थी। उन्होंने मछली पकड़ने की नई चुनौतियों के बारे में बताया। वे कहते हैं, “छोटी यात्राएं 6-7 घंटे की होती हैं, लेकिन लंबी यात्राओं में हमें समुद्र में कई दिन बिताने पड़ते हैं। पहले मछलियां आसानी से मिल जाती थीं, लेकिन अब ऐसा नहीं है। यह सिर्फ़ जलवायु परिवर्तन की वजह से नहीं है। बड़ी कंपनियों की अवैध मछली पकड़ने वाली नौकाएं और कॉर्पोरेट जहाज़ समुद्री पारिस्थितिकी को बर्बाद कर रहे हैं।”
वे क्षितिज की ओर इशारा करते हैं, जहां विशाल निर्माण परियोजनाएं नज़र आती हैं। “बड़े राजनेताओं की भी अपनी नावें होती हैं, जो मछली पकड़ने के नियमों का उल्लंघन करती हैं। ये लोग समुद्री जीवन को पनपने ही नहीं देते। जब हमारे लिए कुछ बचेगा ही नहीं, तो हम कैसे जियेंगे?” वे पूछते हैं।
मुंबई का तेज़ी से होता शहरीकरण कोलियों को हाशिए पर धकेल रहा है। तटीय नियमन क्षेत्र (Coastal Regulation Zone - CRZ) कानून, जो समुद्री इलाकों की रक्षा के लिए बनाए गए थे, सिर्फ़ छोटे मछुआरों पर लागू किए जाते हैं, जबकि बड़े बिल्डरों को बिना रोक-टोक निर्माण की अनुमति दी जाती है। मुंबई ट्रांस-हार्बर लिंक जैसी परियोजनाएं समुद्री पारिस्थितिकी को और अधिक नुकसान पहुंचा रही हैं, जिससे पारंपरिक मछली पकड़ने के इलाके कम होते जा रहे हैं।
बाज़ार में भी संघर्ष जारी
मुश्किलें सिर्फ़ समुद्र में ही नहीं, बल्कि मछली बाज़ारों में भी कम नहीं हैं। जहां लीला और उनकी पड़ोसन सुनीता अपनी मछलियां बेचती हैं, वह बाज़ार बदहाल स्थिति में है। “मैं रोज़ 8-9 घंटे काम करके मुश्किल से ₹500-600 कमा पाती हूँ। यहां शौचालय तक नहीं है, ठीक से खड़े होने की जगह भी नहीं मिलती,” सुनीता नाराज़गी जताती हैं।
ये महिलाएं मुंबई की समुद्री खाद्य आपूर्ति की रीढ़ हैं, लेकिन उन्हें अपमानजनक हालात में काम करना पड़ता है।
अब ऑनलाइन ग्रॉसरी स्टोर्स ने भी इनके व्यापार को प्रभावित किया है। “पहले सुबह-सुबह ग्राहक आते थे, लेकिन अब बहुत कम लोग आते हैं,” लीला ने कहा। ससून डॉक, जहा से ज़्यादातर मछली सप्लाई होती है, वहा भी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। “न पीने का पानी है, न टॉयलेट। हम ऐसे कैसे काम करें?”
प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या
मुंबई के सबसे पुराने निवासी और मछली पकड़ने वाले पारंपरिक कोली समुदाय को न सिर्फ पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि उनकी संख्या भी धीरे-धीरे कम होती जा रही है। भारतीय समुद्री मत्स्य जनगणना के अनुसार, मुंबई में 30 मछुआरा गाँव हैं। लेकिन 2005 से 2010 के बीच, मछली पकड़ने वाले परिवारों की संख्या 10,082 से घटकर 9,304 रह गई।
कोली समुदाय में आमतौर पर पुरुष मछली पकड़ने जाते हैं, जबकि महिलाएँ मछलियों की सफाई, छंटाई, सुखाने और बेचने का काम संभालती हैं। लेकिन बरसात के दिनों या जब समुद्र में ज्वार आता है, तो मछली पकड़ने के दौरान जाल में प्लास्टिक का कचरा भी फंस जाता है। ऐसे में पुरुषों को मछलियों से प्लास्टिक अलग करने का अतिरिक्त काम करना पड़ता है।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह प्लास्टिक कचरा वापस किनारे तक लाना आसान नहीं होता, इसलिए मजबूरन इसे फिर से समुद्र में फेंकना पड़ता है। इससे समुद्र का प्रदूषण और बढ़ता जाता है, और यह सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा।
परंपरा बनाम शहरीकरण
कोली समुदाय अपनी पहचान बचाने के लिए भी संघर्ष कर रहा है। समुदाय के नेता कैलाश टंडेल भावनात्मक लहज़े में कहते हैं, “कई बाहरी लोग हमारे बारे में ऐसे लिखते हैं जैसे हम या तो ज़मीन के हैं या समुद्र के। लेकिन हम दोनों से जुड़े हैं। हमारी पारंपरिक समझदारी ने समुद्री जीवन को पीढ़ियों तक जीवित रखा है, फिर भी हमें हाशिए पर धकेला जा रहा है।”
वे सरकार की "स्मार्ट फिशिंग विलेज" योजना पर कटाक्ष करते हैं, “इसका मतलब क्या है? क्या वे यह कहना चाहते हैं कि हम समझदार नहीं हैं? हमारी पारंपरिक जानकारी बेकार है? हमें बहुमंजिला इमारतों में डाल देने से हमारी समस्याएं हल नहीं होंगी।”
अस्तित्व बचाने की जंग
घाट पर चलते हुए मैंने कुछ बच्चों को एक पुराना कोली गीत गाते सुना—
हे मी हाय कोली, सोरिल्या डोली न मुंबईच्या किनारी
(मैं कोली हूँ, मुंबई के किनारों पर जन्मा हूँ)
उनकी आवाज़ में यादें भी थीं और विद्रोह भी। कोली सिर्फ़ अपने जीवनयापन के लिए नहीं, बल्कि अपनी संस्कृति को जीवित रखने के लिए लड़ रहे हैं।
एक मछुआरा मुझसे कहता है, “हमारी नावें सड़कों और सुरंगों पर नहीं चल सकतीं। अगर हमें समुद्र से दूर कर दिया गया, तो हमारा कोई अस्तित्व नहीं रहेगा।”
कोली विकास के विरोधी नहीं हैं। वे सिर्फ़ इतना चाहते हैं कि यह समावेशी और टिकाऊ हो। मुंबई का निर्माण उनके परिश्रम से हुआ, लेकिन आज उनकी आवाज़ शहर की चकाचौंध में दब गई है। उनकी लड़ाई सिर्फ़ आजीविका के लिए नहीं, बल्कि इज़्ज़त, पहचान और उस समुद्र के लिए है, जो उनका जीवन है।

