बारानी को भी ये दासी बना देंगे

14 Jan 2017
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saaf mathe ka samaj
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बारानी में वर्षा नमी रोकने के लिये हर इलाके के किसानों ने अपने-अपने ढंग से शानदार उपाय निकाले हैं। इसका मुख्य आयाम रहा है- ऊँचे-नीचे खेतों में मेड़ बाँधकर बरसात का पानी रोकना। मध्य प्रदेश के एक भाग में वह हवेली पद्धति कहलाती है। वह खेती किसान धरती और शबार तीनों की जरूरत का ख्याल रखती है। बारानी में बदल-बदल कर अपने क्रम से आने वाला फसल चक्र धरती के उपजाऊपन का भी ख्याल रखता है।

खेती मंत्रालय शायद जमीन पर उतर सके। खेती-बाड़ी के राज्यमंत्री चंदूलाल चंद्राकर और कुछ बड़े अधिकारियों ने पहली बार इस हफ्ते स्वीकार किया है कि बारानी असिंचित खेती की तरफ ध्यान दिये बिना सातवीं योजना के आखिरी छोर पर रखा गया अनाज उत्पादन का लक्ष्य छू पाना बहुत मुश्किल होगा। अगले साल यह लक्ष्य 16 करोड़ टन है और साल के अन्त तक इसे 18 करोड़ 80 लाख टन तक पहुँचाने की बात है।

लेकिन जमीन पर उतरने का तरीका बहुत हवाई-सा दीखता है। अगले महीने दिल्ली में होने वाले राष्ट्रीय विकास परिषद के सम्मेलन में बारानी खेती की एक राष्ट्रीय योजना को मंजूरी दी जाएगी फिर यह शुष्क भूमि कृषि योजना के नाम से जानी जाएगी। यदि ‘नाम में क्या रखा है’ ऐसा सवाल उठाया जाये तो कहना पड़ेगा कि योजना का नामकरण ठीक नहीं हुआ है। वह शुष्क भूमि के लिये नहीं, असिंचित भूमि के लिये बनाई गई है और ऐसी असिंचित खेती को वहाँ के किसान बरसों से बारानी खेती कहते आ रहे हैं।

फारसी से कभी हिन्दी में आये बारानी शब्द का मतलब है वर्षा के पानी से होने वाली खेती। यह कोई बताने की बात नहीं है कि बारानी का तरीका इस देश में यहाँ-से-वहाँ तक फैला हुआ है।

लेकिन राष्ट्रीय योजना बनाने से पहले केन्द्रीय सरकार ने इसका बाकायदा सर्वे किया है और पाया है कि देश की कुल खेती का 73 प्रतिशत बारानी है और कुल अनाज-उपज का 42 प्रतिशत बारानी से उपजता है।

सर्वे वालों को इस बात का बहुत दुख है कि 6 पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी ज्यादातर बारानी को लाभकारी नहीं बनाया जा सका है। उसका कहना है कि बारानी की जमीन में वर्षा के बाद नमी कायम रखना एक बड़ी समस्या है और इसमें फसल के दानों को पनपाना भी बहुत कठिन काम है। इसलिये इन दो कठिन मामलों पर किसानों की मदद करने के लिये हर जिले में एक-एक विज्ञान केन्द्र खोला जाएगा। अभी ऐसे केन्द्र 89 जिलों में हैं। इन केन्द्रों के जरिए इनको उम्दा बीज, खाद, कीड़ेमार दवाएँ और आधुनिक कृषि की तकनीक पहुँचाई जाएगी और इस तरह खेती को लाभदायक और वैज्ञानिक बनाया जाएगा।

दिक्कत वहीं से शुरू होगी। हर चीज को लाभदायक और वैज्ञानिक बनाने के चक्कर में घोषणाओं ने और ज्यादातर उनके पीछे चलने वाले नेतृत्व ने कई अच्छे उपजाऊ इलाकों को बर्बाद किया है। जो प्यार बारानी पर बरसता दिखने वाला है, वह आज तक तो सिंचित क्षेत्र पर बरसता रहा है। अधिक-से-अधिक खेतों को नहरों के पानी से सींचने से हरित क्रान्ति लाने की कोशिश ने बारानी खेती की बहुत उपेक्षा की है। जिनकी आँखों में बड़े बाँध बड़ी योजनाएँ बसी हैं उन्हें बारानी खेती पिछड़ी लगती है। ऐसे इलाके, ऐसे किसान, पिछड़े और खेती में बोई जाने वाली फसलें परम्परागत कहलाती हैं।

बारानी के विकास की सभी योजनाएँ परम्परागत और आधुनिक शब्दों के खतरनाक खेल से ऊपर नहीं उठती दिखती। इसलिये योजना बनाने और उसे लाने वाले इस खेती के उद्धारक की तरह सामने आ रहे हैं। इसलिये वे बारानी के वर्षों के बाद नमी सोखने से लेकर अच्छे उन्नत बीज लाने की बातें कर रहे हैं। बारानी करने वाले किसान ऐसा कहें कि हर किसान से कोई विशेषज्ञ यह पूछेगा कि बारानी वर्षा की नमी सोखना एक समस्या है तो वह हँसेगा। वह समस्या नहीं वह तो तरीका है। तरीके को समस्या मानकर देखने लगे तो कुल खेती समस्या बन जाएगी।

बारानी में वर्षा नमी रोकने के लिये हर इलाके के किसानों ने अपने-अपने ढंग से शानदार उपाय निकाले हैं। इसका मुख्य आयाम रहा है- ऊँचे-नीचे खेतों में मेड़ बाँधकर बरसात का पानी रोकना। मध्य प्रदेश के एक भाग में वह हवेली पद्धति कहलाती है। वह खेती किसान धरती और शबार तीनों की जरूरत का ख्याल रखती है।

बारानी में बदल-बदल कर अपने क्रम से आने वाला फसल चक्र धरती के उपजाऊपन का भी ख्याल रखता है। कुछ फसलें खेत से कुछ खास तत्व उधार लेकर पनपती हैं तो उनके बाद आने वाली फसलें खेती को फिर से तत्व वापस लौटाकर उपजाऊपन का पिछला हिसाब बराबर करने की कोशिश करती हैं- जैसे दलहन की फसलें। इधर लेन-देन में जो भूल-चूक रह जाती है, उसे किसान कम्पोस्ट और गोबर की खाद से पूरा करता है।

लेकिन तिजोरी भत्ते वाला बाजार हो, जैसा कि वह अनाथ हो चला है वो इसमें मदद नहीं देखती। अन्न का बाजार खेतों का धंधा चलाने वाले बाजार का फर्क किये बिना खेती की और देश के कुल उत्पादन में उसके योगदान को नहीं समझा जा सकता। बारानी को राष्ट्रीय योजना में बताया गया है कि इस खेती से कुल खाद्यान्न का 42 प्रतिशत उत्पादन हो रहा है। बड़े-बड़े बाँधों से सिंच रही खेती से उगने वाली 85 प्रतिशत फसल कहाँ जाती है, यह समझ में नहीं आ सकेगा।

देश के सिंचित इलाकों में पैदा हो रही फसल का एक बड़ा भाग रोकड़ खरीद फसलों का है। रोकड़ फसल खाने के काम नहीं तिजोरी भरने के काम आती है। और इस तरह भरी हुई तिजोरी उन्नत और बनावटी खाद, कीड़ेमार दवाओं खरपतवारों से कीड़ों को खत्म करने में फिर से खाली हो जाती है।

इस तरह की आधुनिक खेती में कुछ थोड़े से लोग कमाते है शेष किसान गँवाते ही रहते हैं। यहाँ-वहाँ उधर किसान आन्दोलन का असन्तोष और उसके पीछे खेती के खपत मूल्य के आधार पर फसल का दाम तय करवाने की माँग का क्षेत्र ब्यौरा ज्यादातर आधुनिक सिंचित क्षेत्रों में उभरा है। यह संयोग नहीं है, रोकड़ फसल को बोने-बेचने की मजबूरी से लेकर मोह तक का अनिवार्य नतीजा है।

गनीमत थी कि बारानी का इलाका यानी एक तरह से तीन चौथाई देश खेती को धन्धे में बदलने वाली आधुनिक बुराइयों से बचा रहा है।

साफ माथे का समाज

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

भाषा और पर्यावरण

2

अकाल अच्छे विचारों का

3

'बनाजी' का गांव (Heading Change)

4

तैरने वाला समाज डूब रहा है

5

नर्मदा घाटीः सचमुच कुछ घटिया विचार

6

भूकम्प की तर्जनी और कुम्हड़बतिया

7

पर्यावरण : खाने का और दिखाने का और

8

बीजों के सौदागर                                                              

9

बारानी को भी ये दासी बना देंगे

10

सरकारी विभागों में भटक कर ‘पुर गये तालाब’

11

गोपालपुरा: न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे

12

गौना ताल: प्रलय का शिलालेख

13

साध्य, साधन और साधना

14

माटी, जल और ताप की तपस्या

15

सन 2000 में तीन शून्य भी हो सकते हैं

16

साफ माथे का समाज

17

थाली का बैंगन

18

भगदड़ में पड़ी सभ्यता

19

राजरोगियों की खतरनाक रजामंदी

20

असभ्यता की दुर्गंध में एक सुगंध

21

नए थाने खोलने से अपराध नहीं रुकते : अनुपम मिश्र

22

मन्ना: वे गीत फरोश भी थे

23

श्रद्धा-भाव की जरूरत

 


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