धरती का बुखार (Global warming in India)

27 Sep 2017
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जब भी हमारे शरीर का ताप बढ़ता है, हम कहते हैं कि हमें बुखार आ गया। ठीक इसी तरह जब धरती का ताप बढ़ता है तो हम कहते हैं कि इसे बुखार आ गया है। यह सुनने में कुछ अजीब लगता है। लेकिन, यह सच है। अतः मन में स्वाभाविक ही प्रश्न उठता है कि आखिर धरती को कैसे आता है बुखार?

आज के औद्योगिक दौर में कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों की मात्रा लगातार बढ़ रही है और इसके कारण धरती के औसत ताप में लगातार वृद्धि हो रही है। यह धरती के बुखार का संकेत है। इससे निकट भविष्य में जलवायु परिवर्तन का खतरा मँडराने लगा है। इसे लेकर विश्व के तमाम देश चिन्तित हैं। हमें टिकाऊ विकास के लिये तकनीकी समाधानों के साथ ऐसा कुछ करना होगा जो लोगों की मानसिकता को बदलकर उसे ईको-फ्रेंडली (प्रकृति-मित्र) बना सके, ताकि पृथ्वी सुरक्षित रह सके।

पृथ्वी – एकमात्र जीवधारी ग्रह


पृथ्वी एकमात्र जीवधारी ग्रह है। अन्तरिक्ष में जीवन के अस्तित्व को खोजने के लिये कई अनुसन्धान हुए हैं लेकिन अभी तक पृथ्वी के अलावा कहीं भी जीवन के अस्तित्व में होने के प्रमाण नहीं मिले हैं।... हो सकता है कि आगे चलकर हमें ऐसा कोई ग्रह मिल जाये। लेकिन वर्तमान में तो पृथ्वी ही समूचे ब्रह्माण्ड में एकमात्र जीवित ग्रह है। पृथ्वी, सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है तथा स्वयं अपनी अक्ष के परितः भी घूमती है। इसका पर्यावरण अद्भुत है। यहाँ कई विस्मयकारी गतिविधियाँ निर्बाध गति से चलती रहती हैं।

पृथ्वी का पर्यावरण


पृथ्वी पर हम जो देखते हैं या अनुभव करते हैं, वही हमारे अपने व्यक्तिगत पर्यावरण का निर्माण करता है। इस दृष्टि से हर व्यक्ति का अपना-अपना अलग पर्यावरण होता है। लेकिन अगर तटस्थ भाव से देखें तो पृथ्वी का ऐसा पर्यावरण भी होता है, जो व्यक्ति-सापेक्ष नहीं होता। इसे हम देखें या नहीं, अनुभव करें या नहीं, लेकिन यह सदैव विद्यमान रहता है। इसमें जल, जमीन, जंगल, पदार्थ, नदी, पहाड़, जीव-जन्तु, हवा, प्रकाश, ध्वनियाँ और गन्ध आदि सभी आते हैं। इन सबसे मिलकर ही धरती के पर्यावरण का निर्माण होता है।

इस पर्यावरण की विशेषता ही यह है कि इसमें जीवन पनप सकता है तथा बचा भी रह सकता है। लेकिन इस पर्यावरण को बनने में लाखों करोड़ों वर्ष का समय लगा है। इस दौरान इसने अपना वह स्वरूप ग्रहण किया जिसमें फफूँद और काई जैसे एक-कोशीय जीव से प्रारम्भ होते हुए लगातार विकसित होते-होते इसकी अन्तिम कड़ी के रूप में बहुकोषीय मानव अवतरित हुआ। इस वातावरण के निर्माण में सूर्य की अहम भूमिका रही है।

सूर्य – असीम ऊर्जा का स्रोत


सूर्य एक तारा है। इसका ताप बहुत अधिक है। यही कारण है कि करोड़ों किलोमीटर दूर रहने के बावजूद यह हमारी धरती को गरम रख पाने में समर्थ होता है। हम इसकी गर्मी को महसूस करते हैं। सामान्यतः पदार्थ ठोस, द्रव एवं गैसीय अवस्थाओं में पाया जाता है। हम पानी के इन तीनों रूपों से परिचित हैं। ये बर्फ, जल और भाप हैं। गरम या ठंडा करने पर पदार्थ की अवस्थाएँ बदलती हैं। पदार्थ अणुओं और परमाणुओं से मिलकर बना होता है।

अणु और परमाणु की संरचना में आवेशित कण (हल्के कण इलेक्ट्रॉन और भारी कण आयन) होते हैं। अत्यन्त उच्च ताप पर पदार्थ अपने आवेशित कणों में टूट जाता है जिससे उसकी नई अवस्था प्रकट होती है। इस चौथी अवस्था को वैज्ञानिक शब्दावली में प्लाज्मा कहते हैं। अत्यन्त गरम होने के कारण सूर्य का पदार्थ प्लाज्मा अवस्था में पाया जाता है। पदार्थ की इस प्लाज्मा अवस्था में आवेशित कणों की गति बहुत अधिक होती है तथा इनके बीच लगातार टक्करें होती रहती हैं।

इन टक्करों के दौरान आयनों के जुड़कर एक हो जाने की सम्भावना होती है। आयनों के जुड़कर एक हो जाने की प्रक्रिया को संलयन कहते हैं। संलयन होने पर नए भारी कणों का निर्माण होता है। सूर्य की संरचना में हाइड्रोजन पाई जाती है। हाइड्रोजन के संलयन होने से हीलियम का निर्माण होता है। निर्माण की इस प्रक्रिया के दौरान अत्यधिक ऊर्जा पैदा होती है, जो विभिन्न प्रकार के विकिरणों के रूप में सूर्य से उत्सर्जित होती है। इनमें हमारे चिर परिचित (दृश्य) प्रकाश के अलावा रेडियो तरंगें, सूक्ष्म यानी माइक्रो तरंगें, अवरक्त यानी ऊष्मीय तरंगें, पराबैंगनी किरणें, एक्स किरणें तथा गामा किरणें भी उत्सर्जित होती हैं। सूर्य में पदार्थ के गतिमान आवेशित कण होते हैं।

गतिमान आवेशित कण अपने चारों ओर चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण करते हैं। इसके कारण सूर्य का भी अपना एक परिणामी ‘सौर चुम्बकीय क्षेत्र’ होता है। अत्यधिक ताप होने के कारण सूर्य का पदार्थ विक्षोभ की अवस्था में रहता है। इस कारण इन कणों की गति में अत्यधिक परिवर्तन होता रहता है। इससे इसके चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता में भी बेतहाशा परिवर्तन होता रहता है जिससे कई बार चुम्बकीय तूफान जन्म लेते हैं। चुम्बकीय तूफान के समय सौर चुम्बकीय क्षेत्र का मान इतना अधिक हो जाता है कि इससे पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र भी बदलने लगता है।

सूर्य में बहुत सारी अन्य गतिविधियाँ भी चलती रहती हैं। यह इन विकिरणों को उत्सर्जित करने तथा चुम्बकीय तूफानों के अलावा अपने में से अत्यन्त ऊर्जावान द्रव्य कणों से बने पदार्थ को भी अन्तरिक्ष में उड़ेलता रहता है। ऐसे समय में पृथ्वी की कई गतिविधियाँ प्रभावित होने लगती हैं।

सूर्य से पोषित होती है धरती


सूर्य से प्रकाश के रूप में ऊर्जा प्राप्त कर पृथ्वी अपने को पोषित करती है। सूर्य से धरती तक लाल से लगाकर बैंगनी के बीच फैला दृश्य प्रकाश ही पहुँच पाता है। यह प्रकाश का वह भाग है जिसके लिये हमारी आँखें संवेदनशील होती हैं और हम देखने में समर्थ हो पाते हैं। इसमें वह भाग भी शामिल होता है जिससे पेड़-पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न होती है तथा उनके और हमारे लिये भोजन की व्यवस्था होती है। इसके अलावा सूर्य से मिलने वाले प्रकाश का हमारे जीवन के लिये कई और आवश्यक संसाधनों को तैयार करने तथा उन्हें बनाए रखने की समुचित व्यवस्था बनाने में भी बहुत योगदान रहता है।

पृथ्वी की ओर आने वाली ऊर्जा और उससे बाहर निकलने वाली ऊर्जा से जो सन्तुलन स्थापित होता है उससे धरती पर वह ताप-परास बना रहता है। इस ताप-परास के बने रहने से ही पृथ्वी पर जैविक क्रियाएँ निर्बाध गति से चलती रहती हैं। इस तरह, धरती पर जीवन पनपाने तथा उसके अस्तित्व को बचाए रखने में सूर्य से धरती तक पहुँचने वाली ऊर्जा का बड़ा योगदान रहता है।

इस तरह सूर्य से उत्सर्जित होने वाला प्रकाश धरती के लिये बहुत लाभकारी साबित होता है। लेकिन जैसा कि हमने अभी ऊपर देखा, इसके अलावा भी सूर्य से बहुत कुछ उत्सर्जित होकर पृथ्वी की ओर आता है। यह धरती के जीवधारी स्वरूप के लिये हानिकारक हो सकता है। इन हानिकारक प्रभावों से धरती को बचाने के लिये प्रकृति ने धरती के चारों ओर एक अभेद्य सुरक्षा तंत्र का निर्माण कर रखा है।

धरती का सुरक्षा तंत्र


धरती के सुरक्षा तंत्र को हम अपने घर के चारों ओर बनाए जाने वाले सुरक्षा तंत्र से जान सकते हैं। हम अपने घर में हर किसी को प्रवेश नहीं करने देते। उनसे बचने के लिये हम अपने घरों में दरवाजे और खिड़कियाँ लगाते हैं। घर के चारों ओर दीवार बनाते हैं या बागड़ लगाते हैं। इस तरह अपनी सुरक्षा व्यवस्था को पुख्ता करते हैं। ठीक इसी तरह पृथ्वी का भी अपना एक अत्यन्त मजबूत सुरक्षा तंत्र होता है। धरती के चारों ओर वायुमण्डल से तो हम परिचित हैं ही। इसमें ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड, जलवाष्प जैसी कई गैसें विभिन्न मात्रा में मौजूद रहती हैं। इन गैसों में अत्यन्त कम मात्रा में एक गैस ओजोन भी होती है।

ओजोन गैस से ओजोन मण्डल बनता है जो हमारे वायुमण्डल के सबसे ऊपरी भाग पर स्थित होता है। ओजोन मण्डल के ऊपर वाली गैसें सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा के प्रभाव में आकर आवेशित कणों में टूट जाती हैं जिससे ये गैसें प्लाज्मा अवस्था में मिलती है। आवेशित कणों से ओजोन मण्डल के ऊपरी भाग में आयन मण्डल का निर्माण हो जाता है।

आयन मण्डल में आवेशित कणों की गति से चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है जिससे आयन मण्डल के बाहर चुम्बकीय मण्डल का निर्माण हो जाता है। इन सभी मण्डलों से मिलकर पृथ्वी का सुरक्षा तंत्र खड़ा होता है। यह पृथ्वी के जीवधारी स्वरूप को नुकसान पहुँचाने वाले कारणों को रोक देता है। इस तरह इन मण्डलों के कारण सूर्य से उत्सर्जित ऊर्जा का सिर्फ वही भाग पृथ्वी-सतह तक प्रवेश कर पाता है जो जीवन को पनपाने तथा उसे बनाए रखने के लिये आवश्यक होता है।

इस तरह सूर्य की गतिविधियों के हानिकारक प्रभावों से धरती को बचाने के लिये प्रकृति ने चकित कर देने वाले सुरक्षा तंत्र को विकसित कर एक अद्भुत कार्य किया है। लेकिन जीव जगत के लिये धरती पर ताप का बदलाव एक निश्चित सीमा में ही होना जरूरी होता है। इसके लिये प्रकृति ने धरती को एक ऐसे ग्रीनहाउस में बदल दिया, जो ऐसा करने में समर्थ होता है।

जीवधारी बनने के लिये धरती बनती है ग्रीनहाउस


ग्रीन हाउस हरे रंग के काँच या अन्य ऊष्मारोधी पारदर्शी पदार्थ के पैनलों से ढँका एक कमरा होता है। इस तरह के पैनलों की एक विशेषता है कि यह अपने में से प्रकाश को तो गुजरने देता है लेकिन ऊष्मीय विकिरणों को गुजरने से रोकता है। जब प्रकाश इन पैनलों से गुजरकर कमरे में प्रवेश करता है और वहाँ जिस किसी भी सतह पर आपतित होता है, उसे गरम कर देता है। गरम सतहों से उत्सर्जित होने वाले ऊष्मीय, विकिरणों से कमरे के अन्दर वाला भाग गरम होने लगता है। लेकिन, पैनलों के माध्यम से इनका कुछ भाग कमरे से बाहर निकलने में भी सफल हो जाता है।

कुछ समय पश्चात सन्तुलन की स्थिति आ जाती है जिससे कमरे के अन्दर का ताप लगभग नियत हो जाता है। इस तरह पौध-शालाओं (नर्सरी) में बने इन विशेष कक्षों में रखे पौधों की वृद्धि और विकास में बाधा नहीं पड़ती। पौधे हरे होते हैं। अतः इस तरह के गृहों को ग्रीनहाउस (पौधे को विकसित होने के लिये आवश्यक ताप बनाए रखने वाला हरे काँच अथवा अन्य ऊष्मारोधी पारदर्शी पदार्थ के पैनलों से बना ‘पौधा घर’ या ‘हरित ग्रह’) कहा जाता है।

धरती के सुरक्षा तंत्र को हम अपने घर के चारों ओर बनाए जाने वाले सुरक्षा तंत्र से जान सकते हैं। हम अपने घर में हर किसी को प्रवेश नहीं करने देते। उनसे बचने के लिये हम अपने घरों में दरवाजे और खिड़कियाँ लगाते हैं। घर के चारों ओर दीवार बनाते हैं या बागड़ लगाते हैं। इस तरह अपनी सुरक्षा व्यवस्था को पुख्ता करते हैं। ठीक इसी तरह पृथ्वी का भी अपना एक अत्यन्त मजबूत सुरक्षा तंत्र होता है। धरती के चारों ओर वायुमण्डल से तो हम परिचित हैं ही। इसमें ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड, जलवाष्प जैसी कई गैसें विभिन्न मात्रा में मौजूद रहती हैं।अब देखते हैं कि किस तरह धरती ग्रीनहाउस बनती है? जब सूर्य की किरणें धरती की सतह पर पड़ती हैं तो वह गरम होने लगती है। गरम धरती से ऊष्मीय विकिरण उत्पन्न होते हैं जो अन्तरिक्ष की ओर जाने लगते हैं। लेकिन इसके लिये इन्हें पृथ्वी के वायुमण्डल को पार करना होता है। वायुमण्डल में जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसें उपस्थित होती हैं। ये गैसें पृथ्वी से उत्पन्न ऊष्मीय विकिरणों को अन्तरिक्ष में जाने से रोकती हैं और ग्रीनहाउस के काँच या अन्य ऊष्मारोधी पारदर्शी पदार्थ के पैनलों की तरह व्यवहार करती हैं। यही कारण है कि रात में सूर्य की अनुपस्थिति के बावजूद धरती का वातावरण बहुत अधिक ठंडा नहीं हो पाता है।

वैज्ञानिक दृष्टि से देखने पर पृथ्वी हमें ग्रीनहाउस की तरह नजर आने लगती है। यही कारण है कि ऊष्मीय विकिरणों को अन्तरिक्ष में जाने से रोकने वाली गैसों को ग्रीनहाउस गैसों के नाम से जाना जाता है। इस तरह जीवधारी बनने के लिये धरती ग्रीनहाउस बन जाती है। धरती के ग्रीनहाउस बनने से यहाँ वह आवश्यक ताप-परास मिलता है जिसमें नाना प्रकार के जीव पनप सकें। समय के साथ-साथ धरती पर जैवविविधता का एक क्लिष्ट जाल विकसित होने लगता है।

जैवविविधता का विकास


जैवविविधता से हमारा आशय विभिन्न प्रकार के पौधे, जीव-जन्तु और सूक्ष्म जीव-समूह से है। प्रकृति में यह विविधता जीन सम्बन्धी भिन्नता, जीवित प्रजातियों और पारिस्थितिक प्रणालियों की भिन्नता के कारण होती है। जैवविविधता प्रकृति-पोषित भी है और ‘मानव-पोषित’ भी। सभी जैविक प्रजातियाँ कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी तरह एक-दूसरे के लिये उपयोगी हैं तथा धरती पर जीवन के अस्तित्व को कायम रखने के अपने प्रकृति प्रदत्त कार्य में लगी हुई हैं।

जैवविविधता के कई फायदे हैं। हमारी दादी माँ का ‘बटुआ’ और जनजातियों तथा आदिवासियों के पास अलिखित पारम्परिक बौद्धिक सम्पदा इसके प्रमाण हैं। कृषि, स्वास्थ्य, व्यापार, उद्योग आदि क्षेत्रों में इसके लाभ अवर्णनीय हैं। अवकाश और फुरसत के क्षणों में दिल बहलाने और तरोताजा बनाने में जैवविविधता से भरी प्रकृति के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है।

हमारे जीवन को खतरों से बचाने और खुशहाल बनाने में जैवविविधता का बहुत बड़ा हाथ है। इसके अन्तर्गत आने वाली प्राकृतिक वनस्पति बारिश के पानी के लिये स्पंज जैसा काम करती है। यह जलीय-चक्र को बनाए रखने और सतही-जल पर नियंत्रण प्रदान करती है। सूखे और बाढ़ के समय प्रतिरोधक का कार्य करती है। यह भूमि में नमी, पोषक तत्वों आदि को बनाए रखने में मददगार होती है। यह भूमि-कटाव को रोकती है। इससे मिलने वाला जैविक (कार्बनिक) कचरा जीवाणुओं की गतिविधियों को बढ़ाने और जारी रखने में मदद करता है। हमारे आस-पास मँडराते कौए, गिद्ध जैसे पक्षी और तिलचट्टे, छिपकली, चींटियों जैसे प्राणी सफाई कर्मचारी की तरह काम कर धरती को स्वच्छ रखते हैं। इस तरह जीवधारी धरती के पारिस्थितिक तंत्र का विकास हुआ।

पारिस्थितिक तंत्र


हमारे शरीर की तरह जैव तथा अजैव प्रकृति के अंग हैं। ये मिलकर पारिस्थितिक तंत्र (ईको सिस्टम) का निर्माण करते हैं। ये आपस में एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह हमारे शरीर के विभिन्न अंग। हम जानते हैं कि शरीर का कोई भी अंग शरीर से अलग होकर अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख सकता है। यही बात प्रकृति पर भी लागू होती है। प्रकृति में परस्पर निर्भरता का नैसर्गिक नियम काम करता है। यहाँ पेड़-पौधे जहाँ जीवित रहने के लिये इंसानों द्वारा छोड़ी गई कार्बन डाइऑक्साइड पर निर्भर करते हैं तो इंसान पेड़-पौधों द्वारा छोड़ी गई ऑक्सीजन पर। इसी तरह प्रकृति में परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर रहने वाली अनन्त क्रियाएँ चलती रहती हैं।

पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र की एक खास बात और है कि यहाँ प्राकृतिक क्रियाएँ इस तरह से चलती हैं जिससे पृथ्वी का औसत ताप सदैव नियत बना रहता है। हालांकि ताप में घट-बढ़ के रूप में स्थानीय बदलाव भी मिलता है, लेकिन वह जैविक ताप-परास के बीच में ही होता है। ऐसा होने के कारण ही यहाँ जीवन का अस्तित्व सुरक्षित बना रहता है। इस तरह ताप को जीवधारी धरती के एक अत्यन्त ही संवेदनशील घटक के रूप में पहचाना गया है।

धरती के ताप का निर्धारण


पृथ्वी के ताप के निर्धारण में सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा, सौर गतिविधियाँ तथा सूर्य और पृथ्वी की ज्यॉमिति की प्रमुख भूमिका होती है। लेकिन, इनके अलावा पृथ्वी पर घटित होने वाली कई प्राकृतिक प्रक्रियाओं का भी ताप निर्धारण में महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। इन प्रक्रियाओं में वायुमण्डल से सौर विकिरणों का बिखरना (प्रकीर्णित होना), धरती द्वारा सौर ऊर्जा का अवशोषण कर उनका ऊष्मीय विकिरणों के रूप में पुनः उत्सर्जित करना, वायुमण्डल और सागरीय जल के बीच ऊष्मा का सतत आदान-प्रदान (विनिमय) होना आदि प्रमुख हैं। कुछ क्षेत्रों के स्थानीय औसत तापों में बदलाव लाने में ज्वालामुखियों से लावा का उत्सर्जन तथा जंगलों में लगने वाली आग (दावाग्नि) आदि भी अहम भूमिका निभाते हैं। इनके कारण धरती की वायुमण्डलीय संरचना और रासायनिकी में बदलाव आता है। लेकिन सामान्यतः धरती पर जिस तरह की प्राकृतिक गतिविधियाँ चलती हैं, उनसे इसका औसत ताप सदैव बना रहता है।

पृथ्वी के ताप निर्धारण में वायुमण्डल की अहम भूमिका है। जब सूर्य की किरणें धरती की सतह पर पड़ती हैं तो धरती गरम होने लगती है। गरम धरती से ऊष्मीय विकिरण उत्पन्न होते हैं जो अन्तरिक्ष की ओर जाने लगते हैं। वायुमण्डल में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड, जलवाष्प तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी गैसें अपने विशिष्ट गुणों के कारण धरती से उत्सर्जित ऊष्मीय किरणों के अधिकतर भाग को पुनः धरती की ओर लौटा देती हैं तथा उन्हें अन्तरिक्ष में जाने से रोक देती हैं। इससे धरती एक निश्चित औसत ताप पर गरम बनी रहती है।

ताप का जैविक-क्रियाओं के संचालन में योगदान रहता है। हमें जब बुखार आता है तब हम देखते हैं कि हमारे शारीरिक ताप में थोड़ी-सी ही वृद्धि हमें बेचैन कर देती है और हमारी खाने-पीने की इच्छा मरने लगती है। यही हाल धरती का होता है। स्वस्थ रहने पर ही धरती अपने सामान्य औसत ताप को बनाए रखती है। अगर इसका औसत ताप बढ़ता है तो इसकी प्राकृतिक गतिविधियाँ प्रभावित होने लगती हैं और वह बीमार पड़ने लगती है।

औसत ताप की अवधारणा


धरती के औसत ताप की अवधारणा को समझने के लिये हम बहुत ठंडी रात में ठिठुर रहे अपने अनुभवों को भी याद कर सकते हैं। इन क्षणों में ठंड से बचने के लिये हम अपने कमरे में हीटर की व्यवस्था करते हैं। धीरे-धीरे कमरा गरम होने लगता है। एक समय के बाद उसका गरम होना रुक जाता है क्योंकि जितनी गरमी पैदा हो रही है और जितनी कमरे से बाहर निकल कर जा रही है उसमें सन्तुलन हो जाता है। इस सन्तुलन के बने रहने से कमरे का औसत ताप नियत बना रहता है। इसी तरह धरती के औसत ताप को समझा जा सकता है। सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा से धरती गरम होती है लेकिन गरम धरती से उत्सर्जित होने वाले कुछ विकिरणों को कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसें अन्तरिक्ष में जाने से रोक देती हैं। इससे सूर्य की अनुपस्थिति में धरती का ठंडा होना रुक जाता है। इस तरह सन्तुलन की अवस्था प्राप्त होती है और धरती का औसत ताप नियत बना रहता है।

विशाल धरती – अनेक रूपों में


हम जानते हैं कि सूर्य की गर्मी से तपकर धरती गरम होती है जिसे हम गर्मी के दिनों में भरी दोपहर को नंगे पाँव चलकर महसूस कर सकते हैं। वही धरती सूर्य की अनुपस्थिति में यानी रात्रि के समय ठंडी होने लगती है जिससे हमें नंगे पाँव चलने में किसी प्रकार की दिक्कत नहीं होती। लेकिन सूर्य की उपस्थिति में न तो यहाँ पानी उपबलता है और न ही इसकी अनुपस्थिति में पानी बरफ बनता है। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि पृथ्वी का वायुमण्डल इसके औसत ताप को बनाए रखने में मदद करता है।

यह सच है कि धरती बहुत विशाल है। सूर्य पूर्व से उदय होकर पश्चिम में अस्त होता है। अतः धरती के ध्रुवीय भाग (अंटार्कटिका और आर्कटिक) पर सूर्य का प्रकाश सबसे कम तथा इसके मध्य भाग पर स्थित भाग (ब्राजील, मालदीव, इंडोनेशिया आदि जैसे देश) पर सबसे अधिक पड़ता है। अलग-अलग स्थानों पर सूर्य से मिलने वाले प्रकाश की उपलब्धता भी अलग-अलग होती है। इसके कारण ताप में भी अच्छा खासा अन्तर मिलता है। लेकिन स्थानीय स्तर पर भिन्नता के बावजूद पृथ्वी का ‘औसत ताप’ नियत बना रहता है। किसी भी क्षेत्र के औसत ताप से उसकी जलवायु का निर्धारण होता है। इसी से वहाँ पाई जाने वाली जैवविविधता (विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु और वनस्पति) का संज्ञान होता है।

भारत इसके मध्य भाग के अत्यन्त करीब उत्तरी भाग में स्थित है। अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण भारत प्राकृतिक दृष्टि से बहुत अमीर है। यहाँ सभी प्रकार की जलवायु तथा जैव विविधता का अपूर्व संसार देखने को मिलता है। धरती हमें नाना रूपों में नजर आती है।

धरती को बुखार का संकेत


किसी भी जीवित प्रणाली की सेहत का प्रमाण प्रकृति द्वारा उसके लिये निर्धारित ताप का बने रहना होता है। उदाहरण के लिये हमारा ताप 98.4 डिग्री फारेनहाइट है। इससे अधिक ताप हमें बुखार होना दर्शाता है। इसी तरह धरती के बारे में सोचा जा सकता है। करीब 240 वर्ष पूर्व तक धरती का औसत ताप बना हुआ था, जो उसके स्वस्थ रहने का प्रमाण था। लेकिन हाल ही के वर्षों में वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के औसत ताप में लगातार वृद्धि की प्रवृत्ति को देखा है। इससे ठंडे प्रदेश कुछ गरम और गरम प्रदेश और अधिक गरम होने लगे हैं। जिससे हम पता लगा सके कि धरती को बुखार हो गया है। वैज्ञानिकों ने इस ग्लोबल औसत ताप-वृद्धि को ग्लोबल वॉर्मिंग का नाम दिया है।

हमारी सारी गतिविधियाँ तथा धरती पर मिलने वाला जैविक जाल धरती के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। अतः इस ग्लोबल वार्मिंग से धरती के जीवधारी स्वरूप को बहुत नुकसान है। धरती के औसत ताप के बढ़ने से ठंडे ध्रुवीय प्रदेशों से बरफ पिघलकर समुद्र के तल को ऊँचा करती है। और चूँकि विश्व की अधिकतर आबादी समुद्र के किनारों तथा भूमध्य रेखा के आस-पास के सम-शीतोष्ण क्षेत्रों में बसती है, अतः औसत ताप-वृद्धि से यह आबादी ही बहुत अधिक प्रभावित होने वाली है।

ग्लोबल वॉर्मिंग का इतिहास


ग्लोबल वॉर्मिंग का प्रभाव अत्यन्त धीमा प्रभाव है। इसे प्रत्यक्ष महसूस करना कठिन होता है। हाँ, इसके कई परोक्ष प्रभाव अब हमारे सामने आते जा रहे हैं जो इसकी भयावहता की ओर संकेत कर रहे हैं। आज हमारे पास संवेदनशील उपकरण तथा ताप-मापन की व्यवस्था है। हमारे पास रिकॉर्ड उपलब्ध है। लेकिन पहले जब कोई तकनीकी सुविधा उपलब्ध नहीं थी, तब ताप की स्थिति क्या रही होगी, इसे जानने के लिये हमें पुरातत्वीय इतिहास से मदद लेनी पड़ती है।

प्रकृति ने कई नायाब तकनीकें विकसित कर हम सबको चकित किया है। अपने इतिहास को भी रिकॉर्ड करने के विभिन्न तरीके प्रकृति ने विकसित किये हैं। प्रकृति अपने आस-पास घट रही घटनाओं और परिवर्तनों को पेड़ों के तनों में प्रतिवर्ष बनने वाली ‘ट्री-रिंग’ (वृक्षवलय), शून्य से नीचे बने रहने वाले क्षेत्रों पर जमी बर्फ, पुरातत्वीय खुदाई के दौरान मिलने वाले जीवाश्मों आदि में अंकित करती रहती है। इन सबकी संरचनाओं में रेडियो कार्बन होता है। रेडियो कार्बन, कार्बन का वह रूप होता है जिनसे रेडियोधर्मी विकिरणों का अपने आप प्राकृतिक रूप से स्वतः उत्सर्जन होता रहता है।

इस उत्सर्जन से एक निश्चित दर से रेडियो कार्बन सामान्य कार्बन के रूप में बदलता रहता है, जो समय-मापन का आधार बनता है। इस तरह जीवाश्मों की आयु की गणना के लिये इनमें उपस्थित रेडियो कार्बन के रूप में रेडियोधर्मी घड़ी भी अविराम चलती रहती है। काल निर्धारण और रिकॉर्ड को पढ़ने के लिये वैज्ञानिकों ने कई तकनीकें विकसित की हैं। इसके लिये उन्हें विशेषज्ञता हासिल करनी पड़ती है। इसके बाद पुरातत्वीय खुदाई के दौरान मिलने वाले जीवाश्मों का अध्ययन करना पड़ता है। इस अध्ययन के दौरान उन्हें हजारों-लाखों वर्ष पुराने रिकॉर्ड मिल जाते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग का कारण – कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि


पुरातत्वीय अध्ययन से हमें पता चला कि पृथ्वी पर गरमाने (वॉर्मिंग) और शीतलन (कूलिंग) के चक्र अपने स्वाभाविक रूप में मिलते रहते हैं। अतः आज मिल रहे परिवर्तन नए नहीं हैं। सूक्ष्मतापूर्वक किये गए अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों ने धरती के औसत ताप और वायुमण्डल में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड में गहरे रिश्ते को भी देखा। यह गैस धरती के वायुमण्डल की एक ऐसी गैस है जो धरती पर जीने लायक ताप को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है। साथ ही, यह ही वह गैस है जो प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से वनस्पति जगत के निर्माण में भी अपना अहम योगदान देती है।

वैज्ञानिकों ने देखा कि पिछले करीब छह लाख पचास हजार सालों में प्राकृतिक रूप से 7 शीतकाल आये और पाया कि जब-जब कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि हुई है, धरती के औसत ताप में भी वृद्धि हुई है। इस अध्ययन के दौरान पता चला कि सन 1750 के बाद अचानक वायुमण्डल की संरचना बदलने लगी तथा इसमें कार्बन डाइऑक्साइड की अचानक वृद्धि होने लगी। इस तरह वैज्ञानिकों को कार्बन डाइऑक्साइड में ग्लोबल वॉर्मिंग का कारण मिला।

वैसे आज हम जानते हैं कि हमारे वायुमण्डल में जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड, मिथेन आदि जैसी कई ग्रीनहाउस गैसें विद्यमान हैं। जलवाष्प वायुमण्डल में उपस्थित धूल एवं अन्य कणों पर इसका संघनित होकर बादलों का निर्माण करती हैं जो सूर्य के प्रकाश को मन्द भी करते हैं तथा धरती से उत्पन्न होने वाले विकिरणों को धरती के वातावरण से दूर जाने से भी रोकते हैं। अतः जलवाष्प का प्रभाव बहुत अधिक होता है।

एक आकलन के अनुसार इसका योगदान करीब 95 प्रतिशत है। अन्य गैसों की मात्रा वैसे तो कम होती हैं, लेकिन अपना प्रभाव छोड़ने की दृष्टि से ये भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होतीं। लेकिन उपर्युक्त साक्ष्यों में वैज्ञानिकों को गरमाने और शीतलन के चक्रों के दौरान वायु की संरचना में सिर्फ कार्बन डाइऑक्साइड गैस में ही बढ़त-घटक के चक्र मिले। अतः इसको आधार मानते हुए वैज्ञानिकों ने वर्तमान ग्लोबल वॉर्मिंग का सम्बन्ध ग्रीनहाउस गैस कार्बन डाइऑक्साइड के साथ जोड़ा है। हालांकि ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभाव को पूरी तरह से समझने के लिये वायुमण्डल में उपस्थित सभी ग्रीनहाउस गैसों पर विचार करना जरूरी होता है।

सन 1750 के बाद विज्ञान के तीव्र विकास और अनुप्रयोगों का दौर


विज्ञान ने जिज्ञासु मानव के मन में उठ रहे प्रश्नों के जवाब देते हुए जब प्रकृति के रहस्यों को उजागर किया, तब इसको आधार बनाकर वैज्ञानिक छोटे-छोटे अनुप्रयोगों को कर सफलता प्राप्त करने लगे। इसके बाद लोक-कल्याण और मानव-जीवन को सहज और खुशहाल बनाने के लिये विज्ञान के कई तकनीकी अनुप्रयोग सामने आये। लेकिन व्यापक परिवर्तन सन 1750 के बाद तब आये जब भाप के इंजन का आविष्कार हुआ।

पिछले करीब छह लाख पचास हजार सालों में प्राकृतिक रूप से 7 शीतकाल आये और पाया कि जब-जब कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि हुई है, धरती के औसत ताप में भी वृद्धि हुई है। इस अध्ययन के दौरान पता चला कि सन 1750 के बाद अचानक वायुमण्डल की संरचना बदलने लगी तथा इसमें कार्बन डाइऑक्साइड की अचानक वृद्धि होने लगी। इस तरह वैज्ञानिकों को कार्बन डाइऑक्साइड में ग्लोबल वॉर्मिंग का कारण मिला। वैसे आज हम जानते हैं कि हमारे वायुमण्डल में जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड, मिथेन आदि जैसी कई ग्रीनहाउस गैसें विद्यमान हैं।इस आविष्कार के बाद नई राहें खुलीं और हमने मशीनों के युग में प्रवेश किया। इससे मानव-श्रम की बचत होने लगी तथा लोगों के काम सहज होने लगे। अब कम समय में अधिक उत्पाद तैयार होने से लोगों की आवश्यकताओं की आपूर्ति में आसानी होने लगी। उत्पादों को लोगों तक पहुँचाने के लिये आवागमन के लिये बैलगाड़ियों आदि के विकल्प मोटरगाड़ियों के रूप में सामने आने लगे। इनको चलाने के लिये भाप की जरूरत होती है। भाप को प्राप्त करने के लिये जल को गरम करना पड़ता है।

जल को गरम करने के लिये सहज ही में उपलब्ध कोयले का उपयोग होने लगा। इसकी सफलता से प्रेरित वैज्ञानिकों ने भाप इंजन की दक्षता को बढ़ाने की दिशा में प्रयास आरम्भ किये। परिणामस्वरूप ईंधन के विकल्प पेट्रोल और डीजल सामने आये। इसके बाद पेट्रोल और डीजल इंजन के आविष्कार हुए। उद्योगीकरण की रफ्तार बढ़ने लगी। इस बीच विद्युत की खोज हुई और वैज्ञानिकों ने शीघ्र ही विद्युत मोटर का आविष्कार कर लिया। विद्युत मोटर के आगमन से औद्योगिक क्षेत्र में एक नई क्रान्ति का सूत्रपात हुआ। इसके बाद मशीन आधारित उद्योगों के दौर में तेजी से प्रवेश किया। अब निर्भरता विद्युत पर बढ़ने लगी।

विद्युत प्राप्ति के लिये डायनेमो का विकास हुआ। इसमें ताम्बे जैसे सुचालक तार से बनी एक कुण्डली को चुम्बक से मिलने वाले शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्र में घुमाया जाता है जिससे घुमाने में लगी यांत्रिक ऊर्जा विद्युत ऊर्जा में बदल जाती है। इस खोज के बाद चालक-कुण्डली को घुमाने के विभिन्न तरीके खोजे जाने लगे। सबसे आसान तरीका नदी का बहता हुआ जल है।

जल से उत्पन्न की जाने वाली विद्युत को जल-विद्युत कहा गया। इससे प्रेरित होकर नदी के जल प्रवाह को बाँध बनाकर रोककर जल को नियंत्रित तरीके से गिराने का विचार आया। इसने औद्योगिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण जल-विद्युत के विचार ने मूर्त रूप लिया। अब जब चाहें तब और जितनी चाहें उतनी विद्युत को प्राप्त करना आसान हो गया। विद्युत ऊर्जा प्राप्त करने के लिये आवश्यक यांत्रिक ऊर्जा प्राप्त करने के अन्य कई स्रोत भी हो सकते हैं। इसमें भाप भी एक होता है। भाप को कोयले जैसे जीवाश्म ईंधनों को जलाकर प्राप्त किया जा सकता है। अतः विद्युत की बढ़ती आवश्यकताओं को देखते हुए बाँध के जरिए जल रोककर जल विद्युत प्लांट तथा कोयले जैसे जीवाश्म ईंधनों संचालित ताप विद्युत प्लांट का तेजी से विस्तार होने लगा।

इस तरह धीरे-धीरे मानवजन्य औद्योगिक गतिविधियों में तेजी से विस्तार होने लगा। आज मशीनों पर हमारी निर्भरता सर्वविदित है। लेकिन, मशीनों के लिये विद्युत अथवा अन्य कोई ईंधन चाहिए। इसके लिये जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता बढ़ने लगी। इनके उपयोग से वायुमण्डल में धुएँ और कार्बन डाइऑक्साइड गैस की उपस्थिति तेजी से बढ़ने लगी। इसके साथ ही उद्योगों के लिये कच्चा माल चाहिए। यह कच्चा माल प्रकृति में सहजता और अत्यन्त निम्न लागत पर हासिल किया जा सकता है। अतः इस पर नजर पड़ी और इसका दोहन शुरू हो गया। फिर औद्योगिक विस्तार के साथ प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का सिलसिला लगातार तेज होता चला गया।

औद्योगिक क्रियाकलापों के दौरान सामने रही सिर्फ आर्थिक दृष्टि


जैसे-जैसे प्रकृति के रहस्य खुलने लगे तथा विज्ञान विकसित होने लगा, उसके तकनीकी अनुप्रयोग सामने आने लगे। लोगों को उनकी सहायता कर रही मशीनें और औद्योगिक उत्पाद भाने लगे। माँगों में लगातार वृद्धि होने से औद्योगिक विस्तार में अत्यधिक तेजी आने लगी। विज्ञान के जरिए पदार्थों के नए-नए गुण सामने आने लगे जो अनुप्रयोग की दृष्टि से सस्ते और उपयोग की दृष्टि से प्रभावी साबित होने लगे।

इसे समझने के लिये हम अपने अनुभव को याद करेंगे। कुल्फी किसे अच्छी नहीं लगती? लेकिन इसे बनाने के लिये बर्फ की जरूरत पड़ती है। और, बर्फ बनाने के लिये निम्न ताप की जरूरत होती है। अतः जब निम्न ताप प्राप्त करने का रहस्य खुला तथा नए विकल्प सामने आने लगे तो इनके आधार पर नई-नई मशीनें बनने लगीं और उनके नए-नए उपयोग भी सामने आने लगे। इस तरह विज्ञान ने रास्ता सुझाया और प्रौद्योगिकी ने उन्हें आर्थिक लाभ की दृष्टि से अपनाया।

उदाहरण के लिये निम्न ताप को प्राप्त करने वाले उपकरणों में आरम्भ में सल्फर डाइऑक्साइड, अमोनिया, क्लोरोफॉर्म और कार्बन टेट्राक्लोराइड जैसे रसायन प्रयुक्त होने लगे। लेकिन बीसवीं सदी के तीसरे और चौथे दशक में मशीन को दक्ष बनाने के लिये प्रचलित रसायनों को नए रसायन सी.एफ.सी. (क्लोरो-फ्लोरो कार्बन) से प्रतिस्थापित किया गया। वैज्ञानिकों का मानना था कि यह सस्ता, बेहतर और सुरक्षित है। रसायन सी.एफ.सी. के गुणों को आधार बनाकर इसके कई और अनुप्रयोग सामने आये।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कीटनाशकों के लिये ऐरोसॉल (वह पात्र जिसमें से दाब का प्रयोग करने पर रसायन या द्रव अत्यन्त छोटी-छोटी बूँदों से बने फव्वारे के रूप में निकले) तैयार करने में इसका उपयोग शुरू हुआ। इसके बाद तो फोम के निर्माण, उच्च-स्तरीय सफाई, वातानुकूलन (एयर-कंडिशनिंग), प्रशीतन (रेफीजरेटिंग), सौन्दर्य सामग्री, इत्र-स्प्रे आदि के साथ ही अन्य कई औद्योगिक तथा सामान्य प्रयोजनों में इसके उपयोगों की झड़ी लग गई। इसके साथ ही रासायनिक खादों और कीटनाशकों के रूप में कई नए रसायनों का उत्पाद किया गया, जिन्होंने कृषि के क्षेत्र में व्यापक बदलाव किये।

आवागमन और दूरसंचार के क्षेत्रों के अलावा कृषि क्षेत्र में भी मशीनों ने पैठ बनाना आरम्भ किया। औद्योगिक प्रगति और लोगों के जीवन स्तर की दृष्टि से यह भारी सफलता साबित हुई। इससे आर्थिक प्रगति ने नित नई ऊँचाइयाँ हासिल की। लेकिन औद्योगिक विस्तार के इस दौर में पर्यावरणी दृष्टि लगातार नजरअन्दाज होती रही।

प्रकृति के संचालन में बढ़ता हस्तक्षेप


प्रकृति के संचालन में हमारा हस्तक्षेप बढ़ने लगा। कोयले, पेट्रोल, डीजल आदि जैसे जीवाश्म ईंधनों की खपत की दर में लगातार वृद्धि होने लगी। शायद हमें महसूस न हो, लेकिन यह सच है कि विगत 100 वर्षों में हमने जितने जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल किया है, वह पिछली कई शताब्दियों में नहीं किया है। इसके अलावा अपने प्रत्येक काम में तेजी और मशीनों के इस्तेमाल से भी हमें प्रकृति के संचालन में हमारे बढ़ते हस्तक्षेप का अहसास हो सकता है।

कोई भी मशीन 100 प्रतिशत दक्षता से काम नहीं करती है। उसको दी गई ऊर्जा का कुछ-न-कुछ भाग तो ऊष्मा में बदलता ही है। आज व्यक्तियों के पास मोटरबाइक, स्कूटर, कार आदि के रूप में अपने निजी आवागमन के साधन हैं। सड़कें हर समय इन साधनों से पटी रहती हैं। ये सब ऊष्मा के स्रोत हैं।

आज हर हाथ में स्मार्टफोन है जिससे हर व्यक्ति ऊष्मा का एक अतिरिक्त स्रोत बन गया है। हर तरफ हमें वे कारण दिखाई देते हैं। इन सबसे धरती के औसत ताप में वृद्धि होती है। हमारे हस्तक्षेप से हो रही ताप-वृद्धि ही धरती को हो रहे बुखार का संकेत है। स्पष्ट है कि हमारे हस्तक्षेप से प्रकृति को अपनी गतिविधियों के संचालन में दिक्कतें आ रही हैं तथा धरती पर पर्यावरणीय परिवर्तन नजर आ रहा है।

पर्यावरणीय परिवर्तन के लिये जिम्मेदार कुछ कारण


भूस्खलन, भूकम्प, बाढ़, सूखा, दावानल आदि जैसी प्राकृतिक आपदाएँ किसी-किसी प्रजाति को समूचा नष्ट कर देते हैं। इतिहास साक्षी है कि करीब 6.4 करोड़ साल पहले विशालकाय खगोलीय पिण्ड और धरती की टक्कर से डायनासोर (छिपकली समुदाय के रिश्तेदार) सदा के लिये नष्ट हो गए। इसी तरह विश्व भर में फैले जीवाश्मों से पता चलता है कि 25 करोड़ वर्ष पूर्व करीब 75 प्रतिशत प्रजातियाँ अचानक लुप्त हो गईं थी। वैज्ञानिकों ने इसका कारण भी प्राकृतिक ही माना है।

यह सम्भवतः खगोलीय पिण्ड और धरती की टक्कर के अतिरिक्त तीव्र ज्वालामुखी और अचानक जलवायु परिवर्तन के कारणों से हुआ है। अतः इस तरह के प्राकृतिक कारणों पर हमारा बस नहीं है। लेकिन बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि, बर्फबारी आदि जैसी भी कुछ ऐसी प्राकृतिक आपदाएँ होती हैं जिनके पीछे प्रकृति के साथ हमारी गतिविधियाँ भी जिम्मेदार होती हैं।

पर्यावरण-संकट के पीछे मानवीय गतिविधियों का योगदान


यह सच है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। परिवर्तन के यहाँ पल-प्रति-पल होते ही रहते हैं। प्राकृतिक परिवर्तन अत्यन्त धीमी गति से होते हैं। अतः जीव-जन्तुओं को बदलती परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढालने में दिक्कत नहीं होती। लेकिन औद्योगिक विस्तार के साथ जो परिवर्तन होने लगे, उन्होंने हमारे परिवेश और जीवनशैली में भी अत्यन्त तेजी से परिवर्तन किये। जीव-जन्तुओं को इन तेजी से बदलती परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढालने में कठिनाई होने लगी। इससे वे विलुप्तीकरण के शिकार होने लगे।

आज प्रकृति के क्रियाकलापों में मानवीय हस्तक्षेप बहुत अधिक बढ़ गया है, जिससे परिवर्तन की गति बहुत बढ़ गई है। हमारी मशीनें शोर और ऊष्मा के नए स्रोत बनी हैं। इसके साथ ही उद्योगों के जरिए हमारे जीवन में कई ऐसे रसायनों ने प्रवेश किया है जो वायुमण्डल की संरचना को तेजी से बदल रहे हैं। इनसे न सिर्फ जल, मिट्टी और वायु प्रदूषित हो रहे हैं, वरन कई प्राकृतिक भौतिक क्रियाएँ भी इस तरह बदल रही हैं। शोर, ऊष्मा और रसायन सभी जीवों के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। स्वयं मनुष्य भी इस दुष्प्रभाव से बचा नहीं रह सका। लेकिन हमें इसे समझने में इतनी देर लगी।

हम इसे बहुत साधारण घटना मान रहे थे और सोच रहे थे कि धरती इतनी विशाल है कि इसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। पर्यावरण-प्रदूषण के नाम से जो कुछ हम देख रहे हैं वह एक क्षणिक प्रभाव ही साबित होगा तथा धरती इसका मुकाबला कर पाने में सफल होगी। अतः इसे नजरअन्दाज करते हुए हमने अपने औद्योगिक विकास की रफ्तार को कम नहीं होने दिया। वैसे बढ़ती जनसंख्या और उसकी माँग को देखते हुए यह आवश्यक भी था। लेकिन हमने देखा कि हमारी गतिविधियों ने हमें भौतिक तरक्की तो प्रदान की, लेकिन धरती के बुखार को और बढ़ा दिया।

आज धरती के बीमार होने के लक्षण


बुखार का होना बिगड़ते स्वास्थ्य का एक लक्षण है। हमें बुखार तब होता है जब हमारे परिवेश में असह्य मौसमी परिवर्तन हो रहे हों या हमारे आस-पास जीवाणु, कीटाणु, मच्छर आदि बहुतायत में पनप रहे हों।... जब हमारा प्रतिरक्षा तंत्र इनका मुकाबला नहीं कर पाता तब हम अस्वस्थ महसूस करने लगते हैं। इसके बाद हमारी पाचन क्रिया प्रभावित होने लगती है। वैसे तो धीरे-धीरे शरीर इनका मुकाबला कर स्वस्थ होने का प्रयास करता है लेकिन स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए हम बाह्य उपचार भी करते हैं।

उपचार न होने पर हमारा स्वास्थ्य गिरता चला जाता है। इसी तरह हम धरती की अवस्था को समझें। अगर हम पिछले कुछ दशकों पर ध्यान दें तो हमें धरती पर कई प्राकृतिक चक्र गड़बड़ाते हुए मिल रहे हैं। हजारों वर्षों से सुरक्षित बची रही भोजन शृंखला खतरे में पड़ी दिखने लगी है, जिससे प्राकृतिक जैविक जाल कमजोर होने लगा है। कई प्रजातियाँ विलुप्त होने लगी हैं तथा कई विलुप्ति के कगार पर हैं। गाँवों में पहले मोर, कौए, चिड़िया, तितलियाँ आदि बहुतायत में नजर आते थे। वे अब गायब होने लगे हैं। वैसे ये सारी समस्या तेजी से बदल रहे पर्यावरण और सामंजस्य स्थापित न कर पाने से जुड़ी हैं।

आज अस्पतालों के सामने बीमारों की लम्बी-लम्बी कतारें देखी जा रही हैं। भिलाई में स्टील का कारखाना है। वहाँ से हवा में इतनी ऊष्मा उड़ेली जाती है कि आस-पास का ताप अन्य क्षेत्रों की तुलना में बहुत अधिक रहता है। मैहर में सीमेंट का कारखाना है। एक समय में उनकी चिमनियों से धुआँ निकलता रहता था जो आस-पास के परिवेश को दमघोंटू बनाता था। वहाँ साँस लेना दूभर होता था। एक समय इन्दौर की हालत भी बहुत बुरी थी। वहाँ रात को घर लौटते समय चेहरे पर कालिख पुत जाती थी। ये हवा की गुणवत्ता के गिरते स्तर तथा उसमें कार्बन कणों और कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि के संकेत हैं। इससे ग्रीनहाउस प्रभाव तो अपना रंग दिखाता ही है, लेकिन शुद्ध हवा के अभाव में लोगों में साँस, पेट, किडनी, लीवर, हृदय आदि से जुड़ी बीमारियाँ भी बहुतायत से होने लगी हैं। मौसम में अफलातूनी परिवर्तन नजर आने लगते हैं तथा शुद्ध हवा और जल का संकट गहराता जाता है।

पर्यावरण और प्रदूषण की स्थिति को जानने, समझने और नजर रखने के लिये आज वैज्ञानिक विभिन्न प्रकार के अध्ययनों में जुटे हैं। आज कम्प्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट का जमाना है। मोबाइल अथवा स्मार्टफोन के बिना हम घर से बाहर निकलने की कल्पना नहीं कर सकते। इनमें माइक्रोवेव की अहम भूमिका है। इंटरनेट के विस्तार के लिये माइक्रोवेव टावर का निर्माण किया जाता है। एक अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों ने देखा है कि आजकल माइक्रोवेव टॉवर के पास मधुमक्खियाँ फटकती तक नहीं हैं। वे बचने के लिये अपना छत्ता तक छोड़ देती हैं। लेकिन, वे कब तक बची रह सकेंगी? अगर हमने समुचित नियंत्रण नहीं किया तो वे धीरे-धीरे विलुप्तीकरण की शिकार हो जाएँगी।

केरल में एपीकल्चर (मधुमक्खी पालन) विशेषज्ञों ने पाया है कि आजकल मधुमक्खियों की नेविगेशन स्किल (दिशा-बोध की योग्यता) प्रभावित होने लगी है। उनके आँकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में केरल में इनकी लगभग 60 प्रतिशत आबादी कम हो गई है, जो निश्चित ही इनके बढ़ते विलुप्तीकरण का संकेत है। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं। इस तरह आज मानवीय विकास-गतिविधियों के कारण धरती पर जैव-विविधता के नष्ट होने का वैश्विक खतरा उत्पन्न हो गया है।

अगर वर्तमान दर जारी रही तो आगामी तीन-चार वर्षों में 5 से 15 प्रतिशत तक प्रजातियाँ विलुप्त हो सकती हैं। हाल ही के वर्षों में उत्तर प्रदेश में गिद्धों और सारसों की संख्या में भारी कमी रिकॉर्ड की गई है। स्मरणीय है कि सारस यहाँ का राज्य पक्षी है। विश्व की इसकी कुल जनसंख्या का 40 प्रतिशत इसी राज्य में है। कहीं यह विलुप्त न हो जाये, इसे लेकर सरकार और प्रकृतिप्रेमी संगठन चिन्तित हैं।

माइक्रोवेव्स के कई और अनुप्रयोग हमारे पास हैं। माइक्रोवेव ओवन किचन का हिस्सा है। इस तरह आज हमारी धरती पर माइक्रोवेव्स की तादाद बढ़ती जा रही है। इन माइक्रोवेव्स के अलावा आज धरती पर पराबैंगनी किरणों के बढ़ने का खतरा भी मँडराने लगा है। इसमें हमारी सुख-सुविधाओं के लिये किये जा रहे तकनीकी अनुप्रयोगों का योगदान है। इनमें जिन रसायनों का उपयोग होता है वे पृथ्वी के सुरक्षा तंत्र के एक भाग ओजोन मण्डल को क्षति पहुँचा रहे हैं। जैसा हमने ऊपर देखा कि ओजोन मण्डल सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को धरती की सतह तक आने से रोकती है। कुछ किरणें धरती तक अवश्य पहुँचती हैं जो कुछ हद तक तो हानिकारक होती हैं लेकिन इनकी उपस्थिति में हमारी त्वचा शरीर की हड्डियों को मजबूत बनाने के लिये परम आवश्यक विटामिन-डी बनाती है।

इस विटामिन के अभाव में हड्डियाँ कमजोर रह जाती हैं। इस दृष्टि से इन किरणों का धरती की सतह तक पहुँचना सौभाग्य है। लेकिन वर्तमान में कुछ क्षेत्रों में विशेषकर ध्रुवीय क्षेत्रों के लोगों में चर्म-कैंसर और आँखों में तकलीफें बढ़ने लगी हैं। ये उन क्षेत्रों में पराबैंगनी किरणों के उस हिस्से के धरती की सतह तक पहुँचने के संकेत हैं जो खतरनाक है और जिसे ओजोन मण्डल रोक रहा था। इनकी धरती तक पहुँचना ओजोन मण्डल के पतला होने के संकेत है। दूसरे शब्दों में, इसका मतलब पृथ्वी के प्राकृतिक सुरक्षा तंत्र का कमजोर पड़ना है। यह धरती पर जीवन के अस्तित्व के लिये बन रहे एक नए खतरे का संकेत है।

आज कम्प्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट का जमाना है। मोबाइल अथवा स्मार्टफोन के बिना हम घर से बाहर निकलने की कल्पना नहीं कर सकते। इनमें माइक्रोवेव की अहम भूमिका है। इंटरनेट के विस्तार के लिये माइक्रोवेव टावर का निर्माण किया जाता है। एक अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों ने देखा है कि आजकल माइक्रोवेव टॉवर के पास मधुमक्खियाँ फटकती तक नहीं हैं। वे बचने के लिये अपना छत्ता तक छोड़ देती हैं। लेकिन, वे कब तक बची रह सकेंगी? अगर हमने समुचित नियंत्रण नहीं किया तो वे धीरे-धीरे विलुप्तीकरण की शिकार हो जाएँगी।प्रदूषित वातावरण में रहने के कारण आज हमारे शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र कमजोर पड़ने लगा है। नाना प्रकार की बीमारियों से हम ग्रस्त रहने लगे हैं। वातावरण को समृद्ध कर रही हमारे आस-पास रची-बसी जैवविविधता लुप्त होने लगी है। जैविक-जाल कमजोर पड़ने लगा है। हमारे आस-पास हो रहे परिवर्तनों की तीव्रता और भयंकरता से उत्पन्न बाढ़ और सूखे के हृदय विदारक दृश्य सामने आते रहते हैं।

जलवायु परिवर्तन की आहटें सुनाई देने लगी हैं। रासायनिक खादों और कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से जल और मिट्टी प्रदूषित होने लगे हैं। ये सब वे संकेत हैं, जो हमें चेतावनी दे रहे हैं और कह रहे हैं कि धरती बीमार है। हमें इनके निहितार्थों को समझना होगा तथा निदान की दिशा में आगे बढ़ना होगा।

पर्यावरणी पहलुओं को नजरअन्दाज करना महंगा पड़ा


अब हमें समझ में आ गया है कि विकास के दौरान पर्यावरणी पहलुओं को नजरअन्दाज करना बहुत महंगा पड़ा है। हमारे प्रचलित विकास मॉडल की यह धारणा भी गलत साबित हुई है कि धरती बहुत विशाल है तथा हम इसके संसाधनों का जितना चाहें उतना दोहन कर सकतें हैं!... आज हमें प्राकृतिक संसाधनों की कमी का अहसास हो गया है और यह भी कि हमारी गतिविधियाँ स्वयं हमारे अस्तित्व के हित में नहीं हैं। इसीलिये अगर हम आज नहीं चेते और पर्यावरण को बचाने तथा धरती के बुखार को कम करने के लिये यथोचित उपचार नहीं किया तो हमारी भावी पीढ़ियों को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।

मूक धरती से मिल रहे संकेतों को समझना जरूरी


अब जरा सोचें कि जब हम बीमार होते हैं तो क्या करते हैं?... इसी तरह की कोशिश हमें बुखार से पीड़ित धरती के लिये भी करना है। हालांकि धरती हमारी तरह बोल नहीं सकती है। लेकिन जिस तरह हम अपने प्यारे मूक प्राणी के मन की बात उससे मिलने वाले संकेतों से समझ लेते हैं, उसी तरह से हमें अपनी प्यारी मूक धरती की बात को भी समझना होगा।

वैज्ञानिकों ने पृथ्वी से मिल रहे संकेतों को समझ कर हमें आगाह किया है। लेकिन जन-सामान्य ने इसे उतनी गहराई से महसूस नहीं किया है, जितना करना चाहिए। लोगों को जब तक यह समझ में नहीं आएगा कि धरती मुसीबत में है, तब तक इसे बचाने के प्रयास सफल नहीं हो सकेंगे। लोगों को यह बात गले उतरना चाहिए धरती उनकी माँ है। अगर यह स्वस्थ नहीं रहेगी तब हम कैसे स्वस्थ रह पाएँगे? हमें लोगों को समझाना कि सदियों से अस्तित्व में रह रही कई प्रजातियाँ अपने अस्तित्व को बचाए रखने में क्यों सफल नहीं हो पा रही हैं? कई जीवन को संचालित करने वाली प्रणालियाँ अभी क्यों ध्वस्त होने लगी हैं?

इन्हें बचाने के लिये पहले हमें स्वयं को गहराई में जाकर तार्किक तरीके से समस्या को समझना होगा। इसके लिये हमें औद्योगिक क्रान्ति के बाद के परिदृश्य पर नजर डालनी होगी जिसमें अर्थ हावी हुआ।

औद्योगिक क्रान्ति में दिखाई दिये सिर्फ आर्थिक प्रगति के सूत्र


जब उद्योगों के जरिए विज्ञान के तकनीकी अनुप्रयोग सामने आये तब लोगों को उनमें अपनी आर्थिक प्रगति के सूत्र नजर आये। लोगों ने औद्योगिक विकास में आशा की एक किरण देखी। उन्हें विश्वास हो गया कि इससे उनके जीवनस्तर को ऊँचा उठाने में मदद मिलेगी क्योंकि बिना अर्थ के इसकी सम्भावना नगण्य होती है। इस विचार ने विज्ञान और उसके अनुप्रयोगों के आर्थिक पक्ष को उजागर किया और लोगों ने इसका तहेदिल से स्वागत किया। उसके बाद एकतरफा भौतिक विकास की योजनाएँ बनने लगीं तथा इनके क्रियान्वयन से तत्काल लाभ भी नजर आने लगे।

जनसंख्या में वृद्धि के साथ लोगों की आवश्यकताएँ बढ़ने लगीं। इसकी पूर्ति में मशीनों और उद्योगों को उपयुक्त पाया गया। नवाचार होने लगे जिससे औद्योगिक विस्तार में तेजी आने लगी। विद्युत ऊर्जा की पूर्ति के लिये कोयला तथा ऑयल और गैस जैसे जीवाश्म ईंधनों से चलने वाले थर्मल विद्युत पावर स्टेशन अधिकाधिक संख्या में बनने लगे। लेकिन इस विस्तार के काल में हमारा ध्यान इनसे पैदा होने वाले प्रदूषण पर नहीं गया। हम यह मानकर चलें कि धरती इतनी विशाल है कि इसका हमारे पर्यावरण पर कोई विपरीत प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। अतः औद्योगिक प्रगति दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ने लगी।

यह सच है कि अनुप्रयोगों के समय हमें इनके दुष्प्रभाव की अधिक जानकारी ही नहीं थी। हमें सिर्फ लाभ-ही-लाभ दिखाई दे रहे थे। लेकिन अब जब हमें गहराई से प्रभावित करने वाले कुछ लक्षण सामने आने लगे हैं तो हम चिन्तित होने लगे।

तकनीकी अनुप्रयोगों में छिपे हैं पर्यावरण प्रदूषण के कारण


अपने आराम के लिये तथा अपने काम को आसान करने के लिये हमने प्रौद्योगिकियों को अपनाया और विस्तार किया। यह सचमुच ही आनन्ददायक अनुभव रहा। आरम्भ में हमें इसके दुष्प्रभावों का अन्दाज ही नहीं था। अतः हम इसके एकतरफा विस्तार में लगे रहे और पर्यावरणी पहलू पर विचार किये बिना प्रौद्योगिकी को अपनाते रहे।

इस कारण कई गतिविधियाँ एक साथ होने लगीं। इनमें जंगलों का कटना, मशीनीकरण का होना, नदियों के जल को रोककर बाँध बनाना, काम को आसान बनाने के लिये कम्प्यूटर-आधारित तकनीकों को अपनाना आदि प्रमुख रहे। स्टील, सीमेंट, कागज, इलेक्ट्रॉनिक जैसे कई नए उद्योग स्थापित हुए। उद्योगों को विद्युत की बहुत आवश्यकता होती है। वर्तमान में विद्युत ऊर्जा पाने के पारम्परिक तरीके जीवाश्म ईंधनों, बाँधों और नाभिकीय ऊर्जा पर आधारित हैं। इन सबमें पर्यावरण प्रदूषण के कारण छिपे हुए हैं। आइए, इन्हें जानने का प्रयत्न करते हैं।

विद्युत उत्पादन, आवागमन के साधन आदि में जिन जीवाश्म ईंधनों का प्रयोग होता है, वे वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि करती हैं। जीवाश्म ईंधन कार्बन डाइऑक्साइड के स्रोत हैं। जलविद्युत उत्पादन के लिये बनाए गए बाँधों में गर्मी के दिनों में जो जल-भरी जगह खाली हो जाती है, वहाँ वनस्पति उग जाती है जो बारिश के दिनों में डूब जाती हैं। यह जल में डूबी हुई वनस्पति सड़ने पर मिथेन का स्रोत बन जाती है। इन दोनों गैसों का सम्बन्ध ग्लोबल वार्मिंग के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है।

औद्योगिक विस्तार के साथ इसके अलावा कई और प्रकार की गैसें और रसायन भी पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश कर गए हैं जिनका सम्बन्ध ग्लोबल वार्मिंग से है। ऐसे में धरती का बुखार घटने की बजाय लगातार बढ़ता जा रहा है। इससे सबसे बड़ा खतरा निकट-भविष्य में बड़े जलवायु परिवर्तन के रूप में सम्भावित है।

ग्लोबल वार्मिंग से जलवायु में व्यापक परिवर्तन


ग्लोबल वार्मिंग जमीन से नमी कम कर उसे शुष्क बनाती है तथा जलवाष्प को वायुमण्डल में भेज देती है। समुद्र तल से यह अत्यधिक मात्रा में जलवाष्प को वायुमण्डल में पहुँचाकर वहाँ बादल बनने की प्रक्रिया में अत्यधिक तेजी कर देती है। जब बादलों के प्रवाह की दिशा में अनिश्चितता आ जाती है तब कुछ क्षेत्र तो भारी वर्षा से परेशान हो उठते हैं तो कुछ वर्षा की बाट जोहते ही रह जाते हैं। परिणामस्वरूप धरती पर बाढ़ और सूखे दोनों की ही स्थितियाँ बन जाती हैं।

ग्लोबल वार्मिंग से समुद्र के जल की प्राकृतिक गुणवत्ता पर भी प्रभाव पड़ता है। समुद्र का जल खारा होता है। अतः ग्लोबल वार्मिंग से समुद्र के जिस भाग वाष्पीकरण ज्यादा होगा, वहाँ नमक की वजह से पानी गाढ़ा और भारी होकर नीचे की ओर प्रवाहित होगा तथा उसका स्थान हल्का जल लेने लगेगा। धीरे-धीरे समुद्र का सारा जल गाढ़े नमक के घोल में रूपान्तरित होने से पेयजल का संकट उपस्थित हो सकता है। इससे धरती पर जलवायु और मानसून को प्रभावित करने वाली समुद्र में चल रही संवाहन धाराएँ टूटेंगी जिससे मौसम में भारी उतार-चढ़ाव मिलने लगेंगे। अगर ग्लोबल वार्मिंग की वृद्धि दर में रोक नहीं लगी तो हो सकता है कि धरती के विभिन्न भागों में चरम मौसमी घटनाएँ बहुत आम हो जाएँ।

ग्लोबल वार्मिंग से होने वाले जलवायु परिवर्तन का कुप्रभाव उन फसलों पर भी पड़ सकता है जो ताप के प्रति अधिक संवेदनशील हैं। इससे सोयाबीन, मटर और टमाटर जैसे कृषि-उत्पादों की मात्रा और गुणवत्ता में कमी हो सकती है। उसके साथ ही जलीय-वनस्पतियों और जलीय-जीवों के अस्तित्व को भी खतरा हो सकता है। ये सब वे भविष्यवाणियाँ हैं जो हमें भयाक्रान्त कर रही हैं।

भयावह भविष्यवाणियाँ और दावों का आधार


वैज्ञानिकों ने ग्लोबल वार्मिंग के कारण उत्पन्न होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया तथा कम्प्यूटर मॉडल विकसित किये। इनके आधार पर जलवायु में व्यापक परिवर्तन की सम्भावना व्यक्त की है। उनकी इस भविष्यवाणी को समर्थन मिलना पिछले दशक से तब शुरू हुआ जब अनियमित वर्षा, सर्वाधिक गर्म ग्रीष्म, ठंडे क्षेत्रों में लू, ग्लेशियरों का पिघलाव और ऊँची उठती समुद्री सतहें, कई क्षेत्रों में कृषि उत्पादों में भारी कमी, कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे की स्थिति, कई जैव-प्रजातियों के विलुप्तीकरण के खतरे, समुद्री-तूफानों और दावाग्नि की फ्रीक्वेंसी में अप्रत्याशित वृद्धि आदि के रूप में कई संकेत मिले।

कुछ घटनाएँ – दावों के पक्ष में


मुम्बई में जुलाई 2005 में रिकॉर्ड 944 मिमी बारिश दर्ज की गई। इसके बाद भोपाल, सूरत, बाड़मेर, श्रीनगर आदि शहरों में भयंकर बाढ़ के दृश्य उपस्थित हुए। हाल ही में दिसम्बर 2015 में चेन्नई में हुई भारी बारिश ने सबको चिन्ता में डाल दिया। बिहार की 2005, 2006 और 2008 की अतिवर्षा और असम में 2006 की अल्प वर्षा ने भी हमें चिन्ता में डाला है। बंगाल की खाड़ी के जलस्तर के बढ़ने से सुन्दरवन का करीब 100 वर्ग किलोमीटर का इलाका और उसके लोहामारा और सुपेरडांगा द्वीप डूब चुके हैं।

सन 2008 में यूरोप में जो भयंकर लू चली, उससे काफी जानें गईं। उत्तरी ध्रुव के बर्फीले रेगिस्तान में बर्फ की चट्टानों के टूटने की खबर आई। कई क्षेत्रों में फसलें समय से पहले तैयार होने लगीं जिससे उत्पादकता में भारी कमी रिकॉर्ड की गई। स्कॉटलैंड में पेड़ों पर नई पत्तियाँ जल्दी आने लगीं। सन 1940 की तुलना में अनेक वनस्पतियों में तीन सप्ताह से पहले ही नई पत्तियाँ आने लगी।

पशु-पक्षी के दैनिक क्रियाकलापों और जीवनचक्र में बदलाव देखे जाने लगे। यूरोप में तितलियों की 25 प्रतिशत प्रजातियाँ उत्तर की ओर पलायन कर चुकी हैं और पलायन अभी रुका नहीं है। पहले उत्तर का यह स्थान इतना ठंडा रहा है जहाँ इन तितलियों का पनपना और रह पाना सम्भव नहीं था। लेकिन अब यह बात नहीं रही। अब हम अपने आस-पास नजर डालें। हमें अपना परिदृश्य बहुत बदला-बदला नजर आने लगा है।

आज कई स्थानों पर दिन और रात के अधिकतम और न्यूनतम तापों में अन्तर तथा वर्षा के पैटर्न में अन्तर दिखलाई देने लगे हैं। आज बारिश के दिनों में भी हम अक्सर ऐसे दृश्य देखते हैं जिनमें कभी एक घंटे में महीने भर की बारिश का कोटा तो कभी एक-एक महीने तक बारिश नदारद रहती है। इससे कृषि पर बुरा प्रभाव पड़ता है। गर्मी के दिनों में ठंड और ठंड के दिनों में गर्मी भी अब आम बात है। सब-कुछ अनिर्धारित और अकल्पनीय उम्मीद से बिल्कुल अलग हो रहा है। ऐसे हालात में पूर्वानुमान काम नहीं करते और किसानों को तकलीफों का सामना करना पड़ता है।

कुछ और संकेत – ओजोन परत में छिद्र


हमारे दैनिक जीवन में और औद्योगिक उत्पादों के निर्माण में रसायनों का अत्यधिक प्रयोग होने लगा है। हमने अपनी सुख-सुविधा के साधनों को विकसित करने के लिये भी कई रसायनों का निर्माण किया। इनमें से कई रसायनों का रिसाव होता है। इससे इनके अणु वायुमण्डल में पहुँचकर वायु की संरचना को बदलने लगे। इनकी उपस्थिति में ओजोन के अणु अधिक मात्रा में टूटने लगे जिससे कई स्थानों पर ओजोन मण्डल की परत बहुत पतली हो रही है। लगता है मानों इसमें सेंधमारी हो रही हो या इसमें कोई छिद्र हो गया हो।

वर्तमान में इस छिद्र में से पार होकर पराबैंगनी किरणें धरती तक पहुँचने में कामयाब हो रही हैं। इस कारण उन स्थानों पर रहने वाले लोगों में त्वचा कैंसर होने की शिकायतें बढ़ने लगीं। इसके साथ ही लोगों की आँख खराब होने के संकेत भी मिलने लगे।

धरती के बुखार से निपटने के लिये गम्भीर विचार-विमर्श आवश्यक


आमजन के लिये इसे महसूस कर पाना आसान नहीं है। आमजन लोकल वार्मिंग के प्रभाव को तो आसानी से महसूस करते हैं क्योंकि ये तेजी से घटती है और स्थानीय स्तर पर अपना प्रभाव डालती है। लोग सक्रिय होते हैं लेकिन धीरे-धीरे भूल जाते हैं क्योंकि ये अल्प-जीवी होते हैं। इसके विपरीत ग्लोबल वार्मिंग (धरती के बुखार) के प्रभाव को लोग आसानी से महसूस नहीं कर पाते हैं। यह प्रभाव अत्यन्त धीमी गति से आगे बढ़ता है लेकिन जलवायु परिवर्तन जैसा दीर्घकालीन प्रभाव छोड़ता है। जब तक हम अपनी वर्तमान स्थिति और समस्याओं पर गम्भीरता से विचार नहीं करेंगे तब तक हम समस्या के समाधान की दिशा में प्रभावी तरीके से अग्रसर नहीं हो सकते।

हमारी वर्तमान स्थिति


उद्योगीकरण के साथ मशीनों के माध्यम से मास-प्रोडक्शन शुरू हुआ और इसके लिये प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा और अनियंत्रित दोहन होने लगा। विज्ञान ने प्रकृति के और गहरे रहस्यों को उजागर किया जिससे आज की कम्प्यूटर आधारित क्रान्तिकारी टेक्नोलॉजी आई। इससे स्वचालनीकरण का एक नया दौर आरम्भ हुआ। धीरे-धीरे स्वार्थ, लालच और गलाकाट प्रतिस्पर्धा की बढ़ती भावना के साथ बाजारू ताकतों का विस्तार हुआ। इन ताकतों ने सारे सूत्रों को अपने नियंत्रण में ले लिया।

चूँकि बाजारू ताकतों को सिर्फ पॉवर और पैसा ही दिखाई देता है, अतः वे इन्हें पाने के लिये किसी भी हद तक जाने में इन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती। हालांकि इनमें नैतिक मूल्यों की बात तो होती है। लेकिन ये बन्धनकारी नहीं होते, अतः इन्हें कोई मानता नहीं। लोगों के आन्तरिक विकास के अभाव में आज हमारा समूचा ग्रह बीमार नजर आने लगा है। आज धरती को बुखार है तो इसमें निश्चित ही हमारे द्वारा अपनाए गए विकास मॉडल के लिये तय किये गए आधारों का योगदान है।

हमारे विकास मॉडल के आधार


वर्तमान में विकास के जिस मॉडल को हमने अपनाया है, उसमें हम मानकर चलें कि प्रकृति में असीम संसाधन हैं। इसलिये हम प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन कर सकते हैं। इसे आधार मानकर हम तेज आर्थिक विकास करने लगे। इस दौरान लोगों में भौतिक सम्पन्नता की चाह बढ़ने तथा उपभोक्तावादी संस्कृति पनपने लगी। इससे अधिकतर लोगों की मानसिकता लालची, स्वार्थी, संवेदनहीन और स्वकेन्द्रित होने लगी।

कहते हैं कि धरती सबका पेट पाल सकती है लेकिन एक लालची का नहीं। अतः आज समस्या इस विकास मॉडल से जन्मी दूषित-मानसिकता से है। इसके कारण समाज में मूल्यों के स्थान पर पूँजी हावी होने लगी। व्यापारिक दृष्टि से लाभकारी उपयोग करो और फेंको की संस्कृति का पर्यावरण पर नकारात्मक असर दिखने लगा।

बेतहाशा दोहन ने प्राकृतिक संसाधनों की असीमितता के मिथक को तोड़ दिया। इस तरह हमारे विकास मॉडल का आधार ही गलत था। हमारा आधार पर्यावरण की दृष्टि से ठीक नहीं था।

विकास रोका नहीं जा सकता


बारिश के दिनों में भी हम अक्सर ऐसे दृश्य देखते हैं जिनमें कभी एक घंटे में महीने भर की बारिश का कोटा तो कभी एक-एक महीने तक बारिश नदारद रहती है। इससे कृषि पर बुरा प्रभाव पड़ता है। गर्मी के दिनों में ठंड और ठंड के दिनों में गर्मी भी अब आम बात है। सब-कुछ अनिर्धारित और अकल्पनीय उम्मीद से बिल्कुल अलग हो रहा है। ऐसे हालात में पूर्वानुमान काम नहीं करते और किसानों को तकलीफों का सामना करना पड़ता है।यह सच है कि बेहतर समाज के निर्माण के लिये भौतिक विकास जरूरी है। विज्ञान ने अपनी महती भूमिका निभाते हुए समाज के विकास के लिये उद्योगीकरण का रास्ता दिखाया है। लेकिन विज्ञान ने पर्यावरणी नुकसान की ओर भी इशारा किया था जिसे आर्थिक पहलू ने जानबूझ कर नजरअन्दाज होने दिया। हम यहाँ यह याद नहीं रख सके कि बिना ऊर्जा के औद्योगिक विकास सम्भव नहीं है और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना ऊर्जा-उत्पादन सम्भव नहीं है। इसमें सन्तुलन को न बना रखने में ही आज की समस्या को जन्म दिया है।

हाल ही में दिल्ली के गैस चैम्बर बनने की खबर आई है। इसके लिये पंजाब में अपनाई जा रही कृषि पद्धति को दोषी ठहराया गया है। इसमें किसानों को खेतों में खड़े डंठलों को जलाना पड़ता है, क्योंकि उन्हें फसल बेचने के बाद मात्र 15 दिन मिलते हैं, जिसमें उन्हें जमीन तैयार कर अगली फसल के लिये बुवाई भी करनी होती है। अतः खेतों में खड़े डंठलों को जलाना उनकी मजबूरी होती है। हवा के रुख ने इस बार दिल्ली को चपेट में ले लिया।

यह तो एक पहलू हुआ। इसमें हमें किसानों की मजबूरी नजर आती है। अब थोड़ा दूसरे पहलू पर विचार करें। यह मशीनों के बढ़ते उपयोग से आई है। आज कम्बाइन हार्वेस्टर जैसी मशीनों से फसलों की कटाई होती है। ये मशीनें करीब एक फुट डंठल खेत में ही छोड़ देती हैं। खेत से उन्हें हटाना अत्यधिक मेहनत और लागत का काम है। अतः आज उत्पन्न हुई इस पर्यावरणी समस्या के कारणों में मशीन के रूप में बेहतर विकल्प का न मिलना भी है।

शहरी विकास भी ग्लोबल वार्मिंग का कारण


आज शहरी आबादी में तेजी से वृद्धि हो रही है। चारों ओर अधोसंरचना का विकास हो रहा है। विश्व में घनी आबादी वाले अधिकांश महानगर मानवीय गतिविधियों और भू-उपयोग में आये बादलों के कारण ऊष्मा के टापू बनते जा रहे हैं जिससे लोकल वार्मिंग (स्थानीय ताप-वृद्धि) का प्रभाव नजर आने लगा है।

शहरों के ऊष्मा-टापू बनने से स्थानीय स्तर पर हवा की गुणवत्ता और पानी की उपलब्धता बहुत हद तक प्रभावित होती है। ताप-वृद्धि-जन्य प्रभाव स्थानीय स्तर पर कई और समस्याओं को जन्म देते हैं। इनमें जैवविविधता में कमी का होना, विभिन्न जैव प्रजातियों का पलायन होना, बैक्टीरियाजन्य विभिन्न बीमारियों का बढ़ना, लोगों में चिड़चिड़ाहट और आक्रामकता का बढ़ना, स्थानीय मौसम का प्रभावित होना आदि प्रमुख हैं।

शहरों में सीमेंट-कंक्रीट की सड़कों और भवनों की छतों और दीवारों के कारण सूर्य के प्रकाश का परावर्तित होना कम तथा सोखना अधिक होता है, जिससे दिन अधिक गरम हो जाते हैं। लेकिन रात को ये जल्दी ठंडे हो जाते हैं, जिससे शहरों में दिन और रात के ताप में बहुत अन्तर मिलता है। इनके अलावा मानवीय गतिविधियों से जुड़े कई कारण ऐसे भी हैं जिनसे शहरी क्षेत्रों का वातावरण प्रदूषित रहता है और हवा में छोटे-छोटे कण तैरते रहते हैं। हवा में उपस्थित छोटे-छोटे कणों के रूप में उपस्थित प्रदूषक स्वास्थ्य पर तो बुरा प्रभाव डालते ही हैं लेकिन ये बादल निर्माण में भी अपना योगदान देते हैं।

बादलों और ग्रीनहाउस गैसों की उपस्थिति वायुमण्डल के विकिरणीय गुणों को बदल देती हैं। दिन में बादल-रहित और रात में बादल-सहित आकाश दिन और रात दोनों को बेहद गरम कर देते हैं, जिससे लोगों में बेचैनी बढ़ जाती है। शहरों में बहुमंजली इमारतों की उपस्थिति हवा के प्रवाह की दिशा को बदलने में भी अपना योगदान देती है। इन सबके कारण शहर के विभिन्न हिस्सों का ताप और शहर में ताप-वितरण प्रभावित होता है।

कई बार ये चरम-मौसमी घटनाओं की आवश्यक शर्तों को पूरा करने में अपनी भूमिका निभाते हैं जिससे शहरी क्षेत्र इनके आसान शिकार हो जाते हैं। लोकल वार्मिंग से जुड़े ये सभी तथ्य पर्यावरण को प्रभावित कर चरम-मौसमी घटनाओं के घटित होने में अपना न्यूनाधिक योगदान देते हैं। तेज बारिश के समय खराब नगरीय नियोजन तथा लोगों का स्वच्छता के प्रति उदासीन रवैया आपदा को और गहरा देता है। इसमें पॉलीथीन की थैलियों के द्वारा जल-निकासी हेतु बनी नालियों का बाधित हो जाना प्रमुख है।

लोगों की आवश्यकताएँ और मानसिकता बदल रही है। भवन निर्माण हो रहा है। दूरसंचार, आवागमन के साधनों में विस्तार हो रहा है। वातानुकूलन के लिये प्रयुक्त एयर कंडीशनर कमरे की ऊष्मा को बाहर वातावरण में उड़ेल रहे हैं। इंटरनेट, कम्प्यूटर, लैपटॉप आदि के बिना काम चलता नहीं। इन सबके साथ मोबाइल भी ऊष्मा-उत्सर्जन का अतिरिक्त स्रोत बन रहा है।

शहरों में हरियाली का क्षेत्र लगातार सिमट रहा है। हरियाली की कमी से प्राकृतिक नमी और ठंडक में भारी कमी होने लगी है। पक्के मकान गर्मी में गरम और ठंड के दिनों में ठंडे रहते हैं। इससे एयर कंडीशनर (ए.सी.) एवं रूम हीटर के उपयोग बढ़ रहे हैं। हरियाली के अभाव में वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों में लगातार वृद्धि हो रही है।

शहरों में पानी के जमीन के अन्दर उतरने की जगह नहीं बची है। नालों और जल भराव वाली जगहों के बढ़ते अतिक्रमण ने समस्या को और गहरा दिया है। शहरों में निकासी की समुचित व्यवस्था न होने या रख-रखाव के अभाव में थोड़ी-सी बारिश भी कहर ढाने लगती है। जल संग्रहण की व्यवस्था के अभाव में बारिश का पानी संग्रहीत होने की बजाय बह जाता है और गर्मी के दिनों में लोगों को पानी की किल्लत का सामना करना पड़ता है।

आवागमन और संचार क्षेत्रों में आई तकनीकी क्रान्तियों के कारण समूचा विश्व अतिरिक्त ऊष्मा को क्षेत्र के रूप में बदल रहा है। पिछले कुछ दशकों से ग्लोबल वार्मिंग का नया प्रभाव अपने चिन्ताजनक स्वरूप में दिखलाई देने लगा है।

ग्लोबल वार्मिंग पर विभिन्न देशों का नजरिया


ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव वे देश अधिक महसूस करते हैं जो भूमध्य रेखा के आस-पास स्थित हैं। लेकिन ध्रुवों के पास स्थित आबादियों के लिये यह खुशनुमा वातावरण का निर्माण करती है। अतः समूचे ग्लोब में इस प्रभाव को अलग-अलग तरीके से अनुभव किया जा रहा है। धरती के कई भागों में अत्यन्त बड़े-बड़े ग्लेशियर हैं। गर्मी के दिनों में इनके कुछ भाग पिघलकर विश्व की कई नदियों और अन्य जलस्रोतों को पानी उपलब्ध कराते हैं। लेकिन, शीतकाल में ये ग्लेशियर पुनः अपनी पूर्वावस्था में लौट भी आते हैं।

ये ग्लेशियर ताप-परिवर्तन के प्रति अति-संवेदनशील होते हैं। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर के पिघलने की दर में तेजी हो सकती है जिससे नदियों में बाढ़ और समुद्र के जलस्तर में अनसोचा इजाफा हो सकता है। अगर ऐसा होता है तो समुद्र तटों पर बसी आबादियाँ खतरे में आ सकती हैं और उन्हें पलायन के लिये मजबूर होना पड़ सकता है। एक अनुमान के अनुसार जलस्तर के बढ़ने से करीब 5,76,400 हेक्टेयर भूमि जलमग्न होगी और करीब 71 लाख लोग विस्थापित होंगे।

भौगोलिक दृष्टि से हमारे देश की स्थिति बहुत नाजुक है। अगर ग्लेशियर पिघलेंगे तो हमारे देश का सुन्दरवन क्षेत्र और बांग्लादेश के तटीय इलाके बहुत प्रभावित होंगे। हमारे देश का ओडिशा से लगा समुद्री तट भी अत्यन्त संवेदनशील है। एक अनुमान के अनुसार अगर यहाँ एक मीटर की भी जल वृद्धि होती है तो यहाँ का करीब 800 वर्ग किलोमीटर डूब में आ जाएगा। हिमालय के ग्लेशियर एशिया की गंगा, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, सलवीन, मिकोरा, यंगद्ज और हुआगदू नदियों के लिये जल उपलब्ध कराते हैं।

ग्लेशियर की 10 प्रतिशत बर्फ पिघलने से एशिया में पहले बाढ़ आएगी। चूँकि जल सौर विकिरणों को सोख लेता है जबकि बर्फ उन्हें परावर्तित कर देता है। अतः जल की बढ़ती उपस्थिति में बर्फ के पिघलने की दर में तेजी आएगी। जब सारी बर्फ पिघल जाएगी तब नदियाँ सूखने लगेंगी, तब आबादी को गहरे जल संकट का सामना करना पड़ेगा। वैसे कुछ घटनाएँ दिखाती हैं कि प्रकृति अपने को संरक्षित और सन्तुलित रखने के प्रयास में भी जुटी हुई है।

प्रकृति की ओर से ऐसा प्रयास सन 2008 में तब दिखा जब कुल्लू और लाहोलमिले की ऊँची पहाड़ियों पर 10-15 घनफीट बर्फ गिरी। आशान्वित वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि इससे ग्लेशियरों का सिकुड़ना रुकेगा। कुल्लू के जी.वी. पंत हिमालयीन पर्यावरण संस्थान के डॉ. कुनियाल ने तो इसे ग्लेशियरों के लिये नई संजीवनी माना है। अगर आगे भी ऐसा होता है तो निश्चित ही हमारे लिये यह प्रकृति का वरदान साबित होगा और हमें सम्भलने का कुछ अधिक मौका मिल सकेगा।

समाधान के रास्ते


अब हमें इसका संज्ञान हो गया है कि हमारी धरती लगातार गरम होती जा रही है। इसके गरम होने से इसके दैहिक-ताप-परास की सीमाएँ प्रभावित होने लगी हैं। यह खतरे की घंटी है और हमारा अस्तित्व संकट में नजर आने लगा है। ऐसे में हम क्या करें? या तो हम प्रौद्योगिकियों में प्रयुक्त कम ऊष्मा उत्पादन करने वाले स्रोतों से एक-एक कर बदल दें या अवांछित अत्यधिक ऊष्मा उत्पादित कर रहे स्रोतों या धरती को गरम करने में सहायक ग्रीनहाउस गैसों की उत्पादक इकाइयों को कम करते चलें तथा ग्रीन टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देते चलें।

आज ग्रीन एक रूपक है जिसका अर्थ पर्यावरण-हितैषी कदमों से लिया जाता है। अतः ऐसी टेक्नोलॉजी जो पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाए, ग्रीन टेक्नोलॉजी कहलाती हैं। इसके साथ ही पर्यावरण के स्वास्थ्य को लौटाने का एक और तरीका अपनी उपभोक्तावादी विलासितापूर्ण जीवनशैली में ऐसा परिवर्तन लाना है, जिससे धरती को गरम करने में अपनी भूमिका को न्यूनतम किया जा सके।

वैश्विक प्रयास


हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के सहयोग से दिसम्बर 2015 में पेरिस में सम्मेलन सम्पन्न हुआ। इसमें वायुमण्डल में कार्बन वृद्धि के बड़े स्रोतों को सीमित करने पर विचार हुआ। इस सम्मेलन में कई देशों ने सहभागिता की तथा एक समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। यह अवश्य ही आशा जगाता है लेकिन निर्धारित समय सीमा में इस पर अमल करना अत्यन्त चुनौतीपूर्ण है। इसमें नीति-विषयक बदलावों की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इसके बाद वर्तमान में प्रचलित प्रौद्योगिकियों के स्थान पर ऐसी प्रौद्योगिकियों को अपनाना जरूरी है जिनसे तैयार होने वाले उत्पाद अपने निर्माण, सम्पूर्ण जीवनकाल और उसके बाद अपशिष्ट के रूप में पर्यावरण हितैषी बने रहें।

दूसरे शब्दों में, वे वातावरण को प्रदूषित न करें और वातावरण में कम-से-कम कार्बन (यानी ग्रीनहाउस गैसें) उड़ेलें। ऐसी प्रौद्योगिकियाँ ग्रीन टेक्नोलॉजी कहलाती हैं। एक दृष्टि से ये वास्तव में निर्दोष प्रौद्योगिकी (क्लीन टेक्नोलॉजी) हैं, जिनका उद्देश्य पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य सम्बन्धी जोखिम को न्यूनतम स्तर पर ले जाना है ताकि टिकाऊ विकास की राह लगातार चौड़ी और चौड़ी बनती चली जाये।

ओजोन परत को बचाने के लिये भी हो रहे हैं कुछ प्रयास


सन 1985 में वियना शहर में एक सम्मेलन का आयोजन हुआ। इस सम्मेलन में योजनाबद्ध तरीके से ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाले रसायन सी.एफ.सी. के उपयोग को नियंत्रित तरीके से कम करने पर विचार किया गया तथा एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए। इसे हम वियना समझौते के नाम से जानते हैं। इसके बाद सन 1987 में मांट्रियल शहर में बैठक हुई जिसमें मसौदा तैयार किया गया। इसे मांट्रियल संलेख के नाम से जाना जाता है। इस सम्मेलन में जनता को ओजोन के महत्त्व से परिचित कराने तथा जन-जागरुकता फैलाने के उद्देश्य से ओजोन दिवस मनाए जाने का निर्णय भी लिया गया। तब से यह आज तक प्रत्येक वर्ष की 16 सितम्बर को यह दिवस लगातार मनाया जा रहा है।

इस सम्मेलन में विकासशील और अविकसित देशों की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए प्रावधान रखे गए। सभी सहभागी देश सन 2050 तक सन 1980 के ओजोन स्तर को प्राप्त करने के लिये कदम उठाने को सहमत हो गए। इसके अन्तर्गत रसायन सीएफसी के विकल्प के रूप में पहले चरण में रसायन एचसीएफसी के उपयोग पर आम सहमति बनी। यह इसलिये क्योंकि इसमें क्लोरीन होता है जो ओजोन-परत को नुकसान पहुँचाता है।

समूची धरती बढ़ती मानवीय गतिविधियों के कारण जहरीली गैसों से भरी जगह (गैस चैम्बर) में बदल गई है। हाल ही में दिल्ली के इसकी चपेट में आने के समाचार सुर्खियों में आये थे। लेकिन कौन जाने कब और कौन इसकी चपेट में आने वाला है। देर-सबेर, एक देश, फिर पड़ोसी देश और फिर समूचा ग्लोब इसका शिकार हो सकते हैं। इसके साथ ही आज समूची धरती अनचाहे अप्राकृतिक ग्रीनहाउस में बदल रही है, जिसके दूरगामी परिणाम सभी जीव-जातियों और भावी पीढ़ियों को भुगतना है। अतः वैज्ञानिकों ने रसायन एचसीएफसी में हाइड्रोजन की उपस्थिति इसे बेहतर विकल्प के रूप में प्रस्तुत करती है। अभी इसके उत्पादन की समस्या है अतः दूसरे चरण में इसे बेहतर विकल्प एचएफसी से प्रतिस्थापित किये जाने पर सहमति बनी। इन पदार्थों के वायुमण्डल के ऊपरी भाग तक पहुँचने की सम्भावना नगण्य होती है। लेकिन आगे शोध से पता चला कि रसायन एचएफसी ओजोन-परत को तो बचाने में कारगर है लेकिन यह एक बहुत ही प्रभावी ग्लोबल वार्मिंग एजेंट भी है।

अतः वैज्ञानिकों ने महसूस किया कि ओजोन-परत को बचाने के वर्तमान तरीके ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के प्रयासों को धक्का पहुँचाएँगे। यह स्वीकार्य नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में वैज्ञानिकों ने विचार किया कि रसायन एचएफसी भी अच्छा विकल्प नहीं माना जा सकता। इसे ध्यान में रखते हुए वर्तमान में वैज्ञानिक ऐसे पदार्थों की तलाश में हैं जो पृथ्वी को ओजोन-परत के साथ ही ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से भी बचाने में समर्थ हो सकें।

समाधान की दिशा


इसको समझने के लिये मैं एक उदाहरण देता हूँ। माना कि ठंड के दिनों में हम एक कमरे में बैठे हैं। अगर ठंड अधिक हो और हमें जल्दी राहत चाहिए तो हम कमरे को जल्दी गरम करने के लिये दो या तीन हीटर का इस्तेमाल करना पसन्द करेंगे। ऐसा करने पर आरम्भ में तो अच्छा लगेगा लेकिन शीघ्र की कमरे के ताप में बढ़ोत्तरी महसूस होने लगती है। फिर जब हमारे सहन करने की सीमा जवाब देने लगती है तब हम एक हीटर, फिर दूसरे और फिर भी राहत न मिले तब तीसरे हीटर को भी बन्द करने लगते हैं।

हम हर हाल में अनुकूल वातावरण चाहते हैं। खैर यह तो हमारे अपने हाथ में है और सिर्फ एक कमरे की ही बात है। अगर कमरे में हम अकेले हैं तब तो यह आसान है। लेकिन अगर कमरे में और लोग भी उपस्थित हैं, तब हर व्यक्ति की अपनी-अपनी राय होती है। अनुभव की जा सकने वाली सीमा को लेकर मत भिन्नता हो सकती है।

कुछ लोग जो हीटर के पास होते हैं वे हीटर को बन्द करने और जो दूर होते हैं वे हीटर को चालू रखने के पक्ष में हो सकते हैं। मिल बैठकर एक समझौता हो सकता है जिसमें दूर वालों को कुछ जगह देने को कहा जा सकता है ताकि पास वाले वहाँ आकर बैठ सकें। इस तरह सब मिल-जुलकर एक साथ रह सकते हैं। लेकिन इस तरह की स्थिति निर्मित होने पर छोटी स्केल का यह समाधान बड़ी स्केल वाली विशाल धरती पर काम नहीं आ सकता। इसके लिये ग्रीन टेक्नोलॉजी समाधान के रूप में सामने आई है।

ग्रीन टेक्नोलॉजी – पर्यावरण हितैषी


हम जानते हैं कि प्रत्येक उत्पाद और उनकी गुणवत्ता अपने निर्माण के लिये कच्चे माल, बिजली, पानी तथा विभिन्न भौतिक और रासायनिक प्रक्रियाओं के साथ ही अपनाई जाने वाली प्रौद्योगिकियों पर निर्भर करते हैं। अतः उत्पादों की गुणवत्ता को बनाए रखते हुए पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बगैर निर्माण करने में समर्थ प्रौद्योगिकियों (ग्रीन टेक्नोलॉजी) को अपनाना होगा। इनसे प्राप्त उत्पाद उपयोग के दौरान तथा उपयोग के बाद भी पर्यावरण हितैषी बने रहते हैं।

ग्रीन टेक्नोलॉजी में विद्युत की आवश्यकता की पूर्ति के लिये नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों, जैसे सौर (सोलर) और पवन (विंड), के उपयोग करने पर विशेष जोर दिया जाता है। इस दौरान औद्योगिक प्रतिष्ठान कम्प्यूटराइजेशन और ऑटोमेशन पर भी विशेष ध्यान देते हैं, ताकि विद्युत की बचत की जा सके। ग्रीन (पर्यावरण हितैषी) रास्तों पर चलते हुए उत्पाद तैयार करने के लिये आवश्यक कच्चे माल के लिये खनन के उन तरीकों पर भी ध्यान दिया जाता है जो प्रकृति को कम-से-कम नुकसान पहुँचाए तथा पर्यावरण को कम-से-कम प्रदूषित करे।

प्रयास इस दिशा में भी होते हैं जिससे उत्पादों के निर्माण के लिये कम-से-कम कच्चे माल की जरूरत पड़े तथा उन्हें पुनर्चक्रण (रिसाइक्लिंग) के माध्यम से प्राप्त किया जा सके। ऐसा उस जिम्मेदारी की भावना से किया जाता है जिससे प्राकृतिक संसाधन भावी पीढ़ियों के लिये सुरक्षित बचे रह सकें। इसके लिये इस पर्यावरण हितैषी ग्रीन टेक्नोलॉजी में मजबूती, हल्केपन जैसे आवश्यक गुणों वाले पदार्थों के विकास हेतु शोध पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

ग्रीन टेक्नोलॉजी के साथ दिक्कत


तकनीकी समाधान के रूप में उपलब्ध ग्रीन टेक्नोलॉजी को अपनाने में प्रमुख बाधा इनका महँगा होना है क्योंकि इनको विकसित करने के लिये आवश्यक कच्चा माल सुगमता से नहीं मिलता है। अतः आज हमें सस्ती एवं पर्यावरण हितैषी ऐसी ग्रीन टेक्नोलॉजी की जरूरत हैं जो कम-से-कम कार्बन-बजट में अधिक से अधिक दक्ष साबित हों।

कार्बन एक रूपक है जिसका अर्थ पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिये हमारे द्वारा किये जा रहे प्रयासों का मापन है। हमारे प्रयासों में जितना कम कार्बन होगा उतनी ही अधिक पर्यावरण हितैषी हमारा कदम होगा। ग्रीन टेक्नोलॉजी का प्रयोग इसमें निश्चित ही मददगार है। हालांकि अभी इसे अपनाने में कुछ कठिनाइयाँ हैं। लेकिन ऐसी कुछ जमीनी हकीकतें भी हैं जिन पर विचार कर हम अपने कार्बन-बजट को कम कर सकते हैं।

जमीनी हकीकतें


आज हमें जमीनी सच्चाइयों से परिचित होने की जरूरत है। पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की समस्या सार्वजनीन है, विश्वव्यापी है। अतः यह किसी एक की समस्या नहीं, बल्कि सबकी समस्या है। ऐसे में सबको चिन्तित होने तथा समाधान में सबको भागीदार बनने की जरूरत है। यह याद रखना होगा कि समाधान कई चरणों में सम्पन्न होगा। अतः धैर्य की आवश्यकता होगी।

हमारे यहाँ विभिन्न मानसिक स्तर के लोग रहते हैं। अभी लोग अपनी हर समस्या के समाधान के लिये सरकार की ओर ताकते हैं और निर्भर रहते हैं। लेकिन सरकारी प्रयासों में जनभागीदारी जरूरी है। समस्या दूर करने की व्याकुलता जरूरी है। सरकारी प्रयासों से अलग व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर निजी प्रयासों की भी आवश्यकता है। अक्सर सरकार की योजनाएँ अच्छी होती हैं, लेकिन क्रियान्वयन कमजोर होने से वे सफल होने से पहले ही चरमरा जाती हैं।

आज समूची धरती बढ़ती मानवीय गतिविधियों के कारण जहरीली गैसों से भरी जगह (गैस चैम्बर) में बदल गई है। हाल ही में दिल्ली के इसकी चपेट में आने के समाचार सुर्खियों में आये थे। लेकिन कौन जाने कब और कौन इसकी चपेट में आने वाला है। देर-सबेर, एक देश, फिर पड़ोसी देश और फिर समूचा ग्लोब इसका शिकार हो सकते हैं। इसके साथ ही आज समूची धरती अनचाहे अप्राकृतिक ग्रीनहाउस (धरती को जरूरत से ज्यादा गरम करने वाला) में बदल रही है, जिसके दूरगामी परिणाम सभी जीव-जातियों और भावी पीढ़ियों को भुगतना है। अतः हमें सजग होना होगा।

लोगों को दिल से शामिल होना जरूरी


विश्व की बड़ी आबादी निचले स्तर की है। वह गरीबी की शिकार है। उनके सामने अपने भरण-पोषण की समस्या इतनी बड़ी है कि वह पर्यावरणी समस्या को महसूस ही नहीं कर पाती। उन तक संदेश पहुँचना जरूरी है। वैसे देखने में तो यह भी आया है कि सभी स्तर के लोग इस समस्या को उस गम्भीरता से नहीं लेते जितनी आवश्यकता है। इस समस्या को लोगों द्वारा गम्भीरता से महसूस करना जरूरी है। जन-जागरण के एक प्रभावकारी आन्दोलन की जरूरत है।

आज लोगों में जागरूकता के साथ जिम्मेदारी का भाव जगाना जरूरी है। ऐसा होने पर ही फिजूल बह रहे नल की टोटी बन्द करने और बिजली का स्विच बन्द करने के लिये हाथ स्वयमेव उठने लगेंगे। एक से दो, दो से चार, आठ से सोलह... और इस तरह कारवाँ जुटने लगता है। स्थिति सुधार की दिशा में गम्भीरता दिखने लगती है। लोग अपने दम पर कदम उठाने लगते हैं।

शिक्षा और युवाओं की भूमिका


सर्वे बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में पर्यावरण को लेकर लोगों में अवश्य ही कुछ जागरूकता बढ़ी है। लेकिन अभी इस दिशा में बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है। यह निर्विवाद तथ्य है कि जन चेतना के बिना किसी भी देश की सरकार के लिये काम करना मुश्किल है।

आज कई अकादमिक मंच और संस्थाएँ लोगों में वैज्ञानिक और पर्यावरणीय जागरुकता में वृद्धि के लिये कार्य कर रहे हैं। इसलिये पर्यावरण दिवस, ओजोन दिवस, सूर्य दिवस, पृथ्वी दिवस, अर्थअवर आदि विश्व स्तर पर मनाए जा रहे हैं। पत्रकारों ने भी इन आयोजनों की रिपोर्टिंग पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है।

इन आयोजनों से जागरुकता बढ़ी है। लोगों में समझ बढ़ी है। लेकिन अपनी जीवनशैली को बदलने और उसे पर्यावरण हितैषी बनाने के लिये आवश्यक रुचि में अभिवृद्धि दिखाई नहीं दे रही है। भौतिक सम्पन्नता की चाह और दिखावे ने आनन्द पाने के असली स्रोतों को छुपा दिया है। विलासितापूर्ण और आत्मकेन्द्रित जीवनशैली विस्तार लेती जा रही है। इसे अपनाने की होड़ में साधनों की पवित्रता अपने मायने खोती जा रही है। इसके मार्ग में आने वाली बाधा असह्य लगने लगी है। इसीलिये आज अपने हित को चोट पहुँचाने वाली छोटी-छोटी घटनाओं पर लोगों का गुस्सैल और हिंसक व्यवहार सामने आने लगा है।

अपने लाभ के लिये लोक सम्पत्ति और प्राकृतिक सम्पदा को नुकसान पहुँचाना सामान्य बात होने लगी है। वर्तमान में नैतिक मूल्यों पर पूँजी हावी होने लगी है। लोग ईको (प्रकृति) को भूलते हुए अपने ईगो (अहम) को महत्त्व देने लगे हैं। इस तरह लोगों के मन-मस्तिष्क प्रदूषित हो रहे हैं तथा उनमें विवेक दृष्टि गायब होने लगी है। आज लोकल (स्थानीय) और ग्लोबल (वैश्विक) वार्मिंग के साथ ही मेंटल (दिमागी) वार्मिंग भी नजर आने लगी है।

टिकाऊ विकास के लिये हमें तकनीकी समाधानों के साथ ऐसा कुछ करना होगा जो लोगों की मानसिकता को बदलकर उसे ईको-फ्रेंडली बना सके। लेकिन सतही प्रयासों से काम चलने वाला नहीं है। इस काम को विद्यालयीन स्तर से ही शुरू करने की आवश्यकता है। बचपन के संस्कार व्यर्थ नहीं जाते। इस तरह ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों से बचाने के लिये प्रस्तुत किये जा रहे तकनीकी समाधानों के साथ ही समाज में जागरूकता लाने के लिये शिक्षा-जगत को जोड़ना जरूरी है। इसमें युवाओं की अहम भूमिका है।

जागरुकता अभियान आवश्यक


आज हमें लोगों को अपने दैनिक जीवन की प्रत्येक गतिविधि में पर्यावरणी नजरिए को अपनाने हेतु जागरुकता अभियान भी चलाना होगा। इस नजरिए में सिर्फ आदमी ही नहीं, प्रकृति का भी नेटवर्क में रहना जरूरी है। जब प्रगति की बात हो तो उसमें सिर्फ लोगों की भौतिक प्रगति की ही बात न हो, उनकी आध्यात्मिक प्रगति की भी बात हो ताकि उनका दिल जुड़ सके।

इस तरह जब समाज में जागरूक और वैज्ञानिक मिजाज वाले विवेकी लोग होंगे तो वे कल्याण की भावना से भरपूर होते हुए जीवन मूल्यों की कद्र करने वाले भी होंगे। वे उस तकनीकी प्रगति और तरीकों का विरोध करेंगे जो हमारे अस्तित्व को संकट में डालने वाले हों। लोगों में अच्छे और बुरे में भेद करने की क्षमता होने तथा अच्छे के पक्ष में खड़ा होने से ही वर्तमान चुनौतियों से जूझा जा सकता है।

समस्या की मनोवैज्ञानिक स्तर पर समझ


हम जानते हैं कि किसी भी जीव का उसके परिवेश से गहरा सम्बन्ध रहता है। आन्तरिक परिवेश तय करता है शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की गुणात्मकता को। अगर हम अपने को बीमार पाते हैं या हम अच्छा महसूस नहीं कर रहे हैं तो इसका साफ मतलब है कि हमारे परिवेश में कहीं-न-कहीं कुछ गड़बड़ है।

रेगिस्तान में प्यासे के लिये पानी से कीमती और क्या हो सकता है? पर्यावरण और परिस्थितियों के बदलने से वस्तु का मूल्य बदल जाता है। पर्यावरण से जोड़कर ही किसी वस्तु का मूल्य आँका जाता है। कालकोठरी में बन्द होने पर व्यक्ति वह व्यवहार नहीं दिखाता जो वह उससे मुक्त रहने पर दिखाता रहा है।

बिना अच्छे वातावरण के और बिना पौष्टिक आहार के क्या कोई स्वस्थ रह सकता है? क्या वह कभी अच्छे परिणाम दे सकता है? भयातुर करने वाली परिस्थितियों में रखकर काम तो कराया जा सकता है लेकिन उस काम की गुणात्मकता निःसन्देह अच्छी नहीं होगी। इसी तरह दड़बों में बन्द बीमार मुर्गियों से क्या अच्छे अण्डों को पाने की अपेक्षा की जा सकती है? अतः आज पर्यावरण प्रदूषण के मुद्दे को ठीक से समझने की जरूरत है। हर व्यक्ति प्रदूषण के दुष्प्रभावों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तरीके से प्रभावित हो ही रहा है।

अतः तर्क के साथ ही दिल को छूने वाले प्रयासों की आवश्यकता है। यह तभी हो सकता है जब हम ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरणी समस्या को मनोवैज्ञानिक तरीके से समझने और समझाने का प्रयास करें।

मीडिया का रोल


ग्लोबल वार्मिंग और लोगों की गतिविधियों के बीच एक अदृश्य सम्बन्ध है। इसको प्रकट करने की जिम्मेदारी निश्चित ही मीडिया की है। उसे वह तकनीक खोजनी होगी जो इस सम्बन्ध को उजागर कर सके। जब तक लोगों को यह समझ नहीं आएगा कि वे भी इसके लिये जिम्मेदार हैं, ग्लोबल वार्मिंग को रोकने में किये जा रहे प्रयासों को अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकती है। अतः हमारे भविष्य को अत्यधिक प्रभावित करने वाले इस विषय के बारे में जन-जागरुकता लाने के लिये मीडिया को नए सिरे से विचार करना होगा।

लोगों में पर्यावरणी चेतना बढ़ रही है। स्थानीय स्तर पर कई प्रेरक कहानियाँ जन्म ले रही हैं। ऐसी कहानियाँ निश्चित ही संख्यात्मक दृष्टि से अभी कम हैं लेकिन ये बड़ा सन्देश दे रही हैं। इनसे पता चलता है कि अगर जोश और जुनून हो तो असम्भव कुछ भी नहीं होता। आज इसी जुनून और जज्बे की जरूरत है क्योंकि कई समस्याओं से हम जूझ रहे हैं।

हमारी वर्तमान सभी समस्याओं का गहरा सम्बन्ध प्रकृति और पर्यावरण से है। इसमें कोई दो मत नहीं कि प्रकृति को बचाए बगैर हम किसी भी तरह स्थायी समाधान तक नहीं पहुँच सकते हैं। ऐसी कहानियों को भी जनता के बीच ले जाने की जिम्मेदारी मीडिया की है।

लोक परम्परा, देशज ज्ञान और लोक विज्ञान से मदद


भारत में प्राचीनकाल से ही पर्यावरणी चेतना विद्यमान रही है। इसके दर्शन लोक परम्पराओं और देशज ज्ञान में किये जा सकते हैं। इसमें छिपे सन्देशों को ग्रहण करने और इनमें छिपे विज्ञान को बाहर लाने पर ही ये अन्धविश्वासों और धार्मिक रीति-रिवाजों की सीमा से निकलकर लोक कल्याण और पर्यावरण की रक्षा के लिये अहम बन सकते हैं। अतः आज लोगों को यह समझाने की जरूरत है कि जब पदार्थ कम तथा उपभोक्ता अधिक हों तो संयम और धैर्य के साथ अपरिग्रह ही समाधान बनकर सामने आते हैं।

अतः तृष्णा को कम कर अपनी इच्छाओं पर लगाम लगाए बिना बात बन नहीं सकती है। सच में देखा जाये तो आज लोग पर्यावरण प्रदूषण के कारणों को जानते हुए भी उन्हीं गतिविधियों में संलग्न रहते हैं जिनसे पर्यावरणी खतरे कम होने की बजाय बढ़ते हैं। ऐसे में विवेकी, संयमी और संवेदनशील समाज के निर्माण में शिक्षा का अहम योगदान हो सकता है। यह शिक्षा जगत से जुड़े लोगों के लिये एक चुनौतीपूर्ण दायित्व है।

हम क्या करें?


हमें समझना होगा कि सिर्फ हल्ला करने से कुछ नहीं होगा। अपने विवेक को जगाना होगा। धरती के हित में सोचना और निर्णय लेना होगा। अपने हर काम पर हमें स्वयं नजर रखनी होगी तथा कठोरता से अपने लालच, स्वार्थ आदि पर नियंत्रण रखना होगा। जब कोई सख्ती करे तभी हम पालन करेंगे, यह अच्छी बात नहीं। पेट्रोल, डीजल और कुकिंग गैस (एल.पी.जी.) के स्थान पर प्रयुक्त होने वाली पर्यावरण हितैषी सी.एन.जी. (काम्प्रेस्ड नैचुरल गैस) की अनिवार्यता के समय लोगों और मीडिया का विरोध याद करें। सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा। क्या हर बात में पर्यावरणी समस्याओं से निपटने के लिये गठित ग्रीन ट्रिब्यूनल की सख्ती जरूरी है?

आज हम यह नहीं कह सकते कि समाज में पर्यावरणी चेतना का अभाव है। सच में तो आज आवश्यकता है लोगों में विवेक को जगाने की। लोग जान-बूझकर सोए हुए हैं। जो जानबूझकर सोते हैं, वे अपनी शर्तों पर ही उठते हैं। जानकर सोए हुए लोग चेतना शून्य नहीं होते, वे विवेक शून्य होते हैं। अतः ऐसे लोगों को बताने की आवश्यकता है कि आग लगी है। आप जिसे पाने के लिये सोने का नाटक कर रहे हैं। जब वह पर्यावरण ही नहीं रहेगा जिसमें रहकर आपको उसका उपभोग करना है, तो क्या करोगे? पर्यावरण बचेगा तो आप, हम और यह धरती बचेगी।

रेगिस्तान में अत्यन्त कम वर्षा के कारण लोगों ने कम जल के साथ जीना सीख लिया। जल अनुशासन और आपसी भाईचारा उनकी जीवनशैली का अंग बन चुका है। पानी की कम आवक के बावजूद सन्तोष है। लेकिन हममें प्रकृति को नजरअन्दाज कर आगे बढ़ने का गुरूर हो गया है। खुशियाँ लाने का विचार अच्छा है, लेकिन खुशियाँ दूरगामी होनी चाहिए। हमने दूरगामी विचार किये बगैर प्रकृति की व्यवस्थाओं के विकल्प खोजे और नहरें बिछाई और नलकूपों का निर्माण किया।

जहाँ-जहाँ हमने नहरें बिछाईं वहाँ-वहाँ पानी की किफायत करना लोग भूल गए। उन जगहों पर अधिक पानी की आवक ने लोगों में लापरवाह प्यास को भी जगा दिया। जब कभी सम्पदा बढ़ती है तो लालच, संग्रह वृत्ति और स्वार्थ भी बढ़ता है। यही पानी के साथ हुआ। कुछ समय के बाद वहाँ पानी मिलना कम होने लगा। नतीजा बहुत बुरा रहा। पानी के लिये मारा-मारी, दंगे, लड़ाइयाँ आम बात हो गईं। परिवार टूटने लगे और अनुशासन टूटने लगा। युगों से चली आ रही सामुदायिक भावना को गहरा आघात पहुँचा। जहाँ नहरें और नलकूप नहीं बने, वहाँ जल अनुशासन बना रहा। पानी की फिजूलखर्ची पर अपने-आप नियंत्रण बना रहा।

वर्षा के दिनों पर पानी के बहाव पर पैनी नजर ने उनके जल एकत्रित करने और जलस्रोतों के निर्माण की तकनीक सुझाई। जैसे अनुभव ने मिस्र में नील के अभिशाप को वरदान में बदल दिया। समाज की पहल से जलस्रोतों का निर्माण और फिर समाज को ही उपयोग के लिये ये समर्पित कर दिये जाते थे।

मानसिकता बदलना आवश्यक


द इकोलॉजिस्ट के सम्पादक गोल्डस्मिथ और उनके साथियों ने मिलकर सन 1990 में एक पुस्तक लिखी थी। उसका नाम था ‘पृथ्वी ग्रह को बचाने के 5000 दिन’। ये 5000 दिन तो सन 2005 में ही पूरे हो गए। लेकिन आज भी हम बचे हुए हैं। हम बचे रह सके क्योंकि हम जागे और आसन्न खतरों से निपटने के लिये सक्रिय हुए। इस दौरान भले ही हमारे प्रयास नाकाफी रहे हों लेकिन सकारात्मक रहे और उसका प्रभाव समाज में पर्यावरणी चेतना के रूप में परिलक्षित भी हुआ। लेकिन खतरा अभी टला नहीं है। सिर्फ मोहलत बढ़ी है।

आज लोगों को गहराई से यह समझने की जरूरत है कि हम पृथ्वी पर पाई जा रही बेशकीमती जैवविविधता के जाल की कई लड़ियों में से मात्र एक लड़ी हैं। सब लड़ियाँ एक-दूसरे से मिलकर जीवन का जाल रचती हैं। अतः लोगों को यह समझना होगा कि सबका अस्तित्व ही उनके अपने अस्तित्व की गारंटी है। लेकिन लोगों की सहज और सामान्य बुद्धि उन्हें ऐसा समझने नहीं देती है। इसीलिये आज लोगों की गतिविधियों और पर्यावरण के विभिन्न घटकों के बीच अन्तरसम्बन्धों तथा सह-निर्भरता को समझाने के लिये गले उतरने वाले तर्कों के साथ बातें रखने की जरूरत है। इससे लोगों को अपनी मानसिकता बदलने में आसानी होगी। बिना ऐसा किये बात बनने वाली नहीं है।

मानसिकता बदलने से लोग पर्यावरणी खतरों और उनके अपने योगदान को जानने और मानने लगेंगे तथा फिर अपने दैनिक जीवन में तद्नुसार आवश्यक बदलाव करने लगेंगे। इसके लिये सचमुच ही एक सशक्त प्रभावी अभियान चलाने की आवश्यकता है जिसमें बच्चों की अहम भूमिका हो सकती है। वे तार्किक और भावुक होते हैं तथा परिवार की आशा के केन्द्र होने से परिवार के सदस्यों को समझाने में समर्थ होते हैं।

हम क्या संकल्प लें?


हम यह याद रखेंगे कि हम आत्मनिर्भर नहीं परस्पर निर्भर हैं। हमें तत्काल अपने और सामूहिक स्तर पर कदम उठाने की आवश्यकता है। क्योंकि अगर हम आज नहीं चेते तो इसके तेज होने और विस्फोटक होने का खतरा सामने है।

धरती का बुखार सामान्य नहीं है। यह अपने अन्दर कई समस्याओं को छिपाए हुए है। सच में ये सभी आपस में जुड़ी हुई हैं। हम सबकी जड़ में नजरिए का संकट है। यह एक ऐसा सच है जिसकी उपेक्षा करना घातक है, चाहे कोई इससे सीधे प्रभावित हो रहा है अथवा नहीं। प्रभावित तो सब हो रहे हैं चाहे कोई इसे महसूस करे अथवा नहीं। इसलिये हम सब कुछ संकल्प लें जिससे हमारे कारण पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रदूषण के बोझ में कुछ कमी हो सके। कदम भले ही छोटे हों, लेकिन ठोस हों। ऐसी जीवनशैली अपनाएँ जहाँ ऊर्जा पर निर्भरता कम हो। धरती पर मुस्कान बची रहे। आज जलवायु परिवर्तन की बात काल्पनिक नहीं, एक वास्तविकता है।

अपने कार्बन फुटप्रिन्ट को हल्का करें। जितना अधिक हम ग्रीन (पर्यावरण प्रेमी) रह सकते हों, रहें। समय का अभाव न हो तथा शरीर साथ दे तो पैदल चलें, साइकिल चलाएँ लेकिन स्कूटर और कार का इस्तेमाल तभी करें जब यह सुनिश्चित हो कि इसके बिना काम चलने वाला नहीं। सम्भव हो तो अकेले चलने की बजाय कार पूल (साझा) करें। कागज बचाएँ, कागज के दोनों ओर लिखें या प्रिन्ट करें, पेंसिल का उपयोग करते हुए कागज का एकाधिक बार इस्तेमाल करें। रीड्यूज (आवश्यकता को सीमित करना), रीयूज (पुनर्प्रयोग करना) और रीसाइकिल (पुनर्चक्रण) के दर्शन को गम्भीरता से समझें और अपनी प्रत्येक गतिविधि के दौरान सबका ध्यान रखते हुए अपने विवेक का इस्तेमाल करें। बिजली बचत के हर सम्भव उपाय करें।

कमरे से बाहर निकलते समय बल्ब और पंखों के स्विच बन्द करें। आवश्यकता नहीं होने पर स्टैंडबाय मोड में काम कर रहे उपकरणों को भी बन्द करने की आदत डालें। रोशनी के लिये एल.ई.डी. बल्ब का उपयोग करें। नए मकानों के निर्माण के समय हवा और प्रकाश की प्राकृतिक व्यवस्था पर जोर दें। कुछ जगह खाली रखें ताकि जमीन में बारिश का जल जमीन के अन्दर जा सके और उसमें कुछ पौधे लगाए जा सकें।

वैज्ञानिकों ने जिसे अपनी भाषा में पढ़ा और समझा है उसे वे जन सामान्य को समझने वाली भाषा में समझाने की व्यवस्था करें ताकि लोग समस्या की गम्भीरता को आसानी से समझ सकें। अपनी मानसिकता में वैज्ञानिक और पर्यावरणी दृष्टि से बदलाव लाकर व्यक्तिगत स्तर पर प्रेरित हो सकें।

इस तरह छोटे-छोटे कदम उठाकर तथा अपनी मानसिकता को बदलकर हम बीमार पड़ रही बुखार से ग्रस्त पृथ्वी को स्वस्थकर आसन्न पर्यावरणी संकट से सफलतापूर्वक निपट सकते हैं।

धरती हमारी चेरी नहीं, माँ है। आइए! इसे बचाने का दिल से संकल्प लें।

समाज, प्रकृति और विज्ञान

 

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

पुस्तक परिचय : समाज, प्रकृति और विज्ञान

2

आओ, बनाएँ पानीदार समाज

3

रसायनों की मारी, खेती हमारी (Chemical farming in India)

4

I. पानी समस्या - हमारे प्रेरक

II. पानी समस्या : समाज की पहल

III. समाज का प्रकृति एजेंडा - वन

5

धरती का बुखार (Global warming in India)

6

अस्तित्व के आधार वन (Forest in India)

लेखक परिचय

1

श्री चण्डी प्रसाद भट्ट

2

श्री राजेन्द्र हरदेनिया

3

श्री कृष्ण गोपाल व्यास

4

डॉ. कपूरमल जैन

5

श्री विजयदत्त श्रीधर

 

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