क्या मानसून की भविष्यवाणी सम्भव है (Is monsoon prediction possible)

20 Jul 2017
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मानसून पहुँचने की सामान्य तारीखें
मानसून पहुँचने की सामान्य तारीखें


आम लोग और वैज्ञानिक दोनों ही प्राय: सोचते हैं कि मानसून (या मौसम) की सही-सही भविष्यवाणी क्यों नहीं हो पाती जबकि हमने तकनीकी प्रगति तो काफी कर ली है। हम सूर्यग्रहण और अंतरिक्ष में हजारों लाखों किमी. दूर घूमते कृत्रिम उपग्रहों की स्थिति की भविष्यवाणी तो इतनी सटीकता से कर लेते हैं। मौसम के बारे में ऐसा क्यों सम्भव नहीं हैं?

पिछले वर्ष की मानसून की भविष्यवाणी में कहा गया था कि यह लगातार 14वां सामान्य मानसून होगा। वास्तव में यह सूखे का वर्ष निकला और कुल मिलाकर पूरे देश में 17 फीसदी कम वर्षा हुई। इस बार थोड़ी सावधानी बरतते हुए मौसम विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की है कि इस वर्ष का मानसून लम्बी अवधि के औसत का 96 फीसदी रहेगा। यहाँ तक कि मानसून के आगमन की तारीख को लेकर भी हीला-हवाला होता रहा। केरल में मानसून के आगमन की तारीख औसतन 1 जून है।

मानसून पहुँचने की सामान्य तारीखें इस बार न मानसून देरी से आया है, बल्कि केरल की बजाय उत्तर-पूर्वी इलाकों में पहले पहुँच गया है। इसका कारण यह बताया जा रहा है कि दक्षिणी-पश्चिमी मानसून की अरब सागर वाली शाखा कमजोर है।

मौसम वैज्ञानिक भारतीय मानसून को दुनिया भर में मौसम संबंधी सबसे बड़ी उथल-पुथल मानते हैं। भारत में ग्रीष्मकालीन मानसून सबसे बड़ी घटना होती है। भारत की अधिकांश खेती वर्षा-पोषित है: मानसून के प्रदर्शन पर ही देश के किसानों व देश की अर्थव्यवस्था का भविष्य निर्भर है। सालाना कृषि उपज का असर बजट पर और टैक्स वगैरह पर पड़ता है। कम्पनियों के माल की बिक्री भी इस पर निर्भर करती है।

लम्बी अवधि में देखें तो भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून काफी स्थिर है। यहाँ तक कि बाढ़ व सूखा भी इसके सामान्य उतार-चढ़ाव के ही हिस्से हैं। किन्तु मानसून के वार्षिक उतार-चढ़ाव का भारी असर कृषि व औद्योगिक उत्पादन पर होता है। इसलिये कम से कम कुछ माह पहले मानसून की भविष्यवाणी करना बहुत महत्व रखता है।

आम लोग और वैज्ञानिक दोनों ही प्राय: सोचते हैं कि मानसून (या मौसम) की सही-सही भविष्यवाणी क्यों नहीं हो पाती जबकि हमने तकनीकी प्रगति तो काफी कर ली है। हम सूर्यग्रहण और अंतरिक्ष में हजारों लाखों किमी. दूर घूमते कृत्रिम उपग्रहों की स्थिति की भविष्यवाणी तो इतनी सटीकता से कर लेते हैं। मौसम के बारे में ऐसा करना सम्भव नहीं हैं क्योंकि वायुमंडल काफी अस्थिर होता है और बादल या मानसूनी कम दबाव जैसी चीजों पर जिन तत्वों का प्रभाव पड़ता है उनमें एक सरल गणितीय सम्बंध नहीं होता। इसके अलावा ये परस्पर क्रियाएँ सैकड़ों-हजारों किमी. की दूरी पर होती हैं।

 

 

हवाओं का खेल


मौसम का उपकरण हमारा वायुमंडल है और इसकी निचली परत (ट्रोपोस्फीयर) मौसम परिवर्तन के लिये जवाबदेह है। जब सूर्य कर्क-रेखा की ओर बढ़ता है (समर सॉलस्टीस) तो एशिया की धरती और हिन्द महासागर के उपर के वायुमंडल अलग-अलग स्तर तक गर्म होते हैं। अब तक उत्तर-पूर्वी हवाएँ बह रही थीं, वे नाटकीय ढंग से दिशा बदलकर दक्षिण-पश्चिमी हवाएँ हो जाती हैं। दक्षिण-पूर्वी हिन्द महासागर (30 डिग्री दक्षिण-50 डिग्री पूर्व) की ओर से बह रही हवाओं के कारण सतही कम दबाव-मानसूनी कम दबाव- का क्षेत्र तेजी से आगे बढ़ता है। यह धारा भूमध्य रेखा को पार करके उत्तरी गोलार्द्ध में प्रवेश करती है और जून-अगस्त में दो शाखाओं में बँट जाती है।

एक शाखा जिसे अरब सागरीय शाखा करते हैं, दक्षिणी अरब सागर को पार करके मध्य पश्चिमी और दक्षिणी तट पर पहुँचती है। दूसरी शाखा बंगाल की खाड़ी पर बहती हुई उत्तर-पूर्वी भारत में पहुँचती है। पश्चिमी घाट और भारत के उत्तर में स्थित तिब्बत का पठार इन नम हवाओं को वायुमंडल की ऊपरी ठंडी परतों में धकेलते हैं। इसके कारण वाष्प संघनित होकर बरसने लगती है। आम तौर पर अरब सागर वाली शाखा भारतीय प्रायद्वीप पर पहले पहुँचती है। मगर इस वर्ष बंगाल की खाड़ी वाली शाखा आगे रही और उत्तर-पूर्वी इलाकों में वर्षा पहले हुई।

 

 

 

 

सामान्य मानसून


सामान्य मानसून का मतलब होता है एक लम्बी अवधि की औसत वर्षा की अपेक्षा 10 फीसदी तक कम या ज्यादा बारिश। पूरे भारत के लिये लम्बी अवधि का औसत 88 सेमी. वर्षा माना गया है। 1900-1981 की अवधि में पूरे भारत में वर्षा की मात्रा इस औसत से 3 प्रतिशत कम से लेकर 30 प्रतिशत अधिक तक रही है। इतनी लम्बी अवधि की बात न करें, तो 2-3 वर्ष की अवधि में भी काफी उतार-चढ़ाव नजर आते हैं- भारी बारिश के साल के बाद कम बारिश का साल आता है। शक्तिशाली मानसून के बाद जाड़ों में यूरेशिया पर लगातार व व्यापक बर्फ की चादर रहने की वजह से एशियाई भूखण्ड अच्छे से तप नहीं पाता जबकि अच्छे मानसूनी प्रवाह के लिये यह जरूरी है।

भारतीय मानसून की सनक उल्लेखनीय है। यदि मानसून देरी से आया अथवा कमजोर रहा , दो बरसातों के बीच लम्बे-लम्बे अंतराल रहे, तो फसल पर प्रतिकूल असर होता है। यह भी देखा गया है कि यदि मौसम के पूर्वार्द्ध में बारिश कमजोर रहे, तो उत्तरार्द्ध में कमजोर रहती है।

 

 

 

 

भविष्यवाणी


1945 तक मौसम की भविष्यवाणी का काम अलग-अलग व्यक्ति करते थे। आजकल तमाम आँकड़ों का विश्लेषण करने के लिये शक्तिशाली कम्प्यूटरों का इस्तेमाल किया जाता है। दिल्ली में नेशनल संटर फॉर ‘मीडियम रेंज वेदर फोरकास्टिंग’ इस काम के लिये सुपर कम्प्यूटर क्रे-एक्स.एम.-24 का उपयोग करता है। वायुमंडल के गणितीय मॉडल तैयार किये गये हैं। इसकी बदौलत मध्यम अवधि (5-10 दिन) की भविष्यवाणियों की गुणवत्ता में बहुत सुधार आया है। भारतीय मौसम विभाग लघु अवधि और दीर्घ अवधि की भविष्यवाणियाँ तैयार करता है। मौसम विभाग की लघु अवधि की भविष्यवाणी 24 घण्टों तक लागू होती है। इसके साथ ही 48 घण्टों के लिये गुणात्मक भविष्यवाणी होती है। इससे किसान को ज्यादा फायदा नहीं है। वह तो यह जानना चाहता है कि उसके इलाके में अगले सप्ताह या महीने में बारिश की क्या स्थिति रहेगी। दूसरी ओर देशव्यापी भविष्यवाणियाँ भी बहुत उपयोगी नहीं हैं। मगर आज तक कोई भी देश ऐसा मॉडल तैयार नहीं कर पाया है जिससे क्षेत्रवार या हफ्तावार भविष्यवाणी की जा सके।

विश्व में सबसे पहली मौसम भविष्यवाणी 14 जून 1886 के दिन एचएफ. ब्लेनफर्ड ने जारी की थी। इसके लिये उन्होंने भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून और हिमालय पर बर्फ के आवरण के बीच विलोम सम्बंध का सहारा लिया था। आगे चलकर यह पता चला कि मानसून पर कहीं अधिक असर ‘एल नीनो-दक्षिणी दोलन’ का होता है। एल नीनों का सम्बंध इस बात से है कि भूमध्य रेखा पर प्रशान्त महासागर की सतह का तापमान असामान्य रूप से बढ़ जाए। दक्षिणी दोलन मतलब कटिबंधीय प्रशान्त महासागर के पूर्वी व पश्चिमी भाग में समुद्र तल पर हवा के दबाव में लगातार सी-सॉ की स्थिति। इसी से सम्बंधित एक और घटना जिसे ला-नीना कहते हैं- इसका अर्थ है प्रशान्त महासागर के पानी का एकाएक ठण्डा हो जाना। एल नीनो-दक्षिणी दोलन हर 2-10 वर्षों में गर्म पानी को पश्चिमी प्रशान्त महासागर से पूर्व की ओर बहने को प्रेरित करता है। इसकी वजह से दुनिया भर में बाढ़ और सूखे की स्थितियाँ निर्मित होती हैं।

1960-1988 को दौरान देखा गया था कि एल नीनो-दक्षिणी दोलन का गहरा संबंध भारतीय मानसून है। मगर कोलरैडो विश्वविद्यालय के डॉ. पीटर बेब्सटर के मुताबिक अब तक यह सम्बंध कमजोर पड़ गया है। बेब्सटर के मुताबिक ‘हमारे अनुसंधान से संकेत मिलता है कि हिन्द महासागर में अपनी ही एक एल-नीनो नुमा घटना होती है। इसमें गर्म पानी का पूर्व-पश्चिम दोलन होता है और इसका असर दुनिया के अन्य भागों पर भी पड़ता है।’ एल नीनो-दक्षिणी दोलन के साथ भारतीय मानसून की कड़ी के कमजोर पड़ जाने की वजह से भी शायद वर्ष 2002 की मौसम विभाग की भविष्यवाणी गड़बड़ा गई थी। एक कारण यह भी हो सकता है कि मौसम विभाग ने अपनी भविष्यवाणी 25 मई को जारी कर दी थी। इसके बाद वायुमंडल में होने वाले परिवर्तनों का ख्याल नहीं रखा जा सका था।

अन्य तरीकों से अलग, मौसम विभाग का मॉडल मात्रात्मक भविष्यवाणी करता है। 1988-2001 के दरम्यान 14 वर्षों में भविष्यवाणी त्रुटि की सीमा में सही रही है। डॉ. बसंत गोवारीकर का कहना है कि कोई और मॉडल वास्तविकता के इतना करीब नहीं रहा है। इस मॉडल ने करीब 44 सालों तक ठीक-ठाक काम किया है। करन्ट साइन्स पत्रिका के अपने एक लेख में डॉ. गोवारीकर ने बताया कि आजकल कनाडा भी इसी मॉडल का उपयोग कर रहा है।

मौसम विभाग ने हाल ही में 8 मापदण्डों पर आधारित एक मॉडल तैयार किया है। इसके आधार पर विभाग ने भविष्यवाणी की है इस वर्ष मानसून औसत से 96 फीसदी होगा। इनमें 5 फीसदी कम ज्यादा की त्रुटि हो सकती है। इस वर्ष से भविष्यवाणी 16 अप्रैल से जारी की जाएगी। इसके बाद जुलाई में एक अपडेट जारी होगा और तीन बड़े क्षेत्रों के लिये अलग-अलग भविष्यवाणियाँ होंगी।

 

 

 

 

 

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