मेरी टीरी


(70 के दशक में टिहरी में जिस नौजवान पीढ़ी की धूम थी और जिन्हें शहर का हर छोटा-बड़ा व्यक्ति बखूबी जानता-पहचानता था, उनमें से एक हैं राकेश थपलियाल। लब्ध-प्रतिष्ठित शिक्षक आदरणीय राम प्रसाद थपलियाल जी के ज्येष्ठ पुत्र राकेश काफी लम्बे समय से महाराष्ट्र में हिन्दुस्तान इन्सैक्टिसाइट में हिन्दी अधिकारी के पद पर तैनात हैं प्रस्तुत आलेख उनका संस्मरण है, जिसमें उस दौर की टिहरी, वहाँ की आबो-हवा, संस्कृृति और जन-जीवन की झाँकी दिखाई पड़ती है।)

कुछ लोग नई टिहरी की ठंड व उतराई-चढ़ाई से घबराकर देहरादून रहने चले गए। टिहरी शहर व्यापार का एक ऐसा सुविधाजनक केन्द्र था जहाँ चम्बा, लम्बगाँव, छाम, प्रतापनगर, घोंटी, घणसाली, पौखाल, जाखणीधार, क्यारी चारों तरफ के लोग सामान लेने आते थे। बाँध से इनके लिये ये सुविधा समाप्त हो गई। दूरियाँ बढ़ गई, इसका अहसास अब नई टिहरी के दुकानदारों को भी होता है। टीएचडीसी टिहरी वालों के लिये वैसे ही काल बनकर आई जैसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने हिन्दुस्तान को फूट डालो और राज करो की नीति से गुलाम बना लिया था।

बचपन में हम एक खेल खेलते थे। कई बच्चे एक गोला बनाकर खड़े हो जाते थे। एक बच्चा बीच में खड़ा होता था और फिर उससे कोरस में गाकर पूछा जाता था ‘हरा समंदर, गोपी-चन्दन, बोल मेरी मछली कितना पानी?’ अब हम इस बालगीत में मछली शब्द की जगह टिहरी शब्द कर देते हैं और कल्पना करते हैं कि इसी टिहरी का कोई बाशिंदा, बाँध को देखने आया है कि झील में कितना पानी भरा है? तो उस विशाल झील को देखकर और उसके अंदर समाये अपने शहर को देखकर, उसके मन में भी यह सवाल जरूर उठता होगा कि, कैसे डूबा अपना शहर। शहर जिसमें बिताए गए थे कितने ही हसीन पल, जिससे जुड़ी थी अनेक खट्टी-मीठी यादें। कितने सालों तक संघर्ष किया था इसके चाहने वालों ने इसे बचाने के लिये। कोर्ट, कचहरी, रिट, आयोग, धरना-प्रदर्शन, समितियाँ किसी को भी नहीं छोड़ा था दूसरी तरफ सरकारी अमला था जो उसे जल्दी डुबोने में जुटा था। अंत में सरकार ने भी पल्ला झाड़ते हुए साफ-साफ कह दिया कि अब इसका बचना मुश्किल है। हाँ, मुआवजा वगैरह कुछ दे-दिला देते हैं एक्सीडेंट क्लेम की तरह। जिन लोगों ने खाली रोजी-रोटी के लिये टिहरी का आसरा लिया था उनकी बात छोड़ो पर जिनके बाप, दादा-परदादा की कब्र उस शहर में खुदी थी या अस्थियाँ गंगा-भिलंगना के संगम को विसर्जित हुई थी, उन्हें आज भी टिहरी डूबने का गम है, मातम है।

बाहरी दुनिया के लिये भले ही इस कब्बे का अस्तित्व रोम या ग्रीस जैसा न रहा हो पर इसके बाशिन्दों के लिये यह शहर किसी तिलिस्म से कम नहीं था। अपने-अपने समय की टिहरी पर सभी को नाज था। हमारे, पिता, चाचा-ताऊ की पीढ़ी के लोग सुनाते थे किस्से राजशाही जमाने के, ड्रामा क्लब के, राजाओं के दशहरे के, सुमन और नागेन्द्र सकलानी व मोलू की शहादत के, आजादी की लड़ाई प्रजामण्डल के। उनकी कहानियों के पात्र होते थे खुरचन-मियाँ, महेन्द्र हलवाई, प्रिंसिपल भगवंत राय, स्वामी रामतीर्थ, अठूर की बेडवार्त, कंडल का नौरता। हमारे बचपन तक न शहर में बिजली थी और न पक्की सड़कें। शहर के कुछ मोहल्लों में लैम्प पोस्ट थे, जहाँ काँच के लैम्प जलाकर रखे जाते थे। घंटाघर के पास जहाँ बाद में नगरपालिका थी, वहाँ एक पावर हाऊस नुमा कुछ था और महल के नीचे एक पुल था जिसे बिजली का पुल पता नहीं क्यों कहते थे। शहर में रात को बाघ भी नाईट-वाक करने आते थे और वापसी में दो-चार कुत्तों को साथ लेकर चले जाते थे। कभी कोई अध-खाई गाय भी उनके आने की गवाही देती थी।

झील के सीने से बीच में सर उठाकर जो घंटाघर कभी-कभी झाँकता था, उसका हमारे लिये उतना ही महत्व था, जितना पेरिस के लोगों के लिये एफिल-टावर का है। इसका वास्तुशिल्प तो अद्भुत था ही पर इसकी घड़ियों की आवाज शहरवालों को वक्त गुजरने का मधुर अहसास कराती थी। नीचे एक लोहे के स्टैंड पर एक बड़े तवे की तरह एक मोटी तश्तरी थी, जिसे धूप घड़ी कहते थे। उसके बीच में एक छेद था, जिसमें हम पेंसिल या लकड़ी फँसाकर समय जानने की कोशिश करते थे पर समझना मुश्किल था। घंटाघर की आवाज जहाँ नहीं पहुँचती थी, वहाँ पहुँचती थी पी.आई.सी. (प्रताप इंटर कॉलेज) की घंटी की आवाज। लोक कहते थे कि इसकी आवाज मदन नेगी और अठूर तक भी सुनाई देती थी। प्रताप इंटर कॉलेज उस शहर का ही नहीं बल्कि पूरे जिले का ऑक्सफोर्ड या कैंब्रिज था। अपने यहाँ के न्यूटन-आइंस्टीन हुए हों या फिर अरस्तु या सुकरात सभी इसकी पैदाइश थे। छोटे बच्चों के लिये एक आदर्श-विद्यालय था जो मॉडल स्कूल के नाम से अधिक जाना जाता था। उसका एक बड़ा भाई भी था नार्मल स्कूल। पता नहीं यह नार्मल-एबनार्मल का क्या रहस्य था? पर वहाँ के छात्रों को बी.टी.सी. वाले कहा जाता था, जो आगे चलकर शिक्षक बनते थे और पाँचवीं-आठवीं तक की शिक्षा देने की जिम्मेदारी निभाते थे। शहर में एक आई.टी.आई. और एक स्वामी रामतीर्थ विद्या मन्दिर नाम का आठवीं तक का स्कूल भी था। वह बदरीनाथ मंदिर के परिसर में था और उसी बदरीनाथ मंदिर में एक संस्कृत पाठशाला भी थी जो कालांतर में भवन जर्जर होने के कारण सेमल-तप्पड़ में स्थानान्तरित हो गयी थी। उसका नाम पहले शायद हैबर-संस्कृत पाठशाला था। पता नहीं अंग्रेजी और संस्कृत के इस मेल का इतिहास क्या था? बदरीनाथ मन्दिर से सटा एक केदारनाथ मन्दिर भी था। मन्दिरों के नीचे माँ गंगा कल-कल करके बहती थी और बदरीनाथ मन्दिर में संगमरमर की सुन्दर-सी मूर्ति थी।

टिहरी के राजाओं की गद्दी बदरीनाथ की गद्दी मानी जाती थी। वे राजा ही कभी पूरे गढ़वाल के राजा हुआ करते थे। राजा को बोलता हुआ अर्थात जीवित बदरीनाथ माना जाता था। पुराने समय में तीर्थयात्री यात्रा पूरी करने पर टिहरी आकर उनके भी दर्शन करते थे। इसीलिए टिहरी में उनके अराध्य बदरीनाथ और केदारनाथ मंदिरों की स्थापना हुई थी। महिलाओं की शिक्षा के लिये नैपालिया (नेपाल की रानी के नाम पर) गर्ल्स स्कूल और राजमाता जी का महिला डिग्री कॉलेज था। इसका नाम उनके पति के नाम पर, नरेन्द्र महिला विद्यालय था। उसके साथ ही अंध-विद्यालय और बेसहारा औरतों के रहने का भी ठिकाना था। उस समय (सन 60-65 में) उसके डिजाइन के टक्कर का भवन दूर-दूर तक नहीं था। राजमाता जी हमारी पीढ़ी के युवाओं से खुश नहीं रहती थी। छात्र भी उन्हें नाराज करने का कोई मौका खोना नहीं चाहते थे। इसे एंग्री यंग मैन का रोष कहा जाए या ना-समझी, पता नहीं। तब को-एजुकेशन का जमाना नहीं था। महिला-शिक्षण के क्षेत्र में नरेन्द्र महिला विद्यालय के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। शहर में वैसे एक नर्सरी स्कूल भी संगम-रोड पर था। वन मैन शो वाली भी दो-तीन छोटी पाठशालाएँ थीं। एक हमारे मोहल्ले का गबंडर (गवर्नर का अपभ्रंश) श्रीराम बडोनी का स्कूल था। पर लोग उन्हें गवर्नर साहब ही कहते थे। बरगद के पेड़ के पास जमुना मास्टर जी का स्कूल था। आजाद मैदान के पास ही कीड़ी बहन जी का स्कूल था। वहीं पुलिस थाना और सुमन पार्क था। मैदान को कोतवाली-तप्पड़ भी कहते थे। वहाँ पंचमुखी हनुमान मन्दिर, गर्ल्स स्कूल, बजरंगबली एवं श्रीराम का रघुनाथ मन्दिर भी था।

आजाद मैदान शहर का सांस्कृतिक केन्द्र भी था। पहले लोग बी.ए. करने देहरादून, मेरठ, इलाहाबाद, बनारस जाते थे। लड़कों का डिग्री कॉलेज तब खुला जब हमारी पीढ़ी के लोगों ने आन्दोलन किया। विश्वविद्यालय की स्थापना के लिये स्वामी मनमथन की अगुवाई में संघर्ष किया गया था। टिहरी में जगदम्बा रतूड़ी के नेतृत्व में लड़ी थी। हमने वह लड़ाई जो गढ़वाल के कई शहरों में लड़ी गई। हमारे प्रिंसिपल कपिल साहब हमें मार-मार कर समझाते थे कि पहले बाहरवीं पास तो हो जाओ, फिर करो आन्दोलन कपिल साहब ने बहुत कोशिश की कि हमारी पीढ़ी के गधों को मार-मार कर घोड़ा बनाया जाए। उनको देखकर ही सब काँपते थे।

बिना किसी मास्टर-प्लान के बसे टीरी शहर की एक बड़ी खासियत थी, उसकी लिंक रोड या बाई पास। कहीं से चलो और मिनटों में कहीं भी पहुँच जाओ। घंटाघर से बस स्टैंड जाना हो या सुमन चौक या बीच बाजार या पोस्ट ऑफिस। बस, मैगी नूडल्स की तरह दो मिनट। ऐसे ही पुराने दरबार से बद्रीनाथ, काली मन्दिर, गर्ल्स स्कूल या कॉपरेटिव बैंक, पुराना डाकघर अथवा बस स्टैंड भी अलग-अलग रास्तों से दो मिनट में पहुँचा जा सकता था। यही हाल बाजार के अन्य मोहल्लों का भी था। पहाड़ में ऐसा शॉर्टकट मैंने और कहीं नहीं देखा।

शहर का मौसम भी न गर्मियों में अधिक गर्म न सर्दियों में अधिक ठण्डा। पानी के लिये दो नदियाँ गंगा-भिलंगना और एक पहाड़ी प्राकृतिक जल का स्रोत तीन धारा था, जिसका पानी कई लोग पेट के लिये अच्छा मानते थे व पीते थे। नदियों व नलों के पानी में मिठास के साथ रेत भी होती थी। नलों का पानी पहले शहर से काफी दूर भैंतौगी नाम के गाँव की नहर से मीलों दूर से आता था। बाद में शहर में ही भिलंगना नदी का पानी पम्प होकर मोतीबाग में बने टैंक से सप्लाई होता था। जब कभी नल पानी देने से मना कर देते तो पूरा शहर पिकनिक के मूड में नदियों की तरफ बंठे-बाल्टी लेकर निकल पड़ता था, नलों को कोसते हुए।

टिहरी शहर तीन तरफ से नदियों से घिरा था। शहर के अधिकतर लोग भिलंगना नदी से जुड़े थे। गंगा नहाने और धार्मिक आस्था की वजह से ही लोग यहाँ जाया करते थे। नहाने की दृष्टि से भिलंगना और उसके दो घाट आछरी घाट और घट्टो-घाट बहुत विख्यात थे। अधिकांश लोग इन्हीं दो स्थानों पर तैरना सीखे थे स्वीमिंग-पूल की तरह। आछरी घाट में कहते थे, कभी परियाँ नहाती थीं। उनका पहाड़ी नाम ही आछरी है और घट्टो-घाट में घराट उर्फ पनचक्की होने की वजह से यह नाम पड़ा था। भिलंगना के बारे में मशहूर था कि वह बलि लेती है क्योंकि साल में एक दो ऐसी घटनाएँ होती रहती थीं। इसी घाट के बाजू में था एक रेत का बड़ा टीला, जिसके ऊपर था एक कब्रिस्तान। लड़कों का नहाना, धूप में रेत में लेटना और नदी के किनारे से टीले के ऊपर तक दौड़ना और नीचे स्कीइंग की तरह फिसलकर, दौड़कर या गिरते-पड़ते आना। यह एक अच्छा-खासा खेल था।

मेरे मोहल्ले को अहलकारी मोहल्ला कहा जाता था। कभी वहाँ राजा के अहलकार रहते थे। वजीर साहब रतूड़ी जी का घर पास में था। दीवान पैन्यूली साहब की कोठी वहीं थी। घराट वाले रास्ते के कारण हम अपनी गली का पता वॉटर मिल रोड ही लिखते थे। तब किसे पता था कि पूरा शहर ही एक दिन वॉटर में मिलने वाला है और टिहरी वालों को एक उपनाम विस्थापित भी मिलने वाला है। हमारे मोहल्ले के एक तरफ पूर्वीयाना मोहल्ला था, तो दूसरी तरफ सेमल-तप्पड़ और तीसरी तरफ मुस्लिम मोहल्ला था। पूर्वीयाना शब्द पूरब का अपभ्रंश नहीं बल्कि सहोदर था। कुमाऊँ से आये जोशी, पंत, पांडे लोग यहाँ रहते थे। तब कुमाऊँ ही हमारा पूरब था और हिमाचल से आए कुछ लोगों को पश्चिमी उर्फ पछमी के नाम से जानते थे और उनका मोहल्ला भी इसी नाम से जाना जाता था। वे लोग होटल व्यवसाय व मछलियों के आखेट से जुड़े थे। ऐसे ही काली मन्दिर का नाम दक्खिनी काली था। उस शहर में सभी दिशाएँ थीं। हमारा पूरब और पश्चिम कितना सीमित था। मजेदार बात यह थी कि उस शहर में अमेरिकन, जर्मन, बंबइया जैसे नामों व उपनामों वाले लोग भी थे। बाद में बाँध निर्माण के काम में जब गोरखपुर-बिहार के लोग आने लगे तब उन्हें भी पुरबिया उपनाम लोकभाषा में दे दिया गया। सेमल-तप्पड़ में एक पशु अस्पताल और बाद में एक पिक्चर हॉल भी बना। अपना ठीया तो लक्ष्मी टॉकिज ही होता था। उसके आखिरी मालिक जगदीश भाई शहर में बाटावाला के नाम से जाने जाते थे। उनका सरनेम जैसा हो गया था वह शब्द, उनकी जूतों की दुकान के ब्रांड के कारण। मुस्लिम मोहल्ले का लैंड मार्क थी उनकी मस्जिद। उनके कई परिवार बन्दूक और आतिशबाजी के व्यवसाय से जुड़े थे। सुहागिनों की चूड़ियाँ भी उनकी दुकान से आती थी। कुछ की राशन की भी दुकानें थीं और गर्मियों में आम के बगीचे लेना, शहरवालों को पकड़-पकड़कर आम खिलाना व तम्बू तानकर सोना उनका शौक था। शादियाँ और दीवाली उनके बिना फीकी रह जाती थी क्योंकि वह पटोखों के व्यापारी और आतिशबाजी के माहिर होते थे। पीढ़ी दर पीढ़ी वे उस शहर की संस्कृति में रच-बस गए थे। शिव मन्दिर के बाजू-बाजू बसा और बाजार के पास का मोहल्ला था सत्येश्वर मोहल्ला। मन्दिर का नाम सत्येश्वर महादेव था। मन्दिर के थोड़ा नीचे एक बड़ के पेड़ के नीचे काल भैरव का छोटा-सा मन्दिर था। बाद में बरगद टूटा तो उसकी जगह पीपल ने ले ली पर स्थानीय लोग उस जगह को बड़-डाला ही कहते थे। वह पेड़ घास, लकड़ी बेचने वालों का भी आश्रयदाता था। बाद में उस चौराहे का नाम अमर शहीद श्रीदेव सुमन के नाम पर सुमन चौक पड़ा।

राजशाही के विरोधी और स्वतन्त्रता सेनानी सुमन टिहरी के गाँधी थे। वे अफ्रीका के नेल्सन मंडेला की तरह के लीडर थे। उन्होंने 84 दिन की भूख-हड़ताल की थी। गाँधी, नेहरू, सुभाष जो लड़ाई अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे, वही लड़ाई सुमन टिहरी रियासत के खिलाफ लड़ रहे थे। यदि वे कांग्रेस की राजनीति में गए होते तो शायद प्रधानमन्त्री भी हो सकते थे। कैबिनेट मन्त्री या मुख्यमन्त्री पद तो निश्चित थी। उनके नाम का सुमन चौक किताबों की दुकानों, सोना-चाँदी के कारोबार का प्रमुख केन्द्र होता था। तीसरी पीढ़ी के विनय के जमाने में भी लोग, उनके दादा फतेहचंद जी की दुकान ढूँढते देखे जाते थे। वे खानदानी रईस लाला लोग थे। उनकी दुकान की नथें पौड़ी, श्रीनगर, देहरादून, ऋषिकेश तक प्रसिद्ध थी। टिहरी की नथों की एक अलग ही पहचान थी जो आज भी कायम है। वहीं सुमन चौक में एक मासूम प्राणी की दवाओं की दुकान थी। वो अपने को गरीब उपनाम से नवाजा करते थे पर मालदार घर के थे। उनके भाई लेखक, पत्रकार, विवाह कराने वाले वकील थे। हमारे जैसे लोगों के लिये गरीब की दुकान शहर के बाशिन्दों का इतिहास, भूगोल जानने, व्यंग सुनने या वाक कला सीखने का केन्द्र थी। उनको धंधे की नहीं लोगों की चिन्ता रहती थी। वो व्यवसाय कम होने की वजह से उस एरिया को सूना-चौक पुकारते थे। पेन्यूली बन्धु अपनी किताबों से अधिक पत्रकारिता, सम्पर्कों, राजनैतिक सरोकारों के लिये और बाद में स्वामी रामतीर्थ प्रेम के लिये जाने जाते थे। उसी सुमनचौक में थी लाला जुगमंदर दास जी की दुकान, जो बुद्धिजीवियों और बड़ी हस्तियों के बैठने का अड्डा थी। मेरे पिता भी उनके दोस्त थे जबकि लाला जी का बड़ा लड़का उनसे दो-चार साल बड़ा था। घड़ी, कपड़े, चाय, सीमेंट, रेडियो, दवा ऐसी कोई एजेंसी नहीं था जो उनके पास न हो पर उन्होंने कभी व्यापार के लिहाज से बिजनेस नहीं किया।

टिहरी की नथों की तरह वहाँ की सिंगोरियाँ भी दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी। मैदान के लोग उसे पत्ते वाली मिठाई भी कहते थे। एक जमाने में नेगी जी की दुकान की मिठाइयाँ बड़ी प्रसिद्ध थी। उनकी सिंगोरी की क्वालिटी का तो कोई जवाब ही नहीं था। ऐसे ही परचून में मनोहर लाल भगतराम की दुकान का नाम था और कपड़ों में उत्तम चन्द एण्ड सन्स, कस्तूरी तथा दवाइयों की दुकान में कृष्ण कुमार को ख्याति प्राप्त थी। बस अड्डे वाले राणा होटल के मीट का तो कोई मुकाबला ही नहीं था तो कासिम की चूड़ियाँ नयी पीढ़ी की पहली पसन्द थी।

उन दिनों नया साल (न्यू ईयर) तथा वैलेंटाइन-डे का प्रचलन बिल्कुल नहीं था और न ही शहर में दूरदर्शन और केबल नेटवर्क ही था। शहर के माहौल को धार्मिक और खुशनुमा बनाये रखने के लिये रामलीला, कृष्णलीला और नुमाइशें आयोजित की जाती थीं। रामलीला व कृष्ण लीला करने-कराने का जिम्मा पुरब्याणा मोहल्ले का होता था। आज भी लोग योगी भाई द्वारा निभाई गई राम की भूमिका और श्यामू पछमी के अर्जुन को भूले नहीं हैं। कृष्ण के रोल में बच्चू पाण्डे की भूमिका प्रभावपूर्ण होती थी। एक स्थानीय कलाकार थे माननीय देवी प्रसाद नौटियाल (छौन्दाड़ी, माफ करें उपनाम देना जरूरी था) उन्हें शाहरुख, आमिर या सलमान किसी का भी रोल दे दो वह बखूबी निभा लेते थे। लोग कितना भी चीखें-चिल्लायें पर उनका उत्साह भंग नहीं होता था। टिहरी की रामलीला व कृष्णलीला का अपना साहित्य था, काश वो प्रकाशित हो पाता। महाभारत का आयोजन शायद ही पूरे उत्तर प्रदेश में कहीं उस समय होता होगा। हिन्दी में डायलॉग और गानों में चौपाइयाँ इसकी विशेषता थी। इन आयोजनों से जुड़ा एक नाम था गुजराती मिस्त्री। वैसे नाम बहुत हैं जैसे आजाद, अवध बिहारी पर याद रहने के बाद भी सभी का जिक्र सम्भव नहीं है।

पूरी गर्मियों की छुट्टियों में मुफ्त का टाइम-पास होता था पर जिनके बागों में आम, अमरूद और गन्ने लगे होते थे वह छोकरों को जी-भर के गाली देते थे। नुमाइश दिसम्बर-जनवरी में होती थी और उसका वास्तविक नाम विकास प्रदर्शनी होता था। यह अक्सर राजमाता कॉलेज के बाहर पोलो मैदान में आयोजित होती थी जिसे कोलू फील्ड ही पुकारते थे। उस मैदान के ऊपर ही कोर्ट-कचहरी का परिसर था वह नीचे की तरफ सुमन पुस्तकालय व अस्पताल थे। नुमाइश देखने लोग दूर-दूर से आते थे। जैसे मेरठ की नौचन्दी वैसे टिहरी की नुमाइश। इसमें विभिन्न विकास प्रदर्शनियाँ और चाट, गोलगप्पों सहित सब्जी, फलों तथा ऊनी वस्त्रों की दुकानें सजी होती थी। गाँव वालों के चर्खी (ज्वाइंट व्हील), युवाओं के लिये रिंग फेंकने की दुकानें व शहर वालों के लिये स्वेटर, मफलर, टोपी, चादरों की खरीद इसका प्रमुख आकर्षण होती थी। रात को विभिन्न क्षेत्रों के सांस्कृतिक दल अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। वे बेचारे अपनी संस्कृति व परम्परा का दर्शन कराना चाहते थे पर स्थानीय लोग खासकर युवा उससे बोर हो जाते थे। जागर, मण्डाण, छोलिया नृत्य, घुण्ड्या रास और पता नहीं क्या-क्या कला आविष्कार वहाँ आयोजित किये जाते थे? किसी होटल में खा-पीकर खिसक जाना भी एक कला होती थी।

नुमाइश के साथ करियप्पा फुटबाल का जिक्र न हो तो सब कुछ अधूरा है। यही वर्ल्ड कप और यूरो-कप होता था। एक जमाने में प्रताप कॉलेज की टीम ही सर्वश्रेष्ठ होती थी। रोनाल्डो, रिवाल्डो, मैराडोना या बैहकम जैसे ही चर्चे स्थानीय खिलाड़ियों के होते थे। गोवर्धन, खेमराज, पन्नी (माल देवल), जन्नी भाई, भोला, कम्मू मामू जैसे अनेक नाम थे जिनका रुतबा स्टारडम की तरह ही था। लड़कों के साथ अध्यापक भी मिलकर खेलते थे जैसे पुरी जी, जोशी जी आदि। जब हमारे पीआईसी का मैच होता था तो लड़कों को चिल्लाने की जिम्मेदारी देकर टीम का मनोबल बढ़ाने को कहा जाता था। मैच हमारे कॉलेज के फील्ड में ही होते थे। मैदान के बगल में ही कुख्यात जेल भी थी जहाँ सुमन ने आखिरी साँसें ली थी। टिहरी के भवानी भाई के फुटबाल के जुनून ने उस टूर्नामेंट को प्रतिस्पर्द्धा के कारण इतनी ऊँचाइयों पर पहुँचाया कि उसमें राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी भी खेले। उनकी एक टीम थी ‘टिहरी यंग’। यह रियल मैड्रिड या बार्सीलोना की तरह विख्यात थी। इसको हराने के लिये कलिंगा ब्वाइज, ठेकेदार संघ व रैका धारमण्डल जैसी टीमों के महँगे और उत्कृष्ट खिलाड़ियों का खेल देखने को मिलता था। आई.टी.बी.पी. और पी.ए.सी. (पुलिस) की टीमें भी उस टूर्नामेंट में खेलती थीं। भवानी भाई टीम के मैनेजर-कम मालिक-कम कोच सभी कुछ होते थे। उन्होंने खुद तो कभी फुटबाल नहीं खेला पर सस्ते में या फोकट में खिलाड़ी लाने में वह माहिर थे। बस का किराया, खाना-पीना और अधिक से अधिक वापसी में एक मिठाई का डिब्बा बतौर मैच फीस होता था। वह खिलाड़ियों के घर धरना देकर बैठ जाते थे कि टिहरी चलना है तो चलना है। अधिकांश खिलाड़ी देहरादून के होते थे। रैका धारमण्डल के खिलाड़ी मसूरी से आते थे। शहर के पड़ोसी अठूर क्षेत्र की टीम की उपस्थिति भी महत्त्वपूर्ण होती थी। जब भी उनका मैच होता था तो झगड़े की आशंका बनी रहती थी। मैच के दौरान हमारा और उनका रिश्ता भारत और पाकिस्तान जैसा हो जाता था। उनमें काफी एकता थी और उनके समर्थक लड़ने-भिड़ने में भी माहिर थे।

अठूर की रामलीला भी काफी प्रसिद्ध थी। वहाँ बेल्लों (भैंसों) की लड़ाई भी होती थी। तब सारा शहर वहाँ उमड़ पड़ता था। पेट्रोल पम्प से लेकर पडियार गाँव तक सीधी-सपाट सड़क व समतल खेत थे। स्थानीय बस ड्राइवर वहाँ गाड़ी दौड़ाने का लुत्फ उठाते थे वरना पहाड़ में सीधी-सड़क एक सपना है। हर दस कदम पर मोड़ व उतार-चढ़ाई, यही पहाड़ की नियति है। लोक-संस्कृति में मोटर-ड्राइवरों को भी नायकों का सम्मान प्राप्त था। आम ग्रामीण की तुलना में उनकी आमदनी व खाने-पीने का खर्चा शहर वालों के संभ्रान्त लोगों से काफी अधिक होता था। वैसा ही उनका गाँवों में मान भी था। फौजी, ड्राइवर और टीचर तीन ही गाँवों के सम्मानित पेशे थे। किसानी में तो आय न के बराबर थी।

शहर में शिवरात्रि व जन्माष्टमी के व्रतों की धूम होती थी। शिव मन्दिर में ही इनका आयोजन होता था, पूरी रात भजन-कीर्तन होता था। घरों में पकवान बनाए जाते थे और व्रत त्यौहार की तरह मनाए जाते थे। हमें कीर्तन के नाम से घर से निकलने का परमिट मिल जाता था और फिर ऐसी धमा-चौकड़ी मचती थी कि अगले दिन पूरा शहर छोकरों को गाली देता था। स्कूली-छात्रों की डिस्ट्रिक्ट या रीजनल रैली हमारे लिये किसी एशियाई-खेल और ओलम्पिक से कम नहीं होती थी। दिन में मैदानी खेल और रात में सांस्कृतिक आयोजन। कवि-दरबार और ड्रामा लोगों को बरसों भुलाए नहीं भूलते थे। अनुशासन की व्यवस्था एन.सी.सी. के छात्रों की होती थी। मल्ल साहब और पडियार जी किसी फौज के कर्नल की तरह लगते थे। छब्बीस जनवरी और पन्द्रह अगस्त की परेड के दिन अंडर-ऑफिसर ही पूरी परेड को कमांड करता था और उस दिन का महानायक होता था। पुलिस और एन.सी.सी. में से कौन आगे रहेगा, यह हमेशा होड़ का विषय होता था। दिल्ली की छब्बीस जनवरी की तरह की परेड होती थी। साथ में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी।

अपने एक सीनियर का जिक्र मैं अवश्य करना चाहूँगा। वह नाम था गोवर्धन भाई। फुटबॉल का अच्छा खिलाड़ी। एन.सी.सी. का अंडर ऑफिसर और दादागिरी में सबसे अव्वल। अच्छा तैराक व फैशनेबल, बस पढ़ने में थोड़ा कमजोर पर जीवन में काफी कामयाब (एस.पी.) रहा। ऐसा करेक्टर मिलना मुश्किल है। हमारे जमाने में दसवी-बाहरवीं तक के छात्र आराम से गुल्ली-डंडा खेलना, सिगरेट की डिब्बी के ताश खेलना, टायर चलाना, गोलियाँ (कंचे) खेलना, गेंदताड़ी (गेंद से मारना) बिन्दास खेलते थे। बड़े लोग क्रिकेट व टेनिस भी खेलते थे। हम मोहल्ले-मोहल्ले की टीमों का बैट-मैच खेलते थे। खिलाड़ी आपस में दो-चार-चार आने जमा करते थे व हारने वाली टीम जीतने वाली को पैसे देती थी और फिर उस दुगुनी रकम से पूरी टीम मजा उड़ाती थी। दूध-जलेबी या चाय-पकौड़ी। तब की हमारी बैट और आज की क्रिकेट की बैटिंग में जमीन-आसमान का फर्क है। आज की पीढ़ी हमारे खेलों का नाम सुनकर हमें बेशक बैड-ब्वाय का दर्जा देती हो तो दे पर इन खेलों का मजा और लुत्फ ही कुछ और था।

बाजार से छोटा-मोटा सामान लाने का काम बच्चे ही करते थे। घर में मेहमान बैठे हैं, माँ ने बिस्कुट या नमकीन लाने भेजा, हम मदारी या जादूगर का खेल देखने में मस्त हो जाते थे। बाद में पहले तो मार, नहीं तो डाँट पड़नी ही पड़नी थी। एसे ही रात को किसी बारात में बैंड की धुन सुनते और नाच देखते-देखते कब रात हो जाती पता ही नहीं चलता था। फिर अंधेरे का डर, बाघ का डर, भूत का डर, मार का डर, पिचाश का डर सभी किस्से कहानियों के डर जिन्दा हो जाते थे। अंधेरी गलियाँ और वीरान बाड़े हमारे मोहल्ले की खासियत थे। कई बार शहर में तेलियों के आने की अफवाह भी फैलती थी। कहते थे वो बच्चों का तेल निकालते हैं। उल्टा लटकाकर सर में कील ठोंकते हैं व नीचे से आग जलाते हैं। सरकार ने उनको लाइसेंस दे रखा है। ऐसी ही अफवाह थी कि डाम की सुरंग में बच्चे की बलि दी जाएगी। शाम को चार-पाँच बजे से ही सब बच्चे घरों में बंद, माँ-बाप के कहने से भी खेलने नहीं जाते थे।

हमारे जमाने में पाँचवीं-सातवीं में भी दाड़ी मूँछ वाले लड़के पढ़ते थे। कुछ-कुछ शादीशुदा भी थे। कई लोग दसवीं की परीक्षा दस बार देते थे। एक कहावत थी कि युधिष्ठर भी यू.पी. बोर्ड में फेल हो गए थे। साठ-बासठ पर्सेन्ट बहुत होता था। आम आदमी सेकेंड डिवीजन में ही बहुत खुश था और पास होना भी गनीमत थी। डॉक्टर, इंजीनियर बनने का सपना सभी देखते थे। पर न साधन थे न इनकम। बस नौकरी एक मिल जाए। न तब अस्सी-नब्बे पर्सेन्ट नम्बर आते थे न कैरियर जैसा कांसेप्ट था, जो मिला उसी में समाधान। पूरे शहर में चार-पाँच ओवरसियर (जे.ई.) और दो-चार इंजीनियर होते थे। बाद में डाम की कृपा से यह संख्या सैकड़ों-हजारों में पहुँची। लोग बाँध से अधिक डाम शब्द का प्रयोग करते थे। जैसे-जैसे इसका काम आगे बढ़ता गया, जनसंख्या, दुकानें, भीड़, दुर्घटना, गाड़ियाँ सब बढ़ने लगी।

आजादी के बाद कुछ पंजाबी- सिख परिवार भी टिहरी आए। उन्होंने परचून व कपड़े के व्यवसाय में हाथ आजमाया, पैसा कमाया, गुरुद्वारा और गीता भवन बनाया व शहर के व्यापार पर धीरे-धीरे कब्जा जमाया। उनमें सरदार इन्दर सिंह का बड़ा नाम था। पंजाबी, फ्रंटियर के नाम से भी पुकारे जाते थे, क्योंकि वे पाकिस्तान-अफगानिस्तान के बॉर्डर से और इसी नाम के प्रदेश से ही आए थे। साग-सब्जी के कारोबार में इसी तरह नजीबाबाद-बिजनौर वालों ने अपनी जड़ें जमाई। साबिर घड़ीसाज उसका भाई मुन्ना, गुलाम-मौला, मलिक ठेकेदार उनके लीडर थे। बाद में स्थानीय मुसलमानों से न पटने के कारण उन्होंने अपनी मस्जिद भी अलग बनाई। हमारे बचपन में शहर में एक-दो मोटर साइकिलें और पाँच-सात बसें व पाँच-चार ट्रक ही होते थे। फारगो, डॉज, बेडफोर्ड और टाटा के। हम मीलों दूर से उनका नम्बर बता देते थे। हमने एक बस का नाम भूरी-भैंस रखा था, उसका नम्बर 179 था। पहले बस अड्डा पुल पार था व गेट-सिस्टम होता था। हमारे स्कूलों का समय सर्दियों में नौ से चार बजे और गर्मियों में साढ़े छह से दिन में बारह बजे तक होता था टिफिन ले जाने का कोई चलन नहीं था। दफ्तर वाले भी सुबह नौ बजे खाना खाकर जाते थे। सब पैदल ही जाते-आते थे। शहर में सफाई कर्मचारियों की भी एक बस्ती थी और वे सब राजा के जमाने में मैदानी इलाके से आए थे। बाद में उनमें से कुछ हमारे मोहल्ले के नीचे भी बस गए थे। वो भी वाल्मीकि जयंती बड़ी धूमधाम से मनाते थे।

शहर के अधिकांश स्कूल व दफ्तर घंटाघर में थे, उसका दूसरा नाम चनाखेत भी था। उससे थोड़ा ही आगे थी भादू की मगरी या कहो नगरी। वहाँ लोग मच्छी खाने जाते थे। उसके ठीक नीचे नदी के उस पार था एक हरे-भरे खेतों वाला, लैंडस्केप, कंडल गाँव और उसके ठीक ऊपर था द्याराबाग, जिले के वन विभाग का हेडक्वार्टर। वहीं सड़क आगे मदन नेगी होते हुए प्रतापनगर को चली जाती थी, जोकि टिहरी के राजाओं की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी। पहले राजा लोग पुराने दरबार में रहते थे, जो शहर के बीचों-बीच एक ऊँचे टीले पर था। बाद में राजमहल घंटाघर के सामने की एक ऊँची पहाड़ी पर बनाया गया। उसके आस-पास अन्य कोई बस्ती न थी। जहाँ अभी पावर-हाउस की सुरंग है, वहीं थोड़ा हटकर नीचे रानीबाग था। वहाँ पर एक बड़ा तालाब था जहाँ रानियाँ नहाती थीं। वहीं पास में मोतीबाग में राजा की कचहरी लगा करती थी, हजूर-कोर्ट। यहीं बाद में सेशन कोर्ट, एस.डी.एम कोर्ट, तहसील, निरीक्षण भवन तथा ट्रेजरी बनी। राजा के महल के एक केयर टेकर थे, मोर सिंह जी। राजा लोग तो बाद में टिहरी छोड़कर चले गए थे, इसलिए हम लड़के खाली बंद महल में घूमने जाते थे कि कोई खिड़की का रंगीन काँच या झाड़-फानूस में लगा काँच/प्रिज्म का टुकड़ा मिल जाए। इसी उद्देश्य से हम सेशन कोर्ट में भी चक्कर काटते थे और उनकी डाँट भी खाते थे।

बसंत पंचमी और मकर संक्रांति पर शहर में मेले लगते थे। दूर-दूर से गाँव की महिलाएँ गंगा नहाने आती थीं। रंग-बिरंगी साड़ियाँ, हाथ में प्लास्टिक की कंडी, पैरों में हवाई चप्पल, समूह के समूह उमड़ पड़ते थे। जैसे-जैसे डाम का काम बढ़ता गया, शहर का सांस्कृतिक माहौल बदलता गया। आयोजन बंद हो गए। भीड़, भय और असुरक्षा बढ़ती गई। बाद में कान्वेंट स्कूल आया। टीवी आया, बाँध वालों के नये-नये दफ्तर खुले। विस्फोटों की आवाजें दिन-रात गूँजने लगी। बाजार में खाली पड़ी बंद-दुकानें और खोखे खुलने लगे। शनिवार, रविवार को बाजार जय प्रकाश और थापर कम्पनी की लेबर से भरने लगे। एक बार आजादी के बाद राजाओं ने टिहरी छोड़ी थी। अब महल में शहर खाली करवाने वाले भू-सम्पादन विभाग और पुनर्वास विभाग का कार्यालय खुल गया। जो लोग बीसों साल से टिहरी शहर नहीं आए थे, वे भी पितृ-प्रसाद का नाम लेकर क्लेम के लिये लौटने लगे। सबसे पहले टिहरी की राजमाता ने बाँध का विरोध किया था। तब किसी को लगता नहीं था कि डाम बनेगा।

शहर में दो-तीन औरतों पर देवी आती थी, वो कहती थी कि डाम नहीं बनेगा। वो तो जब जेपी कम्पनी ने जलवा दिखाना शुरू किया, सुरंगें पूरी हुई, दीवार का काम शुरू हुआ तब लोग चेते। विरोध का मुद्दा फिर पुनर्वास में तब्दील हो गया। एक तरफ वीरेन्द्र दत्त सकलानी थे, जो अपनी जेब का पैसा लगाकर शुरू से तकनीकी आधार पर वैज्ञानिकों की राय लेकर कोर्ट-कचहरी में सरकार के विरुद्ध लड़ रहे थे। तो दूसरी ओर बहुगुणा जी थे, जो गंगा की रक्षा व पवित्रता का मुद्दा लेकर चल रहे थे। चिपको आन्दोलन की वजह से सुन्दरलाल जी राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय छवि बना चुके थे, सो मीडिया तक उनकी पहुँच थी। उन्होंने कई बार सरकार को हिलाया पर अंत में टीएचडीसी की साम, दाम, दंड, भेद की नीति से शहर खाली हो ही गया। बहती गंगा में हो सकता है बहुतों ने हाथ धोया हो, पर टिहरी डूबना था, सो डूब गया। आज पुरानी-टिहरी का बेटा नया टिहरी जवान हो रहा है। भागीरथी पुरम, बौराड़ी, ढूंगीधार, कोटी-कालोनी, उसके अन्य भाई बन्द हैं। पर आज भी वहाँ के लोग पुरानी टिहरी के मौसम, बिजनेस-व्यापार की सुविधा, दफ्तर व स्कूलों में आने जाने की सुविधा, शहर के किसी भी भाग में दस मिनट में पहुँचने की सुविधा, पानी की सुविधा को याद करके रोते हैं।

कुछ लोग नई टिहरी की ठंड व उतराई-चढ़ाई से घबराकर देहरादून रहने चले गए। टिहरी शहर व्यापार का एक ऐसा सुविधाजनक केन्द्र था जहाँ चम्बा, लम्बगाँव, छाम, प्रतापनगर, घोंटी, घणसाली, पौखाल, जाखणीधार, क्यारी चारों तरफ के लोग सामान लेने आते थे। बाँध से इनके लिये ये सुविधा समाप्त हो गई। दूरियाँ बढ़ गई, इसका अहसास अब नई टिहरी के दुकानदारों को भी होता है। टीएचडीसी टिहरी वालों के लिये वैसे ही काल बनकर आई जैसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने हिन्दुस्तान को फूट डालो और राज करो की नीति से गुलाम बना लिया था। वास्तव में टिहरी भारत सरकार से नहीं उसके टीएचडीसी से हारा था। अपनी नौकरी और सोने की चिड़िया जैसी परियोजना को हजम करने के लिये उन्होंने जो कुछ किया उसे सारा शहर जानता था। जब उस शहर की लाश पर बाहर वाले जेबें भर रहे थे तो स्थानीय लोगों ने अपने शहर की मौत से फायदा उठाया तो अच्छा तो नहीं लगा पर क्या करें, वो भी सामान्य इंसान थे, साधु-संत नहीं। उनमें भी लोभ-लालच होना स्वाभाविक ही था।

अंत में कुछ चर्चित चेहरों को याद करने की कोशिश करें। विद्यासागर नौटियाल, स्वामी बलवीर शाही, सरदार प्रेम सिंह, पद्दू हलवाई, भुरू नेता, मिट्टी वाला सुन्दरू, रामपुर का काला, पान वाले महंत जी, बैंड वाला चचा गोविन्द, गुलशन-आनन्द, प्रेम बिराला, ठाकुर शूरवीर सिंह, दार्शनिक महावीर प्रसाद गैरोला, मंजूर बेग, नुकटी, सुरतू रावत, बालेन्द्र सजवाण, अमीचन्द, जुग्गी चचा, मोटी माई, छुन्नी, सतीश बिजलीवाला, मुलतानी, सुद्धी भाई, डॉक्टर बड़ोनी, इब्राहिम, नत्थू (सफाई कर्मी), दुअन्नी, प्रकाश रेडियोवाला कई ऐसे नाम थे जो अपनी अलग छाप छोड़ते थे, अच्छी हो या बुरी। जो पहले टिहरी था वो बाद में पुरानी टिहरी हो गया। कहते हैं विद्वानों-पण्डितों ने इसका नाम त्रि-हरी, तीन नदियों के संगम-गंगा, भिलंगना व घृत नदी (जुग्याणा का खाला) के नाम पर रखा था। टिहरी शब्द इसी का अपभ्रंश है।

‘साहिल से खुदा हाफिज, जब उसने कहा होगा,
उस डूबने-वाले का क्या हाल हुआ होगा।
मिल-मिल के गले आपस में जब कोई जुदा होगा
दुश्मन ही सही लेकिन देखा न गया होगा’


पता नहीं किस शायर ने लिखा पर टिहरी की व्यथा बयान हो गई।

अंत में मैं प्रसिद्ध पत्रकार एवं लेखक महिपाल नेगी सहित उन नौजवानों की आखिरी कोशिशों को भी सलाम करता हूँ, जो पब्लिक लिटीगेशन की अंतिम लड़ाई हारे थे।

 

एक थी टिहरी  

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

डूबे हुए शहर में तैरते हुए लोग

2

बाल-सखा कुँवर प्रसून और मैं

3

टिहरी-शूल से व्यथित थे भवानी भाई

4

टिहरी की कविताओं के विविध रंग

5

मेरी प्यारी टिहरी

6

जब टिहरी में पहला रेडियो आया

7

टिहरी बाँध के विस्थापित

8

एक हठी सर्वोदयी की मौन विदाई

9

जीरो प्वाइन्ट पर टिहरी

10

अपनी धरती की सुगन्ध

11

आचार्य चिरंजी लाल असवाल

12

गद्य लेखन में टिहरी

13

पितरों की स्मृति में

14

श्रीदेव सुमन के लिये

15

सपने में टिहरी

16

मेरी टीरी

 

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