त्रासदी में तोहमत के तीर

28 Sep 2014
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प्राकृतिक आपदाएं बगैर किसी पूर्वानुमान व तैयारी के जब हम पर कहर ढाती हैं, तब हम मनुष्यों को अपने तुच्छ होने का एहसास होता है। चाहे वैज्ञानिक क्षेत्र में एक से एक कीर्तिमान स्थापित हों, भले ही हम चंद्रमा की सैर कर चुके हों और मंगलयान भेज रहे हों या तरह-तरह के उपकरणों से वायु, वृष्टि, जल का अनुमान लगा रहे हों, फिर भी कभी-कभी ये सब चीजें धरी की धरी रह जाती हैं और मनुष्य बिल्कुल मजबूर, साधनहीन हो जाता है। त्रासदी चाहे जैसी हो, मनुष्य के अस्तित्व को चुनौती देने के साथ झकझोर देती है। मुख्यत: प्राकृतिक आपदाएं बगैर किसी पूर्वानुमान व तैयारी के जब हम पर कहर ढाती हैं, तब हम मनुष्यों को अपने तुच्छ होने का एहसास होता है। चाहे वैज्ञानिक क्षेत्र में एक से एक कीर्तिमान स्थापित हों, भले ही हम चंद्रमा की सैर कर चुके हों और मंगलयान भेज रहे हों या तरह-तरह के उपकरणों से वायु, वृष्टि, जल का अनुमान लगा रहे हों, फिर भी कभी-कभी ये सब चीजें धरी की धरी रह जाती हैं और मनुष्य बिल्कुल मजबूर, साधनहीन हो जाता है। कश्मीर में जो भयंकर जलप्लावन का दृश्य दिखा, उसकी प्रचुरता, भयंकरता का अनुमान लगाना ही हृदय को दहलाने वाला था। इस प्रकार के सैलाबों के दृश्य अन्य देशों में भी देखने को मिलते हैं, किंतु वह देखकर हम भूल जाते हैं, मगर वही सैलाब जब हमारे बिल्कुल करीब हो, हमारे देश में हो तो उसका एहसास गहरे तक पैठ जाता है।

कश्मीर की बाढ़ के संदर्भ में जो एक चर्चा टीवी चैनलों तथा विभिन्न समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में हो रही है, वह है वहां की राज्य सरकार की लापरवाही। वहां ऐसे विकट समय में सरकार या उसके प्रतिनिधि कहां गायब हैं या कोई सहायता का हाथ क्यों नहीं बढ़ रहा। आखिर सरकार का काम है अपनी जनता की देखभाल, उसकी सुख-समृद्धि को देखना। बहरहाल, इसकी चर्चा बाद में। पहले मैं अपनी सेना को उनके कठिन परिश्रम व समर्पण के साथ किए गए अथक प्रयास के लिए धन्यवाद देना और आभार जताना चाहती हूं। जिस प्रकार का काम उन्होंने बाढ़ पीड़ितों को बचाने के लिए किया है, उसके लिए धन्यवाद या साधुवाद शब्द बौने लगते हैं। हां, एक बात जो मुझे समझ में आई, वह यह कि हमारी सेना विश्व की किसी भी सेना के मुकाबले कहीं ज्यादा कर्तव्यनिष्ठ और सेवा परायण है। कश्मीर में जो बाढ़ आई, वह धीरे-धीरे नहीं आई। यह जल प्लावन था, जिससे एकाएक तेजी से पानी शहर में भर गया और संपूर्ण क्षेत्र को डुबो दिया। कोई इसकी विकरालता को समझ पाता, उससे पहले ही वहां विनाश हो चुका था। यानी किसी को संभलने का समय ही नहीं मिला।

जाहिर-सी बात है कि इसकी भयंकरता का अनुमान वहां की राज्य सरकार भी नहीं लगा सकी। जबतक वह संभलती, स्वयं पानी से घिर चुकी थी तथा अन्य कश्मीर वासियों की तरह सरकार के लोग भी जीवन-मृत्यु से जूझ रहे थे। वे भी उतने ही मजबूर थे, जितनी कि आम जनता। हमारे देश में लोगों की सोच अपने स्वार्थ के लिए संकुचित हो जाती है। यदि आम जनता जल से घिरी-परेशान और निकलने या शरण की तलाश में थी तो वे तमाम सरकारी अधिकारी और कर्मचारी भी तो इसी विपत्ति में फंसे हुए थे। मात्र सरकारी तंत्र का ठप्पा उन पर लगा होने का अर्थ कदापि नहीं कि हर प्रकार की अनहोनी से वे परे हैं। सरकारी कर्मचारी होने का यह भी अर्थ नहीं कि वे किसी अदृश्य शक्ति का प्रयोग करके कुछ मिराकल यानी करामात कर सकते थे। अत: मैं समस्त विरोधों और बहसों के बावजूद सरकार के पक्ष में खड़ी हूं। कश्मीर के जितने सरकारी दफ्तर हैं, कोर्ट कचहरी, सरकारी आवास, यहां तक कि सभी कंपनियों और फायर ब्रिगेड की बिल्डिंग भी पानी से भरी थी। स्वयं मुख्यमंत्री साहब का सरकारी आवास जल प्लावित था। यहां तो स्थिति यह थी कि कौन किसकी मदद करे।

टीवी पर विभिन्न चैनलों पर आनेवाले मेहमानों और प्रवक्ताओं ने एक स्वर से राज्य सरकार की भर्त्सना की। लगभग सभी लोगों का मानना था कि ऐसे समय में सरकार को पूरी शक्ति से सहायता के लिए आगे बढ़ना चाहिए था। लेकिन मैं पूछना चाहती हूं- कौन सी शक्ति? सरकार की तो सारी शक्ति पानी में बह गई थी या डूबी हुई थी। कश्मीरी जनता भी ऑन स्पॉट रिपोर्टरों को यही चीख-चीख कर बता रही थी कि उन्हें सरकारी सहायता तो दूर, कोई देखने तक नहीं आया। शायद वे लोग अपने दुख में यह भूल गए कि जिस प्रकार वे लोग फंसे हुए हैं, उसी प्रकार सरकारी अमला भी अपने परिवार के साथ फंसा होगा। हां, सेना तुरंत पहुंच गई, क्योंकि उन्हें इस प्रकार की आपदाओं से कैसे निपटा जाए, इसकी शिक्षा यानी ट्रेनिंग दी जाती है। उन्हें एक अनुशासित जीवन यापन के साथ विभिन्न प्राकृतिक तथा मनुष्य निर्मित कठिन परिस्थितियों से निपटना उनकी ट्रेनिंग का हिस्सा होता है। दूसरे, सेना की कौन-सी टुकड़ी किस विपदा के समय भेजी जाए, यह भी सेना के अधिकारी निश्चित करते हैं। लेकिन हमारे सरकारी मुलाजिमों को न इस सब की ट्रेनिंग दी जाती है और न सेना की तरह का अनुशासन इन्हें सिखाया जाता है। सो इसे हमें समझना होगा।

एक अंग्रेजी न्यूज चैनल पर कश्मीर की बाढ़ और क्षति के बारे में चर्चा चल रही थी। लगभग सभी वक्ताओं ने जमकर राज्य सरकार के निकम्मेपन पर बोला। हां, सिर्फ एक मेहमान किरण मजुमदार शॉ ने सरकार का थोड़ा बचाव करते हुए कहा कि जिस तीव्र गति से वहां पानी बढ़ने लगा, उसका अनुमान सरकार भी नहीं लगा पाई। दूसरे, इस प्रकार की आपदा से लड़ने के लिए न उनके पास साधन है, न कौशल। उन्हें संभलने का समय देना चाहिए। लेकिन उनकी इस बात को कहीं से कोई सपोर्ट नहीं मिला और अन्य वक्ताओं की ऊंची आवाज में उनकी संतुलित, सौम्य वाणी कहीं खो गई। आजकल चर्चा कम ऊंची आवाज शायद ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है।

मीडिया का कर्तव्य होता है कि वह निष्पक्ष रिपोर्टिंग करे, लेकिन ऐसा नहीं होता। ऐसा लगता था कि मीडिया स्वयं सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहती है। एक अंग्रेजी समाचार पत्र की स्तंभ लेखिका ने तो लगभग कश्मीर के मुख्यमंत्री साहब को धमकी देते हुए लिखा कि देखिए, अब आपका क्या होता है? अपने आरामगाह में बैठकर लिखना दूसरी बात है। क्या उन्होंने देखा या सुना नहीं कि स्वयं मुख्यमंत्री साहब बची-खुची सरकार एक गेस्ट हाउस से चला रहे थे? ऐसे समय में इस प्रकार की टिप्पणी करना मेरे विचार से उचित नहीं है।

पाठकों का ध्यान मैं कुछ पीछे ले जाना चाहूंगी। मीडिया ने चौबीसों घंटे अन्ना हजारे की भूख हड़ताल, धरन-प्रदर्शन को दिखाकर कहां से कहां पहुंचा दिया था। फलस्वरूप आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ और इसी की बदौलत वे सब दिल्ली में 29 सीटें जीतकर विधानसभा में पहुंचे। लेकिन अब आप कहां हैं, सब जानते हैं। अन्ना हजारे से रालेगांव सिद्धि में मिलने के लिए समय लेना पड़ता था, अब वे अकेले गांव में रह रहे हैं। कहां गया वह लाव-लश्कर? आप पार्टी भी मानो बालू में पैर जमाने की कोशिश कर रही है। यही नहीं, भाजपा या नरेंद्र मोदी को जो मीडिया कवरेज दी गई, उसका परिणाम लोकसभा चुनाव में सभी ने देखा। कांग्रेस का कुछ अपने कर्मों और कुछ मीडिया के पक्षपाती रवैए के कारण पतन हुआ।

मुझे ऐसा लगता है कि यही हाल कश्मीर के मुख्यमंत्री का भी किया जा रहा है। अपने मुख्यमंत्रित्व अवधि में उन्होंने जो किया, उसके हिसाब-किताब पर चुनाव में हार-जीत का फैसला होना चाहिए, न कि प्राकृतिक आपदा प्रबंधन को मापदंड मानकर। हमारे देश में इन आपदाओं से लड़ने के लिए न राज्य सरकारें सक्षम हैं और न ही केंद्र सरकार।

हम भारतीय और हमारे राजनेता चीन की प्रशंसा करते नहीं थकते। वहां के विकास, अनुशासन, अर्थ व्यवस्था से हम प्रभावित रहते हैं, लेकिन उनका प्रबंधन, अनुशासन और लगभग तानाशाह जैसा शासन भी क्या वहां की भयंकर बाढ़ों को रोक पाया? वहां भी जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। कितना नुकसान हुआ, इसकी पूरी जानकारी भी बाहरी जगत को नहीं मिल पाती। जापान की सुनामी का साया अभी तक जापानी लोगों को कंपित कर देता है, जबकि वे तकनीकी दृष्टि से दुनिया में बहुत आगे हैं।

सर्वसंपन्न-प्रभुता संपन्न अमेरिका भी क्या कैटरिना जैसे चक्रवात को रोक पाया? वहां भी चक्रवात के समय सरकारी सहायता बड़ी देर बाद पहुंची थी। लेकिन हम भारतीयों की आदत है कि हर छोटी-बड़ी घटना का दोषारोपण तुरंत सरकार पर कर देते हैं।

यह समय है, जब हम सब देशवासियों को मिलकर कश्मीर की सहायता में जुटना चाहिए और यह सब सारी राजनीति से ऊपर उठकर होना चाहिए। हमें यह सदैव याद रखना होगा कि कश्मीर की अपनी अलग समस्याएं तुच्छ बताने से अलगाववादी तत्वों को इसका फायदा उठाने में जरा भी देर नहीं लगेगी और यह संपूर्ण देश के लिए घातक होगा।

लेखक का ई-मेल : S161311@gmail.com

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