मिर्ज़ापुर में घटती बारिश के बावजूद क्यों हर साल आती है बाढ़?
5 अगस्त 2025 को उत्तर प्रदेश के कई जिलों में बाढ़ का कहर बढ़ता जा रहा था। सिंचाई विभाग के आंकड़ों के मुताबिक मिर्ज़ापुर ज़िला बाढ़ से सबसे अधिक प्रभावित है। गंगा चुनार और सदर तहसील में वर्ष 1978 के अपने उच्चतम जलस्तर 80.34 मीटर के करीब पहुंचते हुए 78.460 मीटर पर बह रही थी। नदी के लिए खतरे का बिंदु 73.60 सेमी है। सिंचाई विभाग की ओर से संबंधित अधिकारियों को इसके लिए अलर्ट जारी कर दिया गया। मिर्ज़ापुर जनपद में तहसील सदर और चुनार के कुल 393 गांव बाढ़ की चपेट में आए, जिनमें 67 गांवों की आबादी के लिए आवागमन बाधित हो गया। बाढ़ के दौरान प्रभावित गांवों में जनपद स्तर पर कुल 37 बाढ़ चैकियां बनाई गई थीं।
विंध्याचल की पहाड़ियों में बसा मिर्ज़ापुर ज़िला कुल 4521 वर्ग किलोमीटर में फैला है। स्थानीय कृषि विकास केंद्र के मुताबिक यहां की जलवायु अर्ध-शुष्क है और वार्षिक वर्षा 1100 मिमी है। यहां 85-90 प्रतिशत वर्षा मानसून में जून के चौथे सप्ताह से सितंबर के आखिर तक होती है। यह उत्तर प्रदेश के सात सूखा-ग्रस्त ज़िलों में से एक है।
जनपद का अधिकतर हिस्सा चट्टानी और समतल है और खेती के लिए यहां भूमिगत जल इस्तेमाल किया जाता है। खेती और पारिस्थितिकी के नज़रिए से देखा जाए, तो ज़िले का 30-40 प्रतिशत इलाका गंगा के मैदान में आता है, जबकि बाकी विंध्य क्षेत्र में। ज़िले के पास 40 फीसद खेती योग्य ज़मीन है, जिसके लिए सिंचाई की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं है। खेती यहां एक मुख्य व्यावसायिक गतिविधि है। यहां की प्रमुख फसलों में चावल, अरहर, चना, बाजरा, गेहूं, आलू, प्याज़, ड्रैगन फ्रूट, केला, मसाले और सब्ज़ियां शामिल हैं।
करीब 5 हज़ार की आबादी वाले मझरा कलां गांव में 15 हज़ार एकड़ जमीन है। इस बाढ़ में सब डूब गया है।
गांव मे पानी भर गया है, घरों में पानी घुस गया है। लोगों को सुरक्षित स्थान पर रखने की व्यवस्था में लगे हैं। गांव के लोगों के लिए नाव की व्यवस्था की गई है। बिजली नहीं है, इसकी वजह से पीने के पानी की समस्या उत्पन्न हो गई है। गांव के लोगों के लिए बोतल का पानी पीने के लिए पहुंचाया जा रहा है। किसानों की फसल बर्बाद हो चुकी है। किसानों को लगभग एक-एक लाख रुपए का नुकसान हुआ है। सरकार किसानों को केवल 1000-1500 रुपए प्रति बीघा के हिसाब से मुआवजा देती है। उतने पैसे से किसान का कुछ नहीं होता है।
विनोद कुमार सिंह, ग्राम प्रधान, मझरा कलां
बाढ़ की वजह से न सिर्फ़ लोग ऊंचे घरों की छतों पर रात बिताने पर मजबूर हैं, बल्कि कामकाज ठप होने से बहुत से लोगों के सामने आजीविका का संकट भी खड़ा हो गया है।
ज़िलाधिकारी पवन कुमार गंगवार बाढ़ के बारे में जानकारी देते हैं, “बाढ़ का जनपद की कुल 2 तहसीलों के 393 गांवों पर (सदर-216 चुनार-177) प्रभाव है। खेती के लिए बोेये गए लगभग 10314 हेक्टेयर इलाके का नुकसान हुआ है। आवागमन प्रभावित गांवों में 99 साधारण नावों और 53 मोटर बोट का संचालन किया गया है। ओआरएस पैकेट और क्लोरीन टेबलेट भी बांटे गए हैं। बाढ़ के दौरान 5 राहत शिविर चलाए गए, 38 मेडिकल टीमें बाढ़ चौकियों पर इलाज़ के लिए उपलब्ध हैं। पशुओं के लिए 66 शिविर बनाए गए हैं।”
उप निदेशक कृषि, विकेश पटेल ने जानकारी देते हुए बताया कि, “जनपद के 284 राजस्व ग्रामों की फसलें बाढ़ से प्रभावित हुई हैं। यहां पर राजस्व, कृषि तथा एसबीआई बीमा कंपनी के प्रतिनिधि द्वारा संयुक्त रूप से फसल नुकसान सर्वे किया जा रहा है। जिन ग्राम पंचायतों में 50 प्रतिशत से अधिक फसलें बाढ़ से प्रभावित हुई हैं उन गांव के बीमा धारक किसानों को तात्कालिक फसल क्षतिपूर्ति, बीमा कंपनी द्वारा उपलब्ध कराई जाएगी।”
आवागमन के संपर्क टूटने से बढ़ा स्वास्थ्य का संकट
सदर तहसील के मल्लेपुर गांव की रहने वाली आशा कार्यकर्ता रीता (35) बताती हैं, “गांव में ज़्यादातर लोगों के घर पानी में डूब गए हैं। खाने-पीने का संकट है। गांव के लोग बाढ़ से बचने के लिए अपने पशुओं के साथ अपना ज़रूरी सामान लेकर पहाड़ों पर चले जाते है। गांव में औरतों और बच्चों को उनके रिश्तेदारों के यहां पहुंचा दिया जाता है। हमें बेटे का इलाज़ करवाना था, नाव नहीं मिली, बेटे को लेकर कमर तक पानी में पैदल चलकर अस्पताल गए हैं।”
इसी तरह, चुनार तहसील के हासीपुर गांव की आशा कार्यकर्ता लक्ष्मीना देवी (47) बताती हैं कि वे अपने गांव से गर्भवती महिला की डिलीवरी कराने के लिए नाव से मगरहा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र लेकर गई थीं, लेकिन स्वास्थ्य केंद्र पर बिजली नहीं है।
पशुओं को रखने और चारे की समस्या
बाढ़ के समय परिवारों को सुरक्षित रखने के अलावा ग्रामीणों के सामने एक बड़ी समस्या पशुओं को सुरक्षित रखने और उनकी देखभाल करने की है। न तो उन्हें रखने के लिए सूखी जगह बची है और न ही खिलाने के लिए चारा।
सदर तहसील के मल्लेपुर गांव के रहने वाले मिठाईलाल यादव (65) बताते हैं,” पशुओं के लिए चारे की समस्या उत्पन्न हो गई है। हमारे दो बेटे पशुओं को चराने के लिए बाढ़ ग्रस्त इलाके से दूर जंगल ले गए हैं। जब तक बाढ़ है तब तक जंगल में रहेंगे, लेकिन बाढ़ के बाद पशुओं को चारा खरीद कर खिलाना पड़ेगा। हमारे पास 8 पशु है। बहुत मुश्किल हो गई है।
इसी गांव के मुंशीलाल (65) अपने डूबे घर को दिखाते हुए कहते हैं कि घर में खाने-पीने के लिए कुछ नहीं है पानी में सब कुछ डूब चुका है। "पशुओं को छत के ऊपर बांधे हैं। चारे की परेशानी है, हरा चारा सब पानी में डूब चुका है, भूसा खिला रहे हैं। छोटे-छोटे बच्चे भी घर में परेशान हो रहे हैं। बारिश होने लगता है तो छत के ऊपर भी पॉलिथीन से ढक कर हम लोग सोते हैं फिर भी बारिश में भीग जाते हैं। घर के अंदर लगभग 5 फीट पानी भरा है," वे बताते हैं।
मिर्ज़ापुर में क्यों आती है बाढ़
उत्तर प्रदेश के 75 ज़िलों में किए गए हालिया अध्ययन के मुताबिक मिर्ज़ापुर उन ज़िलों में से एक है जहां पिछले पचास सालों (1973-2023) में वर्षा की मात्रा लगातार घटी है। लेकिन, लगभग हर साल ज़िले को बाढ़ का सामना करना पड़ता है।
स्थानीय कन्हैयालाल बसंतलाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय के वनस्पति विज्ञान के प्रोफ़ेसर हरीश तिवारी इस बारे में आईडब्लूपी को बताते हैं, “मिर्ज़ापुर विंध्य की पहाड़ियों पर बसा है। इसलिए, पहाड़ का पानी तेज़ी से आकर नदियों में समाहित हो जाता है। कर्णावती, गंगा, यमुना, टोंस आदि कई नदियों का पानी गंगा नदी से होकर मिर्ज़ापुर में आता है। यहां पर पानी का ठहराव होता है। पहले गंगा नदी के किनारे पेड़ हुआ करते थे, वे पानी को फैलने से रोकते थे। लेकिन लगातार पेड़ों के कटाव से अब बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न हो रही है।"
वे कहते हैं कि पेड़ ज़्यादा होते हैं तो वाष्पोत्सर्जन अच्छे से होता है। जिसकी वजह से जलस्तर में तेज़ी से कमी आती है। पेड़ों से वर्षा चक्र में सुधार होता है। पेड़ों के कटने से वर्षा चक्र पर प्रभाव दिखता है। जैसे, देर से बारिश होना, कभी सूखा पड़ जाना, बारिश समय से पहले हो जाना, यह सभी वर्षा चक्र पर प्रभाव डालता है।
पिछले दो वर्षों में मिर्ज़ापुर में 40 से 50 हज़ार पेड़ों की कटाई हुई है। सरकार को ऐसी स्थिति से निपटने के लिए पहले से तैयार होना चाहिए। वृक्षारोपण को बढ़ावा देकर ज़्यादा से ज़्यादा वृक्ष लगाए जा सकते है, इससे बाढ़ में कमी देखने को मिलेगी।
हरीश तिवारी, प्रोफ़ेसर, वनस्पति विज्ञान, कन्हैयालाल बसंतलाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मिर्ज़ापुर
इसी कॉलेज में भूगोल के प्रवक्ता डॉ. प्रीतम सिंह बताते है कि बाढ़ के आने के पीछे दो बड़ी वजहें हैं। पहली, नदी के किनारे अगर बस्तियां न हों, तो बाढ़ आने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। लेकिन, नदियों के किनारे बाढ़ के मैदान (फ़्लड प्लेन) में अतिक्रमण करके इमारतें बनाई जा रही हैं, जो बाढ़ की चपेट में आ जाती हैं।
दूसरे, मानसून की प्रकृति बदल रही है, कम समय में ज़्यादा बारिश जैसी स्थिति देखने को मिल रही है। नदी की एक क्षमता है पानी को बहाकर समुद्र तक ले जाने की। लेकिन अचानक हुई भारी बारिश की वजह से नदी अपनी क्षमता के बाहर चली जाती है और बाढ़ की स्थिति बन जाती है।
“गंगा नदी में बहुत सारी नदियां आकर मिलती हैं। दक्षिणी पठार के विंध्य पर्वत श्रेणी से केन, बेतवा, चंबल, यमुना में आकर मिलती हैं। यमुना नदी इलाहाबाद में आकर गंगा से मिलती है, मध्य प्रदेश की पठारी नदियों का पानी भी गंगा में आकर मिल जाता है। उत्तराखंड की तरफ से रामगंगा, राप्ती, सरयू इनका पानी भी गंगा में मिल रहा है। गंगा नदी का जल ग्रहण क्षेत्र बहुत बड़ा है। प्रयागराज में संगम के बाद जनपद मिर्ज़ापुर आता है। गंगा नदी की सहायक नदियों में वर्षा होती है तो बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है। मिर्ज़ापुर में बाढ़ का पानी ठहरता है। इसलिए यहां पर फसलों और रहवासी इलाके के लोगों का ज़्यादा नुकसान होता है,” वे बताते हैं।
डॉ भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी, लखनऊ में प्रोफ़ेसर और नदी विशेषज्ञ वेंकटेश दत्ता इस बारे में कहते हैं, "बाढ़ एक सामान्य प्रक्रिया है। बाढ़ से पता चलता है कि नदियों के अंदर ऊर्जा है और वे स्वस्थ है। नदी का अपना एक चक्र होता है। बाढ़ से ही गंगा का मैदान बना है। लेकिन परेशानी यह है कि आबादी बढ़ी है। आबादी वाला इलाका बाढ़ के क्षेत्र में भी बढ़ता चला जा रहा है, लोग घर बनाते चले जा रहे है। अतिक्रमण होता जा रहा है, ऐसा नहीं है कि नदियां आज बाढ़ का स्वरूप ले रही है। नदियां लाखों साल पहले से बाढ़ लेकर आ रहीं हैं।”
वे बदलती जलवायु की भी बात करते हैं।
मानसून का चक्र प्रभावित हुआ है, अति उच्चतम बारिश वाले दिन में बढ़ोतरी हुई है। पश्चिमी विक्षोभ का भी असर है। इसकी वजह से कम समय में ज़्यादा बारिश का होना, आकाशीय बिजली का गिरना, बादल फटने की घटनाएं सामान्य हो गई हैं। पहले 4 महीने लगातार बारिश होती थी लेकिन अब धीरे-धीरे 18 से 20 दिन हो गया है।
डॉ. वेंकटेश दत्ता, नदी विशेषज्ञ
गंगा बेसिन में बाढ़ से बचने के लिए वे गैर-ढांचागत तरीकों पर ज़ोर देते हैं। वे बताते हैं कि बाढ़ के क्षेत्र में खंबे लगाना और लोगों को चेतावनी देना ज़रूरी है। खंबे लगाने का काम गंगा में बलिया तक हो गया है। उन्नाव कानपुर में प्रथम चरण में खंभे लगा दिए गए थे। बाढ़ क्षेत्र की मैपिंग भी की जा रही है। बाढ़ क्षेत्र ग्रीन ज़ोन हो सकता है। यहां पर किसी तरीके का निर्माण नहीं होना चाहिए, इसलिए खंबे लगाकर मैपिंग करना ज़रूरी है। जहां पर ज़्यादा कटाव हो रहा है वहां बोरी में मिट्टी भर कर तटबंध बनाए जा सकते हैं।
वे राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के दिल्ली सरकार को दिए गए निर्देश का ज़िक्र करते हैं, जिसमें 100 साल में एक बार भी बाढ़ से प्रभावित होने वाले इलाकों को चिन्हित करके वहां निर्माण को निषेध किया गया था। डॉ. दत्ता कहते हैं कि इसका कड़ाई से पालन होना चाहिए और ऐसे इलाकों में मौजूद आबादी को विस्थापित किया जाना चाहिए।
क्या कहता है प्रशासन
प्रशासन के मुताबिक मिर्ज़ापुर में बाढ़-क्षेत्र का अतिक्रमण बड़ी समस्या नहीं है। उपज़िलाधिकारी, सदर, गुलाबचंद के मुताबिक ज़िले में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण से लगातार निर्देश मिलते रहते हैं। “इन निर्देशों के मुताबिक हम ज़िलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक के साथ मिलकर काम करते हैं, इसलिए अतिक्रमण नहीं होने दिया जाता है।”
फ़्लड प्लेन मैपिंग के बारे में सिंचाई विभाग के अधिशासी अभियंता प्रमोद कुमार बताते हैं कि प्रयागराज की सीमा से मिर्ज़ापुर के भटौली पुल तक पिलर मार्किंग के लिए प्रशासन ने टेंडर प्रक्रिया शुरू कर दी है। वहीं, चुनार सिंचाई खंड में भी पिलर मार्किंग प्रकिया जल्द शुरू की जाएगी और बंधी प्रखंड वाराणसी के गंगा के बांए किनारे तक पिलर मार्किंग कराई जाएगी।
बाढ़ के समय नागरिकों को आगाह करने के लिए चेतावनी दिए जाने के बारे में उप ज़िलाधिकारी, सदर बताते हैं, “बाढ़ आने से पहले हम लोगों ने गांव-गांव जाकर चेतावनी जारी की थी। लेखपाल, बीडीओ, पंचायत सचिव और ग्राम प्रधानों ने ग्राम पंचायतों में डुगडुगी बजाकर लोगों को बाढ़ से बचने के लिए चेतावनी दी थी।”
मिर्ज़ापुर में आने वाली बाढ़ के कारणों को समझने के लिए आईडब्लूपी ने कोलकाता के प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय के डॉ. प्रियांक पटेल से बातचीत की, जिसे हम सवाल-जबाव के ज़रिए जानेंगे।
सवाल: हाल ही के एक अध्ययन के मुताबिक, पिछले 50 वर्षों (1973–2023) में मिर्ज़ापुर में मानसून के दौरान बारिश की मात्रा घटी है, फिर भी यह ज़िला लगातार बाढ़ से प्रभावित होता रहा है। इसे कैसे समझा जाए? इस मौसमी बाढ़ के प्रमुख कारण क्या हैं?
जवाब: मिर्ज़ापुर ज़िले और उसके पड़ोसी इलाकों में वर्षा भले ही कम हुई हो, लेकिन इस ज़िले से गुज़रने वाली प्रमुख नदी गंगा अपने साथ इसकी सहायक नदियों का संयुक्त जल लेकर आती है। यह पानी हिमालय और उत्तरी प्रायद्वीपीय भारत के कई हिस्सों से आता है, जो अपने आप में बहुत बड़ा इलाका है। भारत में इस साल, खासकर हिमालय में भारी बारिश हुई है (जहां बादल फटने और अचानक बाढ़ की घटनाएं लगातार दर्ज़ और रिपोर्ट की गईं), इसलिए गंगा में लगातार ऊंचे बहाव की स्थिति स्वाभाविक है।
हालांकि, ग्लोबल सरफ़ेस वॉटर डेटासेट (1984–2021) का पिछले 40 सालों का विश्लेषण दिखाता है कि मिर्ज़ापुर ज़िले का अधिकतर हिस्सा गंगा के साथ आने वाली बाढ़ से नियमित रूप से नहीं डूबता। वर्तमान में ज़िले में आ रही बाढ़ का एक बड़ा कारण संभवतः विंध्य की उन पहाड़ियों से आने वाला तेज़ बहाव है जो इसके मध्य और दक्षिणी हिस्सों में फैली हैं। ये पहाड़ियां भारत के प्रायद्वीपीय क्षेत्र के उत्तर में गंगा के मैदान के साथ एक महत्वपूर्ण भौगोलिक सीमा बनाती हैं।
मैरीलैंड विश्वविद्यालय के ग्लोबल लैंड कवर फ़ैसिलिटी के डेटासेट (2000–2020) से ज़िले के भू-उपयोग और भू-आवरण में हुए बदलावों का विश्लेषण दिखाता है कि ज़िले के एक बड़े हिस्से में लगभग खुली चट्टानी सतहें मौजूद हैं, जिन पर हरियाली बहुत कम है या केवल छोटी घास की परत भर मौजूद है। ऐसी चट्टानी सतहों पर होने वाली तेज़ बारिश तुरंत भारी मात्रा में बहाव उत्पन्न कर सकती है, जो अचानक बाढ़ जैसी स्थिति पैदा कर देती है। साल 2020 तक के डेटासेट और गूगल अर्थ की ताज़ा तस्वीरें यह भी दिखाती हैं कि इन पहाड़ियों पर पहले से मौजूद पेड़-पौधों और घास को लगभग पूरी तरह खत्म किया जा चुका है, जिससे बहाव और बढ़ गया है।
इन पहाड़ियों पर कई जगह पत्थर की खदानें (संभावित तौर पर चुनार का मशहूर बलुआ पत्थर) भी चलाई जा रही हैं। ऐसी खदानें नंगी ज़मीन और ढीली सतहें पीछे छोड़ देती हैं, जो बारिश के दौरान और ज़्यादा बहाव और गाद पैदा करती हैं। यही गाद भारी बहाव के साथ नज़दीकी बांधों और जलाशयों (जैसे अहरौरा और जरगो) में जाती है, जिससे धीरे-धीरे उनमें गाद का जमाव बढ़ता है और उनकी जलधारण क्षमता घट जाती है। इससे उनकी बाढ़-नियंत्रण क्षमता भी सीमित हो जाती है। टाइम्स ऑफ इंडिया (25 अगस्त, 2025) ने रिपोर्ट किया कि लगातार बारिश के बाद पूर्वी मिर्ज़ापुर के चुनार क्षेत्र में स्थित अहरौरा और जरगो बांधों से आपातकालीन जल निकासी करनी पड़ी। इन दोनों बांधों के आसपास खदानें भी मौजूद हैं, जिनसे भारी बहाव की स्थिति में बड़ी मात्रा में पानी इन जलाशयों तक पहुंचता है।
भू-आवरण परिवर्तन के आंकड़े यह भी दिखाते हैं कि ज़िले में निर्मित क्षेत्रों (बिल्ट-अप एरिया) में वृद्धि हुई है, खासकर मिर्ज़ापुर शहर से दूर और पहाड़ियों-रिजों के बीच की घाटियों में। ऐसी अभेद्य सतहों का बढ़ना (भले ही कम हो) आखिर में कुल बहाव को और बढ़ाता है। पहले जहां पानी ज़मीन में रिसकर या सतही जल में रुककर बाढ़ को कम करता था, अब वही पानी सीधे बहाव बढ़ाकर आस-पास के मैदानी इलाकों में बाढ़ की स्थिति को और गंभीर बना देता है।
सवाल: क्या इस ज़िले की भौगोलिक स्थिति भी बार-बार आने वाली बाढ़ के लिए ज़िम्मेदार है?
जवाब: मिर्ज़ापुर ज़िले की भौगोलिक स्थिति काफ़ी खास है। यह उन पहले ज़िलों में से एक है जो प्रयागराज में गंगा और यमुना के संगम के ठीक नीचे मौजूद हैं। इसलिए, इसकी उत्तरी सीमा से होकर बहने वाली गंगा नदी में इन दोनों बड़ी नदियों के अलावा इनमें मिलने वाली बहुत सी सहायक नदियों का पानी भी बहता है। इनमें से ज़्यादातर सहायक नदियां मध्य और निम्न हिमालय से निकलती हैं, जिनमें भारी बारिश का पानी आता है। वहीं यमुना के मामले में, उत्तर-पश्चिमी प्रायद्वीपीय भारत से निकलने वाली चंबल और बेतवा जैसी बड़ी सहायक नदियां महत्वपूर्ण हो जाती हैं। इन दोनों बड़ी नदियों का जलग्रहण क्षेत्र इतना बड़ा है कि मानसून में गंगा में जल स्तर बढ़ जाता है और मिर्ज़ापुर के बाढ़-मैदानी इलाकों में पानी फैलने लगता है।
मिर्ज़ापुर की भौगोलिक स्थिति का एक और खास पहलू है। यह उन कुछ ज़िलों में से एक है जो भारतीय प्रायद्वीपीय क्षेत्र और विशाल उत्तरी मैदान की सीमा पर स्थित हैं। नतीजतन, ज़िले के मध्य और दक्षिणी हिस्सों में पहाड़ियों और चोटियां हैं, जिनके बीच ऊंचे-नीचे मैदान और पठारी इलाके फैले हैं। जबकि उत्तरी हिस्सा अपेक्षाकृत सपाट मैदान, घुमावदार पुरानी नदी धाराओं और गंगा के साथ लगे बाढ़-मैदानों से बना है।
इस वजह से पहाड़ियों पर होने वाली वर्षा (जहां कम या बिल्कुल भी हरियाली नहीं है) बहुत तेज़ी से बहकर उत्तरी मैदानों की ओर पहुंचती है और वहां जलभराव की स्थिति पैदा कर देती है। खासकर तब, जब वही निचले इलाके पहले से ही गंगा के उफ़ान से पानी में डूबे हुए होते हैं।
सवाल: मिर्ज़ापुर में आने वाली बाढ़ में अपस्ट्रीम इलाकों में बढ़ती बारिश और बांधों से अचानक पानी छोड़े जाने की क्या भूमिका है?
जवाब: मिर्ज़ापुर से होकर बहने वाली गंगा नदी अपने साथ हिमालय और प्रायद्वीपीय भारत दोनों इलाकों से आने वाली सहायक नदियों का प्रवाह लेकर चलती है। इस साल भारत में विशेष रूप से हिमालय में भारी वर्षा हुई है, जिसके चलते गंगा में तेज़ और ऊंचे बहाव की स्थिति स्वाभाविक है।
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि ज़िले के पूर्व से पश्चिम तक फैली पहाड़ियों के निचले हिस्से में कई छोटे बांध बने हुए हैं। इन पहाड़ियों की सतह अधिकतर नंगी है (या बहुत कम घास से ढकी है), जिससे यहां से तेज़ बहाव पैदा होता है। यह बहाव जलाशयों को भरकर उनके ऊपर से गुज़र सकता है या अचानक बाढ़ जैसी स्थिति पैदा कर सकता है। टाइम्स ऑफ इंडिया (25 अगस्त, 2025) की रिपोर्ट के अनुसार, इस ज़िले के अहरौरा बांध के 21 गेट खोलने पड़े ताकि जलाशय में आने वाले तेज़ बहाव को नियंत्रित किया जा सके, लेकिन इसके चलते जमालपुर क्षेत्र के 24 गांव डूब गए। इसी तरह, जरगो बांध के 8 गेट आपातकालीन स्थिति में खोलने पड़े, जिससे भरपुर और लाल दरवाज़ा जैसे डाउनस्ट्रीम इलाकों में बाढ़ आ गई।
संभावना है कि इन जलाशयों के ऊपरी क्षेत्रों में खराब भूमि प्रबंधन, खनन क्षेत्रों में बढ़ता मिट्टी का कटाव और गाद का जमाव, बहाव को और बढ़ा रहे हों। इससे जलाशयों की क्षमता कम हो जाती है और वे बाढ़ नियंत्रण में कम प्रभावी होते हैं, जिसके कारण उन्हें अक्सर आपातकालीन स्थिति में, या फिर पहले की तुलना में कम वर्षा होने पर भी, पानी छोड़ना पड़ता है।
सवाल: मिर्ज़ापुर में फ़्लड प्लेन (बाढ़-मैदान) की मौजूदा स्थिति क्या है, और यह बाढ़ के असर को बढ़ाने में कैसे योगदान देती है?
जवाब: भू-आवरण परिवर्तन (लैंड कवर चेंज) के आंकड़ों के मुताबिक ज़िले में निर्मित क्षेत्र (बिल्ट-अप एरिया) बढ़ा है, खासकर मिर्ज़ापुर शहर से दूर, मुख्य परिवहन मार्गों के किनारे जो फ़्लडप्लेन से होकर गुज़रते हैं। इस तरह की अभेद्य सतहों (इम्परवियस सर्फ़ेस) के बढ़ने से (भले ही कम मात्रा में) आखिर में बहाव बढ़ जाता है, क्योंकि पहले जहां पानी ज़मीन में रिसकर या सतही जल में रुककर बाढ़ को कम करता था, अब वही पानी सीधे बहकर निचले मैदानों में बाढ़ को और बढ़ा देता है।
हालांकि, ये फ़्लड प्लेन इलाका अभी भी ज़्यादातर ग्रामीण है और यहां पर घुमावदार पुरानी नदी धाराएं और प्राकृतिक गड्ढे बचे हुए हैं, जहां कुछ बहाव जमा हो सकता है। ये इलाके एक तरह से बाढ़ के पानी को रोकने या संतुलन बनाने वाले क्षेत्र (फ़्लड स्टोरेज/बफ़र) की तरह काम करते हैं। लेकिन अगर इस फ़्लड प्लेन में और बदलाव हुआ और यहां मानवीय बस्तियां और निर्माण बढ़ा, तो यह तय है कि बाढ़ का खतरा और बढ़ जाएगा।
इससे भी ज़्यादा चिंता की बात मिर्ज़ापुर शहर के पश्चिम में और चुनार के आसपास के पूर्वी हिस्से में इस फ़्लड प्लेन से लगी हुई पहाड़ियां हैं। जैसा ऊपर भी कहा है, इन पहाड़ियों पर पेड़-पौधे न होने के कारण भारी बारिश के दौरान इनकी सतहों से तेज़ बहाव निकलकर पास के निचले मैदानों की ओर जाता है, जिससे वहां जलभराव की स्थिति और गंभीर हो सकती है, खासकर तब जब गंगा में भी अपस्ट्रीम से आए ज़्यादा प्रवाह के कारण जलस्तर पहले से ही ऊंचा हो।
सवाल: मिर्ज़ापुर को बाढ़ से बचाने के लिए क्या-क्या उपाय किए जा सकते हैं?
यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है और बाढ़ मैदानों को बनाए रखने और पारिस्थितिकी तंत्र को सहारा देने में अहम भूमिका निभाती है। यह भूजल पुनर्भरण, गाद की सफ़ाई, पोषक तत्वों के स्थानांतरण और पौधों व जलीय जीवों के प्रसार के लिए जल स्रोतों को नदी से जोड़ने जैसे पारिस्थितिक काम करती है।
लेकिन जब बाढ़-मैदानों में बस्तियां और ढांचे (इन्फ्रास्ट्रक्चर) बन जाते हैं, तो बाढ़ के नुकसान भी बढ़ जाते हैं। इनसे बचने का सबसे ज़रूरी उपाय है सही फ़्लड प्लेन ज़ोनेशन और बाढ़ से सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाले इलाकों से बस्तियों का चरणबद्ध विस्थापन। हालांकि, देश भर में इसके लिए अध्ययन हुए हैं और सुझाव दिए गए हैं, पर यह कदम अभी तक व्यापक स्तर पर लागू नहीं हुआ है। यह ज़रूरी है कि बाढ़-मैदानों पर और ज़्यादा अतिक्रमण और वहां अभेद्य सतहों (कंक्रीट, पक्के निर्माण) का निर्माण सख्ती से नियंत्रित किया जाना चाहिए।
नदी किनारों पर तटबंधों के निर्माण कुछ समय के लिए असरदार हो सकते हैं, लेकिन अध्ययनों से पता चलता है कि प्रकृति-आधारित समाधान (जैसे मिट्टी और वनस्पति आधारित सॉफ़्ट इंजीनियरिंग) संरचनात्मक उपायों के साथ मिलकर वे अधिक उपयोगी और किफ़ायती हो सकते हैं। वहीं, गंगा नदी को चौड़ा या गहरा करने से चैनल की अस्थिरता और अपरदन (कटाव) बढ़ सकता है, जो उल्टा असर डालेगा। इसके बजाय, नदी के किनारे की आर्द्रभूमियों और पुरानी नदी धाराओं (मीएंडर स्वेल) को पुनर्जीवित करना और बनाना ज़्यादा फ़ायदेमंद हो सकता है। ये प्राकृतिक "ग्रीन स्पंज" की तरह काम करेंगे और मानसून के समय गंगा से आने वाले अतिरिक्त जल को इकट्ठा करेंगे। इसके लिए, स्थलाकृतिक (टोपोग्राफ़िक) और हाइड्रोलॉजिकल कनेक्टिविटी के आधार पर स्थल-उपयुक्तता के अध्ययन किए जा सकते हैं।
मिर्ज़ापुर और चुनार के आसपास की नंगी पहाड़ियों (विशेषकर जहाँ खनन हुआ है या हो रहा है) पर हरियाली लाना वर्षा के दौरान होने वाले तेज़ बहाव को कम करेगा और ज़्यादा पानी को ज़मीन में सोखने में मदद करेगा। इसी तरह, इन पहाड़ियों के नज़दीक बने जलाशयों की नियमित डी-सिल्टिंग करना (गाद निकालना) ज़रूरी है, ताकि वे तेज़ बारिश के दौरान ज़्यादा पानी रोकने की क्षमता बनाए रख सकें।
यह रिपोर्ट क्षेत्रीय पत्रकारिता फ़ैलोशिप 2025 के अंतर्गत लिखी गई है।