ग्रेट ग्रीन वॉल ऑफ आंध्र प्रदेश एक ऐसी हरित दीवार होगी जो क्षेत्र की समुद्र-जनित आपदाओं से रक्षा करते हुए वहां के पर्यावरण को पुनर्जीवित और आजीविका को मज़बूत करेगी।
ग्रेट ग्रीन वॉल ऑफ आंध्र प्रदेश एक ऐसी हरित दीवार होगी जो क्षेत्र की समुद्र-जनित आपदाओं से रक्षा करते हुए वहां के पर्यावरण को पुनर्जीवित और आजीविका को मज़बूत करेगी।फ़ोटो: unsplash.com

आंध्र प्रदेश की ग्रेट ग्रीन वॉल: क्या हरियाली बनेगी ढाल?

आंध्र प्रदेश का तटीय इलाका बार-बार आने वाले चक्रवातों, समुद्री कटाव और जलवायु परिवर्तन के कारण कई स्तरों पर नुकसान झेल रहा है। इस स्थिति से निपटने और नुकसान को कम करने के लिए राज्य सरकार ने “ग्रेट ग्रीन वॉल ऑफ आंध्र प्रदेश” नाम से एक पहल की शुरुआत की है।
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आंध्र प्रदेश अपनी भौगोलिक स्थिति, तटीय लंबाई, वर्षा पैटर्न और समुद्र पर आजीविका की निर्भरता के कारण जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की चपेट में आसानी से आ जाता है। लंबी समुद्री सीमा होने के कारण इसको बार-बार आने वाले चक्रवातों, तटीय क्षरण, समुद्र-स्तर में वृद्धि और बाढ़ जैसी स्थिति से जूझना पड़ता है। इससे हज़ारों परिवारों की आजीविका पर तात्कालिक असर तो पड़ता ही है, क्षेत्र की पारिस्थितिकी पर भी अछूती नहीं रह है है। 

इससे निपटने के लिए आंध्र प्रदेश सरकार ने ग्रेट ग्रीन वॉल ऑफ आंध्र प्रदेश नाम से एक महत्वाकांक्षी पहल शुरू की है। लक्ष्य है बड़ी संख्या में पेड़ लगाकर और प्राकृतिक पारिस्थितिकी को पुनर्जीवित कर तटीय क्षेत्रों को सुरक्षा कवच देना है।

ग्रेट ग्रीन वॉल ऑफ़ आंध्र प्रदेश परियोजना की रूप रेखा और उसका लक्ष्य

आंध्र प्रदेश सरकार की यह पहल अफ्रीका की प्रसिद्ध “ग्रेट ग्रीन वॉल” परियोजना से प्रेरित है, जहां सहारा के दक्षिणी क्षेत्र में मरुस्थलीकरण रोकने के लिए वृक्षारोपण का सहारा लिया गया था। आंध्र प्रदेश ने इसी विचार को अपने तटीय माहौल के हिसाब से ढाल लिया है। तट पर समुद्र और ज़मीन मिलकर एक खास तरह की प्राकृतिक व्यवस्था बनाते हैं, जहां मिट्टी, पानी, पौधे और छोटे-बड़े जीव मिलकर पर्यावरण को संतुलित रखने का काम करते हैं।

तीन स्तरों पर होगा समुद्री आपदाओं से सुरक्षा देने का प्रयास

  • पहला स्तर होगा समुद्र तट का बचाव। इसके तहत समुद्र के किनारे मैंग्रोव जैसी लवण-सहिष्णु वनस्पति लगाई जाएगी, जो लहरों व तूफानों की ऊर्जा को कुछ हद तक अवशोषित कर सके। नदी और समुद्र के पानी के मिलने वाली जगहों से थोड़ा हटकर, अंदरूनी यानी नॉन-एस्चुअरीन इलाकों को तेज़ हवा, धूल और मिट्टी के कटाव से बचाने के लिए पाम, पाम्यरा, कासुआरीना जैसे पेड़ लगाए जाएंगे। पेड़ों की ये लंबी कतारें शेल्टरबेल्ट का काम करेंगी।

  • दूसरा स्तर है हवा को रोकना। इसके लिए तटों से आगे ज़मीनी हिस्से में नहरों और सड़कों के किनारे स्थानीय पेड़ लगाकर तूफ़ानी हवा की गति को कम करने का प्रयास किया जाएगा। रेतीले टीलों (सैंड ड्यून) आदि पर भी स्थानीय वनस्पतियां उगाकर हवा के कारण होने वाले उनके क्षरण को कम करने की योजना है।

  • तीसरा स्तर है स्थानीय समुदायों को योजना का हिस्सा बनाना। इसमें कृषि-वानिकी या एग्रोफ़ॉरेस्ट्री को बढ़ावा दिया जाएगा। परियोजना का उद्देश्य इलाके के किसानों और स्थानीय समूहों को पौधे तैयार करने, रोपाई और उन पौधों के देखभाल जैसे कामों में शामिल करना भी है, ताकि सुरक्षा मज़बूत होने के साथ ही उन्हें सीधा रोज़गार भी मिल सके।

परियोजना की विशेषताएं:

इस परियोजना का लक्ष्य तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों को तूफ़ान, चक्रवातों और भूमि-कटाव जैसे खतरों से होने वाले असर से ज़्यादा से ज़्यादा बचाना है। पेड़ों की पट्टी और प्राकृतिक सुरक्षा-तंत्र बनाकर नुकसान को घटाने की कोशिश की जाएगी। साथ ही, प्राकृतिक जंगलों, जैसे मैंग्रोव आदि को वापस बढ़ाने को भी केंद्र में रखा गया है, ताकि समुद्री और तटीय जीव-जंतु सुरक्षित रहें और पूरा पारिस्थितिकी तंत्र मज़बूत बन सके।

  • तटीय सुरक्षा बढ़ाना: तूफानी हवाएं, लहरों की ऊंचाई, समुद्र के बढ़ते स्तर, और तटीय कटाव जैसे खतरों से ग्रामीण और तटीय आबादी को सुरक्षा प्रदान करना इस परियोजना का पहला लक्ष्य है। रिपोर्ट के अनुसार, इस ग्रीन वॉल के माध्यम से राज्य की लगभग 30 लाख तटीय आबादी को प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा देने की योजना है।

  • जैव-विविधता एवं पर्यावरणीय स्वास्थ्य: तटीय पारिस्थितिक तंत्र, जैसे कि मैंग्रोव जंगल और समुद्र के किनारे की प्राकृतिक वनस्पति को बहाल करने का प्रयास किया जाएगा, जिससे जीवों-पक्षियों की संख्या बढ़े, समुद्री जीवन को लाभ मिले और प्राकृतिक संतुलन बना रहे।

  • वर्तमान हरित आवरण (ग्रीन कवर) को बढ़ाना: राज्य का हरित इलाका जो कि साल 2025 में लगभग 30 फीसद पर है, उसे 1.5 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ाकर साल 2029 तक 37 फीसद और साल 2047 तक 50 फीसद तक ले जाने का लक्ष्य है।

  • स्थायी आजीविका एवं कम लागत वाली वृक्षारोपण पद्धतियां: इस योजना का उद्देश्य लोगों की आजीविका को भी मज़बूत करना है। पौधे तैयार करने, लगाने और देखभाल जैसे कामों से स्थानीय लोगों को रोज़गार मिलेगा, और पाम-मैंग्रोव जैसे पेड़ खेतों को हवाओं व खारे पानी से बचाकर किसानों का नुकसान कम करेंगे। पेड़ों से मिलने वाला पत्ता-फाइबर-लकड़ी जैसी चीज़ों से यहां रहने वालों की कमाई बढ़ेगी।

  • कार्बन स्टोरेज एवं जलवायु-अनुकूलन: इसका एक लक्ष्य तटीय वृक्षारोपण के ज़रिए कार्बन का अवशोषण बढ़ाना और जलवायु-विविध खतरों के खिलाफ़ लचीलेपन को बढ़ाना भी है।

  • स्थानीय लोगों, योजनाओं और वित्त को एक साथ लाना: इस पहल में स्थानीय स्वयं-सहायता समूहों (एसएचजी), विद्यार्थियों के ईको-क्लबों को बदलाव का हिस्सा बनाए जाने पर ज़ोर दिया गया है। इसके अलावा, मनरेगा जैसी योजनाओं को भी इसमें शामिल किया जाना है। यह एक ऐसा मॉडल है जिसमें कई स्रोतों से आर्थिक सहायता ली जा सकेगी। इस परियोजना को पूरा करने के लिए मनरेगा, प्रतिपूरक वनरोपण कोष (कॉम्पन्सेट्री अफ़ोरेस्टेशन फंड), ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम और ज़िला खनिज निधि (डीएमएफ़) जैसी योजनाओं से संसाधन जुटाए जाएंगे।

चक्रवात, तूफ़ान और उनका असर

भारत के पूर्वी तट पर स्थित आंध्र प्रदेश, विविधताओं से भरा एक विस्तृत, तटीय राज्य है। इसकी तटरेखा की कुल लंबाई लगभग 1053 किलोमीटर है, जो उत्तर में ओडिशा की सीमा से शुरू होकर दक्षिण में तमिलनाडु की सीमा तक फैली हुई है। भौगोलिक दृष्टि से पूरी तरह बंगाल की खाड़ी से घिरे होने के कारण, इसका तटीय इलाका उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के रास्ते में आ जाता है। 

ये तूफ़ान समुद्री सतह के तापमान, मानसूनी वायु-प्रणालियों, समुद्री सतह पर ऊष्मीय ऊर्जा और लेटरल वायुगतिकी यानी आस-पास से गुज़रने वाली हवाओं के मिले-जुले असर की वजह से आते हैं। आंध्र प्रदेश के पास की समुद्री खाड़ी का पानी बहुत गर्म होता है। यही गर्म पानी हवा में ज़्यादा नमी और ऊर्जा भर देता है, जिससे तूफ़ान और भी ताक़तवर बन जाते हैं। इससे, इलाके में चक्रवात भी ज़्यादा तेज़ और खतरनाक हो जाते हैं।

इलाके में जलवायु की निगरानी से पता चलता है कि बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में वर्षा चक्र में होने वाले बदलाव और समुद्री सतह के बढ़ते तापमान के असर से खतरनाक साइक्लोनिक गतिविधि बनी रहती है।

आंध्र प्रदेश के तटीय इलाकों में अक्सर आने वाले साइक्लोन और तूफ़ानों के प्रभावों के कई पहलू होते हैं। इसमें जान-माल से लेकर आर्थिक, पारिस्थितिक और भू-भौतिक (भूमि-क्षरण) जैसे सभी स्तरों पर नुकसान होता है।

तूफ़ानों, सुनामी-सर्ज, चक्रवातों और तटीय कटाव से राज्य का करीब 91900 वर्ग किलोमीटर इलाका प्रभावित होता है। इस इलाके में रहने वाले लगभग 3.4 करोड़ लोगों के जन-जीवन और आजीविका पर इसका सीधा असर पड़ता है, जो मुख्य रूप से धान की खेती, मछली पालन, नौकरी आधारित तटीय गतिविधियों, जैसे कि बंदरगाहों पर होने वाले काम की ठेकेदारी, मछली बाज़ार, कोल्ड-स्टोरेज, लेबर-चेन वगैरह के सहारे अपना जीवन चलाते हैं।

तूफ़ानों, सुनामी-सर्ज, चक्रवातों और तटीय कटाव से राज्य का करीब 91900 वर्ग किलोमीटर (972 किमी) इलाका प्रभावित होता है।

बीते सालों में आई कुछ बड़ी आपदाओं से हुआ नुकसान

हर साल इन आपदाओं से लोगों को कई तरह के नुकसान होते हैं, जिनमें घरों के उजड़ने से लेकर जीवन और आजीविका तक का नुकसान शामिल है।
हर साल इन आपदाओं से लोगों को कई तरह के नुकसान होते हैं, जिनमें घरों के उजड़ने से लेकर जीवन और आजीविका तक का नुकसान शामिल है।फ़ोटो: unsplash.com

हर साल इन आपदाओं से लोगों को कई तरह के नुकसान होते हैं, जिनमें घरों के उजड़ने से लेकर जीवन और आजीविका तक का नुकसान शामिल है। कच्चे मकानों की छत उड़ जाने की घटनाएं सामान्य हैं। हर साल हज़ारों लोग बेघर हो जाते हैं। तेज़ हवाओं, तूफ़ानी लहरों और समुद्री बाढ़ के कारण लोग न सिर्फ़ अपने घर से, बल्कि पशुधन और ज़रूरी सामान तक से हाथ धो बैठते हैं।

साइक्लोन मोंथा (अक्टूबर 2025) 

28 अक्टूबर 2025 को आए मोंथा साइक्लोन ने राज्य के प्रकाशम, नेल्लोर, बापटला और नंद्याल ज़िलों को सबसे अधिक प्रभावित किया। इस दौरान कुल 249 मंडल, 48 शहर और 1434 गांव बुरी तरह प्रभावित हुए। राज्य की लगभग 4,794 किमी सड़कों और 311 पुलों को गंभीर क्षति पहुंची।

  • श्रीकाकुलम और विजयनगरम ज़िलों और विशाखापत्तनम और अराकू घाटी के कुछ क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सड़कें और राजमार्ग नुकसान पहुंचा।

  • रियल टाइम गवर्नेंस सोसायटी (आरटीजीएस) की रिपोर्ट के अनुसार, इस साइक्लोन से राज्य को लगभग 5244 करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान हुआ।

  • कृष्णा और ईस्ट गोदावरी ज़िलों में तेज़ हवाओं और लहरों से मछुआरों की नावें और जाल-नेटवर्क टूट-फूट गए।

  • काकीनाड़ा बंदरगाह पर कई नावें डूब गईं और कुल 48 करोड़ से अधिक के नुकसान का अनुमान लगाया गया।

  • तूफ़ान के बाद लंबे समय तक मछुआरे समुद्र में नहीं जा सके, जिससे उनकी दैनिक आमदनी और जीविका प्रभावित हुई।

साइक्लोन मिचुआंग (दिसंबर 2023):

  • यह साइक्लोन 5-6 दिसंबर 2023 को आंध्र प्रदेश के तटीय ज़िलों से टकराया था। इस दौरान 8 लोगों की मृत्यु और कई अन्य के घायल होने की पुष्टि हुई थी।

  • नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर (एनआरएससी) की रिपोर्ट के अनुसार, तेज़ बारिश और समुद्री लहरों के कारण नेल्लोर, कवाली, इंदुकुरपेट, कोटा, मुथुकुर और वकाडु जैसे निचले क्षेत्रों में पानी भर गया था। कई इलाकों में लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाना पड़ा।

  • नेल्लोर और प्रकाशम ज़िलों के तटीय तालाबों और झीलों में समुद्री जल घुसने से झींगा और दूसरी मछलियों का उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ।

  • करीब 4,500 हेक्टेयर मछली उत्पादन वाला क्षेत्र बाढ़ से डूब गया, जिससे तालाबों का पानी खारा हो गया।

  • राज्य के मत्स्य विभाग ने इस दौरान लगभग 120 करोड़ रुपये के नुकसान का अनुमान लगाया था।

दूरगामी प्रभाव: मछली उत्पादन और निवेश में गिरावट

  • 1980 से 2020 के बीच आए लगभग 30 बड़े साइक्लोनों से आंध्र प्रदेश (विभाजन से पहले) में मत्स्य उत्पादन में औसतन 18 से 22 फीसद की गिरावट दर्ज़ की गई।

  • राज्य के पुलिकट लैगून (नेल्लोर-चेन्नई सीमा) और कोलेरू झील क्षेत्र के लैगून के मुहाने या जल प्रवेश-निकास मार्गों में रुकावटें, सिल्टेशन, मछली-प्रजनन क्षेत्र में कमी, पानी की गहराई में कमी आदि समस्याएं बढ रही हैं। इस पारिस्थितिकीय संकट के कारण इन क्षेत्रों की पुनर्प्राप्ति यानी रिकवरी में कई वर्ष लग जाते हैं।

  • लगातार होने वाली तबाही से निवेश घटता है, पुनर्स्थापना लागत बढ़ती है और पर्यटन व तटीय व्यापार पर भी असर पड़ता है।

लगातार होने वाली तबाही से निवेश घटता है, पुनर्स्थापना लागत बढ़ती है और पर्यटन व तटीय व्यापार पर भी असर पड़ता है।
लगातार होने वाली तबाही से निवेश घटता है, पुनर्स्थापना लागत बढ़ती है और पर्यटन व तटीय व्यापार पर भी असर पड़ता है।फ़ोटो: unsplash.com

तटीय कटाव और ज़मीन के नुकसान की बढ़ती समस्या

  • चक्रवातों और समुद्री बाढ़ से राज्य की तटीय भूमि लगातार पीछे खिसक रही है।

  • आंध्र प्रदेश की लगभग 1034 किमी लंबी तटरेखा में से करीब 29 फीसद (लगभग 295 किमी) हिस्सा अब कटाव-संभावित क्षेत्र बन चुका है।

  • तटीय कटाव तब होता है जब समुद्र की लहरें, तूफानी उछाल और समुद्र-स्तर में वृद्धि मिलकर तट की भूमि को धीरे-धीरे “समुद्र के अंदर” धकेल देती हैं।

  • इसका सीधा असर खेती योग्य भूमि, मछुआरों के घाटों और तटीय निवेश पर पड़ रहा है।

पारिस्थितिकी और संरक्षण पर असर

  • समुद्री तटों की रक्षा में मदद करने वाले मैंग्रोव, तटीय वनों और समुद्री घास के क्षेत्र में भी कमी आ रही है। मरीन फिशरीज़ पॉलिसी रिपोर्ट के अनुसार साल 1987 से 2013 के बीच आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र में लगभग 143 वर्ग किलोमीटर मैंग्रोव क्षेत्र का नुकसान हुआ है।

  • प्राकृतिक तटीय सुरक्षा ढालों की क्षमता कम होने से भविष्य के तूफ़ानों का जोखिम पहले से ज़्यादा बढ़ गया है।

  • इससे न सिर्फ़ आर्थिक नुकसान, बल्कि राज्य की तटीय पारिस्थितिकी में भी गहरा असंतुलन पैदा हो रहा है। तूफानों, तेज़ हवाओं और चक्रवातों के कारण तटीय क्षेत्रों की सुरक्षा कमज़ोर होने साथ ही मिट्टी के कटाव की समस्या भी गंभीर होती जा रही है।

प्राकृतिक सुरक्षा की दीवार कमज़ोर होने के कारण खारा पानी धीरे-धीरे भूजल और खेतों में घुस रहा है और कूप, कुएं, नलकूप, तालाब खारे होने लगे हैं। इसके अलावा, मछलियों और प्रवासी पक्षियों की प्रजातियों में कमी आ रही है, जबकि बाहरी और तेज़ी से फैलने वाले पौधों की प्रजातियों का दायरा बढ़ रहा है।
स्थानीय समुदायों को शामिल करना, उनकी आजीविका-रोकथाम करना, योजना को उनके हित में बनाने जैसे पहलूओं को ध्यान में रखने से इस योजना की सफलता की संभावना को बढ़ाया जा सकता है।
स्थानीय समुदायों को शामिल करना, उनकी आजीविका-रोकथाम करना, योजना को उनके हित में बनाने जैसे पहलूओं को ध्यान में रखने से इस योजना की सफलता की संभावना को बढ़ाया जा सकता है।फ़ोटो: pexels.com

ग्रेट ग्रीन वॉल परियोजना की सीमाएं और चुनौतियां

तमाम बेस्ट-प्रैक्टिस और नीतिगत-ढांचों को ध्यान में रखने के बावजूद इस बात को महत्व देना ज़रूरी है कि इतने बड़े पैमाने पर शुरू की जाने वाली परियोजनाओं की अपनी कुछ चुनौतियां भी होती हैं। आंध्र प्रदेश के ग्रेट ग्रीन वॉल परियोजेना की कुछ चुनौतियां इस प्रकार हैं जिनसे समय-समय पर निपटने की ज़रूरत पड़ सकती है:

  • भूमि-उपलब्धता और उसके उपयोग को लेकर होने वाले संघर्ष: परियोजना के मुख्य लक्ष्य यानी तटीय इलाके में हरित पट्टी बनाने के लिए बहुत अधिक ज़मीन की ज़रूरत है। इनमें से ज़मीन का बड़ा हिस्सा पहले से ही मछली पालन, खेती, स्थानीय लोगों के निवास और आजीविका के अन्य स्रोतों के लिए उपयोग में लाया जा रहा है। ऐसे में, मौजूदा व्यवस्था में फेरबदल करने से कुछ जगहों पर भूमि-उपयोग को लेकर स्थानीय समुदायों और सरकार के बीच असहमति की स्थिति बन सकती है

  • पौधों की जीवित-रहने की संभावना: पौधों वाले इलाकों में घुसने वाला समुद्री खारा पानी, अक्सर चलने वाली तेज़ हवा, तटीय कटाव और समुद्री बाढ़, नए लगाए गए पौधों को नुकसान पहुंचा सकते हैं जिससे उनकी वृद्धि और जीवित रहने की दर प्रभावित हो सकती है।

  • रख-रखाव, निगरानी एवं दीर्घकालीन समर्पण: पौधों को एक बार लगा देना ही काफी नहीं होता है। एक बड़े क्षेत्र में लाखों की संख्या में पौधे लगाने के बाद उनकी सिंचाई, छंटाई, उन्हें तरह-तरह के रोगों से बचाने, मर गए पौधों की सफ़ाई और उनकी जगह नए पौधे लगाने के साथ ही पौधों में लगने वाले रोगों के रोकथाम और निगरानी की भी ज़रूरत होगी। इन सब के प्रबंधन के लिए एक ऐसी मज़बूत व्यवस्था चाहिए जिसे परियोजना की अवधि को देखते हुए टिकाऊ भी बनाए रखना होगा।

  • सामाजिक भागीदारी एवं स्वामित्व: किसी भी परियोजना की सफलता जितनी सरकारी नीतियों और प्रबंधन पर निर्भर होती है, स्थानीय स्तर पर लोगों की भागीदारी और उसके प्रति अपनत्व के भाव का असर भी उस पर उसी अनुपात में पड़ता है। संभव है कि कुछ क्षेत्रों में इस परियोजना को लोगों के विरोध का सामना करना पड़े। भूमि के उपयोग और उस पर निर्भर लोगों की आजीविका इसके मुख्य कारण हो सकते हैं। ऐसे में, अगर स्थानीय समुदाय के लोग योजना को स्वीकार करते हुए उसके देखरेख और बचाव की ज़िम्मेदारी को अपना काम नहीं मानेंगे तो पेड़ों की सुरक्षा और देखभाल पर इसका असर पड़ेगा।

  • वित्तपोषण एवं कार्यान्वयन: पौधारोपण, खासकर तटीय इलाकों में, केवल एक बार होने वाला खर्च नहीं है। पौधों को लगाए जाने के बाद, आने वाले सालों में भी पैसे, मानव संसाधन और तकनीकी समर्थन की जरूरत होगी ताकि स्थापित व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाया जा सके और परियोजना का लक्ष्य पूरा हो सके। अगर आर्थिक सहायता का क्रम बीच में टूटता है तो नए पौधों को लगाने के साथ ही पहले से लगाए गए पौधों की समुचित देखरेख भी नहीं हो सकेगी।

दूसरे देशों से क्या सीखा जा सकता है

  • सामाजिक भागीदारी, टिकाऊ आर्थिक सहायता और निगरानी ज़रूरी: अफ्रीका की ग्रेट ग्रीन वॉल महाद्वीप के स्तर पर शुरू की गई एक पहल है। इसका लक्ष्य सूखे और मरुस्थलीकरण से जूझ रहे इलाकों में हरियाली को वापस लौटाना था। इस पहल में कई हज़ारों किलोमीटर के क्षेत्र में पेड़-पौधे लगाकर एक प्राकृतिक हरी दीवार खड़ा करके ज़मीन को दोबारा उपजाऊ बनाने का प्रयास शामिल था।
    इस परियोजना के लागू होने के कुछ ही दिनों बाद सीख मिली कि सिर्फ पेड़ लगाने से काम नहीं चलता, बल्कि सामाजिक भागीदारी, टिकाऊ आर्थिक सहायता और निगरानी भी इसके आवश्यक पहलू हैं। अफ्रीका के सेनेगल, इथियोपिया, नाइजर और बुर्किना फ़ासो में इस पहल के सफल नतीजे देखने को मिले हैं।

  • बांग्लादेश का उदाहरण: इसका एक सफल उदाहरण बांग्लादेश में देखने को मिलता है। बांग्लादेश ने 1960 के दशक से ही अपने तटीय इलाकों में बड़े पैमाने पर मेंग्रोव और अन्य पौधों को लगाकर चक्रवात और समुद्री तूफ़ान से होने वाले नुकसान को घटाने का प्रयास शुरू कर दिया था। इस प्रयास में स्थानीय समुदायों के साथ ही निजी-सरकारी संस्थाओं की भागीदारी को सुनिश्चित करते हुए जैविक-हाइड्रोलॉजी के अनुसार पौधों के प्रकार और प्रजातिओं का चुनाव किया गया, जिसके बेहतर परिणाम देखने को मिले थे। 

  • वियतमान और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की सफलता: इन देशों ने अपने तटीय इलाकों की सुरक्षा के लिए कंक्रीट और पत्थर के बदले पेड़ लगाने जैसे प्राकृतिक तरीके अपनाए। इन देशों में तटीय इलाकों की सुरक्षा के लिए लागू की गई योजनाओं के केंद्र में जैविक और संरचनात्मक ढांचों को केंद्र में रखा गया है जो हाइब्रिड होने के कारण ज़्यादा टिकाऊ होते हैं। 

आंध्र प्रदेश सरकार की ग्रेट ग्रीन वॉल योजना एक बड़ी और नई सोच वाली पहल है। अगर इस योजना को वैज्ञानिक तरीके से, स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों और संबंधित समुदायों की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर लागू किया जाए, तो यह न केवल राज्य के लिए बल्कि पूरे देश के लिए एक सफल प्रकृति-आधारित समाधान (नेचर-बेस्ड सॉल्यूशन) का मॉडल बन सकती है।

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