बीते दिनों उत्‍तराखंड के धराली में आए सैलाब और भूस्‍खलन ने चंद मिनटों में पूरे गांव को तबाह करने के साथ ही एक बड़े इलाके की जलापूर्ति व्‍यवस्‍था को भी ध्‍वस्‍त कर दिया।
बीते दिनों उत्‍तराखंड के धराली में आए सैलाब और भूस्‍खलन ने चंद मिनटों में पूरे गांव को तबाह करने के साथ ही एक बड़े इलाके की जलापूर्ति व्‍यवस्‍था को भी ध्‍वस्‍त कर दिया। स्रोत : इंडिया टुडे

बादल फटने की घटनाएं कैसे बढ़ा रही हैं हिमाचल और उत्तराखंड का पेयजल संकट

बादल फटने की घटनाओं में हुई तबाही और भूस्‍खलन से कई इलाकों में जल आपूर्ति व्यवस्था चरमरा गई। कई जगहों पर पम्पिंग स्टेशन ध्वस्त हो गए, पानी की टंकियां और पाइपलाइनें सैलाब में टूटकर बह गईं।
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बादल तो पानी देते हैं। धरती, पौधों और जीवों की प्‍यास बुझाते हैं। यही बादल अगर लोगों के लिए पेयजल संकट पैदा कर दें, तो बात अजीबोगरीब लगती है। पर, यह विरोधाभास इन दिनों देश के कई पहाड़ी राज्‍यों के लिए एक ज़मीनी हकीक़त बना हुआ है। 

हिमाचल प्रदेश और उत्‍तराखंड में हुई बादल फटने की घटनाओं ने कई इलाकों में जलापूर्ति के बुनियादी ढांचे को तहस-नहस कर दिया। हालांकि, दोनों ही राज्‍यों की सरकारें प्रभावित इलाक़ों में पेयजल आपूर्ति बहाल कर लिए जाने के दावे कर रही हैं, पर ज्‍़यादातर मामलों में यह दावे आधा और एकतरफ़ा सच हैं। कई इलाक़े ऐसे हैं, जहां तात्‍कालिक इंतज़ाम करके लोगों को पानी तो उपलब्‍ध करा दिया गया है, पर पेयजल आपूर्ति स्‍थायी रूप से बहाल नहीं हो पाई है। 

टीओआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक हिमाचल प्रदेश में ही करीब 12,281 पेयजल आपूर्ति योजनाएं बारिश और भू-स्खलनों से क्षतिग्रस्त हुईं, जिनका नुकसान सरकार ने 925.85 करोड़ रुपये आंका है। राज्‍य में कई पम्पिंग स्टेशन ध्वस्त हुए, टंकियां फट गईं और पाइपलाइनें टूटकर बह गईं। 

हिमाचल प्रदेश के उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री ने टीओआई को बताया कि पेयजल आपूर्ति के अलावा इस आपदा में 2,624 सिंचाई योजनाएं भी प्रभावित हुईं, जिससे 244 करोड़ रुपये का अनुमानित नुकसान हुआ। इसके अलावा 115 जगह बाढ़-सुरक्षा से जुड़े इन्‍फ़्रास्ट्रक्चर को 55 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ, 183 सीवरेज योजनाओं को 64 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।

राज्‍य में 391 हैंडपंपों को नुकसान पहुंचने से 1.20 करोड़ रुपये की क्षति का अनुमान है। कुल मिलाकर राज्य में पानी से जुड़ी 15,594 योजनाएं प्रभावित हुईं, जिनका कुल अनुमानित नुकसान 1,291 करोड़ रुपये आंका गया है। 

हालांकि, सरकार अब अधिकांश स्कीमों को बहाल करने का दावा कर रही है, लेकिन हकीकत यह है कि ज़्यादातर जगहों पर इंतज़ाम महज़ अस्थायी हैं। स्थायी समाधान के लिए भारी समय, मेहनत और धन की ज़रूरत होगी। उपमुख्यमंत्री के मुताबिक राज्य सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता जलापूर्ति और सीवरेज योजनाओं का जीर्णोद्धार कर व्‍यवस्‍था को जल्‍द से जल्‍द बहाल करना है, क्‍योंकि इन प्राकृतिक आपदाओं से हज़ारों गांव और कस्बे अचानक गहरे पेयजल संकट में डूब गए हैं।

हिमाचल की तरह उत्तराखंड भी अतिवृष्टि, भूस्खलन और बादल फटने की आपदाओं से बुरी तरह प्रभावित हुआ। दि पॉयनियर की रिपोर्ट के अनुसार राज्य सरकार के अनुसार इस वर्ष अब तक 2,187 पेयजल आपूर्ति योजनाएं प्रभावित हुई हैं।

इनमें चमोली ज़िले में 366, उत्तरकाशी में 324, देहरादून में 291, पिथौरागढ़ में 261, टिहरी में 248, पौड़ी में 238, नैनीताल में 140, अल्मोड़ा में 114, रुद्रप्रयाग में 107, बागेश्वर में 57 और चंपावत में 41 योजनाएं प्रभावित हुई हैं। उत्तराखंड जल संस्थान (यूजेएस) के अधिकारियों के मुताबिक इनमें लगभग 2,184 को अस्थायी रूप से बहाल कर दिया गया है।  

यूजेएस के मुताबिक चमोली, उत्तरकाशी, देहरादून, पिथौरागढ़ आदि में पाइपलाइनें टूटने, पानी की टंकियों को नुकसान पहुंचने और झीलों व झरनों जैसे जल स्रोतों की बुरी स्थिति के कारण लोगों की रोज़ाना की ज़रूरतें पूरी करने के लिए पानी मिलने में कई तरह की रुकावटें पैदा हुई हैं।

अधिकारियों का कहना है कि भारी बारिश और संबंधित कारकों के कारण हर साल मानसून के मौसम में जलापूर्ति प्रणालियों को इस तरह का नुकसान होता है। प्रभावित जलापूर्ति योजनाओं की अस्थायी मरम्मत वर्तमान में की जा रही है, जबकि स्थायी बहाली मानसून खत्म होने के बाद की जाएगी।

पहाड़ी इलाकों की कठिन भौगोलिक स्थितियों, दुर्गमता और तेज़ ढलानों जैसी मुश्किलों के चलते यहां जलापूर्ति का नेटवर्क खड़ा करना मुश्किल होता है।
पहाड़ी इलाकों की कठिन भौगोलिक स्थितियों, दुर्गमता और तेज़ ढलानों जैसी मुश्किलों के चलते यहां जलापूर्ति का नेटवर्क खड़ा करना मुश्किल होता है। स्रोत : हिन्‍दुस्‍तान

पहाड़ों में पानी पहुंचाना क्यों है मुश्किल ?

पहाड़ी इलाकों में पेयजल आपूर्ति का काम मैदानी इलाकों की तरह पंपिंग स्‍टेशन से ओवर हेड टैंक और वहां से पाइपलाइन के ज़रिये घरों में सप्‍लाई जितना सीधा और सरल नहीं होता। यहां भौगोलिक परिस्थितियां पूरी तरह से अलग होती हैं। इसलिए, यहां पूरी तरह से अलग तंत्र की ज़रूरत होती है। 

मैदानी इलाकों में नदियां, झीलें, तालाब या भूमिगत जल जैसे पानी के स्रोत अपेक्षाकृत स्थिर और पास होते हैं। यहां पाइपलाइनों को ढाल देकर गुरुत्वाकर्षण की मदद से या सामान्य पम्पिंग से घरों तक पहुंचाया जा सकता है। मगर, पहाड़ी इलाक़ों में मामला बिल्कुल अलग है।

यहां ज्‍़यादातर मामलों में जलापूर्ति के लिए पानी नीचे से ऊपर की ओर पंप नहीं किया जाता, बल्कि ऊंचाई वाले स्थानों पर बने प्राकृतिक स्रोतों के पानी या पंपिंग स्टेशनों से निकाले गए भूजल को ज़मीन पर बनी विशाल टंकियों में एकत्र किया जाता है। इन टंकियों से पाइपों के ज़रिए पानी को निचले इलाकों में बसे गांवों और कस्बों के घरों तक पहुंचाया जाता है।

पहाड़ी इलाकों में ज़मीन की अस्थिरता और भूकंप व भूस्खलन के ख़तरे के चलते ऊंचे ओवरहेड टैंक बहुत कम देखने को मिलते हैं। इसके बजाय ज़मीन पर बने जलाशयों और टंकियों को प्राथमिकता दी जाती है, जिससे रिसाव या ढांचे के अस्थिर होने जैसी समस्याओं से बचा जा सके।

पहाड़ों पर कई जगह पानी के स्रोत घाटियों में या ढ़लान वाले इलाकों में भी होते हैं। यहां पानी को ऊपर चढ़ाने के लिए काफी शक्तिशाली पम्पिंग स्टेशन, ज़मीनी या भूमिगत टंकियों और ज्‍़यादा दबाव सह सकने वाले मोटे पाइपलाइन नेटवर्क की ज़रूरत पड़ती है। कई बार पाइपलाइनें खड़ी चट्टानों या भूस्खलन-की संभावना वाली ढलानों से होकर गुजरती हैं, जिससे बारिश या प्राकृतिक आपदाओं में उनका टूटना या बह जाना आम है। 

इसके अलावा, भौगोलिक स्थितियों के कारण पहाड़ी गांव और कस्बे फैले हुए और आबादी बिखरी होती है। इस वजह से हर जगह पाइपलाइन से पानी पहुंचा पाना तकनीकी और आर्थिक रूप से मुश्किल होता है। बर्फ़बारी, भारी बारिश और भूस्खलन जैसी घटनाओं का जोखिम वाटर सप्‍लाई सिस्‍टम पर लगातार बना रहता है। इन प्रतिकूलताओं के चलते पहाड़ों की पेयजल व्यवस्था मैदानी इलाकों की तुलना में कहीं ज़्यादा जटिल, मुश्किल, महंगी और आपदा-संवेदनशील होती है। यह पूरे हिमालयी भूभाग का साझा दर्द है।

हिमाचल प्रदेश और उत्‍तराखंड के कई ज़िलों में बादल फटने से आए सैलाब और भूस्‍खलन से जलापूर्ति ठप होने के कारण लोग टैंकरों से पानी लेने को मजबूर हैं।
हिमाचल प्रदेश और उत्‍तराखंड के कई ज़िलों में बादल फटने से आए सैलाब और भूस्‍खलन से जलापूर्ति ठप होने के कारण लोग टैंकरों से पानी लेने को मजबूर हैं। स्रोत : ईटीवी भारत

बारिश और भूस्खलन से कैसे टूटा पानी का नेटवर्क ?

पहाड़ी राज्यों में कई दिनों तक लगातार हुई बारिश और बादल फटने की घटनाओं से ढलान वाले इलाक़ों में कई जगह भूस्खलन की घटनाएं हुईं। इनमें बड़ी-बड़ी चट्टानों, मिट्टी, पत्थरों के दरकने से पम्पिंग स्टेशन मलबे में दब गए, स्टोरेज टंकियां टूट गईं और पाइपलाइनें नदी-नालों में बह गईं। हिमाचल प्रदेश के शिमला, मंडी, कांगड़ा, कुल्लू जैसे जि़लों में जलापूर्ति नेटवर्क का बड़ा हिस्‍सा तहस-नहस हो गया। 

बीएस की रिपोर्ट के मुताबिक मंडी जिले में भारी बारिश से चट्टानी ढलानों से मिट्टी और मलबा नीचे आ गया। इससे कई हिस्सों में पाइपलाइनें बह गईं या क्षतिग्रस्त हुईं। कई गांवों में शीर्ष पम्पिंग स्टेशनों से पानी लाने और सप्‍लाई वाली पाइपों के जोड़ टूट गए थे, जिससे नीचे बस्तियों तक पानी की आपूर्ति कई दिनों तक बंद रही। 

वहीं एनडीटीवी की रिपोर्ट के मुताबिक  उत्तराखंड के धराली (उत्तरकाशी) में देशभर में चर्चा का विषय बनी बादल फटने की घटना ने न केवल गांवों के रास्ते काट दिए, बल्कि पाइपलाइनों को उखाड़ दिया और जल स्रोतों को मिट्टी और मलबे से भर दिया। खासकर खीर गंगा नदी के किनारे बसे इलाके फ़्लैश फ़्लड से बुरी तरह प्रभावित हुए।

यहां एक अस्थायी झील बनने से काफी मात्रा में तलछट वाला मटमैला पानी जमा हो गया, जिसने झरनों के प्राकृतिक प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया था। इससे स्थानीय जलापूर्ति नेटवर्क कई दिनों तक अवरुद्ध रहा। मसूरी में यमुना पेयजल योजना क्षतिग्रस्त पाइपलाइन के कारण ठप हो गई। 

इन हालात ने यह साफ़ कर दिया कि पर्वतीय क्षेत्रों में पेयजल नेटवर्क प्राकृतिक आपदाओं के सामने कितना क्षण भंगुर है। पहाड़ी राज्यों में पेयजल नेटवर्क सबसे ज्‍़यादा कमज़ोर उन इलाकों में पाया गया है जहां गांव या बस्तियां नदी-नालों के किनारे या भूस्खलन की संभावना वाली तेज़ ढलानों पर बसी हैं। हिमाचल के मंडी, कांगड़ा और कुल्लू जैसे ज़िलों में पाइपलाइनें अकसर ऐसी ही ढलानों, खड्डों और झरनों को पार करती हैं। इसलिए तेज़ बहाव या चट्टान गिरने पर पाइप आसानी से टूट जाते हैं। 

शिमला और सोलन जैसे शहरी क्षेत्रों में दशकों पुराने और ज़ंग लगे पाइपों के दरकने से रिसाव बढ़ जाता है। उत्तराखंड में उत्तरकाशी और चमोली के पहाड़ी गांवों में आपूर्ति वाले जल स्रोत ऊंचाई वाले दूरस्थ स्‍थानों पर हैं, जिससे पानी लाने के लिए लंबी पाइपलाइन डालनी पड़ती हैं। ढलानों पर बिना पक्के आधार के बिछे होने के कारण ये पाइप ज़्यादा बारिश होने पर अकसर खिसक जाते हैं। 

मसूरी जैसी ज़्यादा आबादी वाली जगहों पर ओवरहेड टैंकों की कमी के चलते ज़मीन-स्तर की टंकियों यानी ग्राउंड लेवल टैंक पर निर्भरता जलापूर्ति व्‍यवस्‍था की एक बड़ी कमज़ोरी है, क्योंकि फ़्लैश फ़्लड का भारी मलबा आने पर ये कीचड़ से भर जाती हैं या क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। कुल मिलाकर ढलानों पर अस्थिर नींव, ज़ंग लगी पाइपलाइन, और वैकल्पिक आपूर्ति मार्गों की कमी वाटर सप्‍लाई नेटवर्क को प्राकृतिक आपदाओं के सामने असहाय बना देती है।

लोगों के जीवन पर गहरा असर

जलापूर्ति ठप होने से पैदा हुए पेयजल संकट का काफ़ी गहरा असर दोनों राज्‍यों की जनता पर पड़ा। प्रभावित इलाकों में पानी पीने और घरेलू कामकाज के लिए पानी का इंतज़ाम करने के लिए लोगों को कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ा।

इसका ज्‍़यादातर भार महिलाओं को उठाना पड़ा, क्‍योंकि आमतौर पर घर के लिए पानी का इंतज़ाम करना उन्‍हीं के ज़िम्‍मे होता है। यहां तक कि बच्‍चों और बुज़ुर्गों को भी दूरस्थ जल स्रोतों से बाल्टियां और बर्तन भरकर पानी लाते देखा गया। 

जिन गिने-चुने इलाकों में सरकार की ओर से पानी के टैंकर भेजे गए, वहां भी मांग के मुकाबले काफ़ी कम आपूर्ति होने के चलते लोगों को लंबी कतारें लगानी पड़ीं और पानी के लिए लोगों के बीच झगड़े आम हो गए।

हिमाचल के शिमला और मंडी जैसे शहरी इलाकों तक में पाइपलाइने टूटने से घरों में नलों का पानी हफ्तों तक गायब रहा। नतीजतन, लोग झरनों का मटमैला पानी पीने और असुरक्षित स्रोतों का सहारा लेने को मजबूर हुए। 

इससे जलजनित बीमारियों का खतरा बढ़ा। ग्रामीण इलाकों में तो हालत और भी बदतर रही। हिमाचल प्रदेश राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एचपीएसडीएमए) के राज्य आपातकालीन परिचालन केंद्र (एसईओसी) के हवाले से दी गई रिपोर्ट के मुताबिक कुल 389 जल आपूर्ति योजनाएं बाधित हुई हैं। इनमें से ज़्यादातर बाधाएं शिमला ज़िले में थीं, जहां 183 योजनाएं प्रभावित हुईं। इसके बाद सबसे ज़्यादा संख्या मंडी (79) और कुल्लू (63) में थी।

इसी तरह उत्तराखंड के चमोली, उत्तरकाशी, पिथौरागर और टिहरी में भी काफ़ी बुरा हाल रहा। यहां के लोगों को रोज़ाना “आज पानी मिलेगा या नहीं” के सवाल से जूझते हुए कठिनाई भरे दौर से गुज़रना पड़ा। पेयजल की व्‍यवस्‍था पटरी से उतनने से न केवल इनके जीवन की गुणवत्ता प्रभावित हुई, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था, खासकर पर्यटन को भी काफी चोट पहुंची, जो कि यहां के लोगों की कमाई का एक प्रमुख ज़रिया है। टीओआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक होटल और होम स्टे के मालिकों को पानी की भारी कमी से जूझना पड़ा, जिससे उन्हें 2,000 रुपये देकर टैंकरों से पानी खरीदना पड़ा।

पहाड़ों पर जलापूर्ति व्‍यवस्‍था के ध्‍वस्‍त होने पर सबसे ज्‍़यादा कठिनाई महिलाओं को उठानी पड़ती है, क्‍यों‍कि पीने और घरेलू कामकाज के लिए पानी लाने का ज़िम्‍मा अकसर उनपर ही होता है।
पहाड़ों पर जलापूर्ति व्‍यवस्‍था के ध्‍वस्‍त होने पर सबसे ज्‍़यादा कठिनाई महिलाओं को उठानी पड़ती है, क्‍यों‍कि पीने और घरेलू कामकाज के लिए पानी लाने का ज़िम्‍मा अकसर उनपर ही होता है। स्रोत : इंडिया वाटर पोर्टल

स्थायी समाधान की चुनौतियां

पहाड़ी राज्यों में जलापूर्ति प्रणाली को स्थायी रूप से दुरुस्त करना केवल क्षतिग्रस्‍त हुई पाइपलाइनों को दोबारा बिछा देने या पम्पिंग स्टेशनों को ठीक कर देने तक सीमित नहीं है। असली चुनौती स्‍थानीय ज़रूरतों और भौगोलिक स्थितियों के अनुरूप ऐसे उपयुक्‍त डिज़ाइन और तकनीक अपनाने की है जो भूस्खलन, बादल फटने और तेज़ बारिश जैसी बार-बार आने वाली प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर सके। 

इसके लिए मज़बूत आधार (एंकरिंग) वाले पाइपलाइन नेटवर्क, भूस्खलन-रोधी निर्माण सामग्री और जलाशयों को भूस्‍खलन की आशंका वाली ढलानों से सुरक्षित दूरी पर स्थापित करने जैसी इंजीनियरिंग की सूझबूझ आवश्यक है। इन तकनीकों की लागत बहुत अधिक हो सकती है और इसके नियमित रखरखाव के लिए भी विशेष प्रकार के कौशल और कार्यकुशलता की ज़रूरत पड़ती है।

साथ ही, पेयजल के दीर्घकालिक समाधान के लिए जलस्रोतों के संरक्षण और स्थानीय पुनर्भरण पर ध्यान देना भी बेहद ज़रूरी है। वर्षा जल संचयन, छोटे-छोटे चेकडैम बनाने और प्राकृतिक स्रोतों को पुनर्जीवित करने से जलापूर्ति नेटवर्क पर दबाव को कम किया जा सकता है। साथ ही, सामुदायिक स्तर पर जल प्रबंधन समितियों की भागीदारी भी ज़रूरी है, ताकि स्थानीय लोग मरम्मत और देखरेख में सक्रिय भूमिका निभा सकें। 

इन पहलों को लागू करने में पर्याप्त वित्तीय निवेश, सरकारी नीतियों में निरंतरता और पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता की कमी जैसी चीजें बाधक बनती हैं। इसके चलते पर्वतीय राज्‍यों में पेयजल की समस्‍या का स्थायी समाधान की राह अभी लंबी और जटिल बनी हुई है। इसके समाधान के प्रमुख बिंदुओं को इस प्रकार समझा जा सकता है - 

  • भूस्खलन-रोधी डिज़ाइन : पाइपलाइनें और जलाशय ऐसे स्थानों पर और ऐसी सामग्री से बने हों जो आए दिन होने वाले भूस्खलन और भारी बारिश को झेल सकें। हालांकि, टिकाऊ इंजीनियरिंग समाधान काफ़ी महंगे होते हैं और इनकी नियमित देखरेख के लिए पर्याप्त बजट व प्रशिक्षित तकनीशियनों की भी ज़रूरत होती है।

  • वर्षा जल संचयन और स्थानीय जलस्रोतों को पुनर्जीवन : जलापूर्ति के पानी की व्‍यवस्‍था के लिए छोटे चेकडैम, परकोलेशन टैंक और रेनवाटर हार्वेस्टिंग जैसी संरचनाओं का व्‍यापक स्‍तर पर विकास करने की ज़रूरत है। पारंपरिक झरनों, नौलों और तालाबों को वैज्ञानिक तरीके से पुनर्जीवित करना पहाड़ों में स्थायी जलापूर्ति का सबसे कारगर तरीका हो सकता है। इससे न केवल जल भंडारण क्षमता बढ़ेगी, बल्कि स्थानीय समुदायों को अपनी ज़रूरतों के लिए पास में ही पानी उपलब्ध हो सकेगा।

  • छोटे स्तर पर रेनवॉटर हार्वेस्टिंग : घरों और संस्थानों की छतों पर वर्षा जल संचयन को लागू करके जलापूर्ति के लिए जल संचय को बढ़ाया जा है। इससे बारिश का साफ-सुथरा पानी सीधे टैंक या भूमिगत जलाशयों में जमा हो जाएगा, जिससे गर्मियों में भी पानी की कमी से जूझना नहीं पड़ेगा।

  • ग्रैविटी-आधारित पाइपलाइन सिस्टम : पहाड़ों में कमज़ोर बिजली आपूर्ति और पंपिंग की चुनौतियों को देखते हुए गुरुत्वाकर्षण आधारित पाइपलाइन सिस्टम अधिक टिकाऊ और व्‍यावहारिक विकल्प है। इसमें ऊंचाई से निचले इलाकों तक पानी स्वतः बहता है, जिससे रखरखाव और खर्च दोनों कम हो जाते हैं।

  • सामुदायिक भागीदारी और जल प्रबंधन समितियां : स्थानीय लोग जल प्रणालियों के रखरखाव में सक्रिय रूप से शामिल हों, इसके लिए गांव स्तर पर समितियां बनाई जा सकती हैं। इससे ज़िम्मेदारी का बंटवारा होगा और जल परियोजनाओं की निगरानी व स्थायित्व सुनिश्चित होगा।

  • जलवायु अनुकूल ढांचे : बादल फटने जैसी चरम मौसम की घटनाओं और भूस्खलन जैसी आपदाओं को देखते हुए जलापूर्ति ढांचे को अधिक मज़बूत और लचीला बनाया जाना चाहिए। इसके लिए टिकाऊ पाइप, सुरक्षित टैंक और आपदा-रोधी डिज़ाइन अपनाए जा सकते हैं।

  • तकनीकी नवाचार और निगरानी प्रणाली : जलापूर्ति को बेहतर बनाने और इसकी कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए इनोवेटिव और आधुनिक तकनीकों का इस्‍तेमाल करना काफ़ी उपयोगी हो सकता है। इसमें डिजिटल सेंसर, जीपीएस मैपिंग और मोबाइल आधारित ऐप से जल स्रोतों की रीयल टाइम निगरानी प्रणली जैसी चीज़ें शामिल हैं। इन्‍हें अपना कर पानी के रिसाव, जल स्रोतों के सूखने और पानी के वितरण में गड़बड़ियों को तुरंत चिह्नित कर जलापूर्ति में सुधार किया जा सकता है।

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