विश्व जलदिवस : हिमनदों के संरक्षण से दूर होगा जल संकट
भारतीय दर्शन में प्रकृति के पांच तत्व, जिन्हें हम पंचमहाभूत या पंच तत्व कहते आए है, जिसमें आकाश, पृथ्वी, वायु, अग्नि और जल सम्मिलित है। इन्हीं पंच तत्वों से सृष्टि का सृजन हुआ है। इन्हें हम प्रकृति के पांच उपादान भी कहते हैं। मनुष्य और इस जगत में सभी प्राणियों का शरीर इन्हीं पांच तत्वों से बना हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इनका वर्णन करते हुए लिखा है 'छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा'। यूं तो जल पर सभी का एक समान अधिकार है, फिर भी दुनिया में करीब 2.2 बिलियन लोग पीने वाले पानी को बिना किसी विधि के शोध किए हुए ही प्रयोग करते हैं, जो कि उनके जीवन के लिए एक खतरा भी हो सकता है। क्योंकि भौगोलिक स्तर पर आज परिस्थितियों को देखते हुए किसी भी प्रकार के वातावरण में मौजूद जल के शुद्ध होने की कल्पना करना कठिन ही है।
विश्व जल दिवस (22 मार्च विशेष)
संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति जल से ही हुई है। मनुष्य के शरीर का 70 प्रतिशत भाग जल ही है। पृथ्वी पर दो तिहाई भाग जल है और एक तिहाई भाग स्थलीय भूमि है। पृथ्वी पर उपलब्ध जल में 97 प्रतिशत खारा जल है, जो कि सागरों, महासागरों में मौजूद है तथा शेष बचा हुआ तीन प्रतिशत जल नदियों, तालाबों, हिमनदों आदि में मौजूद है, जिसको हम ताजा जल भी बोलते हैं। पृथ्वी पर मौजूद ताजे जल का कुछ भाग ही हम प्रयोग कर सकते हैं, क्योंकि अधिकांश भाग हिमनदों पर मौजूद बर्फ के रूप में है या जमीन के अंदर है। नदियों में घटता पानी और बढ़ता हुआ प्रदूषण, भूजल के निरंतर गिरते हुए स्तर, बारिश के असमान वितरण, पर्वतीय भूभागों में अचानक आने वाले बर्फीले तूफान, बादल फटने की घटनाएं आदि देखकर वैश्विक चिंता है कि यदि यही हाल रहा तो आने वाले सालों में क्या होगा? राष्ट्रीय स्तर व वैश्विक स्तर बहुत सारे चिंतन मनन शुरू हो चुके हैं। स्थानीय व प्रांतीय स्तर पर लोगों का मनोभाव अपने इन निरंतर दूषित होते हुए प्राकृतिक जल स्रोतों को देखकर अंदर से पीड़ित होने लगा है। एक आम मनुष्य, जिसको सुबह से शाम तक विभिन्न क्रियाकलापों में जल की आवश्यकता होती है, लेकिन आज विचार करने वाली बात यह है कि क्या हमें यह शुद्ध जल मिल पा रहा है और यदि मिल रहा है, तो कब तक मिल पाएगा? आने वाले समय में क्या होगा? हमारी आने वाली पीढ़ियां क्या दूषित जल पिएंगी या दूषित भोजन खाएंगी। इस पर विचार करना बहुत आवश्यक हो गया है।
हिमनदों का पिघलना
हिमनद मुख्यतः अंटार्कटिका ग्रीनलैंड, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के पर्वतीय भाग, एशिया और यूरोप के महाद्वीपों में मौजूद है। दुनिया में अंटार्कटिका भाग में पाए जाने वाले ग्लेशियर सबसे बड़े माने गए है। बढ़ती हुई विकास की गतिविधियों, मानवीय गतिविधियों के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सीधा नकारात्मक असर पूरी दुनिया के हिमनदों पर पड़ रहा है, जिससे उन पर जमी हुई बर्फ के पिघलने में तेजी आई है। पृथ्वी का तापमान धीरे-धीरे बढ़ रहा है। पिछले 100 वर्षों में हिमनदों का जल तेजी से पिघला है। दुनिया के हिमनदों से सालाना लगभग 200 विलियन मीट्रिक टन बर्फ पिघलती है और समुद्री जल स्तर की बढ़ाती है। समुद्र के किनारे के क्षेत्र खतरे की जद में आ चुके है। हिमनदों का तेजी से पिघलना प्राकृतिक जल चक्र को, पारिस्थितिक तंत्र को और साथ ही साथ समुदायों को भी प्रभावित करता है। हिंदुकुश हिमालयी भूभाग में लगभग 54000 हिमनदों की उपस्थिति आंकलित की गई है, जो करीब 60000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए है तथा क्षेत्र की नदियों के जल की आपूर्ति के प्रमुख स्रोत है। वैज्ञानिक रिपोर्ट यह बताती है हिंदू कुश हिमालयी क्षेत्र में भी हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं।
प्रकृति के अनुकूल है भारतीय दर्शन
आज बढ़ी हुई मानवीय गतिविधियों तथा जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण इन हिमनदों के अस्तित्व के लिए संकट उत्पन्न हो चुका है और यह तेजी से पिघलने लगे हैं। इन पर लगातार कम होती बर्फ की मात्रा एक बड़ी चिंता का विषय है कि आने वाले वर्षों में यदि हिमनदों में बर्फ ही नहीं होगी तो नदियों में जल कहां से आएगा और जब नदियां सुखी होंगी तो जीवों का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा। इसलिए इस वर्ष विश्व जल दिवस की थीम इन हिमनदों का संरक्षण रखी गई है। हिमनदों का संरक्षण करने के लिए जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करना होगा, धरती पर वृक्षारोपण को बढ़ाना होगा, जीएम ईंधन के स्थान पर ऊर्जा के अन्य स्रोतों को अपनाना होगा, मानवीय आवश्यकताएं कम करनी होंगी, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना होगा, जीवनशैली में प्रकृति अनुरूप परिवर्तन लाने होंगे, भारतीय जीवन पद्धति को फिर से अपनाना होगा। दुनिया को विलासिता पूर्ण पश्चिम की संस्कृति को छोड़कर प्रकृति अनुरूप भारतीय जीवनशैली से परिचित कराना होगा और उसके महत्व की भी समझाना पड़ेगा, क्योंकि भारतीय जीवन पद्धति जीवन शैली, भारतीय दर्शन वैदिक काल से ही प्रकृति के अनुकूल रही है और संरक्षण को समर्पित रही है।
जल बचाने को वैश्विक प्रयास
आज दुनिया की आबादी आठ अरब के आंकड़े को पार कर चुकी है। इतनी बड़ी आबादी को शुद्ध पेयजल उपलब्ध होना एक बहुत बड़ा व गंभीर विषय है। वर्ष 1951 में देश की जनसंख्या करीब 400 करोड़ के आसपास रही होगी और आज हम 140 करोड़ को पार कर चुके हैं। बड़ी जनसंख्या का मतलब हुआ पानी का उपयोग अधिक होना और जब पानी होगा नहीं तो क्या होगा यह विचारणीय है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा दुनिया में ताजे जल के महत्व को केंद्रित करते हुए वर्ष 1993 से हर वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाना प्रारंभ किया गया है। विश्व जल दिवस के दिन जल को संरक्षित करने संबंधी विषयों पर अनेक कार्यक्रम विभिन्न देशों में, विभिन्न संस्थाओं द्वारा समाज के बीच, विद्यार्थियों के बीच जागरूक करने के उद्देश्य से आयोजित किए जाते हैं। इन सभी कार्यक्रमों का उद्देश्य जल का संरक्षण, जल स्रोतों का संरक्षण आदि विषयों को शामिल करते हुए आम जनमानस में जल चेतना का जागरण ही है।
प्रकृति में जल एक चक्र के रूप में समुद्र से भाप बनकर उड़ता हुआ मौसमी हवाओं के साथ ऊंचाई वाले भाग की तरफ पहुंच कर पर्वतीय भूभाग में वर्षा करता है। उच्च पर्वतीय क्षेत्र में बारिश होने पर बर्फबारी होती है और हिमनदों में उपस्थित बर्फ की मात्रा में वृद्धि होती है। हिमनद अर्थात ग्लेशियर सामान्यतः ऊंचाई वाली चीटियों पर वर्ष भर जमी रहने वाली बर्फ होती है, जो कि ढलान की वजह से घाटी की तरफ अपने भारी वजन तथा बर्फ के पिघलने के कारण धीरे-धीरे नीचे की ओर खिसकता रहता है। हिमनद से निकला हुआ जल घाटी की छोटी-छोटी नलिकाओं एवं नदियों के द्वारा बड़ी नदियों में आकर मिल जाता है और पर्वतीय अंचल के साथ ही मैदानी भूभाग में निवास करने वाले जीवों को जीवन प्रदान करता है तथा विविध कार्यों जैसे कृषि, उद्योग आदि में प्रयोग किया जाता है। एक बात यहां समझना आवश्यक है कि हिमनदों से बहकर आने वाला जल जमीन के अंदर भी रिसता हुआ पहुंचकर भूजल को पोषण देता है।