श्रीनगर की अचन डंपिंग साइट के पास रह रहे लोगों में बढ़ रही सांस की बीमारियां
दुर्गंध और बीमारी के बीच फंसा एक मोहल्ला
कचरे का पहाड़ दिखाई देने से पहले ही उसकी बदबू अचन के रिहायशी इलाकों तक पहुंच जाती है। श्रीनगर के बाहरी इलाके में रहने वाली फातिमा बेगम (बदला हुआ नाम ) अपने आठ साल के उस बेटे को ढाढ़स बंधाने का प्रयास करती हैं, जिसकी हर सांस के साथ घर-घर की आवाज़ आती है। गर्मी के दिनों में भी खिड़कियां बंद रखनी पड़ती हैं, लेकिन इसके बावजूद भी लैंडफ़िल से आने वाली बदबू हर दरार से घर के भीतर आ जाती है। उन डब्बों के चारों ओर मक्खियां मंडराती रहती हैं जिसमें उपयोग का पानी जमा करके रखा जाता है। नतीजा यह होता है कि जो भी थोड़ा-बहुत पानी इस्तेमाल लायक़ होता है, वह भी गंदा हो जाता है। फातिमा की रोज़मर्रा की ज़िंदगी बीमारी, अस्पताल के चक्कर और अगली बीमारी के डर के बीच फंस कर रह गई है। वह बताती हैं, ‘मेरे बच्चे इतनी बार बीमार पड़ते हैं कि क्लिनिक जाना हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन गया है।”
फातिमा को लगभग रोज़ ही अचन लैंडफिल के पास से गुजरना पड़ता है, जहां की हवा में धुआं और जहरीली गैसें घुली होती हैं। उनकी नौ साल की बेटी अलीशा (बदला हुआ नाम ) को ब्रोंकाइटिस और लगातार होने वाली खांसी के कारण अक्सर अपना स्कूल छोड़ना पड़ता है। फातिमा बताती हैं, ‘उसे स्कूल जाना बहुत पसंद है, लेकिन कई बार बहुत ज़्यादा खांसने के कारण उल्टी तक हो जाती है और उसे स्कूल छोड़ना पड़ता है। उसकी छाती में हमेशा ही दर्द रहता है और थोड़ी देर चलने-फिरने से ही उसकी सांस की समस्या गंभीर होने लगती है।’ कई बार घरों में आने वाला पानी काला या बदरंग होता है, जिसका इस्तेमाल पीने या खाना बनाने में नहीं किया जा सकता। उनका पूरा दिन धुएं, बदबू और बीमारी से दूर कुछ सुकून के पल तलाशने में ही बीत जाता है।
दुर्गंध से घिरा एक अस्पताल
अचन से केवल दो किलोमीटर दूर कश्मीर का सबसे बड़ा अस्पताल, शेर-ए-कश्मीर इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ (एसकेआईएमएस), उसी प्रदूषित हवा के बीच खड़ा है। वहां के डॉक्टर हर हफ्ते लैंडफिल के आसपास रहने वाले इलाकों से आने वाले दर्जनों मरीजों का इलाज करते हैं। इनमें से कई लोग अपनी बीमारियों को सीधे कचरा-घर के पास रहने से जोड़ते हैं। फातिमा जैसे परिवारों के लिए ज़िंदगी बार-बार लौटती बीमारी की लय में चलती है, जहां के लोगों के जीवन के हर फैसले पर अचन लैंडफ़िल की काली छाया का असर रहता है।
अचन के ही एक अन्य निवासी यामीन अहमद (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि पहले शाम का समय शांत हुआ करता था और हवा भी साफ़ होती थी। “हम शाम को बाहर बैठते थे, पड़ोसियों से बातें करते थे और ठंडी हवा का मज़ा लेते थे। अब हम घर के अंदर ही रहते हैं, दरवाज़े और खिड़कियां कसकर बंद रखते हैं। हमारी सारी ऊर्जा लैंडफ़िल से आने वाली ज़हरीली हवा को भीतर आने से रोकने की कोशिश में खर्च हो जाती है।” जो जगहें कभी मोहल्ले की रौनक और मेल-जोल का अड्डा हुआ करती थीं, वे अब कैदखाने जैसी लगने लगी हैं, और वहां कदम रखते ही ऐसा लगता है किसी बीमारी की चपेट में आ जाएंगे है।
हम शाम को बाहर बैठते थे, पड़ोसियों से बातें करते थे और ठंडी हवा का मज़ा लेते थे। अब हम घर के अंदर ही रहते हैं, दरवाज़े और खिड़कियां कसकर बंद रखते हैं। हमारी सारी ऊर्जा लैंडफ़िल से आने वाली ज़हरीली हवा को भीतर आने से रोकने की कोशिश में खर्च हो जाती है।
यामीन अहमद (बदला हुआ नाम), निवासी, अचन लैंडफ़िल
यामिन बताते हैं कि अब रोज़मर्रा की छोटी-छोटी आदतें भी बदल गई हैं। वे कहते हैं, “पहले हम मस्जिद तक पैदल जाते थे और दोस्तों से मिलने भी निकल पड़ते थे। अब हालत यह है कि कोने की दुकान तक पहुंचते-पहुंचते ही दम फूलने लगता है।” उनके जैसे बुज़ुर्ग लोगों पर इसका असर सबसे ज़्यादा पड़ा है। जो सड़कें कभी जानी-पहचानी और सुरक्षित थीं, वे अब ख़तरनाक हो चुकी हैं और उन पर चलना या किसी से मिलना भी स्वास्थ्य के लिए जोखिम बन गया है।
अचन लैंडफिल के आसपास बढ़ती बीमारियों के प्रति आगाह कर चुके हैं डॉक्टर
श्रीनगर के एसकेआईएमएस और श्री महाराजा हरी सिंह अस्पताल (एसएमएचएस) जैसे बड़े अस्पतालों में डॉक्टर नियमित रूप से अचन लैंडफिल के आसपास रहने वाले इलाकों से आने वाले मरीजों का इलाज करते हैं। इनमें सांस से जुड़ी और जलजनित बीमारियों के मामले आम हैं। पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. निसार उल हसन के अनुसार ईदगाह, सौंरा और नूरबाग़ जैसे इलाकों में सांस से जुड़े रोगों से पीड़ित मरीज़ों की संख्या में लगातार तेज़ी आ रही है। वे बताते हैं, “बच्चों और बुज़ुर्गों में दमा, क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस और फेफड़ों से जुड़ी दूसरी समस्याएं बढ़ती ही जा रही हैं।”
पारस हेल्थ में वरिष्ठ पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. नईम फिरदौस बताते हैं कि अजैविक यानी ग़ैर-बायोडिग्रेडेबल कचरा अक्सर जल स्रोतों को बाधित करता है और उनसे विषैले पदार्थ रिसते हैं। ऐसे पानी का इस्तेमाल करने वाले लोगों में हैजा, मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। वे यह भी कहते हैं कि जब कचरा खुले में या पर्यावरण में पड़ा रहता है, तो उसका असर हवा और फेफड़ों पर पड़ता है, जिससे निमोनिया, दमा और सांस की दूसरी बीमारियां पैदा होती हैं।
आगे वे बताते हैं, “इस कचरे में कैंसर पैदा करने वाले पदार्थ भी मौजूद होते हैं, जो लंबे समय में गंभीर बीमारियों का कारण बन सकते हैं। इसके अलावा, यहां कुत्तों, चूहों और ऐसे ही दूसरे जीवों की मौजूदगी के कारण संक्रमण और बीमारियों के फैलने का खतरा भी बढ़ जाता है।”
कश्मीर यूनिवर्सिटी के वरिष्ठ एसोसिएट प्रोफेसर (पर्यावरण विज्ञान) डॉ. अर्शिद जहांगीर बताते हैं कि यह अजैविक कचरा होता है और समय के साथ छोटे-छोटे कणों में टूट जाता है। ये कण पानी, मिट्टी और हवा में फैल जाते हैं। इनमें लगातार बने रहने वाले कार्बनिक प्रदूषक और कई तरह के भारी धातु उपस्थित होते हैं। इनमें से कई तो कैंसर के कारक और जनक भी हैं। ये ज़हरीले पदार्थ खाना और पानी के माध्यम से यहां रहने वाले लोगों के शरीर में पहुंच रहे हैं, जिसका सीधा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।
इस कचरे में कैंसर पैदा करने वाले पदार्थ भी मौजूद होते हैं, जो लंबे समय में गंभीर बीमारियों का कारण बन सकते हैं। इसके अलावा, यहां कुत्तों, चूहों और ऐसे ही दूसरे जीवों की मौजूदगी के कारण संक्रमण और बीमारियों के फैलने का खतरा भी बढ़ जाता है।
डॉ. नईम फिरदौस, वरिष्ठ पल्मोनोलॉजिस्ट, पारस हेल्थ
अचन के पास रहने वाले समुदायों के लिए जोखिम और भी ज़्यादा है। यहां कचरा बीनने वाले कामगार और स्थानीय निवासी प्रदूषित भोजन और पानी, बीमारियों, चोटों और असुरक्षित रहने की परिस्थितियों के बीच जीवन गुज़ारते हैं। उनका रोज़मर्रा का संघर्ष अक्सर बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा की कीमत पर चलता है। लंबे समय तक इन्हीं हालातों में अपना जीवन बिताने वाले लोगों को गंभीर क़िस्म की स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है। सांस लेने में परेशानी जैसी समस्या अब आम है और लगातार बनी रहने वाली बदबू के कारण इलाज के बाद भी पूरी तरह ठीक हो पाना मुश्किल होता जा रहा है।
एसकेआईएमएस के मेडिकल रिकॉर्ड इस संकट की गंभीरता को स्पष्ट रूप से दिखाते हैं। हर हफ्ते सांस और त्वचा से जुड़ी बीमारियों के सैकड़ों मामले सामने आ रहे हैं। इनमें सांस की बीमारी से जूझ रहे मरीजों में लगभग आधे बारह साल से कम उम्र के बच्चे हैं। ऐसे परिवारों के लोग हर समय चिंता में रहते हैं। एक तरफ़ उनके पुरखों के बनाए घर हैं, जिनसे उनका गहरा लगाव है, और दूसरी तरफ़ यहां रहने से होने वाले स्वास्थ्य के खतरे। इसी बीच वे फँसे हुए हैं। कई लोग खुद से बार-बार पूछते हैं कि क्या उन्हें अपना घर छोड़ देना चाहिए। इस अनिश्चितता और डर के साथ ही उनकी रोज़ की ज़िंदगी चल रही है।
लैंडफिल हर समय धुएं से ढका एक बड़ा ढेर बना रहता है। जलते कचरे से काले धुएं का ग़ुबार उठता रहता है और बदबू कई किलोमीटर तक फैल जाती है। सड़ते कचरे के ढेरों पर मक्खियां भिनभिनाती रहती हैं। कई घरों में नलों से काला या गंदा पानी आता है, जो सीधे तौर पर स्वास्थ्य के लिए खतरा है। स्थानीय लोग बताते हैं कि यहां कचरा बीनने वाले और कबाड़ उठाने वाले काम करते हैं, आवारा कुत्ते कचरे के ढेरों के आसपास घूमते रहते हैं और कुछ जगहों पर ही इस्तेमाल लायक़ चीजें बचाने के लिए सीमित स्तर पर कम्पोस्टिंग की कोशिशें होती हैं। दृश्य और गंध- दोनों ही स्तरों पर पर्यावरण प्रतिकूल है, जिससे यहां रहने वाले लोगों के लिए स्वास्थ्य जोखिम लगातार बढ़ता जा रहा है।
123 एकड़ में फैली हुई यह लैंडफिल साइट को 1985 में रामकी एनवायरो इंजीनियर्स लिमिटेड की तकनीकी मदद से एक वैज्ञानिक सुविधा के रूप में स्थापित किया गया था। यह साईट दशकों की अनदेखी और दुरुपयोग के कारण एक अनियंत्रित और ख़तरे से भरे कचरा फेंकने वाले मैदान में बदल गई है।
वैज्ञानिक अध्ययन स्वास्थ्य जोखिमों की पुष्टि करते हैं
2023 में प्रकाशित एक अध्ययन में अचन लैंडफिल के आसपास की मिट्टी की स्थिति का आकलन किया गया। यह अध्ययन डॉ. बशीर अहमद पंडित ने इंटरनेशनल जर्नल फॉर रिसर्च इन एप्लाइड साइंस एंड इंजीनियरिंग टेक्नोलॉजी (IJRASET) में प्रकाशित किया। शोध के तहत लैंडफिल से अलग-अलग दूरी पर मिट्टी के नमूने इकट्ठा किए गए। नतीजों से पता चला कि साइट के पास की मिट्टी के भौतिक और रासायनिक गुणों में उन क्षेत्रों की तुलना में बड़े बदलाव आए हैं, जहां कचरा नहीं डाला जाता।
लैंडफिल के नज़दीक मिट्टी का घनत्व बढ़ा हुआ पाया गया, जबकि नमी की मात्रा, pH, विद्युत चालकता, कार्बनिक कार्बन, कार्बनिक पदार्थ और कैटायन (सकारात्मक चार्ज वाले धातु आयन) एक्सचेंज क्षमता भी सबसे अधिक दर्ज की गई। इसके अलावा, कैल्शियम, मैग्नीशियम और सोडियम जैसे प्रमुख कैटायनों के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्वों और भारी धातुओं की सांद्रता अधिक थी। विशेष रूप से सीसा, मैंगनीज, जिंक, निकल, तांबा और लोहा की मात्रा बहुत ज़्यादा पाई गई, जबकि कैडमियम और क्रोमियम दर्ज नहीं किए गए।
सांख्यिकीय विश्लेषण से यह स्पष्ट हुआ कि लैंडफिल के नज़दीक होने पर मिट्टी की गुणवत्ता में महत्वपूर्ण बदलाव आते हैं। यह प्रदूषण केवल कृषि तक सीमित नहीं है। भारी धातुएं और रासायनिक प्रदूषक धीरे-धीरे भूजल और स्थानीय जल स्रोतों में पहुंच जाते हैं, जिससे यहां रहने वाले लोगों में लंबी अवधि की बीमारियों का खतरा बढ़ता है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि खुले में कचरा फेंकने से गैसों का उत्सर्जन और रिसाव कचरे से निकलने वाला विषैला पानी जिसे लीचेट कहा जाता है, बनना अपरिहार्य है, जिसका सीधा असर आसपास के मोहल्लों में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है।
कचरे की संरचना इन जोखिमों को और बढ़ा देती है। स्थानीय नगरपालिका रोज़ाना 550 मीट्रिक टन से अधिक ठोस कचरा यहां फेंक देता है। हर रोज इतनी भारी मात्रा में कचरा आने की वजह से यह लैंडफिल अपनी क्षमता से कहीं अधिक भर चुका है। यहां पर कचरा एकत्र करने की शुरुआत ऊर्जा परियोजना के मद्देनज़र की गई थी, लेकिन कचरा-से-ऊर्जा परियोजना में देरी के कारण यहां 11 लाख मीट्रिक टन से अधिक कचरा जमा हो गया है। मिश्रित कचरे से विषैले धुएं और हानिकारक रसायनों से भरे रिसाव का निर्माण होता है। खुले में कचरा फेंकने और असंगठित प्रबंधन ने कभी प्रवासी पक्षियों के लिए पहचाने जाने वाले इस दलदली इलाके को बीमारी और यहां के लोगों को होने वाली पीड़ा के स्रोत में बदल दिया है।
सांख्यिकीय विश्लेषण से यह स्पष्ट हुआ कि लैंडफिल के नज़दीक होने पर मिट्टी की गुणवत्ता में महत्वपूर्ण बदलाव आते हैं। यह प्रदूषण केवल कृषि तक सीमित नहीं है। भारी धातुएं और रासायनिक प्रदूषक धीरे-धीरे भूजल और स्थानीय जल स्रोतों में पहुंच जाते हैं, जिससे यहां रहने वाले लोगों में लंबी अवधि की बीमारियों का खतरा बढ़ता है।
भावनात्मक और सामाजिक बोझ
फातिमा जैसे परिवारों के लिए भावनात्मक बोझ शारीरिक पीड़ा जितना ही भारी है। बच्चे अक्सर स्कूल नहीं जा पाते, बदबू के कारण परिवार मेहमानों को बुलाने से बचते हैं और रोज़मर्रा की ज़िंदगी खांसी, त्वचा पर दाने और पेट की बीमारियों के इर्द-गिर्द सिमट जाती है। लंबी अवधि के स्वास्थ्य प्रभावों को लेकर और पुरखों का घर छोड़ने की मजबूरी के डर को लेकर चिंता लगातार बनी रहती है। बच्चे स्कूल जाते भी हैं तो कई बार थके और बीमार लौटते हैं, जिसका प्रभाव उनकी पढ़ाई पर पड़ता है। माता-पिता अपराधबोध और निराशा के साथ ऐसी परिस्थितियों में फंसे हुए जीने को मजबूर हैं जिन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है।
पिछले साल अचन के पास एक क्लब में हुई एक शादी लोगों के लिए यादगार बन गई, लेकिन गलत वजहों से। एक पचास वर्षीय स्थानीय निवासी बताते हैं कि खुशियों का माहौल उस समय बिगड़ गया, जब अचानक तेज़ बदबू फैल गई।
फातिमा याद करती हैं, “व्यवस्था और सजावट बहुत अच्छी और सुंदर थी और मेहमानों के लिए वाज़वान (शाही व्यंजन) बड़ी मेहनत से तैयार किए गए थे। लेकिन अचानक हवा में इतनी तेज़ दुर्गंध उठी कि कई मेहमानों की भूख ही उड़ गई। कुछ लोगों ने तो खाने की अपनी प्लेट छुई तक नहीं। मेज़बान शर्मिंदा थे और बार-बार माफ़ी मांग रहे थे, जबकि इसमें उनकी कोई गलती नहीं थी।”
दुर्गंध का स्रोत अचन लैंडफिल ही था, जहां नम मौसम के कारण इसकी तीव्रता और बढ़ गई थी। बारिश ने हालात और बिगाड़ दिये और दुर्गंध कचरा स्थल से कई किलोमीटर दूर तक फैल गई।
बुजुर्गों के लिए जिंदगी और कठिन
बात अगर बुज़ुगों की करें तो उन्हें शारीरिक समस्याओं के साथ साथ कचरे की वजह से सामाजिक असर भी झेलना पड़ता है। तमाम बुजुर्गों को चलने-फिरने में दिक्कत होती है। ऊपर से कचरे के कारण बिगड़ते स्वास्थ्य के चलते वे पहले की तरह सामुदायिक गतिविधियों में शामिल नहीं हो पाते हैं। उनका जीवन चार दीवारी में सीमित रह जाता है। यही नहीं इसका असर वयस्कों और बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी साफ़ दिखता है, जो तनाव, चिंता और निराशा में खोए रहते हैं। परिवार अपनी रोज़मर्रा के जीवन को पटरी पर बनाए रखने के लिए जूझ रहे हैं, जिनके दिन अस्पताल के चक्करों और पानी-हवा की गुणवत्ता को लेकर पैदा हुई चिंता के बीच गुजरते हैं।
अचन लैंडफिल का मुआयना
लैंडफिल साइट आसपास रहने वाले लोगों के लिए लगातार खतरे की याद दिलाती है। यहां बिना अलग किए गए कचरे के बड़े-बड़े ढेर फैले हुए हैं। कचरा बीनने वाले और आवारा जानवर इन ढेरों के बीच घूमते हैं, जिससे संक्रमण का खतरा और बढ़ जाता है। सड़ते जैविक पदार्थों से मीथेन और अन्य गैसें निकलती हैं, जो अदृश्य होते हुए भी घातक हो सकती हैं। कम्पोस्टिंग का काम बहुत कम है और कुछ पुनर्चक्रण (रीसाइक्लिंग) योग्य सामग्री ही बचाई जाती है, लेकिन अधिकांश कचरा खुले में ही पड़ा रहता है। जलते कचरे से निकलने वाला विषैला धुआँ श्वसन संबंधी जोखिम बढ़ाता है और हवा की गुणवत्ता को और बिगाड़ देता है।
कई दशकों से दर्ज स्वास्थ्य समस्याओं के बावजूद सुधार की दिशा में उठाए जाने वाले कदम सीमित रहे हैं। अदालत के आदेश, प्रशासनिक निर्देश और नगरपालिका की योजनाएं मिलकर भी इस संकट को दूर नहीं कर सकी हैं। लैंडफिल बिना किसी व्यापक वैज्ञानिक कचरा प्रबंधन के लगातार संचालित हो रहा है। निवासियों को प्रदूषित पानी, गंदी हवा और लगातार फैलती बदबू के बीच अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी जूझते हुए गुजारनी पड़ती है।
स्वास्थ्य और आर्थिक कठिनाइयों से जूझते स्थानीय लोग
आर्थिक सीमाओं के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर में वृद्धि ही होती है। परिवार अक्सर नियमित इलाज का खर्च वहन नहीं कर पाते, और बार-बार अस्पताल जाने से पहले से ही तंग बजट और भी बिगड़ जाता है। बच्चों की पढ़ाई पर असर पड़ता है, जिससे उन्हें मिलने वाले अवसर कम होते हैं और ये लोग गरीबी के दुष्चक्र से निकल ही नहीं पाते। कई बार परिवारों को अपने स्वास्थ्य के खतरे और पैसे की तंगी के बीच अपनी जिंदगी के अहम फैसले लेने पड़ते हैं, जबकि उनके पास कोई सही विकल्प ही नहीं होता।
डॉ. पंडित के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि लंबे समय तक भारी धातुओं के संपर्क में रहने से स्वास्थ्य से जुड़े लंबी अवधि वाले ख़तरे पैदा होते हैं। तुरंत कोई स्पष्ट चिकित्सीय लक्षण न दिखाई देने के बावजूद, सीसा, मैंगनीज, जिंक, निकल, तांबा और लोहा जैसे संदूषक धातु शरीर के अंगों पर विपरीत असर डाल सकते हैं, रोग प्रतिरोधक क्षमता घटा सकते हैं और बीमारियों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ा सकते हैं। इस इलाक़े में रहने वाले लोग रोज़ाना प्रदूषित हवा में सांस लेते हैं, रिसाव वाले पानी का इस्तेमाल करते हैं और मक्खियों, चूहों और कचरा बीनने वाले जानवरों से होने वाले संभावित संक्रमण के बीच जीवन बिताते हैं।
जिंदगी जीने के लिए क्या-क्या उपाय कर रहे लोग?
यहां रहने वाले लोग प्रदूषण से बचने के लिए अलग-अलग उपाय अपनाने की कोशिश करते हैं, जो इस प्रकार हैं:
साफ पानी के लिए लोग पानी को उबालते या फ़िल्टर करते हैं।
प्रदूषकों से बचने के लिए लोग खिड़कियाँ बंद रखते हैं।
लोग खास तौर से बच्चे जब बाहर निकलते हैं तो मास्क पहनते हैं।
गर्मी के मौसम में गर्म हवाओं के साथ-साथ कचरे के जलने से आने वाली गर्मी से बचने के लिए लोग अस्थायी रूप से अन्य जगहों पर चले जाते हैं।
बुजुर्ग जिन्हें चलने में दिक्कत होती है, वो कई-कई दिन तक घर में बंद रहते हैं।
जिंदगी जीने के लिए ये उपाय करना यहां के लोगों के लिए आसान नहीं है। अधिकांश के लिए जमीन का मालिकाना हक, आर्थिक सीमाएं और पारिवारिक जड़ें पुनर्वास को असंभव बना देती हैं। रोज़मर्रा की ज़िंदगी लगातार खतरे के साथ समझौते की तरह है, और सतर्क रहने का तनाव हर रोज़ महसूस किया जा सकता है।
एसकेआईएमएस के डॉक्टर इस स्थिति की विडंबना को भी समझते हैं। अस्पताल उन मरीजों का इलाज करता है, जिनकी बीमारियां उसी लैंडफिल के कारण हुई हैं, जो इसके ठीक पास खड़ा है। डॉ. निसार-उल-हसन बताते हैं, “हम लक्षणों का इलाज करते हैं, लेकिन कारण हमारे मोहल्ले में ही मौजूद है।” पल्मोनोलॉजिस्ट, डर्मेटोलॉजिस्ट और बाल रोग विशेषज्ञ भी ऐसी ही बात कहते हैं: अचन के आसपास रहने वाले लोगों में दमा, ब्रोंकाइटिस, त्वचा में जलन और पेट संबंधी बीमारियां बढ़ रही हैं।
अचन लैंडफिल के पास रहने वालों की बढ़ती मुसीबत
अचन लैंडफिल के पास रहना रोज़मर्रा की ज़िंदगी में एक मानव त्रासदी बन चुका है। यह खांसी, दाने, स्कूल न जा पाना, लगातार चिंता और घर छोड़ने के डर में मापी जाती है। वैज्ञानिक अध्ययन, अस्पताल रिकॉर्ड और प्रत्यक्ष अनुभव इस बात की पुष्टि करते हैं कि लैंडफिल के नज़दीक रहना लगातार स्वास्थ्य समस्याओं से जुड़ा है। जब तक लैंडफिल का सही प्रबंधन नहीं होता या निवासियों को सुरक्षित स्थानांतरित नहीं किया जाता, नूरबाग़, ईदगाह और सौंरा के परिवार विषैली हवा में सांस लेते रहेंगे, प्रदूषित पानी पीते रहेंगे और लगातार बीमारियों से जूझते रहेंगे।
विडंबना यह है कि कश्मीर का सबसे बड़ा अस्पताल उन्हीं मरीजों का इलाज करता है, जो इसके पास स्थित लैंडफिल की वजह से ही बीमार हुए हैं। बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, वयस्क बार-बार बीमार पड़ते हैं, और परिवार प्रदूषण के बीच जीवन गुजरते हुए मानसिक दबाव को झेल रहे हैं। जब तक इसे लेकर ठोस कदम नहीं उठाए जाते, अचन लैंडफिल के आसपास रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य और जीवन से जुड़ी समस्याएं और उनकी पीड़ा लगातार बढ़ती रहेगी, और यह धीरे-धीरे लेकिन गहराई से श्रीनगर के बाक़ी मोहल्लों में भी अपने पांव पसारेगी।
जारी...
इस लेख के अगले हिस्से में हम जानेंगे कि अचन लैंडफिल का प्रभाव केवल यहां रहने वाले इंसानों के स्वास्थ्य तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह श्रीनगर के प्राकृतिक संसाधनों और आजीविका को भी बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। पीढ़ियों से मछुआरों और किसानों के लिए जीवनदायिनी रही अंचार झील अब सिकुड़ती और प्रदूषित होती जा रही है, जो अप्रबंधित कचरे के कारण पैदा होने वाले व्यापक स्तर के पर्यावरणीय संकट का संकेत है।
अस्वीकरण:
लोगों के नाम बदल दिए गए हैं क्योंकि उन्हें प्रशासन द्वारा की जाने वाली कार्रवाई का डर है। जब अधिकारियों ने उनके घरों से मीडिया रिपोर्टिंग पर आपत्ति जताई, तो कई लोगों ने अपनी असली तस्वीरें या नाम साझा करने से मना कर दिया। ऐसे लोग जिन्होंने पहले अपनी तस्वीरें और कुछ जानकारियां साझा की थीं, उनमें से कुछ ने बाद में उन्हें वापस लेने के लिए संपर्क भी किया।
इंडिया वाटर पोर्टल रीजनल स्टोरी फेलोशिप 2025 तहत लिखी गई वाहिद भट की रिपोर्ट के इस पहली किस्त का यह अनुवाद डॉ. कुमारी रोहिणी ने किया है।

