क्या आप जानते हैं बारिश के लिए कितने ज़रूरी हैं पेड़ों के ‘बायो एरोसोल’?
धरती पर वर्षा कराने में पेड़ों की अहम भूमिका के बारे में तो सभी जानते हैं। पेड़ों के पत्तों से होने वाले वाष्पोत्सर्जन (transpiration) की प्रक्रिया की बारिश में अहम भूमिका होती है। इस क्रिया के ज़रिये पेड़-पौधे धरती से पानी खींच कर उसका वाष्पीकरण करते हैं, जिससे स्थलीय इलाकों में बादल बनने में मदद मिलती है। दशकों से यह बात विज्ञान और भूगोल की किताबों में पढ़ाई जाती रही है।
पर, हाल के वर्षों में बारिश और पेड़ों के संबंध के बारे में एक नई जानकारी सामने आई है। हालिया रिसर्च के मुताबिक बारिश लाने में सिर्फ वाष्पोत्सर्जन ही नहीं, बल्कि पेड़ों से निकलने वाले सूक्ष्म जैविक कण यानी बायो एरोसोल (Bio Aerosols) भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस रिसर्च ने मौसम विज्ञान (Meteorology) की दुनिया में एक नया पहलू जोड़ दिया है।
क्या होते हैं पेड़ों के बायो-एरोसोल, कैसे होते हैं उत्पन्न?
बायो-एरोसोल एक तकनीकी शब्द है, जिसका अर्थ ऐसे सूक्ष्म जैविक कणों से है, जो अपने नन्हें आकार और नगण्य भार के कारण हवा के साथ वायुमंडल में तैरते रहते हैं। यह कण ठोस या तरल दोनों ही तरह के हो सकते हैं। इनमें परागकण, बैक्टीरिया, कवक जैसी प्राकृतिक चीजें शामिल होती हैं। हाालांकि, जैविक एरोसोल के अलावा कृत्रिम या मानवजनित एरोसोल भी हाते हैं, जैसे धूल, समुद्री लवण, औद्योगिक कारखानों या गाड़ियों से निकलने वाले धुएं के सूक्ष्म कण।
पेड़-पौधों द्वारा हवा में छोड़े जाने वाले प्राकृतिक एरोसोल की बात करें, तो ये मुख्यतः परागकण (Pollen grains), टर्पीन (पत्तियों से निकलने वाली सूक्ष्म जैविक रासायनिक गैसें), पेड़ों की सतहों से चिपके रहने वाले सूक्ष्म फंगस की अतिसूक्ष्म कोशिकाएं और बैक्टीरिया के रूप में देखने को मिलते हैं।
बादल बनाने में एरोसोल का योगदान
हम अक्सर यह मान लेते हैं कि बारिश सिर्फ तब होती है जब वातावरण में नमी यानी जलवाष्प अधिक हो जाए और वह भाप बनकर ऊपर उठे। लेकिन वास्तव में, केवल वाष्प (भाप) से बारिश नहीं होती। भाप को पानी की बूंदों में बदलने के लिए ज़रूरत होती है ‘क्लाउड कंडेन्सेशन न्यूक्लियस’ (Cloud Condensation Nucleus : CCN) की और यहीं से जैविक एरोसोल की भूमिका शुरू होती है।
दरअसल, पेड़ों के इन जैविक एरोसोल का आकार इतना छोटा होता है कि ये हवा के झोकों के साथ उड़कर वायुमंडल में 5,000 से 10,000 फीट ऊपर बादलों की ऊंचाई तक पहुंच जाते हैं। जब ये एरोसोल ऊपर जाकर जलवाष्प से भरे वातावरण में पहुंचते हैं, तो हवा में मौजूद नमी (जलवाष्प) इन्हीं की सतह पर चिपक कर जमने लगती है। जैसे-जैसे वाष्प एरोसोल पर जमती जाती है, वह एक छोटी बूंद का रूप लेती है। ऐसी हजारों-लाखों सूक्ष्म बूंदें आपस में मिलकर बादल बनाती हैं।
जैविक एरोसोल से बादल बनने की प्रक्रिया के चरण
पेड़ एरोसोल छोड़ते हैं : पत्तों, छाल और जड़ों से सूक्ष्म जैविक कण (जैसे फंगस स्पोर, टर्पीन गैस, परागकण) हवा में निकलते हैं।
एरोसोल ऊंचाई तक पहुंचते हैं : ये कण हवा के बहाव के साथ ऊपर-ऊपर उड़ते हुए बादल बनने वाली ऊँचाई तक पहुंच जाते हैं।
जलवाष्प इन कणों पर जमती है : जब ये कण वाष्प से भरे वातावरण में पहुंचते हैं, तो उनकी सतह पर जलवाष्प संघनित होना शुरू हो जाती है।
बूंदें जमा होती हैं और बनते हैं बादल : जैसे-जैसे वाष्प और जमती है, छोटे जल कणों का आकार बढ़ता है और ये मिलकर बादल का निर्माण करते हैं।
बूंदें भारी होकर गिरती हैं : जब ये जलबूंदें भारी हो जाती हैं और हवा उन्हें थाम नहीं पाती, तो वे बारिश के रूप में धरती पर गिरती हैं।
अमेज़न के वर्षावन बनाते हैं अपने बादल
जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट और NASA के सहयोग से 2018 में अमेज़न रेन फॉरेस्ट में किए गए एक वैज्ञानिक अध्ययन में चौंकाने वाली रिपार्ट सामने आई। इस अध्ययन में देखा गया कि जब पेड़ अधिक जैविक एरोसोल उत्सर्जित करते हैं, तो क्षेत्र में बादलों की संख्या और वर्षा में वृद्धि होती है। साफ मौसम वाले दिनों में जब कोई बाहरी प्रदूषक नहीं होता, तब भी अमेज़न जंगल अपने आप एरोसोल उत्पन्न करते हैं, जो बादल निर्माण का आधार बनते हैं।
शोध में पाया गया कि अमेज़न के जंगलों में पेड़ों से निकलने वाले जैविक एरोसोल बारिश के बादलों को उत्पन्न करने के लिए आवश्यक ‘क्लाउड कंडेन्सेशन न्यूक्लियस’ का प्राकृतिक स्रोत बन रहे थे। इनमें पेड़ों से निकले वाष्पशील यौगिक, फंगस स्पोर और नैनो-सीज़न्टर शामिल थे।
रिसर्च बताती है कि अमेज़न के जंगलों में पेड़ों से निकल कर लाखों सूक्ष्म जैविक कण हवा में तैरते हैं, जो ऊंचाई तक उड़कर बादल बनने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। इससे वर्षा की आवृत्ति और मात्रा में उल्लेखनीय वृद्धि होती है। यह शोध बायो एरोसोल का महत्व साफ होता है, खासकर ऐसे क्षेत्रों में जहां बाहरी प्रदूषण न्यूनतम हो। यहां पेड़ों के जैविक कण वर्षा के चक्र को बनाए रखने में काफी अहम भूमिका निभाते हैं।
पेड़, विशेषकर वे जिनमें उच्च जैविक यौगिक होते हैं, एरोसोल का प्रमुख स्रोत हैं। इनका उत्सर्जन वर्षा चक्र को स्थिर बनाए रखता है। ट्रॉपिकल रेनफॉरेस्ट्स स्वयं अपने बादल बनाते हैं। यह प्रक्रिया एक जटिल पारिस्थितिकी तंत्र के सटीक तालमेल पर निर्भर करती है, जिसमें बायो एरोसोल की भी अपनी खास भूमिका है।
डॉ. एंड्रियास हांज़ेल, वैज्ञानिक मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट
क्या होता है ‘क्लाउड कंडेन्सेशन न्यूक्लियस’ (CCN)?
आपने देखा होगा कि सर्दियों में जब आप किसी ठंडी सतह पर सांस छोड़ते हैं, तो वह सतह धुंधली हो जाती है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हवा में मौजूद भाप ठंडी सतह पर जमकर बूंदें बना लेती है। बादल बनाने के लिए जलवाष्प भी ऐसी ही किसी 'सतह' की तलाश करती है, जिस पर जमकर वह बूंद बना सके।
पेड़ों से निकलने वाले जैविक एरोसोल के सूक्ष्म कण संघनन नाभिक के रूप में इसी सतह की भूमिका निभाते हैं। इस तरह पेड़ों से निकलने वाले बायो एरोसोल ‘बादल के बीज’ का कार्य करते हैं।
आर्कटिक क्षेत्र में बर्फबारी में भी सामने आई बायो एरोसोल की भूमिका
एक हालिया रिसर्च के मुताबिक, आर्कटिक क्षेत्र में जैविक एरोसोल बादलों में बर्फ बनने की प्रकिया को भी प्रभावित कर रहे हैं। इस रिसर्च में स्टॉकहोम विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञानी गैब्रियल फ्रीटास और उनके सहयोगियों ने नॉर्वे के ज़ेपेलिनफ्जेलेट पर्वत पर स्थित वेधशाला के ऊपर के वायुमंडल में मौजूद बालों से नमूने एकत्र कर उनमें मौजूद माइक्रोमीटर आकार के कणों को फ़िल्टर किया। इसके बाद टीम ने प्रकाश प्रकीर्णन, यूवी प्रतिदीप्ति तकनीक और संचरण इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी का उपयोग करके नमूनों का विश्लेषण किया।
विश्लेषण में पाया गया कि जब तापमान और आर्द्रता उपयुक्त होती है, तो वायुमंडल में मौजूद पानी बायो एरोसोल के कणों पर संघनित हो जाता है और बर्फ के क्रिस्टल के रूप में जम जाता है। इससे बादलों में बर्फ का निर्माण होता है, जिससे बर्फबारी होती है।
हमने बर्फ के कणों के प्रोटीन युक्त घटक की पहचान की है, जिससे उनके संभावित जैविक मूल (बायो एरोसोल) का पता चला है। ज़ेपेलिन वेधशाला में किए गए हमारे अध्ययन के निष्कर्ष स्पष्ट रूप से बर्फ के निर्माण में योगदान देने वाले जैविक कणों की भूमिका को सत्यापित करते हैं।
फ्रांज कोनन, बेसल विश्वविद्यालय के पर्यावरण भूवैज्ञानिक (आर्कटिक क्षेत्र में बायो एरोसोल रिसर्च टीम के सदस्य)
भारत के शहरों में बायो एरोसोल बढ़ा सकते हैं बारिश
भारत में वर्षा के पैटर्न में, खासकर घनी आबादी वो शहरी क्षेत्रों में हाल के वर्षों में बड़े बदलाव देखे गए हैं। इसके कई कारण हैं, जिनमें से एक प्रमुख कारण है, हरियाली का घटना। पेड़ों के बायो एरोसोल की मदद से इन शहरी इलाकों में वर्षा का स्तर सुधारने के प्रयास किए जा सकते हैं। खासकर उन शहरों में, जहां हरियाली की कमी और अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट के चलते बारिश में कमी आई है।
भारतीय मौसम विभाग (IMD) के एक अध्ययन के मुताबिक 1961 से 2013 के बीच भारत के कुल 635 ज़िलों में से करीब 8% ज़िलों में सालाना वर्षा में गिरावट दर्ज की गई। इनमें उत्तर प्रदेश, दिल्ली और केरल जैसे राज्यों के जि़ले शामिल हैं। सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ बिहार के शोध 'Trends in the Rainfall Pattern Over the Gangetic Plain' (2011–2020 डेटा पर आधारित) के अनुसार गंगा मैदान में बरसात के दिनों की संख्या में स्पष्ट कमी देखी गई है। इसके पीछे पेड़ों की संख्या में कमी को जिम्मेदार माना गया।
देश के शहरी इलाकों में बायो एरोसोल के निर्माण के लिए उपयुक्त पेड़ों को लगाकर अर्बन ग्रीन स्पेस को बढ़ाने के साथ ही वर्षा के स्तर में भी सुधार लाया जा सकता है। इसके लिए हर बड़ी इमारत के परिसर और रेजिडेंशिल सोसाइटी में न्यूनतम पेड़ों की अनिवार्यता लागू की जानी चाहिए, जो तापमान में कमी लाने के साथ बारिश के लिए भी मददगार साबित होंगे। इसके अलावा घनी आबादी वाले इलाकों के आसपास के क्षेत्रों में अधिकतम एरोसोल उत्सर्जन वाले पेड़ों के जंगल लगाकर वर्षा में वृद्धि के जरिये स्थानीय जलवायु नियंत्रण किया जा सकता है।