जब कचरा घर के स्तर पर ही अलग नहीं होता, तो उसे संभालने की सारी तकनीकियां और नीतिगत कोशिशें शुरुआत में ही लड़खड़ा जाती हैं।
जब कचरा घर के स्तर पर ही अलग नहीं होता, तो उसे संभालने की सारी तकनीकियां और नीतिगत कोशिशें शुरुआत में ही लड़खड़ा जाती हैं।चित्र: इंडिया वाटर पोर्टल

घर से लैंडफिल तक: बेंगलुरु में कचरा प्रबंधन की असली चुनौती

बेंगलुरु की कचरा समस्या सिर्फ़ बढ़ते कचरे का सवाल नहीं, बल्कि व्यवस्था, नीतियों और नागरिक व्यवहार के बीच टूटते रिश्ते की तस्वीर है। क्योंकि जब कचरा घर के स्तर पर ही अलग नहीं होता, तो उसे संभालने की सारी तकनीकियां और नीतिगत कोशिशें शुरुआत में ही लड़खड़ा जाती हैं।
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बेंगलुरु की कचरा समस्या, उसकी जड़ें और आगे का रास्ता

बेंगलुरु को उसके ढेरों आकर्षक पार्क और हरियाली के कारण कभी ‘गार्डन सिटी’ कहा जाता था। लेकिन बीते कुछ सालों में यह पहचान शहर भर में फैले कचरे के ढेर, भरते लैंडफिल और बार-बार खड़े होते स्वच्छता संकट के नीचे दबती चली गई है।

हर दिन हज़ारों टन कचरा पैदा करने वाले इस शहर में उसका प्रबंधन और निपटान आज भी ज़रूरत के अनुसार मज़बूत नहीं हो पाया है। कचरा, घरों से निकलकर प्रोसेसिंग यूनिट और अंत में लैंडफिल तक जिस व्यवस्था से गुजरता है, उसकी सबसे पहली और सबसे अहम कड़ी है: स्रोत पर कचरा पृथक्करण (सेग्रीगेशन)।

बेंगलुरु की मौजूदा स्थिति: कचरा बहुत, व्यवस्था कमज़ोर

घर से लेकर प्रोसेसिंग यूनिट और फिर अंततः लैंडफिल तक, कचरा प्रबंधन की पूरी प्रक्रिया इसके पहले कदम यानी स्रोत पर ही पृथक्करण (सेग्रीगेशन) पर टिकी होती है।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बेंगलुरु में हर दिन लगभग 5,500-6,000 टन ठोस कचरा पैदा होता है। इसमें से 350-400 टन कम कीमत वाला, नॉन-रीसाइक्लेबल प्लास्टिक होता है, जिसे रिफ्यूज़-डेरिव्ड फ्यूल (आरडीएफ) भी कहा जाता है। अधिकारियों के अनुसार, फोकस्ड इन्फॉर्मेशन, एजुकेशन और कम्युनिकेशन (आईईसी) कैंपेन से सोर्स पर कचरा अलग करने में सुधार हुआ है।

कचरे के समाधान के तौर पर वेस्ट-टू-एनर्जी और आरडीएफ आधारित प्लांट्स को अक्सर तकनीकी विकल्प के रूप में पेश किया जाता है। लेकिन मिश्रित कचरे पर आधारित ये मॉडल पर्यावरणीय जोखिम, उत्सर्जन और स्थानीय समुदायों पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर सवाल भी खड़े करते हैं। बिना मज़बूत स्रोत-स्तरीय पृथक्करण के ऐसे प्लांट न तो टिकाऊ साबित होते हैं और न ही कचरे की समस्या के लिए लंबी अवधी वाला कोई समाधान ही मिल पाता है।

घर से लेकर प्रोसेसिंग यूनिट और फिर आख़िर में लैंडफिल तक, कचरा प्रबंधन की पूरी प्रक्रिया इसके पहले कदम यानी स्रोत पर ही पृथक्करण पर टिकी होती है।

लेकिन तकनीकी समाधानों से परे, बेंगलुरु की कचरा समस्या की जड़ें शहर के बदलते उपभोग पैटर्न और व्यवस्था की सीमाओं में भी छिपी हैं। बढ़ती आबादी, उपभोग की संस्कृति में आई तेज़ी और एकल-उपयोग (सिंगल-यूज) प्लास्टिक ने कचरे की इस मात्रा को लगातार बढ़ाया है।

अख़बारों और स्वतंत्र रिपोर्टों के अनुसार शहर में 40 फ़ीसद से भी कम कचरा स्रोत पर अलग हो पाता है। यानी ज़्यादातर घरों, दुकानों और दफ़्तरों से निकलने वाले कचरे में गीला-सूखा दोनों तरह का कचरा एक साथ मिला होता है। नतीजतन, आगे की प्रोसेसिंग - कम्पोस्टिंग, रीसाइक्लिंग या वेस्ट-टू-एनर्जी - या तो बहुत सीमित हो जाती है या बिल्कुल ठप।

कचरा बढ़ने के पीछे के कारण: केवल नागरिक नहीं, पूरा सिस्टम जिम्मेदार

अक्सर कचरा संकट की जिम्मेदारी सीधे नागरिकों पर डाल दी जाती है। कहा जाता है कि लोग सूखा और गीला कचरा अलग-अलग नहीं करते। लेकिन ज़मीनी सच्चाई इससे कहीं ज़्यादा जटिल है।

पहला कारण है इस्तेमाल का पैटर्न। तैयार भोजन, ऑनलाइन डिलीवरी, पैकेजिंग और प्लास्टिक का इस्तेमाल शहर में तेज़ी से बढ़ा है। इसके साथ ही गीले कचरे की मात्रा भी बढ़ी है।

दूसरा कारण है कचरा संग्रह की अनियमितता। कई वार्ड में कचरा उठाने वाले वाहन तय समय पर नहीं आते। कहीं आते भी हैं तो वे पहले से अलग किया गया कचरा भी मिला देते हैं। इससे नागरिकों के भीतर यह भावना मज़बूत होती है कि “अलग करने का फ़ायदा ही क्या, जब बाद में सब मिल ही जाना है।”

तीसरा कारण है ठेकेदारी व्यवस्था और निगरानी की कमी। रिपोर्ट के अनुसार, बेंगलुरु में ठेकेदारों के लिए यह आर्थिक रूप से आसान होता है कि वे उच्च मूल्य वाले सूखे कचरे को अलग कर लें और शेष मिश्रित कचरा सीधे लैंडफिल तक ले जाएं - जिससे स्रोत पर अलगाव और आगे की प्रोसेसिंग (कम्पोस्टिंग/रीसाइक्लिंग/वेस्ट-टू-एनर्जी) व्यवस्थित तरीके से नहीं हो पाती है।

कचरे की समस्या की जड़: स्रोत पर अलगाव क्यों ज़रूरी

शुरुआती स्तर पर कचरे को अलग कर लेने से लैंडफिल पर दबाव कम होता है
शुरुआती स्तर पर कचरे को अलग कर लेने से लैंडफिल पर दबाव कम होता हैचित्र: विकीमीडिया कॉमन्स

स्रोत पर कचरा पृथक्करण का मतलब सिर्फ़ घर में दो डब्बे रखना नहीं है। यह पूरी ठोस कचरा प्रबंधन व्यवस्था की बुनियाद है।

गीला कचरा - जैसे खाने के अवशेष, सब्ज़ियों के छिलके और बगीचे का कचरा - अगर अलग रहे तो उसे स्थानीय स्तर पर कम्पोस्ट किया जा सकता है। इससे एक तरफ़ शहर में लैंडफिल तक जाने वाले कचरे की मात्रा घटती है, वहीं दूसरी ओर मिट्टी के लिए पोषक तत्व तैयार होते हैं।

इसी तरह सूखा और रीसाइक्लेबल कचरा - प्लास्टिक, कागज़ और धातु - जब गीले कचरे से अलग रहता है, तो वह सीधे रीसाइक्लिंग की श्रृंखला में प्रवेश कर पाता है। यह प्रक्रिया कबाड़ियों और ड्राई वेस्ट कलेक्शन केंद्रों से होते हुए छोटे-छोटे उद्योगों तक पहुंचती है, जिन पर हज़ारों लोगों की आजीविका निर्भर है।

लेकिन जब यही कचरा गीले कचरे के साथ मिल जाता है, तो न सिर्फ़ रीसाइक्लिंग की संभावना खत्म हो जाती है, बल्कि कचरा बीनने वाले समुदायों की रोज़ी-रोटी भी प्रभावित होती है।

सबसे अहम बात यह है कि शुरुआती स्तर पर कचरे को अलग कर लेने से लैंडफिल पर दबाव कम होता है, जो बेंगलुरु जैसे शहर में पहले ही अपनी सीमा से आगे बढ़ चुके हैं। इसलिए यह साफ़ है कि स्रोत पर पृथक्करण के बिना कचरा प्रबंधन की बाकी सभी तकनीकें और नीतिगत कोशिशें अधूरी ही रह जाएंगी।

नगर-निगम और सरकारी व्यवस्था: ज़िम्मेदारी कहां चूकती है?

बेंगलुरु में ठोस कचरा प्रबंधन की जिम्मेदारी ब्रुहत बेंगलुरु महानगर पालिके (बीबीएमपी) और उसकी विशेष इकाई बंगलुरू सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट सिस्टम (बीएसडब्ल्यूएमएल) पर है। कागज़ों पर नियम स्पष्ट हैं - हर घर से अलग किया हुआ कचरा उठाना, अलग-अलग वाहनों में उसे प्रोसेसिंग यूनिट तक पहुंचाना और लैंडफिल पर निर्भरता कम करना। लेकिन ज़मीन पर तस्वीर अलग दिखती है।

इन दोनों इकाइयों ने कई बार स्रोत पर कचरा अलग करने, दिन में दो बार वाहनों से कचरा उठाने और जुर्माना लागू करने जैसे नियम बनाए हैं। लेकिन उनकी प्रभावी निगरानी और जवाबदेही लागू नहीं हो पा रही है। अधिकारियों को सख़्त निगरानी तंत्र की कमी के कारण नियम केवल कागज़ों में लिखे हुए रह जाते हैं।

कागज़ों पर नियम स्पष्ट हैं - हर घर से अलग किया हुआ कचरा उठाना, अलग-अलग वाहनों में उसे प्रोसेसिंग यूनिट तक पहुंचाना और लैंडफिल पर निर्भरता कम करना। लेकिन ज़मीन पर तस्वीर अलग दिखती है।

कई वार्डों में वाहनों की कमी, कर्मचारियों का अपर्याप्त प्रशिक्षण और निगरानी तंत्र की कमजोरी साफ़ दिखाई देती है। शिकायत दर्ज करने के बावजूद समस्या का समाधान या तो देर से होता है या बिल्कुल नहीं होता।

इसके बावजूद, ठोस कचरा प्रबंधन नियम 2016 (एसडब्ल्यूएम नियम) और विस्तारित उत्पादक ज़िम्मेदारी (ईपीआर) जैसे प्रावधानों का प्रभावी क्रियान्वयन ज़मीन पर कम ही दिखता है।

कागज़ों में स्रोत पर पृथक्करण, स्थानीय प्रोसेसिंग और लैंडफिल निर्भरता घटाने की बात कही जाती है, लेकिन व्यवहार में निगरानी, संसाधन और जवाबदेही की कमी इन नियमों को कमज़ोर बना देती है। 

जब तक नीतियां वार्ड स्तर पर स्पष्ट ज़िम्मेदारी और पारदर्शी निगरानी से नहीं जुड़ेंगी, तब तक व्यवस्था-स्तर पर सुधार सीमित ही रहेंगे।

नागरिक समूहों और संगठनों की पहल वाली पहलें

इस निराशाजनक तस्वीर के बीच कुछ सकारात्मक उदाहरण भी हैं। बेंगलुरु में कचरा प्रबंधन की सरकारी व्यवस्था कई बार धीमी या असंगठित नजर आती है। लेकिन आम नागरिकों, रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन और स्थानीय समूहों ने जमीनी स्तर पर ठोस कोशिशें शुरू की हैं। ये प्रयास न सिर्फ सोर्स सेग्रीगेशन को आगे बढ़ा रहे हैं, बल्कि खुद प्रोसेसिंग और पुनः उपयोग के उपाय भी तैयार कर रहे हैं।

सड़क किनारे कूड़े के ढेर यहां की बड़ी समस्याओं में हैं। कई जगहों पर बीबीएमपी के कचरा उठाने के पांच–सात मिनट के भीतर ही लोग फिर कूड़ा डाल देते हैं। इससे निपटने के लिए जन-सहभागिता ज़रूरी है, जो कूड़े के मामले में लगभग न के बराबर है। दूसरी बड़ी समस्या कंस्ट्रक्शन वेस्ट की है - ट्रकों में भरकर इसे रिहाइशी इलाकों की खाली सरकारी ज़मीनों पर फेंक दिया जाता है, और सरकारी ज़मीन होने के कारण लोग शिकायत भी नहीं करते।

अजय मोहन, वरिष्‍ठ पत्रकार, बन्नरगट्टा रोड बेंगलुरु

कुछ मोहल्लों में सामुदायिक कम्पोस्टिंग यूनिट लगाई गई हैं। कहीं नागरिक खुद निगरानी करते हैं कि कलेक्शन वाहन अलग-अलग कचरा सही तरीके से ले जाए। कहीं-कहीं बच्चों और महिलाओं को जोड़कर जागरूकता अभियान चलाए गए हैं।

सामुदायिक प्रयास के कुछ उदाहरण

कर्नाटक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (केएसपीसीबी) के अनुसार राज्य में हर दिन लगभग 11,044 टन ठोस कचरा पैदा होता है। इसमें 50–55 फ़ीसद गीला/जैविक कचरा, 30–35 फ़ीसद सूखा कचरा और 10–20 फ़ीसद निर्माण और अन्य कचरा शामिल है। अनुमान है कि साल 2031 तक बेंगलुरु में कचरे की मात्रा 13,000 टन प्रतिदिन से ज़्यादा हो जाएगी।

स्वचाग्रह कालिका केन्द्र: होसुर-सर्जापुर रोड स्थित एचएसआर लेआउट में नागरिकों द्वारा स्थापित यह केन्द्र इस बात का उदाहरण है कि सामुदायिक स्तर पर गीले कचरे को कैसे संसाधन में बदला जा सकता है। 

यह केन्द्र किचन और गार्डन वेस्ट की कम्पोस्टिंग के लिए एक सीखने की जगह के रूप में विकसित हुआ है, जहां घरों और अपार्टमेंट के लोग व्यवहारिक मॉडल के ज़रिये समझते हैं कि स्रोत पर अलग किया गया कचरा स्थानीय स्तर पर कैसे संभाला जा सकता है।

इस पहल का असर यह हुआ कि आसपास के कई मोहल्लों में 90 फ़ीसद से अधिक कचरा स्रोत पर ही अलग किया जाने लगा, जिससे लैंडफिल पर जाने वाला कचरा काफ़ी हद तक घटा।

मंत्री पैराडाइज़ समुदाय का मॉडल: बनरघट्टा रोड के पास स्थित मंत्री पैराडाइज़ अपार्टमेंट एसोसिएशन ने अपने जैविक कचरे को हर महीने लगभग 60 किलोग्राम खाद में बदलने में सफलता पाई है। इस पहल से न केवल कचरा संग्रह और निपटान पर होने वाले खर्च में कमी आई है, बल्कि नागरिकों में यह समझ भी बनी है कि गीला कचरा स्थानीय स्तर पर संभाला जा सकता है।

इसके अलावा महादेवपुरा, सर्जापुर और व्हाइटफ़ील्ड जैसे इलाक़ों में कई रेज़िडेंट वेलफ़ेयर एसोसिएशन ने घर-घर जाकर जागरूकता अभियान, गार्डन वेस्ट मैनेजमेंट और सोर्स सेग्रीगेशन पर सत्र आयोजित किए हैं। कुछ इलाक़ों में स्वयंसेवियों ने कचरा कलेक्शन के दौरान सफ़ाई कर्मचारियों के सम्मान और मानवीय व्यवहार पर भी ज़ोर दिया है, जिससे समुदाय में जुड़ाव और ज़िम्मेदारी की भावना मज़बूत हुई है।

इसी तरह बेंगलुरु अपार्टमेंट फेडरेशन द्वारा कडलेकेयी पर्व 2025 के दौरान शुरू की गई ज़ीरो-वेस्ट पहल ने यह दिखाया कि त्योहारों और सांस्कृतिक आयोजनों के ज़रिये भी प्लास्टिक कचरे में कमी और नागरिक भागीदारी को बढ़ाया जा सकता है।

ये नागरिक-नेतृत्व वाली पहलें सिर्फ़ कचरा पृथक्करण में मदद नहीं कर रही हैं। बल्कि इससे यह साफ़ होता है कि जब समुदाय के लोग ख़ुद ही प्रोसेसिंग, जागरूकता और व्यवहारिक बदलाव की दिशा में आगे बढ़ते हैं, तो शहर के लैंडफिल पर दबाव कम होता है। साथ ही स्थानीय संसाधनों का उपयोग सही जगह पर ही हो पाता है और कचरे को संसाधन रूप में बदलने की संस्कृति विकसित होती है।

जब तक नीतियां वार्ड स्तर पर स्पष्ट ज़िम्मेदारी और पारदर्शी निगरानी से नहीं जुड़ेंगी, तब तक व्यवस्था-स्तर पर सुधार सीमित ही रहेंगे।
जब तक नीतियां वार्ड स्तर पर स्पष्ट ज़िम्मेदारी और पारदर्शी निगरानी से नहीं जुड़ेंगी, तब तक व्यवस्था-स्तर पर सुधार सीमित ही रहेंगे।चित्र: गंगाधरण बी, सिटिज़न मैटर्स

व्यवहारिक सुझाव: आम नागरिक क्या कर सकता है?

कचरा प्रबंधन कोई दूर की प्रशासनिक चीज़ नहीं है। इसकी शुरुआत घर से होती है।

  • घर में गीला और सूखा कचरा अलग-अलग रखें।

  • जहां संभव हो, गीले कचरे की घरेलू या सामुदायिक कम्पोस्टिंग अपनाएं।

  • अगर कचरा संग्रह वाहन अलग किया गया कचरा मिलाता है, तो शिकायत दर्ज करें और उसका फ़ॉलो-अप करें।

  • मोहल्ले और अपार्टमेंट स्तर पर इस मुद्दे पर बातचीत शुरू करें क्योंकि सामूहिक प्रयास से बदलाव आसान होता है।

व्यवस्था-स्तर पर सुधार: सिर्फ़ आदत नहीं, ढांचा भी बदले

स्रोत पर कचरा पृथक्करण को सफल बनाने के लिए सिर्फ़ नागरिकों का व्यवहार बदलना काफ़ी नहीं है। कचरा निपटान की पूरी व्यवस्था को उसके अनुसार ढालना होगा।

  • हर वार्ड में नियमित और भरोसेमंद विभाजित कचरा संग्रह।

  • कर्मचारियों का प्रशिक्षण और निगरानी।

  • नियम तोड़ने पर दंड और सही काम करने पर प्रोत्साहन।

  • प्रोसेसिंग यूनिट और ड्राई वेस्ट कलेक्शन केंद्रों की संख्या बढ़ाना।

स्रोत स्तर पर पृथक्करण ही कचरे की बढ़ती मात्रा से निपटने का एकमात्र रास्ता नहीं है। लेकिन यह सबसे ज़रूरी पहला कदम है। इसके बिना कोई भी तकनीक, कोई भी प्लांट और कोई भी नीति टिकाऊ नहीं हो सकती।

अगर कचरे को घर से ही अलग करने की आदत सच में ज़मीन पर उतरे और नगर-प्रणाली उसे मिलाने के बजाय ईमानदारी से आगे बढ़ाए, तो कचरा बोझ नहीं संसाधन बन सकता है। इससे न केवल लैंडफिल का दबाव घटेगा, बल्कि शहर का पानी, मिट्टी और हवा भी कुछ राहत पाएंगे।

यह बदलाव किसी एक नीति या परियोजना से नहीं आएगा। यह नागरिकों, कर्मियों और संस्थाओं की साझा ज़िम्मेदारी से ही संभव हो सकेगा जहां से एक अधिक स्वच्छ, सुरक्षित और संवेदनशील शहर की कल्पना आकार लेती है।

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