मिर्ज़ापुर की मड़िहान तहसील की करीब 150 फीट गहरी खदान में भरा हुआ भूजल। नियम है कि भूजल तक पहुंचने के बाद खनन नहीं होना चाहिए, पर इसका पालन किसी खदान में नहीं किया जाता।
मिर्ज़ापुर की मड़िहान तहसील की करीब 150 फीट गहरी खदान में भरा हुआ भूजल। नियम है कि भूजल तक पहुंचने के बाद खनन नहीं होना चाहिए, पर इसका पालन किसी खदान में नहीं किया जाता। फ़ोटो: बृजेंद्र दुबे

मिर्ज़ापुर के गुलाबी पत्थर क्यों छीन रहे हैं इलाके से पानी, प्रकृति, सेहत और रोज़गार?

मिर्ज़ापुर का जो पत्थर स्थानीय लोगों के लिए समृद्धि का स्रोत होना चाहिए था, बीते सालों में खनन के दौरान पर्यावरणीय मानदंडों की खुली अनदेखी के कारण उसकी मौजूदगी एक बहुआयामी मानव-निर्मित आपदा का रूप लेती जा रही है।
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विंध्याचल की पहाड़ियों में बसा मिर्ज़ापुर ज़िला उत्तर प्रदेश के खनिज समृद्ध ज़िलों में से एक है। यहां मिलने वाले बलुआ पत्थर, रेत और गिट्टी जैस खनिज माइनर मिनरल माने जाते हैं। कुल 4521 वर्ग किलोमीटर में फैले इस ज़िले में खनन एक मुख्य व्यावसायिक गतिविधि है। यहां की खुली खदानों से पत्थर, बोल्डर और पटिया आदि का खनन किया जाता है। इसके अलावा, ज़िले में कई क्रशर इकाइयाँ संचालित हो रही हैं। इनमें भवन निर्माण में इस्तेमाल होने वाले पत्थर, सड़क निर्माण में लगने वाली गिट्टी, बजरी, रेत और मौरंग बनते हैं।

रेत और मौरंग जहां गंगा नदी के करीबी इलाकों से निकाली जाती है, वहीं पत्थर लालगंज, चुनार, मडिहान और सदर तहसील के कई इलाकों से निकाला जाता है। मिर्ज़ापुर, खासकर चुनार से निकलने वाले गुलाबी बलुआ पत्थर का इस्तेमाल सदियों से किलों, घाटों, मंदिरों और अन्य सार्वजनिक स्थलों के निर्माण में होता आया है। करीब 240 ईसा पूर्व के अशोक स्तंभ हों, 56 ईसा पूर्व का चुनार का किला हो या मायावती सरकार द्वारा उत्तर प्रदेश में बनवाया बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल या फिर हाल में बना अयोध्या का राम मंदिर, इन सभी इमारतों में चुनार के बलुए पत्थर का इस्तेमाल हुआ है। 

यह पत्थर इतना खास है कि राजस्थान के मकराना मार्बल के बाद यह भारत का दूसरा ऐसा प्राकृतिक पदार्थ है जिसे जिओग्राफ़िकल इंडिकेशन (जीआई) टैग दिया गया है। पर चुनार का यह पत्थर जो स्थानीय लोगों के लिए समृद्धि का स्रोत होना चाहिए था, उनकी हवा, पानी, स्वास्थ्य, खेती और रोज़मर्रा के जीवन के लिए अभिशाप बन गया है। 

मिर्ज़ापुर का ऐतिहासिक चुनार का किला जिसमें स्थानीय गुलाबी बलुआ पत्थर इस्तेमाल किया गया है।
मिर्ज़ापुर का ऐतिहासिक चुनार का किला जिसमें स्थानीय गुलाबी बलुआ पत्थर इस्तेमाल किया गया है।स्रोत: विकीमीडिया कॉमंस

चुनार और मड़िहान तहसीलों में तमाम जगहों पर सभी तरह के पर्यावरण और लोक स्वास्थ्य संबंधी नियमों को ताक पर रखकर दिन-रात विस्फोटकों की मदद से पहाड़ियों को तोड़ा जा रहा है। एक ओर जहां ये धमाके लोगों के घरों में दरारें पैदा कर रहे हैं, दूसरी ओर इनसे निकलती धूल हर समय आबादी पर बादल की तरह छाई रहती है, जिसमें सांस लेने वाले लोग लगातार टीबी, दमा और सिलिकोसिस जैसी बीमारियों का शिकार बन रहे हैं।

इन तकलीफ़ों पर आपने मिर्ज़ापुर और सोनभद्र से आती रिपोर्ट पढ़ी होंगी। पर यहां एक और संकट पैदा हो रहा है जिसके बारे में कोई बात नहीं की जा रही है। यह है पानी का संकट। तय सीमा से नीचे जाकर ज़मीन के भीतर से पत्थर निकालने के लालच में भूजल के भंडारों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। विस्फोट से तोड़े गए जलभृतों से निकले पानी को पंप लगाकर बेकार बहा दिया जाता है। यह पानी न सिर्फ अपने साथ पत्थरों का चूरा ले जाकर नज़दीकी खेतों को तबाह करता है, बल्कि भूजल की बरबादी के कारण आस-पास के इलाकों के कुएं और बोरवैल भी सूख रहे हैं।

पर्यावरण नियमों की अनदेखी के कारण खत्म हो रहा है भूजल

सदर तहसील के पड़री ब्लॉक में लगभग 700 लोगो की आबादी वाले गांव चांदलेवा में ग्रामीण बताते हैं कि खनन और ब्लास्टिंग के कारण भू-जल घट रहा है। गांव के रामधनी राजभर (65 ) कहते है," हमारे घर से लगभग 200 मीटर की दूरी पर पत्थर के खदान है। खदान के ब्लास्टिंग की वजह से हम लोगों का बहुत नुकसान हो रहा है। घर के दीवाल में दरार पड़ जा रहे है। ज़मीन के नीचे से पानी भी खत्म हो जा रहा है। गर्मी में टैंकर से पानी न मिले तो पानी के बिना हम लोगों की मौत हो जाए। खनन के लिए पहाड़ को खोद कर कुआं बना दिया गया है और हमारे पास पीने का पानी तक नहीं बचा।"

इसी गांव की आशा देवी (60) बताती है, "ब्लास्टिंग की वजह से घर टूट जा रहा है, छत का ईट गिर जा रहा है। सीमेंट के शेड टूट जा रहे है। ब्लास्टिंग से जमीन हिलने लगता है, घर भी एक दिन गिर जाएगा। पानी की समस्या अलग है, गांव के सभी हैंडपंप सूख गए। दूसरे गांव से सायकिल से पानी लाते हैं।"

चांदलेवा गांव की आशा देवी खदानों में होने वाले विस्फोटों के कारण घर की दीवार में आई दरार को हाथ के इशारे से दिखाती हैं।
चांदलेवा गांव की आशा देवी खदानों में होने वाले विस्फोटों के कारण घर की दीवार में आई दरार को हाथ के इशारे से दिखाती हैं।फ़ोटो: बृजेंद्र दुबे

गांव के ही बबलू राजभर कहते है," 300 फिट गहराई तक पहाड़ को खोद दिया गया है, रोज खनन के लिए ब्लास्टिंग हो रहा है, हम लोगों को पानी की समस्या हो गई है।  2 किलोमीटर दूर छीतमपुर गांव से पीने का पानी लेने जाते है। गांव के प्रधान व्यास जी बिंद टैंकर से पानी भेजते हैं, तो काम चल जाता है। पुराने हैंडपंप और कुआं 3 साल से हर गर्मी में पानी छोड़ दे रहे है।"

पर्यावरण बचाने के लिए काम करने वाले स्थानीय संपूर्णानंद ने इस क्षेत्र में नियमों को ताक पर रखकर किए जा रहे खनन पर कार्वाई करने के लिए पट्टा मालिकों और प्रदेश शासन के खिलाफ राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में शिकायत दर्ज कराई है। हालांकि, उनकी शिकायत पर अधिकारियों की समीतियां गठित की गईं, जिन्होंने 40 में से 39 खनन पट्टों के लिए शिकायत को सही पाया। नतीजतन, इन पट्टों पर करोड़ों रुपए का ज़ुर्माना लगाया गया। साथ ही, उत्तर प्रदेश प्रदूषण बोर्ड ने तात्कालिक रूप से इनका काम भी बंद कर दिया, पर कुछ ही दिनों में स्थिति जस की तस हो गई।

मड़िहान तहसील की एक खदान में विस्फोट से तोड़े गए जलभृतों से निकले पानी को पंप लगाकर बेकार बहाया जा रहा है। हर खदान में भूजल तक पहुंचने के बाद उसे इसी तरह बहा दिया जाता है।
मड़िहान तहसील की एक खदान में विस्फोट से तोड़े गए जलभृतों से निकले पानी को पंप लगाकर बेकार बहाया जा रहा है। हर खदान में भूजल तक पहुंचने के बाद उसे इसी तरह बहा दिया जाता है।फ़ोटो: बृजेंद्र दुबे

एनजीटी के निर्देश और बोर्ड के रोक लगाने के बावजूद 39 पट्टों पर अब भी अधिकारियों की सांठ-गांठ से काम चालू है। पानी उसी तरह बरबाद हो रहा है। हवा के प्रदूषण और बाकी नियमों का पालन न करने के बारे में तो समीतियों ने रिपोर्ट में माना कि शिकायत सही है। पर पानी के बारे में समीतियां भी कुछ नहीं कहतीं। नियम है कि 18 मीटर तक या भूजल तक पहुंच जाने के बाद खनन नहीं किया जा सकता पर यहां इसके बावजूद लगातार खनन जारी रहता है।

संपूर्णानंद, स्थानीय पर्यावरण संरक्षण कार्यकर्ता

खनन के कारण पर्यावरण को होने वाले नुकसान को लेकर पहली याचिका संपूर्णानंद ने साल 2022 में दायर की। इस याचिका पर हुई कार्रवाई पर जवाब देते हुए, 23 अगस्त 2023 को हरित ट्रिब्यूनल को पत्र लिखकर उन्होंने बताया कि नियम न मानने वाले पट्टों में खनन बंद ट्रिब्यूनल के आदेश के बावजूद विस्फोट और खनन जारी है। 

भूजल की स्थिति का ज़िक्र करते हुए उन्होंने पत्र में लिखा, “मानक विपरीत खनन कार्य करने से लगभग 100-150 के गड्ढे हो जाने के कारण आए दिन कोई न कोई दुर्घटना हो रही है। चूंकि ज़मीन के नीचे खुदाई करने के कारण पानी निकलना स्वाभाविक है, उसे मशीनें लगाकर बराबर निकालने का काम किया जाता है, ताकि खनन कार्य सुचारु रूप से जारी रहे। इससे  भूजल का बेतहाशा दोहन हो रहा है, जिससे भूजल का स्तर तेज़ी से नीचे जा रहा है। इसे रोका जाना अति आवश्यक है।”

वे बताते हैं कि एक पट्टा लगभग एक हेक्टेयर (चार बीघे) का होता है। हर पट्टे में विस्फोटकों द्वारा पत्थर की परतों को तोड़-तोड़ कर खनन किया जाता है। ज़मीन के ऊपर का पत्थर खत्म हो जाने के बाद ज़मीन के नीचे भी विस्फोट किए जाते हैं। भूजल तक पहुंच जाने के बावजूद तोड़ना जारी रहता है और पानी को ताकतवर पंप लगाकर लगातार बाहर फेंका जाने लगता है। “18 मीटर का नियम एक तरफ, यहां ज़मीन के 60 मीटर नीचे जाकर पत्थर निकाला जा रहा है। पानी बरबाद होता है, तो हो। जनवरी आते-आते आस-पास के गांवों में 60-70 फीट गहराई वाले बोरवैल में पानी नहीं रहता। लोग अब 300 फीट की बोरिंग कराने पर मजबूर हैं।”

स्प्रिंगर प्रकाशन से इसी साल आई किताब सॉलिडैरिटी अप्रोच इन जिओग्रफ़ी का एक अध्याय मिर्ज़ापुर में हो रहे खनन की स्थिति के बारे में कहता है, “खनन एक खतरनाक गतिविधि है क्योंकि यह पर्यावरण और ग्रामीणों के जीवन पर बुरा असर डालती है। लेकिन यह पूरा सिस्टम विश्वासघात पर चलता है।  यहाँ के ग्रामीणों की सुरक्षा के बारे में सोचने वाला कोई नहीं है। पहाड़ियों में ब्लास्टिंग और खनन के कारण काफी भूजल खुले में भरा हुआ है, लेकिन किसी को परवाह नहीं। यह जगह बच्चों के खेलने के लिए असुरक्षित है, क्योंकि बच्चे इन गहरी खदानों में गिर सकते हैं और उनकी मौत हो सकती है।”

अहरौरा तहसील के सोनपुर पहाड़ी गांव के नज़दीक एक खदान। खदानों में धूल रोकने के लिए न तो पेड़ लगाए गए हैं, न स्प्रिंकलर।
अहरौरा तहसील के सोनपुर पहाड़ी गांव के नज़दीक एक खदान। खदानों में धूल रोकने के लिए न तो पेड़ लगाए गए हैं, न स्प्रिंकलर। फ़ोटो: बृजेंद्र दुबे

खनन से हो रही हैं सांस की बीमारियां 

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 300 किलोमीटर दूर मिर्जापुर की चुनार और मड़िहान तहसील में पहाड़ियों पर जो कुछ बाकी है, उसे बड़ी-बड़ी जेसीबी और पोकलेन मशीनें लगातार खुदाई और पत्थर को तोड़ने में लगी है। हवा में फैली धूल और विस्फोटकों की गंध के कारण यहां पर कुछ देर सांस लेने में गले में जलन होने लगती है। पर यहां के ग्रामीण दिन रात इसी हवा में सांस लेने को मजबूर हैं।

यहीं सोनपुर पहाड़ी गांव में हम राष्ट्रीय धावक चंदा (24) के परिवार से मिलते हैं। चंदा ने इस साल फरवरी में हुए राष्ट्रीय खेलों में 800 मीटर दौड़ में स्वर्ण जीता है। इससे पहले वे 2023 में एशियाटिक खेलों में रजत और 2019 राष्ट्रीय खेलों में स्वर्ण जीत चुकी हैं। पर मिर्ज़ापुर के इस छोटे से गांव में उनका परिवार खदानों के खतरनाक असर से जूझ रहा है। खदानों से निकलने वाली धूल के संपर्क में आने से लोग बीमार हो रहे हैं। चंदा के पिता इन्हीं पत्थरों की खदानों में काम करते थे, लेकिन धूल, प्रदूषण और सही पोषण के अभाव में उन्हें टीबी हो गई। इलाज के बाद टीबी ठीक हुई तो अब वे दमा के मरीज़ हैं।

“सांस फूलता है। हम अपने इलाज के लिए बहुत परेशान हुए, वाराणसी,चंदौली,मिर्जापुर के चक्कर लगाए।अभी फिलहाल वाराणसी से दमा का इलाज चल रहा है। विस्फोटों से निकलने वाले धूल और और पत्थरों के कणों से टीबी की बीमारी हुई। हमारे बस्ती में और लोग भी सांस की बीमार से ग्रस्त हैं। अब हम कोई काम करने लायक नहीं रहे। 5 लाख रुपए में ज़मीन बेचे थे, उसी से इलाज़ करा रहे हैं, बच्चों को खिला रहे हैं। कभी-कभी खदान की तरफ काम की तलाश में जाते है, किसी का काम कर देते है तो 100 रुपए मज़दूरी मिल जाती है। कभी वो भी नहीं मिलता,” चंदा के पिता सत्यनारायण प्रजापति (50) बताते हैं।

अपने पत्थरों से दिल्ली के संसद भवन को खूबसूरत बनाने वाले पहाड़ों से ग्रामीणों को छोटी-मोटी मज़दूरी और दमा, टीबी, सिलिकोसिस जैसी सांस की बीमारियां मिलती हैं। 

सोनपुर पहाड़ी गांव में पत्थर काटने के एक प्लांट के बाहर रखे पत्थर और उन पर जमी धूल। इन पत्थरों को खुले ट्रकों में भरकर भेजा जाता है। धूल को रोकने के लिए ज़रूरी छिड़काव भी कभी-कभार खानापूर्ति के लिए किया जाता है।
सोनपुर पहाड़ी गांव में पत्थर काटने के एक प्लांट के बाहर रखे पत्थर और उन पर जमी धूल। इन पत्थरों को खुले ट्रकों में भरकर भेजा जाता है। धूल को रोकने के लिए ज़रूरी छिड़काव भी कभी-कभार खानापूर्ति के लिए किया जाता है।फ़ोटो: बृजेंद्र दुबे

क्या कहते हैं स्वास्थ्य के आंकड़े


मां विंध्यवासिनी स्वशासी मेडिकल कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ पंकज कुमार पाण्डेय टीबी की बीमारी को लेकर कहते हैं, “मिर्जापुर के खदानों में काम करने वाले मज़दूरों को ज़्यादातर टीबी की बीमारी होती है। सिलिका (रेत) के कण फेफड़ों में जाते है तो उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने लगती है। ऐसे मजदूरों ने भले ही 10 वर्ष पहले काम छोड़ दिया हो, लेकिन उन्हें टीबी, सिलिकोसिस की बीमारी हो जाती है।”

डॉ. पांडे खदानों में काम करना छोड़ चुके मजदूरों को सलाह देते हैं कि अगर खांसी और बुखार संबंधी बीमारी हो तो वे तुरंत मंडलीय चिकित्सालय में डॉक्टर से परामर्श लें। खदानों के आस-पास रिहाइशी इलाके में भी इस धूल का खतरनाक असर होता है। वहां रहने वालों को सावधानी बरतनी चाहिए, सांस से जुड़ी बीमारी के लक्षण दिखते ही इलाज़ कराना चाहिए।

लेखक द्वारा  जन सूचना अधिकार (RTI) के अंतर्गत मांगी गई जानकारी के जवाब में जिला क्षय रोग अधिकारी ने बताया कि मिर्जापुर जनपद में 30 अप्रैल 2024 तक  पिछले पांच वर्षों में जिला क्षय रोग चिकित्सालय में कुल 24066 मरीज इलाज के लिए आए। इसमें से कुल 21035 क्षय रोगी इलाज के बाद ठीक हुए और कुल 636 क्षय रोगियों की मौत हो गई। 

इस बारे में स्प्रिंगर से आई किताब कहती है, “हर दूसरा व्यक्ति यहां फेंफड़ों की बीमारी का मरीज़ है। कुछ के लक्षण काफ़ी गंभीर और दर्दनाक हैं।”

“इन दो तहसीलों (अहरौरा और मड़िहान) के लगभग 50,000 ग्रामीण निवासी हर रोज़ धूल को सांस और खाने के ज़रिए भीतर लेने को मज़बूर हैं। यहां एक भी घर ऐसा नहीं मिला जिसमें एक न एक सदस्य को सांस की बीमारी न हो,” किताब आगे कहती है।

नीति आयोग ने 2017 में मिर्ज़ापुर में खनन के सामाजिक-आर्थिक असर को जानने के लिए एक अध्ययन कराया था। अध्ययन में स्वीकारा गया कि जो लोग खदानों में काम नहीं करते उन्हें भी हवा में मौजूद धूल के कारण सांस की बीमारियों से जूझना पड़ता है। इन इलाकों में खनन के कारण होने वाली बीमारियों में टीबी, खांसी-ज़ुकाम, मलेरिया (खदानों में भरे पानी में मच्छरों के पनपने से), त्वचा की बीमारियां, डायरिया, दांतों पर दाग, जोड़ों में दर्द, आर्थराइटिस और थकान शामिल हैं। 
नीति आयोग के अध्ययन के मुताबिक 78% लोगों ने माना कि खनन के दौरान सुरक्षा के उपाय नहीं किए जा रहे हैं। करीब 17% ने कहा कि खदानों में काम करने वालों को सांस से जुड़ी बीमारियां होती हैं, 25% ने बताया कि यहां सुनने में तकलीफ की समस्या आम है और 44% ने पानी से होने वाली बीमारियों की शिकायत की।
नीति आयोग के अध्ययन के मुताबिक 78% लोगों ने माना कि खनन के दौरान सुरक्षा के उपाय नहीं किए जा रहे हैं। करीब 17% ने कहा कि खदानों में काम करने वालों को सांस से जुड़ी बीमारियां होती हैं, 25% ने बताया कि यहां सुनने में तकलीफ की समस्या आम है और 44% ने पानी से होने वाली बीमारियों की शिकायत की।

खदानों में पूरे नहीं किए जा रहे पर्यावरण संरक्षण के मानदंड

नीति आयोग की सिफारिश के मुताबिक खदानों में काम करने वालों को मास्क उपलब्ध कराए जाने चाहिए पर ऐसा नहीं होता। खदानों पर काम शुरू करने से पहले कंपनी को प्रदेश के पर्यावरण निदेशालय से पर्यावरण स्वीकृति (एनवायर्नमेंटल क्लीयरेंस: ईसी) और  उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से संचालन अनुमति पत्र (कन्सेंट टू ऑपरेट: सीटीओ) लेना ज़रूरी होता है। कई बार ये स्वीकृतियां ले ली जाती हैं, पर अधिकतर मामलों में इन दस्तावेजों में दिए गए नियमों का पालन नहीं होता। 

इन दोनों स्वीकृतियों के कुछ नियम और उनकी हकीकत इस प्रकार है:

एनजीटी के निर्देश पर गठित समीति ने माना नियम नहीं हो रहे पूरे


एनजीटी केस संख्या 521/2022 संपूर्णानंद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य पर सुनवाई के दौरान ट्रिब्यूनल को सौंपी गई जॉइंट कमेटी रिपोर्ट ने पाया कि क्षेत्र के जिन 40 खनन पट्टों के खिलाफ मानकों को न मानने, लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की शिकायत की थी उनमें से 39 अधिकतर मानकों पर खरे नहीं उतरते। कमेटी की कुछ मुख्य अवलोकन इस प्रकार हैं:

  • कुल 40 में से 4 खनन पट्टों में आंशिक रूप से चारदीवारी बनाई हुई थी और बाकी ने नहीं बनीई थी।

  • किसी भी पट्टे में लीज़ किए गए क्षेत्र के चारों ओर पेड़ नहीं लगाए गए थे।

  • किसी भी खनन पट्टे में ईसी के निर्देश के बावजूद हवा की गुणवत्ता जांचने के लिए स्टेशन नहीं बनाए गए थे।

  • किसी भी पट्टे में धूल को दबाने के लिए किसी तरह की प्रणाली नहीं लगाई गई थी।

  • किसी भी पट्टे में सेप्टिक टैंक नहीं बनाए गए थे।

  • अधिकतर पट्टों में धूल को नियंत्रित करने के लिए स्प्रिंकलर प्रणाली नहीं थी। लोडिंग आदि वाली जगहों पर जहां पानी के छिड़काव के लिए टैंकर का उपयोग किया जा रहा था वह भी मानकों के हिसाब से नहीं था।

  • अधिकतकर पट्टों में ठोस कचरे का निपटारा इस तरह नहीं किया जा रहा था कि हवा, पानी और पर्यावरण को नुकसान न हो।

  • अधिकतर जगहों पर पत्थर ले जाने वाले वाहनों को तारपुलिन या अन्य साधन से ढका नहीं गया था।

इस रिपोर्ट में अन्य नियमों के पालन, खासकर भूजल पर असर के बारे में कुछ नहीं कहा गया। संपूर्णानंद के ही दूसरे मामले 466/2024 की सुनवाई के दौरान सौंपी गई रिपोर्ट में कुछ और गंभीर गड़बड़ियां पाई गईं। इसके मुताबिक:

  • लगभग सभी खदानें बिना सीटीओ के चल रही थीं।

  • सड़कों के आसपास सभी पेड़ों की पत्तियां धूल से लदी थी, जिसका मतलब है कि खदानें और स्टोन क्रशर से काफी धूल बाहर आ रही थी।

  • किसी भी खदान की ओर से ब्लास्ट वाइब्रेशन की रिपोर्ट संबंधित विभाग को नहीं भेजी गई थी।

  • खदानों ने तेज़ ढाल वाले गहरे गड्ढे खुले छोड़ दिए हैं।

  • कुछ खनन पट्टे जरगो बांध से 500–600 मीटर की दूरी पर मौजूद हैं, जिसमें लगभग 3 लाख क्यूसेक पानी है। यह बांध इलाके में लगभग 1000 एकड़ कृषि भूमि की सिंचाई का इकलौता स्रोत है। यहां लगभग रोजाना ब्लास्टिंग के झटके महसूस होते हैं।

तमाम नियमों, कानूनों और ट्रिब्यूनल के आदेशों के बावजूद इलाके में अब भी खनन कार्य उन्हीं हालात में जारी है जिनकी शिकायत ग्रामीण करते रहे हैं और जिनका अलग-अलग समीतियों ने अपनी रिपोर्ट में ज़िक्र किया है।

चांदलेवा गांव के पास जंगल के किनारे खनन पट्टा। जंगलों के पास खनन होने के कारण इलाके की जैव-विविधता घट रही है।
चांदलेवा गांव के पास जंगल के किनारे खनन पट्टा। जंगलों के पास खनन होने के कारण इलाके की जैव-विविधता घट रही है। फ़ोटो: बृजेंद्र दुबे

वन्य जीवों, जैव-विविधता पर असर


मिर्ज़ापुर अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता रहा है। ब्रिटिश राज में मिर्ज़ापुर मध्य भारत का मुख्यालय हुआ करता था और अधिकारी यहां शिकार के लिए आया करते थे। वर्ल्ड वाइल्डाइफ़ फ़ंड फ़ॉर नेचर के मिर्ज़ापुर के स्लॉथ बीयर पर किए गए एक अध्ययन के मुताबिक इस इलाके में खेती के अनियंत्रित फैलाव और जंगलों के भीतर व आसपास अनियोजित खनन गतिविधियों की वजह से ज़मीन के उपयोग और उसके ऊपरी आवरण में काफी बदलाव हुआ है। जिसकी वजह से जंगली जीवों के आवासों और रास्तों पर बहुत दबाव पड़ा है। 

फ़ोटो: बृजेंद्र दुबे
मिर्ज़ापुर के सुकृत वन रेंज के भीतर होती खनन गतिविधियां भालू व अन्य वन्य जीवों का आवास छीन रही हैं। स्रोत: वर्ल्ड वाइल्डलाइफ़ फ़ंड फ़ॉर नेचर

अध्ययन के मुताबिक ज़िले की सुकृत और चुनार फ़ॉरेस्टे रेंज में कई जगह अवैद्य खनन किया जा रहा है। इसके अलावा दोनों ही जगहों पर पेड़ों की अवैद्य कटाई और जंगलों के भीतर धार्मिक आश्रम जैसी इमारतों के कारण भी जंगली जीवों के आवास प्रभावित हो रहे हैं। दोनों जंगलों के फ़ॉरेस्ट रेंजर ने इन गतिविधियों को रोकने में असमर्थता जताई। इसके पीछे बड़ा कारण अन्य संबंधित विभागों से सहयोग न मिलना और राजनीतिक रूप से ताकतवर स्थानीय लोगों को अनियंत्रित प्रभाव।

द्रमंडगंज इलाके के बंजारी कलां गांव में कई बार इन भालुओं के घुसने की घटनाएं हुई हैं। अध्ययन के मुताबिक इसका मुख्य कारण गांव के दक्षिण की ओर की पहाड़ी पर तेज़ी से बढ़ी खनन गतिविधियां हैं। पहले भोजन, पानी और आवास के लिए उस पहाड़ी पर निर्भर भालू अब खाने और पानी की तलाश में जंगल के बीच बसे इस गांव तक पहुंच जाते हैं।

खनन से सिर्फ मिट्टी और पानी को ही नुकसान नहीं होता। खुली खदानों में होने वाला खनन ड्रिलिंग, ब्लास्टिंग और पत्थर तोड़ने और उन्हें ट्रकों में भरकर ले जाने जैसे कामों के ज़रिए बहुत ज़्यादा शोर भी पैदा करता है। इस शोर से आसपास रहने वाले लोगों को तो तकलीफ़ होती ही है, इसका असर जंगली जानवरों के व्यवहार पर भी पड़ता है। शोर वाले इलाकों से अकसर कई प्रजातियां या तो पलायन करने लगती हैं या उनका जीवन खतरे में पड़ जाता है। रेंजर मानते हैं कि खनन के कारण इन जंगलों से कई बड़ी स्तनपायी प्रजातियां गायब हो गई हैं।

विंध्य बचाओ फाउंडेशन से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता देवोदित्य सिन्हा इस बात से सहमति जताते हैं। वे कहते हैं, “इन तीनों तहसीलों में कभी हरे-भरे जंगल हुआ करते थे, जो पड़ोसी चंदौली जिले में स्थित चंद्रप्रभा वन्यजीव अभयारण्य से जुड़ते थे। लेकिन खनन गतिविधियों ने इन सभी जंगलों को तबाह कर दिया।”

सिन्हा के मुताबिक मड़िहान के जंगलों में सोन कुत्ते, भेड़िए, भालू, तेंदुए, हिरन, चिंकारा और बिल्लियों की कई छोटी प्रजातियां पाई जाती थीं। लेकिन खनन शुरू होने के बाद वे गायब हो चले हैं।

“मड़िहान और चुनार के जंगलों में भालू अभी भी बचे हुए हैं। पटेहरा के पास लेदुकी जंगल में भालू थे। अहरौरा क्षेत्र में भालू थे लेकिन अब बहुत कम हो गए हैं क्योंकि खनन बहुत ज़्यादा हो रहा है। अहरौरा की पहाड़ियों में लकड़बग्घे और तेंदुए अब भी बचे हुए हैं। इसका कारण सिंचाई विभाग के सुरक्षित पहाड़ हैं। सिंचाई विभाग के पहाड़ में ये जानवर रहते है। अहरौरा, चुनार और मड़िहान में खनन ने वन्यजीवों को बुरी तरह प्रभावित किया है।”

देवोदित्य सिन्हा, कार्यकर्ता, विंध्य बचाओ फाउंडेशन

खनन से खेती पर असर


मिर्ज़ापुर की खदानें एक ओर सरकार को राजस्व और लोगों को रोज़गार दे रही हैं, वहीं दूसरी ओर पर्यावरणीय नियमों की अवहेलना के कारण ये खदानें स्थानीय किसानों की आजीविका के लिए संकट बन गई हैं। खदानों से निकलने वाले पानी में सिल्ट मिला होता, जिसे सीधे खेतों में छोड़ दिया जाता है। इसके अलावा इनसे निकलने वाली धूल पेड़-पौधों की पत्तियों को ढक लेती है। नतीजा उत्पादन लगातार घटता जाता है।

सोनपुर की एक खदान में खनन से निकले पत्थर के चूरे को पानी के साथ बहाया जा रहा है। यह पानी जब खेतों में घुसता है तो सिल्ट को वहां छोड़ देता है, जिससे मिट्टी की गुणवत्ता गिरती जाती है।
सोनपुर की एक खदान में खनन से निकले पत्थर के चूरे को पानी के साथ बहाया जा रहा है। यह पानी जब खेतों में घुसता है तो सिल्ट को वहां छोड़ देता है, जिससे मिट्टी की गुणवत्ता गिरती जाती है।फ़ोटो: बृजेंद्र दुबे

अहरौरा ब्लॉक के एकली गांव के रामबली (45) आईडब्लूपी को बताते हैं, “खदानों से निकलने वाला पानी किसानों के खेतों में जाता है, जिसकी वजह से खेतों में सिल्ट जमा हो जाता है। इससे खेतों की उर्वरक शक्ति कम हो रही है। जब क्रशर प्लांट से निकलने वाला चूरा और धूल हम किसानों के खेत में जाता है। तो वह फसल के पौधे के ऊपर जमा हो जाता है और खेत की मिट्टी में एक सफेद परत बना लेता है। इसकी वजह से मिट्टी पानी को अपने अंदर नहीं खींच पाती और पौधे रौशनी का इस्तेमाल नहीं कर पाते। इसलिए खनन से निकलने वाला चूरा और धूल दोनों खेतों और पेड़, पौधों के लिए हानिकारक हैं।” 

साल में हम दो फसल धान और गेहूं की उगाते है। सिंचाई बारिश के भरोसे होती है, कभी-कभार नहर का भी पानी मिल जाता है, लेकिन ब्लास्टिंग से उड़ने वाला धूल हमारे फसल के पौधे पर जाकर जमा हो जाता है। जिसकी वजह से उनका विकास रुक जाता है। फसल की पैदावार कम हो गया है। जब इलाके में खनन कम होता था तो पैदावार अच्छा होता था। पहले हम 1 बिस्वा (0.012 हेक्टेयर) खेत में 80 किलो धान उगा लेते थे, अब 60 किलो ही हो पाता है। आबादी वाले इलाके में ही खनन दिन रात चल रहा है।”

संत कुमार (42), किसान, गांव भगौती देई, तहसील अहरौरा

चांदलेवा गांव की कुमारी देवी (50) खनन के कारण खेत में गिरने वाले पत्थरों और धूल से होने वाली तकलीफ़ की शिकायत करती हैं, ”ब्लास्टिंग की वजह से खेतों में पत्थरों के छोटे बड़े टुकड़े गिर जाते हैं। खड़ी फसल के पौधे टूट कर गिर जाते है। धूल पौधों के ऊपर जमने लगती है और फसल सूखने लगता है। धूल की वजह से फसल की कटाई के लिए जल्दी मजदूर नहीं मिलते, उन्हें भी धूल की वजह से तकलीफ होती है, तो वे मना कर देते हैं। फसल अपने हाथों से अकेले काटना पड़ता है।”

अहरौरा तहसील के एकली गांव में धान के खेत में पत्थरों के चूरे वाला पानी। किसान बताते हैं कि इसके कारण उनकी फसलों का उत्पादन लगातार घट रहा है।
अहरौरा तहसील के एकली गांव में धान के खेत में पत्थरों के चूरे वाला पानी। किसान बताते हैं कि इसके कारण उनकी फसलों का उत्पादन लगातार घट रहा है।फ़ोटो: बृजेंद्र दुबे
नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक,
पाया गया कि खदानों से उठती धूल में इतनी सिल्ट होती है कि वह आसपास के खेतों को ढकने के लिए काफी होती है। इसका असर मिट्टी की जीवन प्रणाली और फसल की उत्पादकता पर होता है। इसके कारण धातु के अंश भी मिट्टी तक पहुंचते हैं। ग्रामीण शिकायत करते हैं ट्रकों की आवाजाही से और धूल उठती है जो मिट्टी को खराब करती है। मिट्टी में सिल्ट बढ़ने की वजह से उसमें नमी कम हो जाती है, जो खेती के लिए ज़रूरी है। खनन के असर की वजह से मिट्टी में हवा की आवाजाही अवरुद्ध होती है और मिट्टी की गुणवत्ता भी कम होती है। अगर स्थिति यही रही, तो खेती के लिए हालात खराब होते जाएंगे। बिना शक यह कहा जा सकता है कि खनन के कारण मिट्टी की गुणवत्ता (भौतिक और रासायनिक रूप से) खराब हुई है और इसका असर उत्पादन और लोगों की आजीविका पर पड़ा है। सर्वे में 93 फीसद लोगों ने माना कि खेती पर खनन का बुरा असर हो रहा है। करीब 80 फीसद लोगों ने माना कि खेती का उत्पादन घटा है।

खनन को अक्सर एक ऐसी आर्थिक गतिविधि कहकर जायज़ ठहराया जाता है जिससे सरकार को राजस्व मिलता है और लोगों को रोजगार। लेकिन मिर्ज़ापुर में पानी, पर्यावरण, जैव-विविधता और ग्रामीणों के स्वास्थ्य और आजीविका की कीमत पर जिस तरह खनन किया जा रहा है उसके नुकसान फ़ायदों से कहीं ज़्यादा और दूरगामी हैं। ऐसे में, सवाल यही बचता है कि जब सरकार जानती है कि ज़मीन पर क्या हो रहा है, तब ऐसी क्या वजहें है कि इतनी बड़ी मानव निर्मित आपदा को अनदेखा किया जा रहा है?

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