स्रोत : मोंगाबे
समुद्री घास खाने वाले डुगोंग दुनिया के इकलौते शाकाहारी समुद्री स्‍तनपायी जीव हैं। पर्यावरणीय वजहों और शिकार के चलते इनका अस्तित्‍व खतरे में पड़ गया है।

जानें क्यों ज़रूरी है विलुप्‍त होती ‘समुद्री गाय’ को बचाना

उत्तरी पाक खाड़ी में तमिलनाडु सरकार के डुगोंग संरक्षण रिजर्व बनाने की कवायद को सारी दुनिया ने सराहा, समुद्र में 448.34 वर्ग किमी के इलाके में बना सी काउ का सुरक्षित प्रवास
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गाय और गोरक्षा का मुद्दा बीते एक दशक में हमारे देश के सबसे ज्‍य़ादा चर्चित मुद्दों में शामिल रहा है। इस सबके बीच एक गाय ऐसी भी है, जो जलवायु परिवर्तन, पर्यावरणीय बदलावों और बेतहाशा शिकार के चलते विलुप्‍त होने के कगार पर पहुंच गई है। हम बात कर रहे हैं 'समुद्री गाय' या ‘सी काउ’ के नाम से पुकारे जाने वाले जलीय जीव डुगोंग की। 

जिस तरह हिप्‍पोपोटेमस को हिन्‍दी में दरियाई घोड़ा के नाम से जाना जाता है, उसी तरह डुगोंग को समुद्री गाय कहा जाता है। अच्‍छी खबर यह है कि अस्तित्‍व के संकट से जूझ रहे इस जलीय जीव को बचाने के लिए तमिलनाडु सरकार की एक पहल को अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर मान्‍यता मिलने जा रही है।

अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) ने पाक खाड़ी में भारत के पहले डुगोंग संरक्षण रिजर्व को मान्यता देने के प्रस्ताव को औपचारिक रूप से स्‍वीकार लिया है। आईयूसीएन की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक प्रस्ताव संख्या 025 पर अक्टूबर में अबू धाबी में होने वाली आईयूसीएन विश्व संरक्षण कांग्रेस में मतदान होगा।

दि हिन्‍दू की रिपोर्ट के मुताबिक पाक खाड़ी में कार्यरत संस्‍था ओमकार फाउंडेशन (ऑर्गेनाइजेशन फॉर मरीन कंजर्वेशन, अवेयरनेस एंड रिसर्च) ने 25 सितंबर 2025 को आईयूसीएन के समक्ष प्रस्‍ताव किया, जिसे 98% देशों और 94.8% गैर-सरकारी संगठनों, शोध संस्थानों और संगठनों ने स्‍वीकार करने का समर्थन किया है।

ऐसे में अबूधाबी में 9 से 15 अक्टूबर 2025 को होने वाली आईयूसीएन कांग्रेस में इस प्रस्‍ताव के पास होने की घोषणा एक औपचारिकता भर रह गई है।

भारत और श्रीलंका के बीच स्थित पाक खाड़ी समुद्री गाय का एक प्रमुख आवास स्‍थल है। इसे देखते हुए तमिलनाडु सरकार ने इसी इलाके में डुगोंग रिज़र्व की स्‍थापना की है।
भारत और श्रीलंका के बीच स्थित पाक खाड़ी समुद्री गाय का एक प्रमुख आवास स्‍थल है। इसे देखते हुए तमिलनाडु सरकार ने इसी इलाके में डुगोंग रिज़र्व की स्‍थापना की है। स्रोत : मोंगाबे

समय रहते उठाया गया सकारात्‍मक कदम

तमिलनाडु सरकार ने 2022 में हिन्‍द महासागर में भारत और श्रीलंका के बीच स्थित पाक खाड़ी में  448.34 वर्ग किलोमीटर के डुगोंग संरक्षण रिजर्व घोषित किया था। यह कदम समुद्री गायों की तेज़ी से घटती तादाद को देखते हुए उन्‍हें तत्‍काल गहन संरक्षण देने के नज़रिये से उठाया गया था।

एक समय मन्नार की खाड़ी, पाक खाड़ी, कच्छ की खाड़ी और अंडमान व निकोबार द्वीप समूह में तक फैले भारत के समुद्री इलाकों में बड़ी संख्‍या में डुगोंग देखने को मिलते थे।  पर, नेशनल कंजर्वेशन स्‍ट्रेटजी एंड एक्‍शन प्‍लान फॉर गुगोंग इन इंडिया शीर्षक से साइंस जर्नल रिसर्च गेट में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि हाल के वर्षों में इनकी संख्या घटकर कुछ सौ रह गई थी इसकी वजह इनका अवैध शिकार, मछली पकड़ने की गतिविधियों से इनके आवासों को नुकसान पहुंचना, इनके भोजन (समुद्री घास, साइमोडोसिया) में कमी और जलवायु परिवर्तन व प्रदूषण से इनकी प्रजनन दर में भारी गिरावट आना था।

इसे देखते हुए तमिलनाडु सरकार ने 2022 में वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम के तहत पाक खाड़ी में डुगोंग संरक्षण रिज़र्व की अधिसूचना जारी कर इन्‍हें संरक्षित जीवों की श्रेणी में शामिल कर लिया। इनको संरक्षण देने के लिए डुगोंग संरक्षण रिज़र्व बना कर 12,000 हेक्टेयर से अधिक समुद्री घास के मैदानों को इनके भोजन व आवास के लिए संरक्षित किया गया।

डुगोंग एवं सीग्रास हब की रिपोर्ट बताती है कि तमिलनाडु सरकार ने भारतीय वन्यजीव संस्थान और स्थानीय समुदाय की भागीदारी से एक मज़बूत निगरानी तंत्र खड़ा करके डुगोंग के अवैध शिकार को कम किया है। समुद्र में मछली पकड़ने गए मछुआरों के जाल में फंसने वाले डुगोंग को वापस उनके समुद्री आवास में छोड़ने के लिए प्रोत्साहित भी किया गया है। इन प्रयासों के चलते डुगोंग की तेजी से घटती आबादी में अब एक स्थिरता देखने को मिल रही है। 

रिजर्व क्षेत्र बनाए जाने से डुगोंग के साथ ही मूल्यवान फ़िन फ़िश, केकड़ों और झींगों के प्रजनन में भी मदद मिली है। इससे हज़ारों छोटे और सीमांत मछुआरों को लाभ हो रहा है, जो अपनी आजीविका के लिए निकटवर्ती तटीय क्षेत्रों में मछली पकड़ने पर निर्भर हैं।

इन प्रयासों को देखते हुए अब अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ ने इस अभ्यारण्य को एक आदर्श मॉडल के रूप में मान्यता दी है। साथ ही, आईयूसीएन ने इसके पारिस्थितिक महत्व को मछुआरों व तटवर्ती इलाकों के लोगों को समझाने के प्रयासों और इनके संरक्षण में इस्‍तेमाल की जा रही नए तौर-तरीकों व तकनीकों की भी सराहना की है। 

मोंगाबे की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि ड्रोन के ज़रिये हाल में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि डुगोंग संरक्षण रिजर्व में इनकी संख्या 200 से अधिक हो गई है। इसे, विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुके इन जीवों के संरक्षण की दृष्टि से एक उत्साहजनक प्रगति माना जा रहा है। तमिलनाडु सरकार ने डुगोंग संरक्षण को कारगर बनाने के लिए नई तकनीकों के साथ इनोवेटिव तरीकों को भी अपनाया है। इसमें ड्रोन के ज़रिये निगरानी करना और इनके आवास व भोजन का प्रमुख स्रोत बनने वाली समुद्री घास के इलाकों का उपग्रह की मदद से नक्‍शा तैयार करने जैसे उपाय शामिल हैं। 

हालांकि, डुगोंग की आबादी पूर्वी अफ्रीका के समुद्रों से लेकर पूर्वी एशिया और ऑस्ट्रेलिया तक फैली हुई है, पर ज्‍़यादातर जगहों पर इनकी संख्‍या तेजी से घटती जा रही है। इसके मद्देनज़र फिलीपींस, केन्या, मोज़ाम्बिक, इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की अपने समुद्री क्षेत्रों में डुगोंग संरक्षण योजनाएं चलाई हैं। तमिलनाडु सरकार ने डुगोंग रिजर्व बना कर भारत में पहली बार ऐसा प्रयास किया है।

समुद्र के पारिस्थितिक तंत्र में कीस्टोन प्रजाति की भूमिका निभाने वाले डुगोंग के चरने से समुद्री घास में नए अंकुर फूटते हैं, जिससे नए पौधे पनपते हैं। नई घास से ज़्यादा ऑक्‍सीजन बनती है, जो जलीय जीवों के सांस लेने में मददगार होती है।
समुद्र के पारिस्थितिक तंत्र में कीस्टोन प्रजाति की भूमिका निभाने वाले डुगोंग के चरने से समुद्री घास में नए अंकुर फूटते हैं, जिससे नए पौधे पनपते हैं। नई घास से ज़्यादा ऑक्‍सीजन बनती है, जो जलीय जीवों के सांस लेने में मददगार होती है। स्रोत : मोंगाबे

कौन हैं डुगोंग 

डुगोंग या डुगोन उथले पानी में पाया जाने वाला एक विशाल जलीय जीव है। यह व्‍हेल, ऊदबिलाव, और दरियाई घोड़े की ही तरह एक स्तनधारी जीव है। खास बात यह है कि यह दुनिया का इकलौता शाकाहारी समुद्री स्‍तनपायी जीव है। यह अपने भारी शरीर, गोल सिर, छोटे पंखों और चपटे पूंछीय पंख के कारण व्हेल और डॉल्फ़िन से कुछ मिलती-जुलती दिखती है, लेकिन जैविक रूप से यह हाथियों और मैनाटी से अधिक संबंध रखती है। 

यह प्रजाति लगभग 70 लाख वर्ष पहले समुद्री जीवन में अनुकूलन के बाद विकसित हुई थी। डुगोंग की लंबाई सामान्यतः 2.5 से 3 मीटर और वजन 300 किलोग्राम तक होता है। इनका रंग हल्का ग्रे या स्लेटी होता है और त्वचा मोटी व झुर्रीदार होती है। यह मुख्‍यत: उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय समुद्री घास के मैदानों में रहता है, क्‍योंकि यह समुद्री घास ही इसका मुख्‍य भोजन होती है। 

यह लुप्तप्राय प्रजाति समुद्र तट से ज़्यादा दूर नहीं रहती। डुगोंग आमतौर पर 10 मीटर की गहराई में समुद्री घास की क्यारियों के बीच 5 से 7  के समूह में रहते हैं। डुगोंग पूरी तरह से शाकाहारी होते हैं और समुद्री घास पर निर्भर रहते हैं, जिसे वे समुद्र तल से उखाड़कर खाते हैं। इसी कारण इन्हें “समुद्री चरवाहा” भी कहा जाता है। ये धीरे-धीरे चलने वाले, शांत और सामाजिक जीव हैं जो छोटे समूहों या जोड़ों में देखे जाते हैं। 

डुगोंग की आयु लगभग 70 वर्ष तक हो सकती है, लेकिन इनकी प्रजनन दर बहुत कम और प्रजनन चक्र काफी लंबा होता है। मादा लगभग हर 5 से 7 साल में केवल एक बच्चे को जन्म देती है। यही कारण है कि किसी भी बाहरी खतरे का असर इनके जनसंख्या संतुलन पर लंबे समय तक रहता है। इनकी तेज़ी से घट रही संख्या के चलते आईयूसीएन की रेड लिस्ट में डुगोंग को लुप्‍त होने की आशंका वाले प्राणियों की (वल्‍नरेबल) श्रेणी में रखा गया है। 

भारत में डुगोंग मुख्यतः तमिलनाडु की पाक खाड़ी, मांनार की खाड़ी, अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह में सीमित संख्या में पाए जाते हैं। इनके घटते आवास, प्रदूषण, जालों में फंसना और समुद्री घास के कटाव जैसे कारक इनके अस्तित्व के लिए गंभीर खतरा बन चुके हैं।

डुगोंग वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची 1 के तहत संरक्षित हैं, लेकिन आवास के नुकसान के कारण उनकी आबादी घट रही है। 2022 में, यह अनुमान लगाया गया था कि पूरे भारत में केवल 240 डुगोंग बचे हैं। इनमें से अधिकांश तमिलनाडु तट पर पाक खाड़ी में मौजूद थे। इसे देखते हुए पाक खाड़ी में तंजावुर और पुदुकोट्टई जिलों के तटीय क्षेत्र लगभग 12,250 हेक्टेयर समुद्री इलाके को डुगोंग रिज़र्व घोषत कर दिया गया।

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डोगुंग रिज़र्व में मछुआरों की मदद से समुद्री घास की रोपाई करके क्‍यारियां बनाई गईं, ताकि समुद्री गायों को पर्याप्‍त मात्रा में भोजन उपलब्‍ध कराया जा सके।
डोगुंग रिज़र्व में मछुआरों की मदद से समुद्री घास की रोपाई करके क्‍यारियां बनाई गईं, ताकि समुद्री गायों को पर्याप्‍त मात्रा में भोजन उपलब्‍ध कराया जा सके। स्रोत : ओंकार फाउंडेशन

पारिस्थितिक संतुलन के लिए ज़रूरी है इस कीस्टोन प्रजाति की मौजूदगी

डुगोंग समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में एक “कीस्टोन स्पीशीज़” की भूमिका निभाते हैं। यानी उनके अस्तित्व पर पूरे तंत्र का संतुलन निर्भर करता है। कीस्टोन प्रजातियों में वह वे जीव आते हैं, जिनकी कम आबादी के बावजूद ईकोसिस्टम पर उनका असर काफ़ी महत्वपूर्ण होता है पारिस्थितिक तंत्र से उनके हटने से तंत्र की संरचना पूरी तरह बदल सकती है और जैव विविधता में भारी गिरावट आ सकती है। ये प्रजातियां परागण, जनसंख्या नियंत्रण, या लैंडस्‍केप इंजीनियरिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर अन्य प्रजातियों को प्रभावित करती हैं। 

मरीन इकोलॉजी में डुगोंग यह काम समुद्र तल पर उगने वाली समुद्री घास को चरकर उसकी वृद्धि को नियंत्रित करके करते हैं। इस तरह समुद्री घास के मैदानों के साथ ही वह इनपर निर्भर जीवों की संख्‍या को भी नियंत्रित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। जब वे समुद्र तल पर चरते हैं, तो उनके द्वारा खोदी गई सतहों में पोषक तत्वों का प्रवाह बढ़ता है, जिससे सूक्ष्मजीव, घोंघे, मछलियां, केकड़े और अन्य समुद्री प्रजातियां पनपती हैं। 

डुगोंग की चराई से घास की निरंतर छंटाई होती है। इससे पुरानी पड़ चुकी घास की जगह नई घास उगती है, जो अधिक ऑक्सीजन उत्पन्न करके जीवों का सांस लेना आसान बनाती है। साथ ही इससे समुद्री तलछट में भी स्थिरता बनी रहती है। यह घास इसलिए भी काफी महत्‍वपूर्ण होती है, क्‍योंकि समुद्र के लिए “ब्लू कार्बन सिंक” के रूप में कार्य करती है। यानी यह बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर प्रदूषण, तापमान और जलवायु परिवर्तन की गति को धीमा करती है। इस तरह समुद्री घास पर नियंत्रण के ज़रिये डुगोंग समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में “इकोलॉजिकल इंजीनियर” की भूमिका निभाते हैं। इनकी गतिविधियां मनुष्‍यों के लिए भी लाभदायक होती हैं, क्‍योंकि ये समुद्र में जैव विविधता को बढ़ावा दे कर मछली पालन जैसी आर्थिक गतिविधियों को भी सहारा देती हैं। 

डुगोंग की उपस्थिति से तटीय क्षेत्रों का प्राकृतिक संतुलन और पारिस्थितिक उत्पादकता बनी रहती है। इसके विपरीत, जहां डुगोंग गायब हो जाते हैं, वहां समुद्री घास की वृद्धि असंतुलित हो जाती है। इससे तलछट जमने लगती है, पानी में ऑक्‍सीजन का स्‍तर घटने लगता है, जिससे छोटी मछलियों व सूक्ष्‍म जलीय जीवों की संख्या घट जाती है। इस तरह डुगोंग केवल एक प्रजाति नहीं, बल्कि पूरे समुद्री जीवन-चक्र का अभिन्न अंग हैं। समुद्री पारिस्थितिकी में इनकी इसी महत्‍वपूर्ण भूमिका को दखते हुए ही तमिलनाडु के पाक खाड़ी में इनके संरक्षण के लिए रिज़र्व की स्‍थापना की है।

समुद्री घास पर नियंत्रण के ज़रिये डुगोंग समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में “इकोलॉजिकल इंजीनियर” की भूमिका निभाते हैं। इनकी गतिविधियां मनुष्‍यों के लिए भी लाभदायक होती हैं, क्‍योंकि ये समुद्र में जैव विविधता को बढ़ावा दे कर मछली पालन जैसी आर्थिक गतिविधियों को भी सहारा देती हैं। 
समुद्र में मछली पकड़ने के दौरान कई बार डुगोंग मछुआरों के जाल में फंस जाते हैं। मछुआरों को जागरूक कर अब इन्‍हें वापस समुद्र में छोड़ दिया जाता है।
समुद्र में मछली पकड़ने के दौरान कई बार डुगोंग मछुआरों के जाल में फंस जाते हैं। मछुआरों को जागरूक कर अब इन्‍हें वापस समुद्र में छोड़ दिया जाता है। स्रोत : मोंगाबे

बाकी हैं अभी कई चुनौतियां 

डुगोंग रिज़र्व बनाए जाने से इनके संरक्षण में काफ़ी मदद मिली है, फिर भी इस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। रिज़र्व बनाए जाने के बावज़ूद अभी बड़ी मशीनों से मछली पकड़ने, बंदरगाहों पर होने वाली गतिविधियों और निर्माणों से होने वाले व्‍यवधानों से डुगोंग और उनके भोजन के लिए ज़रूरी समुद्री घास के मैदानों पर खतरा मंडरा रहा है। साथ ही, समुद्र का बढ़ता तापमान और समुद्री पानी में अम्लता बढ़ने जैसी पर्यावरणीय चुनौतियां भी व्‍यापक समस्‍या बनी हुई हैं, जिनसे निपटना काफ़ी मुश्किल साबित हो रहा है। 

गुजरात और अंडमान में भी डुगोंग की आबादी पाई जाती है, जो तमिलनाडु की तुलना में कम है और कम संरक्षित भी। सीमावर्ती तटों पर अंतरराष्‍ट्रीय समुद्र क्षेत्रों की सीमा भी कई बार इनके संरक्षण के प्रयासों में बाधा बन जाती है। इसे देखते हुए विशेषज्ञों ने सीमा पार सहयोग के महत्व पर ज़ोर दिया है। खासकर, श्रीलंका के साथ, क्योंकि डुगोंग संकरे पाक जलडमरूमध्य से होकर गुज़रते हैं। ऐसे में दोनों देशों के साझा संरक्षण प्रयासों के बिना, डुगोंग को बचाने के प्रयास पूरी तरह प्रभावी नहीं हो सकेंगे। 

इसके अलावा डुगोंग के संरक्षण के लिए पर्याप्‍त वित्तपोषण के इंतज़ाम कर पाना भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है, क्‍योंकि गहरे समुद्र में इनके लिए समुद्री घास के मैदान विकसित करना एक खर्चीला काम है। मोंगाबे की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल के मध्य में मन्नार की खाड़ी और पाक खाड़ी  में समुद्री घास को पुनर्जीवित करने का एक दशक लंबा प्रयोग सफल रहा, जिसमें मनोनमनियम सुंदरनार विश्वविद्यालय के सुगंती देवदासन समुद्री अनुसंधान संस्थान (एसडीएमआरआई) के शोधकर्ताओं ने समुद्र तल पर 14 एकड़ के क्षेत्र में खराब हो चुकी समुद्री घास को नया जीवन दिया । 

यह काम खासा मुश्किल था, क्‍योंकि इस क्षेत्र में समुद्री घास की 13 अलग-अलग प्रजातियां मौजूद थीं, जिन्‍हें वैाज्ञानिकों की गहन देखरेख में पुनर्जीवित करना था। इनमें मुख्‍य रूप से थैलासिया हेमप्रिची, सिरिंगोडियम आइसोएटिफोलियम और सिमोडोसिया सेरुलाटा प्रजातियां शामिल हैं। वैज्ञानिकों ने समुद्री घास की टहनियों (अंकुरों) का समुद्र की तलहटी में अपने हाथों से प्रत्यारोपण कर इस मुश्किल काम को अंजाम दिया। इस परियोजना में प्रति एकड़ रोपण के लिए लगभग 10 लाख रुपये का खर्च आया।

जैसा कि ऊपर बताया गया है, डुगोंग के गर्भाधान का लंबा समय भी इनकी आबादी को बनाए के लिए एक चुनौती है। ऐसे में, दशकों तक इनके संरक्षण पर एक स्थिर निवेश जारी रखना ज़रूरी है। समुद्री इलाकों में बेतहाशा बढ़ती मानव गतिविधियों से खतरा बढ़ता जा रहा है। मछुआरों को भागीदार के रूप में शामिल कर डुगोंग के जाल में फंसने या पकड़े जाने की घटनाओं को कम किया जा सकता है। 

पाक खाड़ी रिज़र्व में इसके लिए किए गए प्रयासों की सफलता एक उम्‍मीद जगाती है, जहां 2024-2025 में स्थानीय मछुआरा समुदायों को शामिल करने के लिए 170 से ज़्यादा जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं। इसके ज़रिये यहां समुद्री गाय के संरक्षण के लिए स्थानीय समूह बनाए गए हैं। इसी तरह पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान के साथ ही ड्रोन और इको साउंडर जैसी तकनीकों का इस्‍तेमाल करके परंपरा और आधुनिकता के मेल से संरक्षण के काम को प्रभावी और बेहतर बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

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