क्या है अरावली पहाड़ के होने का मतलब, जो न होता तो क्या होता ?
गुजरात से लेकर राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर तक फैली अरावली पहाड़ियों के अस्तित्व पर मंडराते खतरे को लेकर ज़ोर पकड़ते #अरावलीबचाओ और #savearavali अभियानों के बीच इस मसले से जुड़े कई सवाल और ऐतराज़ फिज़ाओं में तैर रहे हैं। सबसे ज़्यादा सवाल या आपत्तियां जिस चीज़ को लेकर उठाई जा रही हैं, वह है अरावली पहाड़ की परिभाषा में 100 मीटर ऊंचाई के मानदंड को शामिल करना। इसके चलते अरावली की करीब 90% पहाड़ियों के पहाड़ की परिभाषा से बाहर हो जाने का ख़तरा पैदा हो गया है। इसके अलावा चर्चा इस बात पर भी हो रही है कि अगर अरावली पर्वतमाला न होती तो क्या होता और अवैध उत्खनन व निर्माण के कारण अगर यह खत्म हो जाएगी तो इसके क्या परिणाम होंगे? इस लेख में हम इन्हीं बातों पर विचार करेंगे। लेकिन, इससे पहले यह जान लेना बेहतर रहेगा कि आखिर अरावली पर्वत के होने का मतलब क्या है और हिमालय से भी करोड़ों वर्ष पुरानी यह पर्वतमाला अस्तित्व में कैसे आई?
क्या है अरावली का मतलब?
सबसे पहले इस पर्वतमाला के नाम ‘अरावली' को समझ लेते हैं। दरअसल अरावली एक संस्कृत है, जिसकी व्युत्पत्ति है अर + अवली = अरावली । इसमें अर का तात्पर्य पर्वत या ऊंचाई से है, जबकि अवली का अर्थ होता है पंक्ति। इस तरह अरावली का मलतब हुआ पर्वतों की पंक्ति या पर्वतमाला, जिस प्रकार दीप + अवली = दीपावली यानी दीपों की पंक्ति शब्द बना है। अरावली पर्वत माला उत्तर भारत के लिए प्राकृतिक दीवार की तरह काम करती है, जो थार रेगिस्तान के फैलाव को रोकती है. उत्तरी भारत को रेगिस्तानी शुष्क हवाओं और धूल भरी आंधियों और लू (हीटवेव) की मार से बचाए रखती है।
कैसे और कब हुआ अरावली का निर्माण?
अरावली पर्वतमाला का निर्माण एक लंबी भूगर्भीय प्रक्रिया के चलते करोड़ों वर्षों में हुआ है। भूगर्भ शास्त्र में इस प्रक्रिया को ‘ओरोजेनी’ कहा जाता है। इस प्रक्रिया में पृथ्वी की टेक्टॉनिक प्लेटों के टकराने से पर्वत बनते हैं। अरावली का निर्माण भी इसी प्रक्रिया के तहत लगभग 2.5 अरब वर्ष पहले प्रोटेरोजोइक युग में शुरू हुआ था। हालांकि इसके ज़्यादातर पर्वतीय भागों का निर्माण 1.8 अरब वर्ष पहले क्रेटॉनों (पृथ्वी की पुरानी स्थिर क्रस्ट के टुकड़े) के टकराने से हुआ। दरअसल, पृथ्वी की बाहरी, ठोस और चट्टानी परत (क्रस्ट) कई प्लेटों में बंटी हुई है, जो पृथ्वी की दूसरी परत (मेंटल) के ऊपर तैरती रहती हैं। ये प्लेटें साल में कुछ सेंटीमीटर खिसकती हैं। जब दो प्लेटें किसी जगह टकराती हैं, तो उस स्थान पर क्रस्ट मुड़ जाती है और ऊपर उठती है, जिससे पर्वत बनते हैं।
अरावली पर्वत माला इसी प्रकार तीन प्रमुख क्रेटॉनों बुंदेलखंड क्रेटॉन, राजस्थान क्रेटॉन और अन्य के टकराने से बनी है। प्रोटेरोजोइक युग में अरावली के निर्माण के समय पृथ्वी पर महाद्वीप अलग-अलग थे और सुपरकॉन्टिनेंट्स बन रहे थे। उस समय (180 से 150 करोड़ साल पहले) भारतीय उपमहाद्वीप 'कोलंबिया' नामक सुपरकॉन्टिनेंट का हिस्सा था। उस समय भारत की स्थिति भूमध्य रेखा के पास थी। धारवार, बुंदेलखंड, अरावली जैसे भारतीय क्रेटॉन (भूगर्भीय परतें) उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम दिशा में बढ़ रहे थे। इससे बुंदेलखंड क्रेटॉन और भंडारा क्रेटॉन के बीच सतपुड़ा मोबाइल बेल्ट में टकराव हुआ। इसके फलस्वरूप अरावली पर्वतमाला का निर्माण हुआ। भूगर्भ शास्त्र में अरावली के उभर की यह घटना 'अरावली-दिल्ली ओरोजन' के नाम से जानी जाती है।
अरावली का महत्व और योगदान
अरावली पर्वतमाला का महत्व और योगदान पर्यावरण, खनिज संपदा, जल संरक्षण, पर्यावरण सुरक्षा, जैव विविधता और ऐतिहासिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से काफ़ी महत्वपूर्ण है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है-
अरावली का भूवैज्ञानिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व
अरावली पर्वत न केवल ऐतिहासिक, बल्कि भौगोलिक इतिहास का भी एक जीता-जागता प्रमाण है। क्योंकि, यह दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत शृंखलाओं में से एक है। अरावली का इतिहास 250 करोड़ वर्ष से अधिक पुराना है, जबकि इसके मुकाबले हिमालय जैसी युवा पर्वत मालाएं महज़ 5 करोड़ वर्ष पुरानी हैं। यह प्रोटेरोजोइक युग की देन है, जब पृथ्वी की क्रस्ट (यानी ऊपरी परत) में बड़े बदलाव हो रहे थे। हालांकि अपरदन और क्षरण जैसी प्रक्रियाओं के चलते मिट्टी की परत लगातार खत्म होने के कारण इसकी ऊंचाई कम हुई है। इस कारण अरावली की ज़्यादातर पहाड़ियां घिसी हुई सी नज़र आती हैं। हालांकि अरावली की प्राचीन चट्टानें इस पर्वतमाला के साथ ही धरती के भूगर्भीय इतिहास पर भी रोशनी डालती हैं। यहां की चट्टानें पृथ्वी के इतिहास का अध्ययन करने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
ऐतिहासिक काल के मानवीय और सांस्कृतिक इतिहास की बात करें, तो अरावली में प्राचीन किले, मंदिर हैं। यह ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासतें राजपूत इतिहास से जुड़ी है। मध्यकालीन इतिहास पर नज़र डालने पर हमें इस बात की जानकारी मिलती है कि अरावली के दुर्गम पहाड़ों ने महाराणा प्रताप जैसे योद्धाओं को मुगलों के खिलाफ छापामार युद्ध के लिए कैसे सुरक्षित स्थान दिया। कुंभलगढ़ और चित्तौड़गढ़ जैसे अजेय समझे जाने वाले प्रसिद्ध किलों का निर्माण भी इसी शृंखला के चलते संभव हो सकता। इस तरह अरावली की पहाड़ियां राजपूत वंशीय राजाओं की सच्ची रक्षक साबित हुईं। अगर यह पहाड़ियां न होतीं, तो इस पूरे इलाक़े, खासकर, राजपुताना क्षेत्र का इतिहास कुछ अलग ही होता।
पर्यावरण संरक्षण में अरावली का योगदान
उत्तर भारत के पर्यावरण और मौसम की चाल को नियंत्रित करने में अरावली शृंखला का बहुत बड़ी भूमिका है। निम्न रूप से ये पर्वत पर्यावरण संरक्षण में अपनी भूमिका निभाता है-
अरावली पर्वतमाला उत्तर-पश्चिम भारत के पर्यावरणीय संतुलन की एक प्राकृतिक ढाल की तरह काम करती है।
इसकी पहाड़ियां और वन थार मरुस्थल के विस्तार को रोक कर अपने पूर्व में स्थित राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर के एक बड़े इलाके को मरुस्थलीकरण से बचाते हैं।
अरावली की पर्वतीय बाधा थार के रेगिस्तान से उड़ने वाली रेत और धूल भरी आंधियों को आगे बढ़ने से रोकती है। जिससे दिल्ली-एनसीआर और आसपास के क्षेत्रों में वायुमंडल में धूल नहीं समाने पाती और हवा की गुणवत्ता (एक्यूआई) कुछ हद तक सही बनी रहती है।
अरावली के जंगल कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर दिल्ली-एनसीआर के लिए फेफड़े जैसा काम करते हैं।
ये पहाड़ स्थानीय स्तर पर तापमान वृद्धि को सीमित करने में मदद करते हैं और स्थानीय स्तर पर, खासकर दिल्ली-एनसीआर के इलाके में हीट-आइलैंड प्रभाव को कम करते हैं।
अरावली के जंगल आसपास के इलाकों में बारिश कराने में भी सहायक साबित होते हैं। पूर्व में हिमालय और पश्चिम में अरावली के पहाड़ अलवर, नीमराना, गुरुग्राम, फरीदाबाद, दिल्ली, गाज़ियाबाद, नोएडा और दिल्ली के लिए एक कटोरेनुमा इलाक़ा बना कर बादलों को बाहर निकलने से रोकते हैं, जिससे इस क्षेत्र में बारिश में मदद मिलती है।
कई संरक्षित वन क्षेत्रों और वन्य गलियारों वाली यह पर्वतमाला करीब 800 वर्ग किलोमीटर के एक बड़े क्षेत्र में पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
क्या होता अगर नहीं होते अरावली के पहाड़
भू-वैज्ञानिकों की मानें तो अरावली दिल्ली-एनसीआर, राजस्थान और हरियाणा के लिए एक ढाल का काम करते हैं। अगर ये पहाड़ नहीं होते तो-
उत्तर-पश्चिम भारत की हवाओं में धूल का प्रदूषण, तापमान की चरम स्थितियां और मिट्टी के क्षरण की समस्या कहीं अधिक गंभीर रूप ले लेती।
अरावली का प्राकृतिक हरित अवरोध यानी नेचुरल ग्रीन बैरियर न होने के कारण दिल्ली-एनसीआर जैसे शहरी क्षेत्रों में वायु प्रदूषण और हीट-वेव का प्रकोप कई गुना ज़्यादा होता।
जानवरों की कई प्रजातियों के लिए अरावली के जंगलों का वन्य आवरण न होने से इस इलाक़े का पारिस्थितिक संतुलन भी प्रभावित होता।
अरावली के बिना यह पूरा क्षेत्र पर्यावरणीय रूप से कहीं अधिक संवेदनशील और अस्थिर हो जाता।
अरावली नहीं होते तो क्या होता, इस सवाल के जवाब में और भी बिंदु शामिल हैं, जो आगे विस्तार से आप पढ़ सकते हैं।
जल संरक्षण में अरावली की अहम भूमिका
अरावली साहिबी, दोहान, लूनी, बनास और साबरमती जैसी कई नदियों का स्रोत है। भूवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए, तो ये नदियां एक बड़े इलाक़े में जल-चक्र को बनाए रखने में मदद करती हैं। इसके लावा यह कृषि और पीने के लिए पानी उपलब्ध कराने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। अरावली पर्वत की चढ़ाइयां, चट्टानें और पत्थर कई जगहों पर बारिश के पानी को रोके रखती हैं। इससे वर्षा का यह पानी धीरे-धीरे चट्टानों के बीच की दरारों से रिसता हुआ ज़मीन के भीतर मौजूद जलभृदों (एक्विीफर) में पहुंच कर भूजल को रीचार्ज करता है. एक तरह अरावली का पहाड़ एक प्राकृतिक स्पॉन्ज की तरह काम करता है, जो बारिश का पानी जमीन में समाकर भूजल स्तर को ऊपर उठाने में मदद करता है।
अरावली से जुड़ी भूजल रिचार्ज प्रणाली (Aravalli aquifer system) के कारण गुरुग्राम, रेवाड़ी, अलवर क्षेत्र का भूजल प्रवाह आंशिक रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों तक असर दिखाता है। ऐसे में अगर अरावली के पहाड़ न होते, तो इन इलाक़ों को पानी की भारी किल्लत से जूझना पड़ता। भविष्य में अगर अरावली के पहाड़ों का अस्तित्व ख़तरे में पड़ता है तो इस जल-प्रणाली पर भी गंभीर असर पड़ेगा।
जैव विविधता में अरावली की भागीदारी
अरावली पर्वतमाला उत्तर-पश्चिम भारत में अर्द्ध-शुष्क से शुष्क पारिस्थितिकी तंत्र की रीढ़ मानी जाती है। यहां शुष्क पर्णपाती वन, झाड़ियां, घासभूमि और चट्टानी आवास मिलकर वन्य जीवों के लिए प्राकृतिक गलियारे बनाते हैं। इसके चलते ही अरावली के जंगल जैव विविधता से भरे हैं। यहां पशु-पक्षियों की 300 से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें तेंदुआ, सियार, लोमड़ी, स्लॉथ बियर , नीलगाय, हाइना, सरीसृप, पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियां और अनेक औषधीय वनस्पतियां शामिल हैं।
यह पर्वतमाला पश्चिमी रेगिस्तान और गंगा के मैदानी क्षेत्रों के बीच इकोलॉजिकल बफर की तरह काम करती है। इससे यहां प्रजातियों का आवास, जलवायु संतुलन और स्थानीय जैविक तंत्र बना रहता है। पौधों में नीम, बबूल, धोक जैसी सैकड़ों वनस्पतियां इस इलाके को खास बनाती हैं। जानवरों और वनस्पतियों का लंबा-चौड़ा कॉरिडोर होने के कारण यह क्षेत्र एक ‘इकोलॉजिकल हॉटस्पॉट’ है।
‘पीपल फॉर अरावली’ की संस्थापक सदस्य और लंबे वक्त से अरावली के संरक्षण पर काम कर रहीं नीलम अहलूवालिया के अनुसार अरावली पर्वतमाला 200 से अधिक देशी और प्रवासी पक्षी प्रजातियों, 100 से अधिक तितली प्रजातियों, और कई सरीसृप और स्तनधारी प्रजातियों का घर है, जिनमें तेंदुए, बाघ, लकड़बग्घे, सियार, नीलगाय, साही, सिवेट बिल्ली आदि शामिल हैं। यहां खनन और निर्माण होने पर पहाड़ियों और जंगलों के नष्ट होने से वन्यजीवों के आवास सिकुड़ेंगे और उत्तर पश्चिम भारत के शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में मानव-पशु संघर्ष बढ़ेगा।
अरावली पर मंडरा रहा संकट चिंता का विषय है। तकरीबन अरावली पर्वत के जितनी ही पुरानी पहाड़ियां सोनभद्र और मिर्जापुर की भी हैं। लेकिन, जिस तरीके से पहाड़ों को सोनभद्र और मिर्जापुर में उजाड़ा जा रहा है, वह प्रकृति और इस क्षेत्र के लोगों के लिए एक अभिशाप बनता जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के अरावली पर्वत पर दिए गए फैसले का हम सम्मान करते हैं। लेकिन, पर्वतों की ऊंचाई से ही उन्हें अरावली पर्वत माना जाएगा तो इससे प्रकृति और पर्यावरण के साथ ही मानव जाति के लिए संकट उत्पन्न हो जाएगा।
जगत विश्वकर्मा, ओबरा (सोनभद्र ) के पर्यावरण कार्यकर्ता
मौसम प्रणाली पर असर
अरावली की प्राकृतिक हरी दीवार पश्चिमोंत्तर भारत की मौसम प्रणाली पर खासा असर डालती है। अरावली पर्वतमाला पश्चिमोत्तर भारत की क्षेत्रीय मौसम प्रणाली में एक प्राकृतिक अवरोध और नियामक की भूमिका निभाती है। यह पर्वतमाला दक्षिण-पश्चिम मानसून की हवाओं की दिशा और गति को प्रभावित करती है, जिससे राजस्थान के पूर्वी हिस्सों, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में अपेक्षाकृत अधिक वर्षा संभव हो पाती है। अरावली की पहाड़ियां मानसून हवाओं को ऊपर उठने के लिए बाध्य करती हैं, जिससे संघनन की प्रक्रिया तेज होती है और वर्षा की संभावना बढ़ती है। इसके अलावा यह पर्वतमाला गर्म और शुष्क हवाओं को पूरी तरह बिना रोकटोक आगे बढ़ने से भी काफ़ी हद तक रोकती है, जिससे तापमान और आर्द्रता का संतुलन बना रहता है।
यदि अरावली पर्वतमाला न होती, तो पश्चिमोत्तर भारत में मानसून का प्रभाव और कमजोर पड़ जाता। राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में वर्षा की मात्रा भी कम होती, जिससे यह पूरा क्षेत्र अधिक शुष्क और चरम तापमान वाला बन जाता। गर्मियों में लू और धूल भरी हवाएं अधिक तीव्र होतीं, जबकि सर्दियों में तापमान में अस्थिरता बढती। कुल मिलाकर, अरावली के अभाव में यह क्षेत्र मौसम की दृष्टि से अधिक कठोर, अनिश्चित और जलवायु दबावों के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो जाता। कुल मिलाकर अरावली के न होने पर राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर का मौसम ज्यादा शुष्क होता।
खनिज संपदा का भंडार हैं अरावली के पहाड़
अरावली पर्वतमाला भारत के सबसे प्राचीन भूगर्भीय क्षेत्रों में से एक होने के कारण खनिज संसाधनों का बड़ा भंडार मानी जाती है। यहां राजस्थान–हरियाणा बेल्ट में तांबा (खे़त्री), जस्ता-सीसा (जावर), संगमरमर (मकराना) जैसी मशहूर खदानें हैं। इसके अलावा चांदी, फॉस्फोराइट, चूना पत्थर, क्वार्ट्ज और फेल्डस्पार जैसे खनिज भी अच्छी खासी मात्रा में पाए जाते हैं। ये खनिज न केवल निर्माण उद्योग, सीमेंट, धातु उद्योग और ऊर्जा क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि प्राचीन काल से भारत की खनन अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहे हैं।
भूवैज्ञानिक रूप से अरावली की चट्टानें भारतीय उपमहाद्वीप के शुरुआती क्रस्ट निर्माण और खनिजीकरण प्रक्रियाओं का प्रमाण भी देती हैं। यदि अरावली पर्वतमाला का अस्तित्व न होता, तो उत्तर-पश्चिम भारत में इस स्तर की खनिज विविधता और सांद्रता विकसित ही नहीं हो पाती, क्योंकि ये खनिज करोड़ों वर्षों की भूगर्भीय गतिविधियों से बने हैं। इसके अभाव में राजस्थान-हरियाणा क्षेत्र खनिज-आधारित उद्योगों, रोजगार और स्थानीय अर्थव्यवस्था से वंचित रहता। साथ ही, अरावली के न रहने पर भूगर्भीय स्थिरता, मिट्टी की पकड़ और भूजल संरचनाएं भी कमजोर होतीं और खनिज के मामले में आज भारत का परिदृश्य काफी सीमित होता।
अरावली का आर्थिक महत्व
अरावली पर्वतमाला उत्तर-पश्चिम भारत की क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में खनिज संसाधनों, पत्थर उद्योग, सीमेंट, हस्तशिल्प और निर्माण सामग्री से जुडे़ लाखों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार मुहैया कराने में अरावली के पहाड़ योगदान देते हैं। अरावली के जंगल भी ग्रामीण इलाकों के लोगों को ईंधन के लिए लकड़ी, चारा, औषधीय वनस्पतियां और लघु वनोपज के ज़रिये स्थानीय समुदायों की आय का सहारा बनते हैं। इसके अलावा, अरावली से जुडे़ वन्य क्षेत्र, झीलें और जैव विविधता पर्यटन और इको-टूरिज्म को बढावा देकर क्षेत्रीय स्तर पर आजीविका में भी योगदान करते हैं। इस तरह अरावली की बदौलत राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के आसपास सेवा क्षेत्र में रोज़गार और स्थानीय बाज़ार को मजबूती मिलती है। 'अरावली विरासत जन अभियान' से जुड़े सिरोही के लक्ष्मी और बाबू गरासिया का कहना है, “हम गरासिया जनजाति के लोग पीढ़ियों से दक्षिण राजस्थान की अरावली पर्वतमाला में निवास करते आ रहे हैं। हमारा जीवन सुबह उठ कर बबूल, कीकर की दातून करने से लेकर जंगल से मिली लकड़ियों पर खाना बनाने और रात को अलाव जलाने तक हमारा जीवन अरावली के पहाड़ों और जंगलों से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। हम भोजन, ईंधन, औषधीय जड़ी-बूटियों और बांस एवं तेंदू के पत्तों जैसी कच्ची सामग्री के लिए अरावली के जंगलों पर निर्भर हैं। इन्हें हम इकट्ठा करके बेच कर दो पैसे भी कमा लेते हैं। इसलिए अरावली के जंगल और पहाड़ हमारे लिए भगवान हैं और हमारा जीवन इन पर ही निर्भर है।”
यदि अरावली पर्वतमाला का अस्तित्व न होता, तो उत्तर-पश्चिम भारत में खनिज-आधारित उद्योग, पत्थर और निर्माण क्षेत्र को गंभीर झटका लगता और रोजगार के अवसर काफी सीमित हो जाते। पर्यटन और इको-टूरिज्म के अवसर घटने से स्थानीय अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ती। साथ ही ग्रामीण समुदायों की पारंपरिक आजीविका पर सीधा असर पड़ता। पर्यावरणीय अस्थिरता के कारण स्वास्थ्य खर्च, शहरी ढांचों पर दबाव बढ़ता। कुल मिलाकर क्षेत्र की आर्थिक स्थिरता और विकास क्षमता दोनों प्रभावित होतीं।
मौज़ूदा हालात और चुनौतियां
आज अरावली खतरे में है. अवैध खनन ने इसके तकरीबन 20% क्षेत्र को नष्ट कर दिया है। इसका असर अरावली के आसपास के क्षेत्रों में वर्षा में कमी और जलवायु परिवर्तन के रूप में दखने को मिल रहा है। एक ओर तो सरकार ‘अरावली ग्रीन वॉल प्रोजेक्ट’ चलाने जैसे कदम उठाती है, दूसरी ओर पहाड़ की परिभाषा में बदलाव करके अरावली के पहाड़ों के खनन और जंगलों को उजाड़ने का रास्ता खोला जा रहा है। समय की मांग यही है कि अरावली के जंगल और पहाड़ों को बचाना ज़रूरी है।


