माटी, कुम्हार और गुम होता हुनर : संकट में बिहार की मशहूर शिल्पकला
बिहार के दरभंगा जिले के एक छोटे से गांव घोसराम में लगभग 20 कुम्हार परिवार रहते हैं। यहां की हवा गीली मिट्टी और जलती लकड़ी की गंध से भरी होती है। साथ ही घूमती चाक और मिट्टी को आकार देती हथेलियों का एक लयबद्ध संगीत यहां सुनाई देती हैं। उनके सादे-मामूली से घरों के बाहर सैकड़ों मिट्टी के बर्तन, मूर्तियां कतारबद्ध खड़ी देखी जा सकती हैं, तो और आकृतियां आंगनों में मिट्टी के खिलौनों का ढेर लगा नज़र आता है। इन सबको इंतज़ार है। ये प्रतीक्षा कर रहे हैं खरीदारों की।
कुम्हार समुदाय की आजीविका में पानी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। मिट्टी गूंथने से लेकर उसे आकार देकर अंतिम उत्पाद तैयार करने तक, हर चरण में पानी की जरूरत होती है। परंपरागत रूप से कुम्हार तालाबों, नदियों और कुओं जैसे प्राकृतिक जल स्रोतों पर निर्भर रहते थे, न केवल घरेलू उपयोग के लिए बल्कि मिट्टी को भिगोने, गूंधने और सांचे में ढालने के लिए। बिहार के कई इलाकों में अब, कुओं, तालाबों और नदियों का सूखना और भूजल का गिरता स्तर अब इन कुम्हारों के लिए पानी की उपलब्धता को बेहद कठिन बना रहा है।
“हम कुम्हार हैं,” घोसराम निवासी गंगा देवी प्रसन्न होकर कहती हैं। अपने बेटे के साथ रह रही गंगा देवी का घर धूप में चमकती मिट्टी की मूर्तियों से भरा है। घर के बाहर, वे अपने लिए सबसे कीमती संसाधन ‘मिट्टी' को सहेज कर रखती हैं। “मैं हांड़ी, हाथी, घोड़े और मछली की मूर्तियां बनाती हूं।” गंगा बड़े गर्व से बताती हैं, पर उनकी आवाज़ में खनक के बजाय एक उदासी सी महसूस होती है। मिट्टी के सामान के सिमटते बाज़ार ने उनके स्वरों में एक निराशा सी घोल दी है।
सदियों से ये परिवार मिट्टी को कला और उपयोगिता दोनों ही रूपों में ढालते आ रहे हैं। लेकिन, अब वे सबसे बड़े संकट का सामना कर रहे हैं। केवल बाजार की प्रतिस्पर्धा से नहीं, बल्कि प्रकृति से भी। कभी वे नदियों के किनारे से मुफ्त में मिट्टी ले आया करते थे। अब बढ़ते प्रदूषण और सिल्ट जमने के कारण यह असंभव सा हो गया है। अब कुम्हारों को मिट्टी खरीदनी पड़ती है, और वह भी काफी महंगे दामों पर, जिससे मिट्टी का काम घाटे का सौदा बन गया है। गंगा देवी कहती हैं, “हम ज़्यादा आगे नहीं बढ़ पाए। परदेस जाना पड़ेगा कमाने के लिए।”
मिट्टी में जड़ें, पर समय से पीछे छूटे
कुम्हार भारत का एक पारंपरिक समुदाय है। ये बिहार सहित कई हिस्सों में पाए जाते हैं। 'कुम्हार' शब्द 'कुंभकार' से आया है, जिसका अर्थ होता है—'घड़ा बनाने वाला'। कुम्हार पीढ़ियों से मिट्टी को दैनिक उपयोग की वस्तुओं जैसे—हांड़ी, थाली, दीया और त्योहारों में प्रयोग होने वाली कलात्मक मूर्तियों में ढालते आए हैं।
दरभंगा जिले के घोसराम जैसे गांवों में कुम्हार कभी गांव की जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा थे। उनके हाथों के बने बर्तन हर घर में इस्तेमाल होते थे। पानी रखने से लेकर पकाने तक और धार्मिक कर्मकांड भी इनके बिना पूरे नहीं होते थे। कुम्हारी केवल काम नहीं, जीवन जीने का तरीका था, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता था।
प्रकृति के साथ हमेशा गहराई से जुड़े इस समुदाय के सामने अब एक गहरा संकट खड़ा है। स्थानीय नदियों में पानी घटने के किनारे सूखते जा रहे हैं और मिट्टी का व्यवसायीकरण हो रहा है, जिससे ये कभी आत्मनिर्भर रहे कारीगर अब मिट्टी खरीदने को मजबूर हो गए हैं। इससे उनकी आजीविका ही नहीं, पीढ़ियों से संजोई विरासत भी खतरे में है।
‘अकेले रह गए चाक पर' बीते युग की पुकार
परमेश्वर पंडित अब अपने घर में अकेले रहते हैं, क्योंकि उनका बेटा बेहतर कमाई की तलाश में काम करने दिल्ली चला गया है। पीछे छूटे परमेश्वर अब केवल पानी की हांड़ी ही बनाते हैं, क्योंकि गर्मियों में इनकी थोड़ी-बहुत मांग बनी रहती है।
वे चाक पर बर्तन गढ़ते हुए कहते हैं “अब गांव में हमारी जाति के सिर्फ 5-10 परिवार ही बचे हैं।” “गांव वाले छोटी-मोटी फरमाइशें करते हैं। पर, मिट्टी के सामान का कोई सही दाम नहीं मिलता। जितनी इसमें मेहनत है, पैसा उस हिसाब से नहीं मिलता”
शारीरिक श्रम और मानसिक थकावट के बावजूद, परमेश्वर एक फीकी सी मुस्कान के साथ कहते हैं, “हम मिट्टी खरीदते हैं, उसे तैयार करते हैं, आकार देते हैं, पकाते हैं—इतनी मेहनत के बाद भी हमें बहुत कम कीमत मिलती है।”
हालांकि, इस सबके बावजूद परमेश्वर ने कभी गांव छोड़ने के बारे में नहीं सोचा। “हमारी पीढ़ी तक तो हम यहीं टिके रहे। पर अब स्थिति बदतर है। न पढ़ाई है, न ज़मीन है, न हमारे सामान की मांग है। हम कई चीजें बना सकते हैं, लेकिन जब लोग खरीदना ही नहीं चाहते, तो क्या फ़ायदा?”
फुर्सत में वे अपनी भैंस की देखभाल करते हैं। “हमारे पास बहुत थोड़ी सी ज़मीन है। इसलिए खाने भर का अनाज उगाने के लिए भी कई बार ज़मीन किराए पर लेनी पड़ती है। पर, पट्टे की ज़मीन पर खेती में कोई मुनाफा नहीं होता। मौसम की मार पड़ जाए तो लेने के देने पड़ जाते हैं।” परमेश्वर और उनके जैसे कई कुम्हारों के लिए, कुम्हारी केवल आजीविका नहीं, बल्कि अस्तित्व की पहचान है। पर, समय की मार से यह भी पहचान अब धीरे-धीरे मिटती जा रही है।
मिट्टी को गढ़ना एक कठिन कला
मिट्टी के बर्तन बनाना केवल एक काम-धंधा नहीं, बल्कि एक शिल्प कला है। मिट्टी, मेहनत और हुनर दोनों ही मांगती है, वह भी धीरज और प्रेम भरे श्रम के साथ।
“सबसे पहले हमें सही मिट्टी चाहिए, मिट्टी साफ और मुलायम होनी चाहिए, जो अब बहुत मुश्किल से मिलती है।” बाबिता देवी बताती हैं।
मुश्किल से, महंगे दामों पर मिट्टी जुटाने के बाद असली मेहनत शुरू होती है। वह बताती हैं, “पहले हम में मिट्टी को फोड़ और छान कर उसमें पानी डालते हैं। कई घटों पानी में फूलने के बाद हाथ और पैरों से उसे भरपूर ताकत लगा कर उसे गूंथते हैं। चाक पर चढ़ाने के लिए मिट्टी को तैयार करने में घंटों लग जाते हैं,” वह बताती हैं। “यह बहुत थकाऊ काम होता है और सही तरीके से न किया जाए तो मिट्टी न तो ठीक से चाक पर टिकेगी, न ही सही आकार ले पाएगी।” अपनी कला की बारीकी समझाते हुए बबिता कहती हैं।
जब मिट्टी सही रूप में आ जाती है, तो उसे चाक पर ले जाया जाता है। क्या बनाना है, उसके आधार पर उसे आकार दिया जाता है। “मैं मूर्तियां बनाती हूं। मछली, देवी-देवता, जानवर, सबकी। हांड़ियां और कुल्हड़ मेरे पति बनाते हैं।” बाबिता मुस्कराती हैं।
बनाने के बाद मिट्टी के सामान को एक दिन कड़ी धूप में सुखाया जाता है। फिर आती है पकाने की बारी। जो काफी समय लेने वाला काम होता है और इसमें भी काफी हुनर की ज़रूरत होती है। “हम लकड़ी और कोयले की भट्टी बनाते हैं, उसमें सारे बर्तन रखते हैं और लगभग 30 घंटे तक जलाते हैं,फिर जांचते हैं। अगर कुछ भी टूट गया तो फिर से शुरुआत करनी पड़ती है।”वे बताती हैं।
कुछ सजावटी सामना और मूर्तियों को तैयार करने में इन्हें पकाने के बाद भी काफी मेहनत करनी पड़ती है। “भट्टी से निकालने के बाद हम उन्हें रंगते और डिज़ाइनें बनाकर सजाते हैं।”
त्योहार और आस्था पर टिका धुंधला भविष्य
बिहार के हर पर्व और धार्मिक अनुष्ठान में कुम्हारों की बनाई मूर्तियों और बर्तनों की चमक दिखाई देती है। दीपावली के दीयों से लेकर छठ पूजा में हाथी-घोड़े की भव्य मूर्तियों तक, कुम्हारों की कलाकारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है।
सामा-चकेवा जैसी मिट्टी की पारंपरिक मूर्तियां आज भी मांग में हैं। लेकिन यह मौसमी मांग पूरे साल भर का खर्च नहीं उठा पाती। त्योहारों में ऑर्डर तो आते हैं, लेकिन भुगतान महीनों बाद होता है, जिससे कुम्हारों को अपनी ज़रूरतें पूरी करना मुश्किल हो जाता है।
घोसराम के कुम्हार परमेश पंडित याद करते हैं, “पहले हम हाथी, घोड़े, और सामा-चकेवा 20 रुपये से 50 रुपये या बड़ी चीजें ज्यादा से ज्यादा 300 रुपये में बेचते थे। यह कभी ज़्यादा मुनाफे का धंधा नहीं रहा। मेलों में हम दुकान लगाते हैं, लेकिन उससे गुज़ारा नहीं होता।”
मिट्टी, जलवायु और बदलती नदी: संकट में बिहार के कुम्हार
बागमती नदी, जो कभी आसपास के इलाकों में कुम्हारों के लिए मिट्टी का प्रमुख स्रोत थी, अब काफी बदल चुकी है। नेपाल से निकलकर उत्तर बिहार से बहती यह नदी कभी चिकनी, उपजाऊ मिट्टी देती थी। लेकिन, धीमे पड़ चुके प्रवाह और बार-बार दिशा बदलने के कारण नदी में भारी गाद जम गई है। उपयोगी मिट्टी अब गाद और कीचड़ की परतों के नीचे दब गई है, जिससे उसे निकालना महंगा और कठिन हो गया है।
“पहले नदी के किनारे से मिट्टी मिल जाती थी,” समस्तीपुर की गंगा देवी कहती हैं। “अब तो ट्रॉली भर मिट्टी 1400 रुपये में खरीदनी पड़ती है। अब ये संभव नहीं।” तालाब सूख चुके हैं या गंदगी और प्रदूषण से भर गए हैं और भूजल भी तेजी से खत्म हो रहा है।
जलवायु परिवर्तन ने मानसून को अनियमित और चरम बना दिया है, जिससे मिट्टी की गुणवत्ता और मिट्टी जमा होने के समय पर असर पड़ा है। “जब मैं बच्चा था, हर घर में 50 मिट्टी के बर्तन होते थे। अब तो एक भी नहीं।” 50 वर्षों से कुम्हारी कर रहे रामसूरत पंडित कहते हैं। “हमारा पेशा पानी पर निर्भर है, और अब पानी ही नहीं है।”
त्योहारों में कुम्हारी आज भी पूरे परिवार को काम दे देती है। लेकिन, बढ़ती लागत, घटती मांग और प्लास्टिक व फैक्ट्री के माल की प्रतिस्पर्धा ने कुम्हारों को पेशा छोड़ने पर मजबूर कर दिया है।
मिट्टी के हाथी: बिहार की एक अनूठी परंपरा
बिहार में मिट्टी के बर्तनों की समृद्ध परंपरा रही है। हर जिले की अपनी शैली और खासियत है। लेकिन, समय के साथ इनमें से कई परंपराएं लुप्त होती जा रही हैं।
सबसे प्रतिष्ठित कलाकृतियों में एक है, मिट्टी का हाथी। ये पारंपरिक रूप से विवाह का प्रतीक माने जाते हैं और घरों की छतों पर सजाए जाते हैं। छठ पूजा के दौरान इन हाथियों और अन्य मिट्टी की वस्तुओं से सूर्य देव को अर्पण किया जाता है।
ग्रामीण बिहार के कुम्हार आज भी ऐसी अनूठी आकृतियां, छत के लिए मिट्टी की टाइलें (खपरैल), बर्तन और खिलौने बनाते हैं। विशेष रूप से पटना अपने रंगीन मिट्टी के बर्तनों के लिए जाना जाता है। पर मांग में भारी गिरावट के कारण आज कारीगरों का गुज़ारा मुश्किल हो गया है।
ग्रामीण हाटों के साथ गुम हो गई कमाई
पहले गांवों में ‘हाट का चलन था, जो सप्ताह में दो बार लगती थी। ये हाट केवल व्यापार का नहीं, सामाजिक मेल-जोल का भी स्थान होती थी। लोग बर्तन को अनाज या अन्य वस्तुओं के बदले खरीदते थे, पैसे का लेन-देन बहुत कम होता था। आज ये हाट लगभग समाप्त हो गई हैं। बाजार के नाम पर अब रिटेल स्टोरों ने ले ली है, जहां ज्यादातर फैक्ट्री-कारखानों में बना सामान ही बिकता है।
बागमती एजुकेशन एंड सोशल वेलफेयर ट्रस्ट के संस्थापक गणेश प्रसाद बताते हैं, “कुम्हार और अन्य कारीगर दिन भर मेहनत करते हैं, पर मेहनताना बहुत कम मिलता है। जो समुदाय परंपरागत रूप से कारीगरी में लगे हैं, उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। ज़मीन नहीं है या बहुत कम है। कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण ये लोग फैक्ट्री निर्मित माल के आगे टिक ही नहीं सकते।”
“मिट्टी की चीजें पर्यावरण के लिहाज से बेहतर हैं, पर सुविधा के लिए लोग प्लास्टिक चुनते हैं। यही सच्चाई है,” वे कहते हैं। “अगर ये पारंपरिक हाट फिर से शुरू हों, तो शायद कारीगर फिर से टिक पाएंगे, लेकिन उम्मीद बहुत कम है।”
चाक से मुंह मोड़कर नई राहों की तलाश
जब मिट्टी का काम गुज़ारा नहीं कर पाता, तो कुम्हार नए विकल्प तलाशते हैं। परमेश पंडित, गंगा देवी और बाबिता देवी जैसे लोग, जो कभी अपनी कला से जुड़े थे, अब दूसरे रास्तों की तलाश में हैं।
गंगा देवी, जिनके पास एक भैंस और एक बकरी है, बताती हैं, “मेरे पति दिल्ली गए काम करने। मैं यहीं रहकर कुम्हारी करती रही। लेकिन, फिर उनका एक्सीडेंट में निधन हो गया। कई साल तक मैंने अकेले चाक चलाया। अब मेरा एक बेटा मेरी मदद करता है, दूसरा बाहर कमाने गया है ।”
तमाम मुश्किलों और संघर्षों के बावजूद वे त्योहारों पर अपने और आसपास के कुछ गांवों से ऑर्डर लेती हैं। “लेकिन दिक्कत यह है कि सामान खरीदने वाले लोग पैसे एक महीने या उससे भी बाद देते हैं। पैसों की तंगी के चलते ये इंतज़ार लंबा और परेशान करने वाला साबित होता है।” इन्हीं सब चीजों को देखते हुए युवा पीढ़ी अब कुम्हारी के पेश को अपनाने के लिए तैयार नहीं है। लागत बढ़ती जा रही है, और मांग भी घट रही है और कोई सरकारी मदद भी नहीं मिलती। ऐसे में कई परिवार पीढ़ियों पुरानी अपनी खानदानी कला छोड़ शहरों की ओर रुख कर रहे हैं।
कागज़ों पर चल रही सरकारी योजनाओं का फायदा नहीं
कुम्हारों का जो पेशा कभी आजीविका के साथ ही सामुदायिक गौरव का प्रतीक था, वह आज प्लास्टिक और मशीन-निर्मित वस्तुओं के चलते दम तोड़ रहा है। सरकार द्वारा पीएम विश्वकर्मा योजना और बिहार लघु उद्यमी योजना जैसी कई पहलें शुरू की गई हैं, जिनका उद्देश्य कारीगरों को मदद देना है। लेकिन ये योजनाएं उन गांवों तक नहीं पहुँचतीं, जहां अधिकतर कुम्हार रहते हैं। योजनाएं कागजों पर तो चल रही हैं, पर कुम्हारों को इनका कोई फायदा नहीं मिल पा रहा। अधिकांश कुम्हार भूमिहीन हैं। इसलिए उनके पास खेती का विकल्प भी नहीं होता। ऐसे में शहरों की ओर पलायन उनके लिए इकलौता विकल्प बनता जा रहा है।