वाराणसी में गंगा हरिश्चन्द्र घाट पर मुक्तिदायिनी के रूप में
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संदर्भ गंगा: गंगा में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 1)

गंगा का किसी परिचय की जरूरत है क्या? भारतीय समाज गंगा का उतना ही ऋणी है जितना संतान अपनी मां की ऋणी होती है। गंगा ने उत्तरी भारत को उपजाऊ बनाया, खेती और वनस्पतियों का पोषण किया। ऋषिकेश, हरिद्वार, प्रयाग और काशी जैसे तीर्थ देकर मोक्षदायिनी का दर्जा प्राप्त किया। गंगा के प्रति श्रद्धा आज भी कायम है, जो करोड़ों लोगों को महाकुंभ धारा में डुबकी लगाने के लिए प्रेरित करती है।
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गंगा का परिचय देने की जरूरत नहीं है। भारतीय समाज गंगा का उतना ही ऋणी है जितना कि संतान अपनी मां की ऋणी होती है।

ताजी मिट्टी ढो-ढोकर गंगा ने उत्तरी भारत को उपजाऊ और समृद्ध बनाया। खेती, वनस्पतियों, पेड़-पौधों को सींचा। अमृततुल्य पानी पिलाया। ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, प्रयाग और काशी जैसे तीर्थ देकर गंगा ने मोक्षदायिनी का दर्जा हासिल किया। भारतीय जनमानस में गंगा के प्रति यह परम्परागत अगाध श्रद्धा आज भी कायम है जो उसके भयंकर रूप से प्रदूषित होने के बावजूद करोड़ों लोगों को एक डुबकी लगाने के लिए प्रेरित करती है।

उत्तर प्रदेश का नदी मानचित्र देखें तो लगता है गंगा और उसकी सहायक नदियां किसी इंजीनियर की सोची समझी योजना के तहत व्यवस्थित रूप से निकाली गयी है। चरक संहिता में एक अध्याय है जनपदोऽध्वंसनीयं विमान अर्थात ऐसी बीमारी जिसमें देश के देश उजड़ जाते हैं। यह बीमारी पर्यावरण प्रदूषण से उत्पन्न बतायी गयी है और उसका कारण भी बताया है। भ्रष्ट सत्ता तथा पूंजी की सांठ-गांठ। संयोग से महर्षि आत्रेय ने अपने शिष्य अग्निवेश को यह अध्याय उत्तर प्रदेश के ही फर्रुखाबाद जिले में गंगा किनारे स्थित वनों में घूमते हुए पढ़ाया था। 

अग्निवेश का प्रश्न था कि अलग-अलग स्वभाव, खान-पान और आचरण के लोगों को एक साथ एक ही जैसी बीमारी क्यों हो रही है। तीन बड़ी नदियां गंगा, यमुना और घाघरा हिमालय से लगभग समांतर रूप से चलते ढेर सारी सहायक नदियों को आत्मसात करती हुई ये दोनों अंततः गंगा में मिल जाती है। इनमें शारदा, राप्ती, छोटी गंडक, गोमती, सई, देधा, बैगुल, कोसी, रामगंगा, काली, हिंडन, पांडव, सिंध, बेतवा, धसान, केन, टोंस, बेलन, चंद्रप्रभा, कर्मनाशा और इनमें भी अनेक की अनेक सहायक नदियां है। यह सब नदियां आदमी, पशु, पक्षी, वनस्पतियों, फसल, पेड़-पौधों को पानी, मिट्टी, उपलब्ध कराकर एक प्रकार से जीवनदान तो करती ही रही हैं, बरसात का फालतू पानी बहाकर समुद्र में ले जाने का काम भी करती रही हैं।

बहते जल में शुद्धिकरण की प्राकृतिक क्रिया सूर्य की किरणों, बालू और पानी की विद्युत तरंगों की मदद से होती रहती है, इसलिए नदी जल सदा सर्वदा से पवित्र माना जाता रहा है। विशेषकर गंगा नदी हिमालय के जिस क्षेत्र से निकलती है, वहां नाना प्रकार के पेड़-पौधे, तथा औषधीय वनस्पतियां हैं। इन सबके प्रभाव से गंगा में कृमिनाशक तथा स्वयं शुद्धि की अद्भुत क्षमता है। इसीलिए इसका पानी अरसे तक रखा रहने पर भी सड़ता नहीं।

भोजन-कौतुहल-ग्रंथ में गंगा जल श्वेत, स्वादिष्ट, स्वच्छ, अत्यंत रूचिकर, ठंडा, पथ्य, भोजन, पकाने योग्य, पाचक, प्यास मिटाने वाला एवं शुद्ध तथा बुद्धिवर्धक और महाभारत के अनुशासन पर्व में दूध की तरह उज्जवल, घी के समान स्निग्ध तथा मृत्यु के समय मोक्ष देने वाला बताया गया है।

वाराणसी उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर है। मत्स्यपुराण में एक जगह वाराणसी की महिमा बताते हुए गंगा को धरती पर उतारने वाले महान इंजीनियर शंकर पार्वती से कहते हैं कि ‘वाराणसी तीनों लोकों में सारभूता है। विविध दुष्कृत करने वाले व्यक्तियों को भी यहां जाने पर मैं तारक मंत्र देकर उनके पापों को नष्ट कर देता हूं। अतः वे निर्मल अंतःकरण होकर मरने के बाद मोक्ष प्राप्त कर मुझमें तन्मय हो जाते हैं।’

 इसी ग्रंथ में प्रयाग महिमा का वर्णन करते हुए मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर से कहते हैं- प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, सातों दीप, सातों समुद्र और भूतल पर स्थित सभी पर्वत उसकी रक्षा करते हुए प्रलय पर्वत स्थित हैं। नैमिषारण्य, पुष्कर, गोतीर्थ, सिंधुनगर, गयातीर्थ, धैतुक और गंगासागर ये तथा इनके अतिरिक्त तीन करोड़ दस हजार जो अन्य तीर्थ हैं, वे सभी एवं पुष्यप्रद पर्वत प्रयाग में निवास करते हैं। यहां तीन अग्नि कुंड भी है, जिनके बीच से संपूर्ण तीर्थों द्वारा नमस्कृत गंगा प्रवाहित होती हुई प्रयाग से आगे निकलती है।

मत्स्य पुराण कथाओं व किंवदंतियों में लिपटा हुआ एक वैज्ञानिक तथा ऐतिहासिक ग्रंथ है। जिसमें जलप्रलय के बाद भी सृष्टि को बचाने, सृष्टि की रचना प्रक्रिया का निरूपण करने के साथ भारत वर्ष और समुद्रद्वीप का इतिहास तथा भूगोल भी विस्तार से बताया गया है।

गंगा नदी के बारे में एक प्रबल दृष्टिकोण यह भी है कि उसका उद्गम एक प्राकृतिक अथवा ईश्वरीय चमत्कार न होकर एक महान अभियांत्रिक और तकनीकी काम था।

"मां गंगा" नामक एक पुस्तक के संपादनकर्ता रणधीर सिंह ने स्कंद पुराण के हवाले से लिखा है कि महादेव जी पहाड़ी क्षेत्र हिमालय के एकमेव छत्राधिपति थे, जिनकी राजधानी कैलाश थी। केदारखंड से नीचे मैदानी क्षेत्र के अधिपति राजा सगर ने गंगा को मैदान में लाने के लिए शिवजी से विचार-विमर्श किया। 

महाराज सगर ने अपने साठ हजार कार्यकर्ताओं को अश्व नामक यंत्र दिया, जिसके मापन, निर्देशन व गणना के अनुसार गंगा को मैदान की ओर आगे बढ़ाते हुए समुद्र तक ले जाना था। राजा सगर उसका पुत्र अंशुमान और पौत्र दिलीप यह कार्य संपादित नहीं कर सकें। अंततः महादेव जी के कुशल मार्गदर्शन में राजा भगीरथ ने यह काम पूरा किया। 

लेखक श्री सिंह के अनुसार श्रीनगर 'गढ़वाल' से ऊपर पहाड़ों का काटा जाना स्पष्ट देखा जा सकता है। कैलाश की समुद्र तल से ऊंचाई लगभग नौ हजार मीटर और हरिद्वार की 300 मीटर है। कैलाश पर्वत और गंगा के उद्गम स्थान में जो इतना कम अंतर है और इतनी अधिक ऊंचाई से बहने वाली जलधारा को मैदान में ऐसी बुद्धिमानी से ले जाना कि न तो भूमि का स्खलन हो और न भूमि फटे, उस समय की सर्वोच्च अभियांत्रिकी का परिचायक है।

गंगा के अतीत का यह गौरव अब नहीं है। आज जो कुछ है बस एक परम्परागत श्रद्धा तथा विश्वास या फिर ऐसी धर्मभीरुता जो गंगा को भयंकर रूप से प्रदूषित अतएव हानिकारक मानते हुए भी उसमें एक डुबकी लगाने तथा आचमन को विवश करती है। इस मनःस्थिति को तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रपति मिश्र ने 5 जून, 1984 पर्यावरण दिवस पर भाषण देते हुए व्यक्त किया था। 

अंग्रेजी दैनिक पायनियर में दूसरे दिन छपी रिपोर्ट के अनुसार श्री मिश्र ने कहा था कि यह पवित्र नदी अब अपने भक्तों के हृदय से विश्वास खोती जा रही है। "एक बार इसके पवित्र जल में स्नान करके घर लौटने पर फिर से नहाने का मन करता है।" एक सप्ताह पहले काशी में गंगा स्नान का स्मरण करते हुए उन्होंने बताया कि ज्यादातर समय यह अपने चारों ओर के पानी की गंदगी के बारे में ही सोचते रहे।

साल भर बाद गंगा शुद्धि अभियान शुरू करते हुए प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी कहा था कि गंगा आज हमारी सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से एक है। ढाई सौ करोड़ की लागत से सवा सौ से अधिक परियोजनाओं में आधा पैसा खर्च हो चुकने के बाद भी कानपुर, इलाहाबाद तथा वाराणसी में गंगा के जल में कोई खास गुणात्मक अंतर नहीं आया है। कुछ जगह नालों को टैपकर शहर की निचली धारा में इकट्ठे गिरा देने से गांव वालों की समस्याएं बढ़ी ही हैं।

उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने केंद्रीय जल उपयोग के नदी आंकड़ा निदेशालय की रिपोर्ट पर तैयार की गयी अपनी टिप्पणी 25 जनवरी 1988 में कहा है कि कानपुर, इलाहाबाद और वाराणसी में गंगा में रात में तो घुलित ऑक्सीजन कम होती है। जलीय जीव-जंतुओं के लिए यह दिन में भी निश्चित रूप से एक मृत्यु कुंड है। टिप्पणी में कहा गया है कि गर्मी और बरसात में कानपुर में गंगा अत्यधिक प्रदूषित रहती रहती है और उसका पानी बिना शुद्ध किये मानव उपयोग लायक नहीं होता। 

केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड की जांच में कानपुर के जाजमऊ पंपिंग स्टेशन तथा इलाहाबाद के रसूलाबाद घाट पर घुलित ऑक्सीजन न्यूनतम कमशः साढ़े तीन और चार मि.ग्रा. प्रति. ली. पायी गयी है। यह स्थिति जलीय जीव-जन्तुओं के लिए घातक होती है।

गंगा की कुल लंबाई 2525 कि.मी. है। देश की 37 फीसदी आबादी इसके किनारे रहती है तथा एक तिहाई की रोजी-रोटी इसके ऊपर निर्भर करती है। देश का लगभग 47 फीसदी सिंचित क्षेत्रफल गंगा बेसिन में है।

गंगोत्री से गंगा तक गिरने वाले नदी नालों की तादाद सोलह हजार है। इनमें से 1611 वाराणसी तक ही आ मिलते हैं। नदी के किनारे 114 शहर बसे हैं, जिनमें से 48 प्रथम श्रेणी के तथा 63 द्वितीय श्रेणी के हैं। इस नदी के किनारे छोटे-बड़े कुल पांच हजार उद्योग हैं। इनमें से लगभग दो हजार ने प्रदूषण संयंत्र लगाये है। गंगा तट पर तमाम श्मशान घाट हैं और ये भी नदी को प्रदूषित करते हैं। केवल वाराणसी में 30 हजार लाशें प्रतिवर्ष जलती हैं।

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