सीता नवमी के आलोक में सीता बावड़ी: सांस्कृतिक धरोहर, भूली यादों को संजोने की चाह
वैशाख मास की उजली नवमी, जब चंद्रमा अपनी पूर्णता की ओर बढ़ता है, धरती पर एक मधुर स्मरण की बेला आती है, सीता नवमी। यह वही दिन है जब धरती माता ने अपने हृदय से सीता को जन्म दिया था। वे भूमिजा हैं, अयोनिजा हैं, वैदेही हैं, एक ऐसी नारी शक्ति, जिनकी जीवनगाथा में त्याग है, धैर्य है, और प्रकृति से एक अनुपम संवाद है। वे केवल मिथक नहीं, बल्कि भारतीय जनमानस की चेतना हैं - कृषि की अधिष्ठात्री, जल की संरक्षिका, और धरती मां की बेटी।
आज जब हम सीता नवमी मना रहे हैं, यह केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, एक सांस्कृतिक पुकार है - उन धरोहरों को याद करने की, जो माता सीता के स्मरण में सदियों से जीवित हैं, पर अब उपेक्षा की धूल में थोड़ी ढँक गई हैं। ऐसी ही एक प्रतीकात्मक धरोहर हैं - सैकड़ों- हजारों सीता बावड़ियां। ये बावड़ियाँ भारत के विभिन्न हिस्सों में बिखरी हुई हैं - कहीं जानकी कुंड के रूप में, तो कहीं सीता बावड़ी बनकर। वे पौराणिक आख्यानों, लोक कथाओं और जल संस्कृति की जीवंत मूर्तियाँ हैं।
सीता नवमी, वह अवसर है जब हमें इन बावड़ियों की सुध लेनी चाहिए - केवल पूजा के लिए नहीं, बल्कि उन्हें जीवित रखने के लिए। यह एक संवेदनशील संवाद होगा इतिहास, पर्यावरण और लोक-श्रद्धा के बीच। और इस संवाद की गूंज हम पाते हैं अनुपम मिश्र की पुस्तक "आज भी खरे हैं तालाब" में, जहाँ वे सीता बावड़ी को मात्र जल संरचना नहीं, एक सांस्कृतिक प्रतीक बताते हैं।
हज़ारों सीता बावड़ियाँ, हज़ारों कहानियाँ
भारत भूमि पर, विशेषतः राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में, सीता बावड़ी की उपस्थिति साक्षी है कि यह भूमि कभी जल और श्रद्धा के संगम से परिपूर्ण थी। राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों में पाई जाने वाली हजारों प्राचीन जल संरचनाएँ, माता सीता के नाम से जुड़ी हैं। ये बावड़ियाँ, जिनके भीतर कभी संवेदनाओं की सरिता बहती थी, आज वीरान हैं, परंतु उनका इतिहास जीवित है - आदिवासी समुदायों की त्वचा पर गुदे उनके चित्रों में, लोक कथाओं के गाथा गायकों की वाणी में, और उन शिलाओं में जो समय को चुनौती देती प्रतीत होती हैं।
इन बावड़ियों का चित्र उर्वरता, जल और कृपा का प्रतीक है - माँ सीता की कृपा, जो जीवन को पोषित करती है। यह चित्रण माता सीता के भूमिजा स्वरूप का सम्मान है - वे जो धरती से जन्मी, और जल से जुड़ी रहीं। एक लोकप्रचलित परंपरा में तो इन बावड़ियों की तस्वीरें हाथों पर गुदवाना एक अंतर्निहित व्रत माना गया है - जैसे कोई जीवन भर के लिए जल-संवेदनाओं से जुड़ गया हो।
विरासत और वास्तुकला का विलक्षण संगम हैं सीता बावड़ियां
कुछ लोकगाथाओं में वर्णित है कि सीता ने वनवास काल में विश्राम के समय इन स्थलों पर जल स्पर्श किया था। कहीं वे स्वयं बनीं, कहीं उनके आदेश पर बनीं, कुछ मां सीता की ममता की चाहत में बनीं। ऐसी ही एक कथा जुड़ी है खंडवा की सीता बावड़ी से - जहाँ यह कहा जाता है कि प्यास से व्याकुल सीता के लिए श्रीराम ने तीर से जल प्रवाहित किया था। यह बावड़ी 11वीं से 15वीं सदी के बीच की मानी जाती है, और आज भी खंडवा की ऐतिहासिक स्मृतियों में एक नायाब अध्याय है।
राजस्थान की सीताबाड़ी, भीलवाड़ा ज़िले में स्थित, वाल्मीकि आश्रम की परछाईं में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है, जहाँ लव-कुश का जन्म हुआ था। यहाँ की बावड़ियाँ, कुंड और मंदिर, माता सीता की प्रकृति से आत्मीयता का प्रमाण हैं। अयोध्या, चित्रकूट, नासिक, श्रीलंका - सभी स्थानों पर सीता से जुड़े जल स्रोतों का उल्लेख है। यह एक सहज तंत्र है, जो भारत को जल-आस्था की एक माला में पिरोता है।
अनुपम मिश्र की दृष्टि से बावड़ियों का महत्व
अनुपम मिश्र, एक संवेदनशील पर्यावरण विचारक, अपने लेखन में सीता बावड़ियों को जल संरक्षण की संस्कृति का प्रतीक मानते थे। वे बताते थे कि कैसे ये बावड़ियाँ केवल पानी का स्रोत नहीं थीं, बल्कि सामुदायिक संवाद, समर्पण, और प्राकृतिक संतुलन की प्रतिमाएं थीं। उनके शब्दों में, यह केवल सीता की पूजा नहीं, बल्कि प्रकृति की पूजा थी।
मन और तन में रमी सीता बावड़ी
तालाब समाज के मन में रहा है। और कहीं-कहीं तो उसके तन में भी। बहुत से वनवासी समाज गुदने में तालाब, बावड़ी भी गुदवाते हैं। गुदनों के चिन्हों में पशु-पक्षी, फूल आदि के साथ-साथ सहरिया समाज में सीता बावड़ी और साधारण बावड़ी के चिन्ह भी प्रचलित हैं। सहरिया शबरी को अपना पूर्वज मानते हैं। उनका सीताजी से विशेष संबंध है। इसलिए सहरिया अपनी पिंडलियों पर सीता बावड़ी बहुत चाव से गुदवाते हैं।
सीता बावड़ी गुदवाने की व्याख्या - सीता बावड़ी में एक मुख्य आयत है। भीतर लहरें हैं। बीचों-बीच एक बिंदु है जो जीवन का प्रतीक है। आयत के बाहर सीढ़ियां हैं और चारों कोनों पर फूल हैं और फूल में है जीवन की सुगंध - इतनी सब बातें एक सरल, सरस रेखाचित्र में उतार पाना बहुत कठिन है। लेकिन गुदना गोदने वाले कलाकार और गुदवाने वाले स्त्री-पुरुषों का मन तालाब, बावड़ी में इतना रमा रहा है कि आठ-दस रेखाएं, आठ-दस बिंदियां पूरे दृश्य को तन पर सहज ही उकेर देती हैं। यह प्रथा तमिलनाडु के दक्षिण आरकाट ज़िले के कुंराऊं समाज में भी है।
धरोहरों में समाया सामाजिक और पर्यावरणीय संदेश
सीता नवमी केवल एक पर्व नहीं, यह एक जागृति का क्षण है - जब हम नारी शक्ति, प्रकृति और संस्कृति के ताने-बाने को एक साथ देख सकते हैं। माता सीता का भूमिजा स्वरूप हमें यह सिखाता है कि धरती और स्त्री दोनों सृजन की शक्तियाँ हैं, और इनका सम्मान ही सभ्यता की कसौटी है।
सीता बावड़ियाँ इस सन्देश की मूर्त छवि हैं - वे जो आज उपेक्षित हैं, परंतु जिनमें संभावनाओं का जलाशय भरा पड़ा है। इनके पुनरुद्धार से सामुदायिक जल प्रबंधन, स्थानीय सांस्कृतिक चेतना और आस्था का पुनर्संयोजन संभव है।
पुनरुत्थान की पुकार
आज आवश्यकता है कि सीता नवमी को एक संस्कार के अवसर के रूप में देखा जाए - जब हम अपनी भूली हुई सीता बावड़ियों की ओर लौटें। ये केवल स्थापत्य धरोहर नहीं, बल्कि हमारे आत्मिक इतिहास की जीवंत गाथाएँ हैं। इनका संरक्षण न केवल एक सांस्कृतिक कर्तव्य है, बल्कि एक भविष्य-निर्माण की प्रक्रिया भी है। इन्हें फिर से जीवित किया जा सकता है, भूजल भरण में काम आ सकती हैं, जब धरती की कोख सूख रही हो, तब इन बावड़ियों की गोद से फिर जीवन फूट सकता है। वर्षा जल को संजोने की वह प्राचीन विद्या, जो सदियों से हमारी भूमि को सिंचित करती रही - वह आज भी वैसी ही सक्षम है, बस धूल झाड़नी है।