कैबार्ता जैसे समुदायों के लिए ब्रह्मपुत्र सिर्फ़ एक नदी नहीं, ज़िंदगी की ज़रूरतें पूरी करने वाली एक सतत धारा है।
कैबार्ता जैसे समुदायों के लिए ब्रह्मपुत्र सिर्फ़ एक नदी नहीं, ज़िंदगी की ज़रूरतें पूरी करने वाली एक सतत धारा है। चित्र: unsplash.com

असम के कैबार्ता समुदाय को कैसे बदल रही हैं सूखती आद्रभूमियां और घटती मछलियां

असम के जल-निकायों में बढ़ते प्रदूषण और उनके आकार में लगातार आ रही कमी न सिर्फ़ पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचा रही है, बल्कि कैबार्ता जैसे समुदायों के परंपरागत जीवन को खत्म कर रहा है।
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असम की विशाल नदी ब्रह्मपुत्र के किनारे सुबह जब धूप की पहली किरण लिए उतरती है, तो पानी में डाले जाने वाले जाल एक झिलमिलाती तस्वीर सी उकेर देते हैं। पर अब इस तस्‍वीर में उत्‍साह, उम्‍मीद के बजाय मायूसी और उदासी के रंग हावी होने लगे हैं। क्‍योंकि, अब इन जालों में मछलियां तो कम फंस रही हैं, पर ज़िंदगियां ज़्यादा उलझ रही हैं।

पूर्वोत्‍तर के कई राज्‍यों को जीवन देने वाली ब्रह्मपुत्र नदी के क़रीब 1400 वर्ग किलोमीटर के विस्तार में करीब तीन हज़ार आर्द्रभूमियों (वेट लैंड्स) में हज़ारों पशु-पक्षियों, जलीय-जीवों और वनस्‍पतियों का भरा-पूरा ईको सिस्‍टम बसता है। असम की ये आर्द्रभूमियां यहां की प्रकृति ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन की भी धुरी हैं।

ब्रह्मपुत्र और अन्‍य स्‍थानीय नदियों के किनारे फलने-फूलने वाला ऐसा ही एक समुदाय है कैबार्ता। इनके लिए ब्रह्मपुत्र सिर्फ़ एक नदी नहीं, ज़िंदगी की ज़रूरतें पूरी करने वाली एक सतत धारा है। इनका पेशा, उनकी पहचान और पीढ़ियों से चली आ रही परंपराएं, सबकुछ इसी से जुड़ा हुआ है। पर, आज नदी और उसकी आर्द्रभूमियों पर मंडराते संकट ने हालात बदल दिए हैं। इसके चलते इनके जीवन का रूप-स्वरूप भी बदलता जा रहा है।

कैबार्ता: पानी के साथ जन्मी एक पहचान

असम का कैबार्ता समुदाय सदियों से नदियों के किनारे बसा है। उनके नाम कैबार्ता का मतलब ही है ‘पानी पर निर्भर रहने वाला’ समुदाय। यह मूलत: संस्‍कृत के शब्‍द ‘कैवर्त’ से बना है, जिसे हिन्‍दी में केवट कहा जाता है, जबकि बौद्ध साहित्‍य में इसे केवट्टा कहा गया। इसका शाब्दिक अर्थ "पानी के निवासी" है, जिसका तात्‍पर्य नाविक, मछुआरा या मल्लाह होता है।

पौराणिक ग्रंथ ब्रह्मवैवर्त में, कैबार्ता को क्षत्रिय पिता और वैश्य माता से उत्पन्न बताया गया है। सदियों पहले कैबार्ता समुदाय दो समूहों में बंट गया था, हलिया कैबर्ता और जलिया कैबर्ता। बौद्ध धर्म के प्रभाव में आकर जलिया कैबार्ता ‘माच मारा' यानी मछली मारने वाले और ‘माच ना-मारा' यानी मछली न मारने वाली जनजातियों में विभाजित हो गए। इस तरह पहला समुदाय अपनी मछुआरों की परंपरा से जुड़ा रहा, जबकि दूसरे ने मछली पकड़ने की पारंपरिक आजीविका को छोड़ दिया।

पूर्वोत्‍तर में आज ज़्यादातर ‘माच मारा' कैबार्ता ही मिलते हैं, जिनकी रोज़ी-रोटी मुख्‍यत: मछली पकड़ने, नाव चलाने, जाल बुनने और गोताखोरी जैसे कामों से चलती है। नदी से इनका जुड़ाव केवल आजीविका के लिए ही नहीं है, बल्कि यह उनकी जीवनशैली और संस्कृति का भी अटूट हिस्सा है। इनके त्योहारों, गीतों और लोककथाओं में “पानी” को एक जीवित आत्मा की तरह देखा जाता है, जो इन्‍हें बहुत कुछ देता भी है, तो डुबोता भी है।

असम की लगभग हर बड़ी नदी, ब्रह्मपुत्र, बराक, मानस या डिब्रू के किनारे इस समुदाय के लोग बसे हैं। हालांकि, इनका पालन-पोषण करने वाली यह नदियां अब बदल गई हैं। उनमें मछलियां कम होने लगी हैं, उनका पानी गंदा हो रहा है। बांध और तटबंध मिलकर उनका रास्ता रोक रहे हैं।

समुदायों का पालन-पोषण करने वाली नदियां अब बदल गई हैं। इनमें मछलियां कम होने लगी हैं,  पानी गंदा हो रहा है, बांध और तटबंध मिलकर उनका रास्ता रोक रहे हैं।
समुदायों का पालन-पोषण करने वाली नदियां अब बदल गई हैं। इनमें मछलियां कम होने लगी हैं, पानी गंदा हो रहा है, बांध और तटबंध मिलकर उनका रास्ता रोक रहे हैं।चित्र: Unsplash.com

घटती मछलियां, आधुनिक होते जाल और टूटती आजीविका

कैबार्ता परिवारों की ज़िंदगी मछली पर टिकी है। घर के खर्च से लेकर बच्चों की पढ़ाई तक सब कुछ इसी पर निर्भर है। पिछले एक दशक में नदियों में प्रदूषण बढ़ने और जलस्‍तर घटने से मछलियों की संख्या में आई तेज़ गिरावट ने इनकी आर्थिक स्थिति को संकट में डाल दिया है। 

मगुरी-मोटापुंग आर्द्रभूमि की बदलती पारिस्थितिकी पर लिखे एक लेख के अनुसार इलाके में मछलियों की संख्या में लगभग 86 फीसद की कमी आई है। वहीं, असम की सबसे बड़ी और एशिया की दूसरी सबसे आर्द्रभूमि सोन बील का दायरा भी कम होता जा रहा है, जहां कैबार्ता समुदाय के लगभग 30 हज़ार लोगों का बसेरा है।

इसी समुदाय के 33 साल के रोतीश दास बताते हैं, “पहले मैं रोज़ इतनी मछलियां पकड़ लेता था, जिससे लगभग पांच सौ की कमाई हो जाती थी। लेकिन, अब कमाई डेढ़ सौ रुपये पर आकर सिमट गई है।”

“पहले दिन और रात दोनों ही पहरों में बराबर मात्रा में मछलियां पकड़ लेता था। पहले पांच किलो का जाल फेकने से ही ठीक-ठाक मात्रा में मछलियां आ जाती थीं। पर, अब उससे दोगुने आकार का यानी दस किलो का जाल फेंकने पर भी पर्याप्‍त मछलियां नहीं मिल पातीं। इसके अलावा अब महंगे दाम पर बिकने वाली इलिश (हिल्सा) और चपिला जैसी मछलियां इक्‍का दुक्‍का ही मिलती हैं, जैसे ये प्रजातियां ही लुप्त हो गई हों।”
रोतीश दाश, सोन बील के कैबार्ता समुदाय से आने वाले मछुआरे

इसी तरह, आद्रभूमि के पूर्वी तट पर बसे सैजा नगर के जय कुमार बताते हैं कि पहले जाल के अपने काम से वे हर महीने दस से बारह हज़ार रुपये कमा लेते थे लेकिन अब उनकी कमाई घट कर छह से सात हज़ार प्रति माह हो गई है।दरअसल अब असम की नदियों और आर्द्रभूमियों में मछली पकड़ने के लिए बड़ी कंपनियों के उन्नत किस्म की जालों का इस्तेमाल होने लगा है। इन जालों का आकार विशाल होता है और सिंथेटिक धागों से बने होने के कारण ये टिकाऊ भी होते हैं। लोग अब पारंपरिक जालों का उपयोग कम करने लगे हैं. इसलिए उनकी बिक्री और मरम्मत दोनों के काम में भी कमी आई है। नतीजा यह है कि जय कुमार जैसे लोगों की रोज़ी-रोटी बुरी तरह प्रभावित हुई है।

असम की सबसे बड़ी और एशिया की दूसरी सबसे आर्द्रभूमि सोन बील का दायरा भी कम होता जा रहा है, जहां कैबार्ता समुदाय के लगभग 30 हज़ार लोगों का बसेरा है।

कैबार्ता समुदाय को प्रभावित करने वाली समस्याएं

मछलियों की उपलब्धता में गिरावट: असम सरकार के मत्‍स्‍य विभाग के आंकड़े बताते हैं कि साल 2010 से 2022 के बीच ब्रह्मपुत्र घाटी में मछलियों की कुल वार्षिक उपलब्धता में लगभग 35 फीसद की कमी आई है। नदियों, तालाबों, आर्द्रभूमियों और छोटे जलाशयों का जल-स्तर घटना इस गिरावट का प्रमुख कारण है।

सोन बील आर्द्रभूमि का सिकुड़ना: करीमगंज ज़िले (अब श्रीभूमि) में स्थित एशिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्द्रभूमि सोन बील पहले 3000 हेक्टेयर से बड़े क्षेत्र में फैली थी। लेकिन मिट्टी, रेत और महीन कणों के जमाव, अनियमित बारिश, जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के चलते इसका क्षेत्रफल लगातार घट रहा है।

बारिश में कमी: साल 2012 के एक अध्ययन के अनुसार साल 2004-2008 के बीच बराक क्षेत्र में कुल 31.58 मिमी बारिश की कमी दर्ज की गई। साल 2014 के एक अध्ययन में पाया गया कि 1880 से 1980 (सौ साल) के बीच बराक घाटी की आर्द्रभूमियों में 3593.6 हेक्टेयर की कमी आई। पहले जहां क्षेत्र में मछलियों की 120 से 130 देसी प्रजातियां पाई जाती थीं, वे अब घटकर 80-90 पर आ गई हैं। 

परंपरागत तरीकों पर आधुनिक तकनीक का दबाव: बड़ी नावों, उन्नत उपकरणों और भारी जालों से मछली पकड़ने वाले लोग कम समय में अधिक मछली पकड़ लेते हैं। इसके विपरीत कैबार्ता समुदाय, जो पारंपरिक तरीक़ों का इस्तेमाल करता है, प्रतिस्पर्धा में लगातार पिछड़ रहा है।

प्रजनन-काल में जाल फेंकने की मजबूरी: कामरूप के हलोगांव के महलदार दीपेन दास बताते हैं कि आर्थिक मजबूरी के कारण कैबार्ता समुदाय को अप्रैल–जुलाई के प्रजनन के समय में भी जाल फेंकना पड़ रहा है, जबकि इस दौरान सरकार सार्वजनिक जल-निकायों में मछली पकड़ने पर प्रतिबंध लगाती है।

औद्योगिक प्रदूषण का असर: औद्योगीकरण से बढ़ते प्रदूषण ने नदियों और आर्द्रभूमियों के पानी को दूषित किया है। इसके चलते जलस्तर घट रहा है और मछलियों की संख्या पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।

रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक का प्रभाव: नगदी फसलों में भारी मात्रा में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग से नदियों में रासायनिक प्रदूषण बढ़ रहा है। वर्षा के दौरान मिट्टी के साथ बहकर आने वाले ये रसायन पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा कम कर देते हैं, जिससे मछलियों की आबादी प्रभावित होती है।

जलकुंभी और जलीय खरपतवारों का फैलाव: जलकुंभी जैसे तेज़ी से बढ़ने वाले जलीय खरपतवार भी मछलियों के आवास और प्रजनन की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। इनका तेज़ी से होने वाला विस्तार जल-निकायों की धारा को रोककर ऑक्सीजन की मात्रा को घटाता है और स्थानीय पारिस्थितिकी को दबा देता है।

शहरीकरण और निर्माण कार्यों का दुष्प्रभाव: तेज़ी से हो रहे शहरीकरण और विकास के नाम पर होने वाले निर्माण कार्यों का असर भी नदियों, जलाशयों और अन्य जल-निकायों की पारिस्थितिकी को प्रभावित कर रहा है।

साल 2022 के एक अध्ययन से यह साफ हुआ है कि नदियों पर पुल आदि बनाने से जल-जीवन प्रभावित होता है। असम की नदियों और आर्दभूमियों में मछली के प्रजनन और उत्पादन दर में आई एक कमी का कारण इन पर बनाए जाने वाले पुल भी हैं। बड़ी परियोजनाएं, तटबंध-निर्माण और नदी-नियंत्रक संरचनाओं ने भूजल-प्रवाह, बाढ़ के डायनामिक्स और नदी-संबंधित पारंपरिक जुड़ाव को बदल दिया है। इस बात की पुष्टि एशियाई विकास बैंक और एनडीएमए-संबंधित रिपोर्ट भी करते हैं।

जलवायु परिवर्तन और मौसमी असंतुलन: जलवायु परिवर्तन, अनियमित मानसून, सूखा-बाढ़ चक्र आर्द्रभूमियों के मौसमी व्यवहार को बदल रहे हैं और मछली के जीवनचक्र पर भी बुरा असर डाल रहे हैं।

असम की नदियों और आर्दभूमियों में मछली के प्रजनन और उत्पादन दर में आई एक कमी का कारण इन पर बनाए जाने वाले पुल भी हैं।
असम की नदियों और आर्दभूमियों में मछली के प्रजनन और उत्पादन दर में आई एक कमी का कारण इन पर बनाए जाने वाले पुल भी हैं।चित्र: Unsplash.com

समुदाय के साथ आने से समाधान संभव

नदियों और आजीविका के स्रोत और जीवनशैली को बचाने के लिए निजी और सामुदायिक स्तर पर कई तरह की कोशिशें की जा रही हैं। इसका एक उदाहरण गोलाघाट में काम करने वाली गैर-सरकारी संस्था आरण्यक है। इस संगठन ने मत्स्य विभाग के साथ मिलकर “साझा स्वामित्व तालाब प्रणाली” शुरू की है।

इसमें तालाबों की सफ़ाई, मछली-बीज डालने से लेकर बिक्री तक का काम गांव के लोग खुद मिलजुल कर करते हैं। मुनाफ़े का एक हिस्सा समुदायिक कोष में जाता है, जिससे नए जाल और नाव खरीदे जाते हैं। इस मॉडल ने कई जगह मछली उत्पादन को 20 से 30 फीसद तक बढ़ाया है।

असम के बरपेटा और नौगांव ज़िलों में कुछ गांवों ने स्थानीय मिट्टी और बांस की मदद से रीचार्ज पिट और चेक-डैम बनाकर भूजल स्तर को स्थिर रखने की कोशिश शुरू की है। इनके ज़रिये बारिश का पानी धीरे-धीरे ज़मीन में रिसता है। इन सोख्‍ता गड्ढों के निर्माण में बहुत अधिक खर्च नहीं होता है। साथ ही समुदाय-संचालित होने के कारण इनका नियमित रख-रखाव भी आसानी से हो जा रहा है।

केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करती है कि इन तरीकों से सूखे मौसम में तालाबों का जलस्तर स्थिर रहता है और मछलियों के प्रजनन पर भी इसका सकारात्मक असर पड़ता है।

कैसे मदद कर सकती हैं नीतियां

कैबार्ता और असम के ऐसे ही पानी-आधारित जीवन जीने वाले समुदायों के जीवन में आर्थिक-सामाजिक स्थिरता लाने की दिशा में कुछ नीतिगत और संस्थागत कदम उठाए जा सकते हैं। इन प्रयासों से मौजूदा स्थिति को नियंत्रित किया जा सकता है।

  • छोटे मत्स्य-किसानों के अधिकार सुनिश्चित करना: जलाशयों के पट्टे, स्थानीय सहकारी समितियों और स्थानीय जनजातियों को प्राथमिकता के आधार पर दिए जाएं।

  • पारंपरिक ज्ञान का उपयोग: कैबार्ता समुदाय पीढ़ियों से जल और मौसम के चक्र समझता आया है। उनकी इस समझ और अनुभव का तालमेल वैज्ञानिक और तकनीकी समझ के साथ बैठाया जाए, ताकि स्थानीयता-केंद्रित विकास संभव हो सके।

  • जल-केंद्रित आजीविका योजनाएं: प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना (पीएमएमएसवाई) में भूजल संरक्षण और छोटे तालाबों के पुनर्जीवन को जोड़ना ज़रूरी है।

कैबार्ता समुदाय की ताक़त उनके जाल या नावों में नहीं, बल्कि उनकी समझ में है। वे जानते हैं कि पानी सिर्फ़ पीने की चीज़ नहीं, बल्कि जीने का तरीका है। अगर यही समुदाय जल-स्रोतों को पुनर्जीवित करने में साझेदार बने, तो न केवल इस समुदाय का अस्तित्व बरकरार रह सकता है, बल्कि असम की नदियों और तालाबों में फिर से जीवन लौट सकता है, जिसपर कभी समाज का एक बड़ा तबका टिका था।

पानी अगर सबका है, तो उसकी ज़िम्मेदारी भी सबकी होनी चाहिए। इसलिए सवाल अब यही है क्या संस्थाएं और सरकार कैबार्ता जैसे संघर्ष कर रहे समुदायों की आवाज़ों को सुनने के लिए तैयार हैं या फिर एक और स्थानीय संस्‍कृति और परंपरा अंधाधुंध विकास और प्रदूषण की बलि चढ़ जाएगी?

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