कुंती के हाथों में चिपके हैं छोटे-छोटे मीठे महुआ के फूल — जंगल की एक मीठी सौगात।
कुंती के हाथों में चिपके हैं छोटे-छोटे मीठे महुआ के फूल — जंगल की एक मीठी सौगात।तस्वीर: शरद चंद्र प्रसाद

महुआ बीनना: एक मौसमी फूल, मध्य भारत के आदिवासियों की जीवनरेखा

महुए का पेड़ बस्तर और मेलघाट के जंगलों में रह रहे आदिवासी परिवारों के लिए बहुत खास है। यह उन्हें खाना, दवाई और कमाई तीनों देता है। लोग सुबह-सुबह इसके फूल बीनते हैं, सुखाते हैं और बाज़ार में बेचते हैं। यह पेड़ उनकी संस्कृति और रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है।.
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मध्य भारत के आदिवासी इलाकों में महुआ का पेड़ सिर्फ एक पेड़ नहीं, बल्कि एक जीवनरेखा है। सूरज निकलने से पहले, गांव की महिलाएं जंगल की ओर चल पड़ती हैं। पेड़ के नीचे गिरे मीठे महुआ फूल बीनना सिर्फ रोज़ का काम नहीं, बल्कि परंपरा और जीवन का हिस्सा है। इन फूलों का इस्तेमाल खाने, दवा और त्योहारों तक में होता है।

छत्तीसगढ़ के दक्षिणी हिस्से में बसा है बस्तर—हरियाली से भरी घाटियाँ, तेज़ बहती नदियाँ और घने जंगलों की धरती। इंद्रावती नदी, जो गोदावरी की सहायक नदी है, इस क्षेत्र से होकर बहती है और यहां के जंगल और लोगों को जीवन देती है। गोंड और मुरिया जैसी आदिवासी जातियाँ यहां सदियों से प्रकृति के साथ तालमेल में रहती आई हैं।

यहाँ ज़्यादातर लोग खेती के लिए बारिश पर निर्भर हैं। सालाना करीब 1200 से 1600 मिमी बारिश होती है और इलाका नदियों, झरनों और जंगल के स्रोतों से भरा है। कागज़ों पर देखें तो पानी की कोई कमी नहीं लगती, लेकिन पहाड़ी इलाका होने के कारण पानी ज़मीन में टिकता नहीं। चेक डैम और पोखरों की कमी से बारिश का पानी बहकर निकल जाता है। ऐसे में खेती पूरी तरह मानसून पर टिकी है—जो अब पहले जैसी भरोसेमंद नहीं रही।

यहां के लोग ट्रैक्टर नहीं, बल्कि देसी औज़ारों से छोटे-छोटे खेतों में धान, उड़द और अरहर जैसी फसलें उगाते हैं। खेती की इस अस्थिरता को जंगल की उपज पूरा करती है। गांव वाले महुआ फूल, तेंदू पत्ता, इमली, कंद-मूल और औषधीय जड़ी-बूटियाँ इकट्ठा करते हैं। इसे वनोपज संग्रह कहा जाता है।

महुआ के मौसम में सुबह-सुबह महिलाएँ जंगल जाती हैं। उनके लिए ये सफर सिर्फ फूल बीनने का नहीं, बल्कि एक विरासत को जीने जैसा है। जब वे पेड़ों के नीचे से गुजरती हैं, तो साफ दिखता है—जंगल देता है, और लोग उसकी हिफाज़त करते हैं।

पूरा गांव सुनसान है — अधिकांश परिवार महुआ इकट्ठा करने के लिए बस्तर के जंगल में चले गए हैं।
पूरा गांव सुनसान है — अधिकांश परिवार महुआ इकट्ठा करने के लिए बस्तर के जंगल में चले गए हैं। चित्र श्रेय: शरत चंद्र प्रसाद
बस्तर की महिलाएं पेड़ों के नीचे की ज़मीन साफ करती हैं, ताकि फूल आसानी से मिल जाएं।
बस्तर की महिलाएं पेड़ों के नीचे की ज़मीन साफ करती हैं, ताकि फूल आसानी से मिल जाएं।

जंगल के रक्षक: गोंड और मुरिया समुदाय

बस्तर के जंगलों में गोंड और मुरिया जैसे आदिवासी समुदाय पीढ़ियों से बसे हैं। गोंड समुदाय को जंगल का संरक्षक माना जाता है। उन्हें यह ज्ञान विरासत में मिला है कि किस पेड़ से कब और कितना लेना है ताकि जंगल खुद को फिर से सँवार सके और आने वाले समय के लिए भी बना रहे। उपयोग और संरक्षण के बीच यह संतुलन ही उनकी ज़िंदगी की नींव है। उनके लिए जंगल का हर पेड़, हर रास्ता उनके पूर्वजों की याद दिलाता है। मुरिया समुदाय की दो महिलाएं—घसनीन कोमरे और नीलू कोर्राम—हर साल महुआ के मौसम में सूरज निकलने से पहले जंगल जाती हैं। साथ में होती हैं 'पीज' की बोतलें, जो चावल से बना एक देसी पेय है, जिससे 5–6 घंटे की मेहनत में थोड़ी ताकत मिलती है। ऐसे परिवारों के लिए जंगल केवल आय का साधन नहीं, बल्कि उनका जीवन है। महुआ से लेकर तेंदू पत्ते तक, उनकी रोज़मर्रा की ज़रूरतें—खाना, बच्चों की पढ़ाई, इलाज—सब जंगल की देन है। बिना जंगल के, उनका जीवन ताश के पत्तों की तरह ढह जाएगा।

नीलू कहती हैं, “महुआ बीनना मेरे लिए सिर्फ एक काम नहीं, बल्कि मेरे परिवार का आधार है।” ये फूल सुखाए जाते हैं, उनसे मिठाइयाँ बनती हैं या महुआ की शराब तैयार होती है। इन्हें बेचने से जो आमदनी होती है, वो उनके घर चलाने के लिए ज़रूरी है।

बस्तर का एक शांत रास्ता, जहां दोनों ओर महुआ के पेड़ खड़े हैं और ऊपर से धूप छन रही है।
बस्तर का एक शांत रास्ता, जहां दोनों ओर महुआ के पेड़ खड़े हैं और ऊपर से धूप छन रही है।

महुआ गिरने से पहले की तैयारी

महुआ का काम सिर्फ फूल गिरने से शुरू नहीं होता, बल्कि उससे पहले ही शुरू हो जाता है। फूल खिलने से कुछ दिन पहले ही गांव की महिलाएं जंगल में जाकर पेड़ों के नीचे की ज़मीन साफ करती हैं। सूखे पत्ते और घास हटा दी जाती हैं ताकि फूल साफ ज़मीन पर गिरें और आसानी से इकट्ठा किए जा सकें।

नीलू कोर्राम अपने परिवार के साथ पेड़ों की पहचान करती हैं और आसपास की ज़मीन साफ करती हैं। “हम हर साल यह करते हैं, ताकि फूल कीचड़ या पत्तों से खराब न हों,” वह बताती हैं।

लेकिन यह मेहनत सिर्फ फूल बीनने के लिए नहीं होती। ये महिलाएं जंगल की सुरक्षा में भी अहम भूमिका निभाती हैं। गर्मियों में अक्सर सूखे पत्तों के कारण जंगल में आग लग जाती है। “पहले लोग पत्तों को जला देते थे, लेकिन अब हम एक जगह इकट्ठा करके फेंक देते हैं, जिससे आग नहीं लगती,” नीलू कहती हैं।

वह बताती हैं कि कई बार उन्हें रेत से आग बुझानी पड़ी है। “हमने अपने स्वयं-सहायता समूह की मीटिंग में सीखा है कि पत्तों को जलाना नहीं चाहिए। इससे जंगल भी सुरक्षित रहता है और हमें भी फायदा होता है,” वह गर्व से कहती हैं।

उनका काम शांत, सधे हुए तरीक़े से होता है और यह प्रकृति व संस्कृति से गहरे जुड़ा हुआ है। यह दिखाता है कि पारंपरिक तरीके न सिर्फ टिकाऊ होते हैं, बल्कि आज के बदलते मौसम में ज़रूरी भी हैं।

घसनीन कोमरे और नीलू कोर्राम साथ मिलकर महुआ बीनती हैं और फिर बराबर बांट लेती हैं।
घसनीन कोमरे और नीलू कोर्राम साथ मिलकर महुआ बीनती हैं और फिर बराबर बांट लेती हैं। तस्वीर: बलकिशन कौमर्या
कभी-कभी नीलू की छोटी बेटी भी साथ आती है, ताकि यह पुरानी परंपरा सीख सके।
कभी-कभी नीलू की छोटी बेटी भी साथ आती है, ताकि यह पुरानी परंपरा सीख सके।तस्वीर: बलकिशन कौमर्या

पहाड़ियों में खेती, जंगल से जुड़ी ज़िंदगी

लेकिन इन महिलाओं की मेहनत यहीं खत्म नहीं होती। वे सिर्फ जंगल से लाभ नहीं लेतीं, बल्कि उसकी सुरक्षा भी करती हैं। गर्मियों के सूखे महीनों में बस्तर के जंगलों में सूखे पत्तों से आग लगने का खतरा बना रहता है।
“पहले लोग सूखे पत्तों को जला देते थे,” नीलू बताती हैं। “अब हम उन्हें इकट्ठा करके एक जगह रख देते हैं। इससे आग लगने से बचाव होता है।”

उसे वो दिन याद हैं जब कई बार बालू डालकर छोटी-मोटी आग बुझानी पड़ी थी। “सेल्फ हेल्प ग्रुप की बैठकों में हमें बताया गया कि पत्तों को जलाना नहीं चाहिए। इससे जंगल सुरक्षित रहता है—और हमें भी फायदा होता है,” वह गर्व से कहती है।

उनका ये काम भले ही दिखता न हो, लेकिन यह पेड़ों, ज़मीन और एक-दूसरे के लिए उनकी परवाह में जड़ें जमाए हुए है। जो दिखने में एक आम दिनचर्या लगती है, वो दरअसल सदियों पुरानी परंपरा है जो संस्कृति और जंगल दोनों को जीवित रखती है।

जैसे ही सूरज की पहली किरणें महुआ के पेड़ों को छूती हैं, फूल धीरे-धीरे ज़मीन पर गिरने लगते हैं।

कुंती के हाथों में चिपके हैं छोटे-छोटे महुआ के फूल।
कुंती के हाथों में चिपके हैं छोटे-छोटे महुआ के फूल।

एक सांस्कृतिक और पारिस्थितिक रिश्ता

जब तक जंगल ज़िंदा है, तब तक गोंड समाज भी ज़िंदा रहेगा। और वे इसे ऐसे ही बचाते रहेंगे, जैसे पीढ़ियों से करते आ रहे हैं—इस समझ के साथ कि उनका भविष्य पेड़ों, ज़मीन और जंगल की आत्मा पर निर्भर करता है। बस्तर पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में आता है, और वहाँ पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम (PESA) 1996 और वन अधिकार अधिनियम (FRA) 2006 जैसे कानून आदिवासी अधिकारों की सुरक्षा के लिए बने हैं। लेकिन जानकारी और शिक्षा की कमी के चलते आज भी कई लोग वंचित रह जाते हैं। “अगर सरकार हमें सहयोग और जागरूकता दे, तो हम बेहतर ज़िंदगी जी सकते हैं और अपने जंगल को भी बचा सकते हैं,” नीलू कहती हैं। महिलाएं जैसे नील और घासनीन सिर्फ महुआ नहीं बीन रही हैं—वे अपनी पहचान, संस्कृति और टिकाऊ जीवनशैली की कहानियों को जोड़ रही हैं, ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इन्हें जान सकें। नीलू जैसे लोग आज भी मानते हैं कि जंगल ही उनका भविष्य है। वो कहती हैं, “अगर सरकार साथ दे, तो हम और अच्छा जीवन जी सकते हैं और जंगल को भी बचा सकते हैं।” एक ऐसी दुनिया में जहां सबकुछ तेजी से मुनाफे की ओर भाग रहा है, वहां ये परंपरा एक शांत, मजबूत संकेत है—स्थायित्व और समुदाय की समझ का।
महुआ के पेड़ को बचाना केवल एक प्रजाति को बचाना नहीं है, बल्कि जीवन की एक पूरी शैली को बचाना है। यह उन जंगल की परंपराओं को महत्व देने की बात है जो सदियों से चली आ रही हैं और आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं।

जब बाज़ार तय नहीं, आमदनी भी अनिश्चित

महुआ के फूलों की कीमत 50 से 70 रुपये प्रति किलो के बीच रहती है। अच्छे सीजन में वे 20,000–30,000 रुपये कमा सकती हैं। लेकिन कोई तय भाव नहीं होता।

“सरकार की मंडी में एमएसपी है,” नीलू बताती हैं, “पर वहां पेमेंट एक महीने बाद आता है। हम इतना इंतज़ार नहीं कर सकते—घर का खर्च रोज़ का होता है।”

कई बार लोगों को मजबूरी में बिचौलियों को कम दामों में महुआ बेचना पड़ता है।

घसनीन कहती हैं कि महुआ से और भी बहुत कुछ बन सकता है—रोटी, लड्डू, गुलाब जामुन—लेकिन कोई पक्का बाज़ार नहीं है। “हम इतना मेहनत करते हैं, फिर भी आमदनी से खुश नहीं हैं।”

उनकी महुआ बीनने की दिनचर्या न सिर्फ कठिन है, बल्कि जोखिम भरी भी। “हम 6–7 घंटे सिर्फ पीज पीकर जंगल में रहते हैं। हमेशा डर रहता है, जंगली कुत्ते, भालू का।” नीलू कहती हैं।

कुंती बाथेकर, महाराष्ट्र के मेलघाट की, सुबह की नरम सुनहरी रोशनी में महुआ के फूल ध्यान से तोड़ रही हैं।
कुंती बाथेकर, महाराष्ट्र के मेलघाट की, सुबह की नरम सुनहरी रोशनी में महुआ के फूल ध्यान से तोड़ रही हैं। छायाकार: शरत चंद्र प्रसाद

सूखाने की रीत: धैर्य की प्रक्रिया

जैसे ही महुआ के फूल बटोरे जाते हैं, असली काम शुरू होता है। महिलाएं भारी टोकरों में अपने फूल लेकर घर लौटती हैं। फूलों को धूप में सुखाने के लिए कपड़ों पर फैला दिया जाता है। यह प्रक्रिया 10 दिन तक चल सकती है और इस दौरान उन्हें रोज़ाना फूलों को पलटना पड़ता है ताकि वे बराबरी से सूखें।

नीलू फूलों को आंगन में बड़े सलीके से सजाती हैं, जैसे कोई पूजा की चीज़ हो। “अगर अच्छे से नहीं सुखाया तो फूल सड़ जाएंगे,” वह बताती हैं। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे चलती है—हर दिन फूल छोटे होते जाते हैं, और उनकी मिठास बढ़ती जाती है।

यह सुखाने की प्रक्रिया सिर्फ संरक्षित करने की नहीं, बल्कि रूपांतरण की भी है। सूखे महुआ का इस्तेमाल खाने, दवाई और शराब बनाने में होता है। यह स्थानीय अर्थव्यवस्था में भी अहम भूमिका निभाता है—व्यापारी इसे खरीदते हैं, परिवार इसका इस्तेमाल करते हैं, और यह बाज़ारों में बिकता है। इन 10 दिनों की महिलाओं की मेहनत यह सुनिश्चित करती है कि फूल अपनी शुद्धतम अवस्था में संरक्षित रहें—समुदाय के साथ बांटने के लिए तैयार।

महुआ के नरम और खुशबूदार फूलों से भरने लगती हैं — यह मौसम की खास कमाई है।
महुआ के नरम और खुशबूदार फूलों से भरने लगती हैं — यह मौसम की खास कमाई है। तस्वीर: शरद चंद्र प्रसाद

जीवनयापन और बदलाव के बीच संतुलन

नदी, जंगल और बारिश के बावजूद, बस्तर में ज़िंदगी आसान नहीं है। खेती में पर्याप्त आमदनी नहीं होती, और जंगल की उदारता पाने के लिए भी बहुत मेहनत करनी पड़ती है। नीलू कहती हैं, “हम जंगल पर निर्भर हैं, लेकिन हर समय खतरे के बीच चलते हैं। जानवरों का डर है, फिर भी जाना पड़ता है। घर में बैठकर क्या करेंगे?” घसनीन जोड़ती हैं, “इतनी मेहनत के बाद भी बस गुज़ारा हो पाता है। अगर हमें सही दाम मिले और सामान बनाने की ट्रेनिंग मिले, तो हम दलालों के पीछे नहीं भागेंगे।” जैसे-जैसे मौसम बदल रहा है और नई पीढ़ी शहरों की ओर देख रही है, जंगल पर टिकी ज़िंदगी असमंजस में है। ज़रूरत है—न्यायपूर्ण बाज़ार, जल संरक्षण, और स्थानीय रोज़गार की जो प्रकृति से टकराव न करे। तभी यह जीवन गरिमा के साथ आगे बढ़ सकता है, बिना अपनी मिट्टी और परंपरा को छोड़े।

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