भूजल संसाधन
भूजल संसाधन

भूजल संसाधनों का महत्व एवं आंकलन (भाग 1)

मानव द्वारा उत्पादित प्रत्येक वस्तु के निर्माण में जल एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जबकि यह नवीकरणीय है फिर भी इसकी एक निश्चित राशि ही मानव के उपयोग हेतु उपलब्ध है। इस तथ्य से कोई बचा नहीं है कि स्वच्छ और भेद्य जल की आवश्यकता और मांग का विस्तार जारी है एवं जिसके लिए प्रतिस्पर्धा बनी रहती है। 
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परिचय 

किसी भी देश, राज्य एवं क्षेत्र की सम्पन्नता एवं सभ्यता के विकास में जल का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। विकास एवं समृद्धि के पैमाने को निर्धारित करते समय वर्तमान समाज की संभावनाओं एवं आवश्यकताओं पर विचार करना अति आवश्यक है। वर्तमान परिवेश में भूजल का गिरता स्तर एक गंभीर समस्या की चेतावनी दे रहा है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा भूजल उपयोगकर्ता है। यहां सिंचाई के लिए 230 अरब घन मीटर भूजल का प्रतिवर्ष दोहन होता है। आने वाले वर्षों में सिंचित कृषि के विस्तार तथा खाद्य उत्पादन के राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति के लिए भूजल प्रयोग में कई गुणा वृद्धि होने की संभावना है। भारत में कुल अनुमानित भूजल 433 अरब घन मीटर पाया गया है। भारत की कुल 143 मिलियन हैक्टेयर कृषि योग्य भूमि का लगभग 55 प्रतिशत भाग वर्षा पर आधारित तथा बारानी खेती के अंतर्गत आता है। 

देश के कुल सिंचित क्षेत्रफल के 60 प्रतिशत से अधिक भू-भाग में सिंचाई के लिए भूजल का ही उपयोग किया जाता है। ऐसे क्षेत्रों में सिंधु-गंगा के मैदान और भारत के उत्तर-पश्चिमी, मध्य और पश्चिमी भाग आते हैं। कुछ क्षेत्रों (पश्चिमी भारत और सिंधु-गंगा के मैदान) में 90 प्रतिशत से अधिक भाग भूजल द्वारा सिंचित किया जाता है। हालांकि भूजल वार्षिक आधार पर पुनःपूरण योग्य स्रोत है फिर भी स्थान और समय की दृष्टि से इसकी उपलब्धता असमान है। इसलिए भूजल संसाधन के विकास की योजना तैयार करने के लिए भूजल संसाधन और सिंचाई क्षमता का सटीक आंकलन करना अति आवश्यक है।

भारत के अधिकांश भागों में भूजल का अत्यधिक दोहन होना एक प्रमुख पर्यावरणीय चुनौती है। भूजल के अंधाधुंध दोहन से भूमिगत जल स्तर में तेजी से आ रही गिरावट के साथ-साथ कार्बन उत्सर्जन में भी वृद्धि हो रही है। भारत में पेयजल एवं सिंचाई हेतु जल प्रबंधन एक चुनौती बनता जा रहा है। भारत में वार्षिक औसत वर्षा 1160 मिमी होने के बावजूद भी देश का एक बहुत बड़ा भू-भाग सूखा ग्रस्त है एवं वर्षा पर निर्भर है। देश में 80 से 85 प्रतिशत पेयजल की आपूर्ति भूजल से होती है। पिछले कई दशकों से कृषि उद्योगों, विकास कार्यों एवं अन्य उपयोगों में भूजल पर निर्भरता बढ़ी है। भूजल के उचित प्रबन्धन एवं भूजल पुनर्भरण क्षमता की योजना एवं कार्यान्वयन हेतु सतही जल की क्षमता के आंकलन के साथ-साथ भूजल संसाधनों का आंकलन भी अति आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है।

भूजल के आंकलन के अंतर्गत जलभृतों का चयन, जलभृत का प्रकार, भूजल निकासी अध्ययन, भूजल मानचित्रण, जल की उपलब्ध मात्रा एवं गुणवत्ता का आंकलन किया जाता है। भारत में जलभृत की स्पष्ट जानकारी होने पर ही स्थानीय स्तर पर उनका प्रबंधन एवं नियमन हो सकता है। 

मानव द्वारा उत्पादित प्रत्येक वस्तु के निर्माण में जल एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जबकि यह नवीकरणीय है, फिर भी इसकी एक निश्चित राशि ही मानव के उपयोग हेतु उपलब्ध है। इस तथ्य से कोई बचा नहीं है कि स्वच्छ और भेद्य जल की आवश्यकता और मांग का विस्तार जारी है एवं जिसके लिए प्रतिस्पर्धा बनी रहती है। जलवायु में परिवर्तन भविष्य में जलीय घटनाओं और जल की मांग के संपूर्ण संभाव्यता वितरण के आकार को बदल सकते हैं। जलीय चक्र में परिवर्तन एवं जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप भूमि उपयोग एवं भविष्य में जल के उपयोग का प्रारूप परिवर्तित हो जाएगा। 

जलवायु परिवर्तन के अतिरिक्त, कृषि के लिए जल की मांग तकनीकी विकास, शहरीकरण तथा मानवीय प्रतिक्रियाओं से प्रभावित होगी। तृतीय संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रिपोर्ट "संयुक्त राष्ट्र विश्व जल मूल्यांकन कार्यक्रम, 2009" यह चेतावनी देती है कि जल के वर्तमान असमान एवं असतत उपयोग के अत्यंत गंभीर परिणाम हो सकते हैं। भौतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं तथा प्रवृत्तियों, भविष्य के संभावित परिवर्तनों, प्रौद्योगिकियों और प्रबंधन विकल्पों के बारे में मानव की बेहतर समझ, एवं तंत्र के रूप में उन्हें मॉडल करने की क्षमता, ऐसे समाधान खोजने में सहायक तथा प्रभावी सिद्ध हो सकते हैं और जल की उपलब्धता के लिए भविष्य की संभावित अवस्थाओं की एक विस्तृत श्रृंखला में अनुकूलनीय सिद्ध हो सकते हैं। 

खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) तथा विश्व जल परिषद ने यह निष्कर्ष निकाला है कि, उचित निवेश और नीतिगत हस्तक्षेप से वर्ष 2050 तक 9-10 बिलियन की वैश्विक आबादी के लिए खाद्य उत्पादन करना संभव होगा, हालांकि कई देशों में खाद्य और पोषण संबंधी असुरक्षा बनी रहेगी। 

भारत में अपने जल संसाधनों का प्रबंधन करने के लिए प्रभावी ज्ञान, प्रौद्योगिकी और आर्थिक संसाधन उपलब्ध हैं। बढ़ती आबादी के लिए पर्याप्त जल एवं अन्य वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन और वितरण भविष्य में भी हो सके इसके लिए 'प्रति बूंद अधिक फसल', 'प्रति बूंद अधिक रोजगार', 'बेहतर पर्यावरण प्रति बूंद', और 'प्रति बूंद बेहतर पोषण' प्राप्त करना आवश्यक है। 

भारत सरकार द्वारा अपनाई गई 'राष्ट्रीय जल नीति' विकास योजना जल को सबसे महत्वपूर्ण तत्वों में से एक मानती है। यह राष्ट्रीय जल नीति देश में भूजल संसाधनों की मात्रा और गुणवत्ता पुनर्भरण की जानकारी के लिए जलभृतों मानचित्रण एवं अति-शोषित क्षेत्रों में भूजल स्तर को गिरने से रोकने की आवश्यकता पर बल देती है। 

एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन (IWRM) इस जल नीति के कार्यान्वयन की एक ऐसी तकनीक है, जो जल, भूमि और संबंधित संसाधनों के समन्वित विकास और प्रबंधन को बढ़ावा देती है, जिससे महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता से समझौता किए बिना ही न्यायसंगत तकनीक से आर्थिक और सामाजिक कल्याण को अधिकतम किया जा सके। वैश्विक जल भागीदारी द्वारा स्थानिक एवं कालिक दोनों अवस्थाओं में वर्षा के असमान वितरण के परिणामस्वरूप सतही जल संसाधनों का असमान वितरण पाया जाता है। इसके अतिरिक्त, केवल सतही जल का सिंचाई हेतु उपयोग किये जाने से भूजल स्तर में अत्यधिक वृद्धि हो सकती है, जिससे जलग्रसनता और लवणता की समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं, जिसका फसल की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है एवं भू-भाग अनुत्पादक हो सकते हैं। इसके परिणामस्वरूप सतही और भूजल संसाधनों के संयुग्मी उपयोग पद्धति का विकास हुआ है जो ऊर्ध्वाधर जल निकासी में सहायता करती है और इस प्रकार जलग्रसनता और लवणता की समस्या को दूर करती है। जलभृतों से पुनर्भरण मात्रा से अधिक जल की निकासी के परिणामस्वरूप जल स्तर का नियमित रूप से ह्रास हो सकता है। 

कार्य प्रणाली 

भूजल संसाधन 2015 (GEC-15) आंकलन समिति, द्वारा अनुशंसित संशोधित कार्यप्रणाली के अनुसार जलभृत में भूजल संसाधन मूल्यांकन की संस्तुति की गई है। GEC-15 ने एक जलभृत-वार भूजल संसाधन मूल्यांकन को शामिल किया है जिसके लिए पार्श्व के साथ-साथ ऊर्ध्वाधर सीमा और विभिन्न जलभृतों के सीमांकन की आवश्यकता होती है। सॉफ्ट रॉक क्षेत्रों में, जब तक इसके मानचित्रण के माध्यम से जलदायक ज्यामिति को सुदृढ़ता से स्थापित नहीं किया जाता है, तब तक भूजल संसाधनों का आंकलन 300 मीटर की गहराई तक किया जा सकता है। यह अपरिष्कृत और सीमित जलभृतों के लिए पुनःपूरण एवं भंडारण योग्य भूजल संसाधनों के आंकलन की संस्तुति करता है। 

वर्षा रिसाव घटक, विशिष्ट उपज, नहरों के द्वारा पुनर्भरण और सिंचाई से पुनर्भरण के मानदंडों को परिष्कृत किया गया है। यह भी बताया गया है कि मात्र भूजल स्तर की प्रवृत्तियों को ही वर्गीकरण के मानदंडों के रूप में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए बल्कि उन्हें अनुमान के सत्यापन के लिए उपयोग किया जाना चाहिए। भूजल संतुलन समीकरण के विभिन्न अंतर्वाह/बहिर्वाह घटकों के आंकलन के लिए GEC मानदंडों का उल्लेख उपयुक्त स्थानों पर किया गया है, साथ ही उपयोग में आने वाली अन्य पद्धतियों सूत्रों का भी उल्लेख किया गया है। 

GEC-15, संसाधनों का मूल्यांकन प्रत्येक तीन वर्षों में एक बार किए जाने की अनुशंसा करता है। भूजल प्रबंधन कार्यक्रमों की योजना बनाने में स्थानीय प्रशासन की सुविधा के लिए जलविभाजक को एक इकाई के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। 

बंधनमुक्त जलभृत का भूजल आंकलन 

GEC-15 के अनुसार भूजल के आंकलन में गतिशील और भंडारित भूजल संसाधनों का आंकलन शामिल है। विकास योजना मुख्य रूप से गतिशील संसाधनों पर ही निर्भर होनी चाहिए क्योंकि यह प्रतिवर्ष पुनः-पूरित हो जाता है। स्थिर या इन-स्टोरेज संसाधनों में परिवर्तन भूजल खनन के प्रभावों को दर्शाता है। ऐसे संसाधनों की वार्षिक रूप से पुनः पूर्ति नहीं की जा सकती है और अधिक वर्षा वाले आगामी वर्ष में उचित पुनर्भरण योजना के साथ केवल आवश्यकताओं के दौरान ही भूजल उपयोग की अनुमति दी जा सकती है।

प्रस्तुत आलेख दो भागों में है

सपंर्क करेंः गोपाल कृष्ण एवं अंजु चौधरी राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की

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