जल से जीविका चलाने वाले इन समुदायों के लिए जातिगत जनगणना हो सकती है वरदान
तीन तरफ समुद्र से घिरे प्रायद्वीपीय देश भारत की तट रेखा साढ़े सात हजार किलोमीटर से भी ज्यादा लंबी है और भारत भूमि पर गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, नर्मदा, कृष्णा, कावेरी जैसी दर्जनों नदियां बहती हैं। नदियों, झीलों, समुद्रों और तालाबों आदि के रूप में एक अत्यंत विशाल जलराशि उपलब्ध होने का ही नतीजा है कि हमारे देश में करोड़ों लोगों की जीविका जल से चलती है। इसके बावजूद विडंबना यह है कि पानी से परिवार पाल रहे इन समुदायों को अकसर न तो सही ढंग से सरकारी योजनाओं का लाभ मिल पाता है और न ही उन्हें उनके पारंपरिक जल संसाधनों पर 'आजीविका का अधिकार' मिला है। इसका एक बड़ा कारण नीति निर्माण में इन समुदायों का हाशिये पर रह जाना है। ऐसे में देश में जातिगत जनगणना कराए जाने से एक उम्मीद जगी है कि ये समुदाय अब हाशिये पर नहीं रहेंगे, बल्कि आबादी के सरकारी रिकॉर्ड में इन समुदायों को ‘दिखाई देने’ और ‘गिने जाने' का लाभ इन्हें सरकारी नीतियों और योजनाओं में उचित हिस्सेदारी के रूप में मिल सकेगा।
पानी से ही पल रहे लाखों-लाख परिवार
भारत में जल से आजीविका चलाने वाले समुदायों में मल्लाह, केवट, निषाद, धीवरी, नोलिया, मेइनवर, धोबी, डोम, मतुआ जैसे दर्जनों जातीय समूह शामिल हैं। ये समुदाय सदियों से नदियों में नौकायन, मछली पालन, कपड़े धोने, शहद संग्रह, समुद्री व्यापार और घाट सेवा जैसी गतिविधियों में संलग्न रहे हैं। इनके अलावा कमल, सिंघाड़े और मखाने जैसी जलीय फसलों की खेती करने वाले किसान व कृषि मजदूर भी जल से अर्थोपार्जन करने वाली बिरादरी में आते हैं। इतनी विशाल संख्या के बावजूद सरकारी जल योजनाएं और विकास परियोजनाएं जैसे रिवरफ्रंट डेवलपमेंट, डैम निर्माण, पोर्ट प्रोजेक्ट्स या पर्यावरणीय क्लियरेंस अकसर इन्हें लाभान्वित करने के बजाय विस्थापन और आजीविका विघटन का दंश दे जाती हैं। चूंकि एससी, एसटी, ओबीसी की तरह इनकी कोई अलग सांख्यिकीय पहचान नहीं होती, लिहाज़ा ये समुदाय नीतियों और योजनाओं से ‘अछूते’ ही रह जाते हैं। इनकी यह उपेक्षपूर्ण स्थिति जातिगत जनगणना के ज़रिए बदली जा सकती है।
नीतियों व योजनाओं में क्यों जरूरी हैं जातिगत आंकड़े?
वर्तमान में जल संसाधनों पर अधिकार के लिए बनने वाली सरकारी नीतियां और योजनाएं जैसे जल जीवन मिशन, इनलैंड फिशरीज स्कीम, या क्लाइमेट रेजिलिएंट रीहैबिलिटेशन प्लान आदि में जाति आधारित डेटा के अभाव में केवल भौगोलिक या वर्गीय दृष्टिकोण अपनाया जाता है। यही अधूरा नज़रिया ‘जल समुदायों’ की समस्याओं को अनदेखा कर देता है। अगर हम यह जान लें कि किस जाति या समुदाय की पानी तक पहुंच कम है, कौन-से समूह पानी से जीवन-यापन कर रहे हैं और जलीय या जलवायु आपदाओं का किन लोगों पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ रहा है, किन लोगों की आजीविका छिन रही है, तो योजनाएं लक्ष्य आधारित और न्यायपूर्ण बन सकती हैं। जातिगत जनगणना इन्ह सवालों का बारीकी से जवाब दे सकती है। कुछ केस स्टडीज के जरिये इस बात को समझा जा सकता है कि हमारे देश के विभिन्न हिस्सों में कौन-कौन से समुदाय अपनी रोजी-रोटी के लिए पूरी तरह जल संसाधनों पर निर्भर हैं और उनकी सबसे प्रमुख समस्याएं क्या हैं:
केस स्टडी -1 (बिहार) : इन्फ्रा प्रोजेक्ट्स से बार-बार विस्थापित हुए गंगा के मल्लाह
बिहार के सोनपुर (सारण जिला) में गंगा, गंडक और बूढ़ी गंडक नदियों के संगम पर सदियों से मल्लाह समुदाय निवास करता है, जिनकी आजीविका मुख्यतः नाव चलाने, मछली पकड़ने और घाट सेवा से जुड़ी है। हाल के वर्षों में पुल निर्माण, बाढ़ नियंत्रण तटबंधों और अन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स ने इन समुदायों को बार-बार विस्थापित किया है। जमीन पर अधिकार के अभाव और सामाजिक-आर्थिक जनगणना में इनकी सही पहचान न होने के कारण इन्हें ‘अवैध कब्जेदार’ या ‘अतिक्रमणकारी’ मान लिया जाता है, जिससे ये सरकारी पुनर्वास या राहत योजनाओं से बाहर रह जाते हैं। यदि जातिगत जनगणना में मल्लाहों की वास्तविक संख्या और उनकी निर्भरता जल संसाधनों पर होने की बात दर्ज हो, तो उनके लिए रिवरफ्रंट डेवलपमेंट, नाविक प्रशिक्षण, मत्स्य पालन सब्सिडी और स्थायी घाट पुनर्निर्माण जैसी योजनाएं बन सकती हैं, जो इनके लिए ‘जल न्याय’ की दिशा में एक व्यावहारिक कदम होगा।
केस स्टडी -2 (ओडिशा) : ‘इको-सेंसिटिव जोन’ से चिल्का झील के मछुआरों पर रोजी का संकट
ओडिशा की चिल्का झील एशिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झील भी है। इसके आसपास के इलाकों में नोलिया, जयसवाल और केवट समुदायों के लिए यह झील ही सदियों से आजीविका का मुख्य स्रोत रही है। अनुमानतः करीब दो लाख लोग मछली पकड़ने से लेकर अन्य जलीय गतिविधियों के जरिये प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस झील पर निर्भर हैं। यहां पर्यावरणीय पर्यटन को बढ़ावा देने से पर्यटन उद्योग को तो लाभ हुआ है, पर झील को ‘इको-सेंसिटिव जोन’ घोषित करने और कॉरपोरेट हस्तक्षेप की वजह से पारंपरिक मछुआरों के अधिकार सीमित हो गए हैं। सरकार द्वारा जल क्षेत्र की लीजें (पट्टा) अकसर बाहरी संस्थाओं को दे दी जाती हैं और स्थानीय समुदाय नीति-निर्माण से बाहर रह जाते हैं। यदि जातिगत जनगणना में इन समुदायों की स्पष्ट उपस्थिति और सामाजिक-आर्थिक स्थिति दर्ज हो, तो सामुदायिक जल अधिकार, मछली पालन के लिए इन्हें स्थायी पट्टे देने और पारंपरिक मछुआरों की भागीदारी सुनिश्चित करने वाली योजनाएं लागू की जा सकती हैं।
केस स्टडी -3 (पश्चिम बंगाल) : सुंदरबन के दलित 'मछुआरा' समुदाय पर तूफानों की मार
पश्चिम बंगाल के सुंदरबन डेल्टा क्षेत्र में रहने वाले मतुआ, नमशूद्र और मल्लाह जैसे दलित समुदाय छोटी नावों से मछली पकड़ते हैं और मैंग्रोव जंगलों में लगे छत्तों से शहद निकालते हैं। कई पीढि़यों से यही उनका पारंपरिक पेशा है। यह इलाका जलवायु परिवर्तन से अत्यधिक प्रभावित क्षेत्रों में आता है। इसके अलावा 2020 और 2021 में आए चक्रवात 'अम्फान' और 'यास' जैसे तूफानों की मार भी इनके ने हजारों परिवारों पर पड़ती है, क्योंकि तूफान में इनकी की नौकाएँ, जाल और घर तबाह हो जाते हैं। इसके बजाय सरकारी राहत योजनाओं में इनकी भागीदारी न के बराबर ही रही है। चूंकि जातिगत रूप से मछुआरा दलित समुदायों का अलग से कोई सामाजिक-आर्थिक रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है, इसलिए इन्हें नीति-निर्माण में ‘जलवायु-संवेदनशील समूह’ के रूप में पहचान नहीं मिल पाई। जातिगत जनगणना होने पर इन समुदायों को पुनर्वास, नाव बीमा, पारंपरिक रोजगार को जलवायु परिवर्तन के अनुरूप ढालने जैसे उपायों से जोड़ा जा सकेगा।
केस स्टडी - 4 (असम) : ब्रह्मपुत्र की बाढ़ से तहस-नहस होती मछुआरा जातियों की आजीविका
असम में ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों पर निर्भर बड़ी संख्या में मछुआरा समुदाय निवास करता है। इनमें 'कौलिता', 'पलनिया', 'धीवरी' और 'माला' जैसी जातियां प्रमुख हैं। इनमें से ज्यादातर आर्थिक रूप से कमजोर हैं और उनकी आजीविका पूरी तरह नदी पर आधारित है। हर साल ब्रह्मपुत्र की बाढ़ इनके जीवन को तहस-नहस कर देती है। लेकिन राहत और पुनर्वास योजनाएं अक्सर ज़मीन मालिक किसानों को ही मिलती हैं, जबकि जल आधारित रोजगार करने वाले इन समुदायों को सरकारी आंकड़ों में उचित प्रतिनिधित्व न होने के कारण प्राथमिकता नहीं दी जाती। यदि जातिगत जनगणना में इन समुदायों को स्पष्ट रूप से दर्ज किया जाए, तो बाढ़-संवेदनशील आजीविका वाले लोगों के लिए अलग से आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा योजनाएं बन सकती हैं, जिससे 'जल न्याय' की अवधारणा ग्रामीण पूर्वोत्तर तक पहुंच सकेगी।
केस स्टडी - 5 (महाराष्ट्र) : खारे पानी के तालाबों के मछली पालकों की रोजी पर 'कब्जा’
महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र, विशेषकर रत्नागिरी और सिंधुदुर्ग जिलों में खारे पानी के तालाबों (नाले) पर मछली पालन करने वाले 'बंडीकर', 'डोम', और अन्य ओबीसी समुदायों की आजीविका इन जलाशयों पर निर्भर रही है। बीते कुछ वर्षों में उद्योगों, फार्म हाउस और रिसॉर्ट्स के बढ़ते निर्माण ने इन पारंपरिक जलाशयों पर कब्ज़ा करना या सरकारी महकमों से साठगांठ कर इन्हें हथियाना शुरू कर दिया है। चूंकि इन समुदायों की भूमि पर स्वामित्व नहीं और जातिगत-आधारित आर्थिक स्थिति की ठोस जानकारी सरकार के पास नहीं है, इसलिए वे न्यायिक या प्रशासनिक लड़ाइयों में पिछड़ जाते हैं। जातिगत जनगणना से यह स्पष्ट हो सकता है कि कितने समुदाय खारे पानी के स्रोतों पर आश्रित हैं। इससे नीति-निर्माण में 'पारंपरिक जल उपयोगकर्ताओं' को कानूनी मान्यता मिल सकती है और इनके कल्याण के लिए योजनाएं भी बन सकती हैं।
केस स्टडी - 6 (तमिलनाडु) : कोस्टल फिशर कम्युनिटी के समुद्री ज्ञान की कोई क़द्र नहीं
तमिलनाडु के तटीय जिलों जैसे नागापट्टिनम, तूतीकोरिन और चेन्नई में पारंपरिक मछुआरे जातियां जैसे 'परवा', 'वालार', 'मेइनवर' आदि पीढ़ियों से समुद्र में मछली पकड़ने और नाव निर्माण में लगी हैं। आधुनिक ट्रॉलर, पोर्ट विस्तार परियोजनाएं और समुद्री कानूनों की जटिलता ने इनकी आर्थिक सुरक्षा पर गहरा असर डाला है। इन समुदायों का पारंपरिक ज्ञान, जैसे कि मौसम पूर्वानुमान लगाना, मछलियों के प्रजनन के समय और दशाओं की जानकारी, समुद्री धाराओं का विश्लेषण आज भी वैज्ञानिक रूप से महत्वपूर्ण है, लेकिन नीति-निर्माण में इन्हें न तो वैज्ञानिक सहयोगी माना जाता है, न ही आजीविका से जुड़ी नीतियों में इनपर कोई फोकस होता है। यदि जातिगत जनगणना में इनकी संख्या, सामाजिक स्थिति और समुद्री निर्भरता को स्पष्टता से दर्ज किया जाए, तो ये समुदाय ‘कोस्टल इकोलॉजिकल गार्जियन’ यानी तटीय इको सिस्टम के रखवाले के रूप में ये विशेष दर्जा पा सकते हैं, जिससे इनके लिए जल न्याय को नया आयाम मिलेगा।