बदलती बारिश, डूबती दिल्ली: क्या कारगर साबित होगा नया मास्टर प्लान?
जलभराव और बाढ़ की समस्या भारत के लगभग हर महानगर की तरह, देश की राजधानी दिल्ली की भी हकीकत है। ज़रा सी बारिश हुई नहीं कि दिल्ली-एनसीआर के लोगों को जलभराव, बाढ़ और इससे होने वाली असुविधाओं से दो-चार होना पड़ता है। तेज़ी से हो रहे अनियोजित शहरीकरण ने शहर की पारंपरिक व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है।
जहां एक ओर भूजल का स्तर कम हो रहा है, वहीं दूसरी ओर जल-निकासी की समस्या का आकार भी बढ़ता जा रहा है। जल-निकासी और जल भराव से निपटने के लिए 50 वर्षों बाद, सरकार ने आईआईटी दिल्ली की मदद से शहर के लिए एक नया ड्रेनेज मास्टर प्लान तैयार किया है।
जल-निकासी की मौजूदा व्यवस्था
दिल्ली की मौजूदा जल-निकासी व्यवस्था (ड्रेनेज सिस्टम) साल 1976 की जल निकासी योजना पर आधारित है और शहर की बदलती भौगोलिकी रूपरेखा और बढ़ती आबादी के साथ तालमेल बिठा पाने में पिछड़ती नज़र आ रही है। करीब 18,958 किलोमीटर लंबे नेटवर्क वाला यह ड्रेनेज सिस्टम अधिकतम 50 मिमी प्रति घंटे की बारिश के पानी का भार ही ढो सकती है। इससे अधिक बारिश की स्थिति में सड़कों और नालों का ओवरफ्लो होना तय है।
यही कारण है कि तमाम कोशिशों के बावजूद भी पिछले कुछ सालों से थोड़ी सी भी तेज़ बारिश होने पर दिल्ली की सड़कें, गलियां और पार्क जैसी जगहें पानी से लबालब भर जाती हैं। इतना ही नहीं, कालकाजी, पालम आदि जैसे कई रिहायशी इलाक़ों में तो पानी इतना बढ़ जाता है कि लोगों के घरों के भीतर तक चला जाता है।
इसकी एक वजह दिल्ली में बढ़ती बारिश भी है। पिछले कुछ सालों से दिल्ली में 500 मिमी से कम बारिश हुई ही नहीं है। कई अध्ययनों में कहा जा रहा है कि दिल्ली शहर की वार्षिक वर्षा 1,000 मिमी का आंकड़ा पार कर चुकी है और अभी इसके और बढ़ने की संभावना है। इतनी बारिश की स्थिति में अपनी कम क्षमता के कारण मौजूदा ड्रेनेज सिस्टम लगभग ठप पड़ जाता है।
दिल्ली के वेटलैंड और ग़ायब हो चुकी प्राकृतिक जल-व्यवस्था
आंकड़ों के अनुसार, दिल्ली में कभी एक हज़ार से ज़्यादा आर्द्रभूमियां (वेटलैंड) थीं, जो शहर की प्राकृतिक जल-निकासी और वर्षा जल संतुलन की रीढ़ मानी जाती थीं। लेकिन आज इनमें से केवल 600 वेटलैंड की ही पहचान की जा सकी है।
दिल्ली राज्य आर्द्रभूमि प्राधिकरण (DSWA) की रिपोर्ट बताती है कि राजधानी के कुल वेटलैंड में से केवल 18 जल निकाय ही संरक्षित हैं। उनमें से भी सिर्फ़ 5 को ही महत्वपूर्ण माना गया है। लगभग 539 आद्रभूमियां या तो पूरी तरह विलुप्त हो गई हैं, या उन पर किसी न किसी प्रकार का निर्माण और अतिक्रमण हो चुका है।
वहीं, वेटलैंड इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली की 2009 की जलवायु कार्य योजना में कुल 621 वेटलैंड का ज़िक्र किया गया है। इनमें से अधिकांश या तो सूख चुके हैं या उनकी हालत इतनी बदतर हो चुकी है कि अब उनकी पारिस्थितिकी को फिर से बहाल कर पाना लगभग असंभव हो गया है।
इन वेटलैंड के बर्बाद होने के कुछ प्रमुख कारण हैं:
विकास के नाम पर इन पर होने वाले वैध और अवैध दोनों तरह के निर्माण और अतिक्रमण
कचरे का जमा होना
जमा कचरे और अनदेखी के कारण इनके सभी किनारों का मुख्य भूमि से कट जाना।
जल निकासी व्यवस्था बिगड़ने के अन्य कारण
कचरा प्रबंधन और प्लास्टिक प्रदूषण
शहर की जल निकासी व्यवस्था बिगड़ने का एक मुख्य कारण अव्यवस्थित कचरा प्रबंधन और प्लास्टिक का अंधाधुंध उपयोग है। रोज़मर्रा में इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक थैलियां कूड़े के साथ नालों और नालियों में चली जाती हैं, जो जल निकासी के रास्ते को जाम कर देती हैं। नतीजतन, कारगर नालों और जल-निकासी के दूसरे माध्यमों से भी पानी निकल नहीं पाता और सड़कों, गलियों में जमा हो जाता है।
मैनहोल और नालों की अनियमित सफ़ाई
मैनहोल और नालों की सफ़ाई में अनियमितता और उपेक्षा भी एक बड़ा कारण है। दिल्ली की जल निकासी और सीवेज प्रबंधन के काम के लिए कई एजेंसियां ज़िम्मेदार हैं। इनमें, दिल्ली नगर निगम (एमसीडी), नई दिल्ली नगरपालिका परिषद (एनडीएमसी), लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी), दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी), दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) और सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण विभाग वगैरह शामिल हैं।
लेकिन इनके बीच अधिकार क्षेत्रों की अस्पष्ट सीमाएं और आपसी तालमेल की कमी अकसर स्थिति को अराजक बना देती है। नतीजतन, शहर के नालों और सीवरों की नियमित सफ़ाई नहीं हो पाती और बारिश के दौरान जलभराव की समस्या गहराती जाती है।
सीवेज और वर्षा जल का एक दूसरे से मिलना
कई इलाकों में सीवेज और वर्षा जल का एक-दूसरे में मिल जाना स्थिति की गंभीरता को बढ़ा देता है। अपर्याप्त इन्फ्रास्ट्रक्चर और पुराने नेटवर्क के कारण भारी बारिश के समय सीवेज का गंदा पानी नालियों से बाहर आ जाता है, जिससे स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों पर असर पड़ता है।
दिल्ली में केवल 55 प्रतिशत घर ही उचित सीवरेज नेटवर्क से जुड़े हैं, जबकि शेष 45 प्रतिशत से निकला गंदा पानी सीधे यमुना नदी में चला जाता है। इन 45 प्रतिशत क्षेत्रों में अवैध कॉलोनियां, झुग्गी-बस्तियां (JJ कॉलोनियां), पुनर्वास कॉलोनियां और अनधिकृत नियमित कॉलोनियां शामिल हैं।
फुटपाथ और साइड ड्रेनेज की बदहाल स्थिति
दिल्ली के कुछ इलाकों, जैसे द्वारका, जहांगीरपुरी, रोहिणी और करोल बाग आदि में फुटपाथ और साइड ड्रेनेज सिस्टम जर्जर हालत में हैं। इनकी क्षतिग्रस्त संरचना के कारण शहर का कचरा उड़कर या बारिश के पानी के साथ बहकर ड्रेनेज चैनलों में पहुंच जाता है, जिससे जल निकासी बाधित हो जाता है। इससे न केवल सड़कें जलमग्न होती हैं बल्कि आसपास के इलाकों में बदबू, मच्छर और प्रदूषण की समस्या भी बढ़ती है।
मानसून से पहले की तैयारियां
दिल्ली में मानसून की दस्तक से लगभग छह महीने पहले ही सरकार और विभिन्न एजेंसियां, जैसे दिल्ली सरकार, डीडीए, पीडब्ल्यूडी और नगर निगम जलभराव की समस्या से निपटने के उपायों पर काम शुरू कर देती हैं। इन तैयारियों में मुख्य रूप से शामिल हैं:
जलभराव संभावित क्षेत्रों की पहचान करना
वहां ऑटोमेटिक पंप लगाना
स्टॉर्मवॉटर की निकासी के लिए अलग ड्रेनेज पाइपलाइन का निर्माण
अधिक क्षमता वाले हौद (संप) बनाना
कच्ची सड़कों की मरम्मत
मौजूदा नालियों की गाद और ठोस कचरे से सफ़ाई।
इन सभी उपायों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होता है कि मानसून के दौरान पानी का बहाव अवरुद्ध न हो और नालियों की जल-निकासी क्षमता बनी रहे। लेकिन समुचित योजना और प्रयास के बिना ये तैयारियां अकसर अधूरी रह जाती हैं।
नालों की सफ़ाई और गाद निकालने की कवायद
इस साल मई महीने में मानसून से पहले दिल्ली के 27 प्रमुख नालों की सफ़ाई की गई। इनसे लगभग 14 टन गाद निकाली गई, जबकि नगर निगम के नालों से 9 टन गाद हटाई गई। हालांकि, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (DPCC) की रिपोर्ट में पाया गया कि इनमें से 5 नालियां प्रदूषण-रोधी मानकों पर खरी नहीं उतरीं। बारिश के बाद भी शहर के कई हिस्सों में जलभराव की स्थिति बनी रही, जिससे साफ़-सफ़ाई और तैयारियों की पोल खुलती नज़र आई।
भले ही सफ़ाई के बाद कई प्रमुख नालों में अपशिष्ट जल का भार कुछ हद तक कम हुआ, लेकिन बाढ़ का पानी उतरने के बाद, कई नालों से अब भी प्रदूषित पानी सीधे यमुना नदी में पहुंच रहा है। इससे न केवल यमुना की पारिस्थितिकी को नुकसान हो रहा है बल्कि सरकार के यमुना सफ़ाई अभियान की प्रभावशीलता पर भी सवाल उठ रहे हैं।
नालों में बढ़ता प्रदूषण
दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति की रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि पार्श्वनाथ ट्रॉपिकाना और मज्जिन रोड जैसे इलाकों के नाले जैव रासायनिक ऑक्सीजन मांग (BOD) और टोटल सस्पेंडेड सॉलिडस (TSS) के मानकों पर खरे नहीं उतरे। ये नाले मूल रूप से स्टॉर्मवॉटर निकासी के लिए बनाए गए थे, लेकिन अब इनके माध्यम से दूषित जल यमुना में जा रहा है।
ऐसे दूषित जल में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है, जो पानी में मौजूद ऑक्सीजन को सोख लेते हैं और नतीजतन, ठोस कचरे का जमाव बढ़ जाता है। इसके विपरीत, मेटकॉफ़ हाउस और खैबर दर्रा के नाले DPCC की जांच में प्रदूषण मानकों पर खरे पाए गए हैं और इन नालों से बहने वाले पानी में मानकों के अनुसार अपेक्षित मात्रा में BOD और TSS पाया गया है।
नये प्लान में क्या अलग है
अधिक जल-निकासी क्षमता और चरणबद्ध क्रियान्वयन
दिल्ली की मौजूदा जल-निकासी व्यवस्था की औसत क्षमता 20–30 मिमी प्रति घंटे से लेकर अधिकतम 50 मिमी प्रति घंटे तक है। जबकि सितंबर 2025 में घोषित ड्रेनेज मास्टर प्लान 2025 में यह क्षमता बढ़ाकर 70 मिमी प्रति घंटा कर दी गई है।
सरकार ने इसके लिए 57 हज़ार करोड़ रुपये का बजट स्वीकृत किया है और इसे पांच चरणों में लागू किया जाएगा। पहले चरण में जलभराव वाले इलाक़ों को प्राथमिकता दी जाएगी ताकि तत्काल राहत दी जा सके।
तीन प्रमुख बेसिनों में विभाजन
ज़िम्मेदारियों और जवाबदेहियों का विकेंद्रीकरण योजना को लागू करने और उसे सुचारू रूप से चलाने में कारगर साबित होगा। इसलिए नए मास्टर प्लान में दिल्ली को तीन प्रमुख जल-बेसिनों में बांटा गया है - नजफ़गढ़ बेसिन, बारापुला बेसिन और ट्रांस-यमुना बेसिन। इन बेसिनों का निर्धारण भौगोलिक स्थिति, ढाल, और मौजूदा जर्जर इंफ्रास्ट्रक्चर को ध्यान में रखकर किया गया है।
पूरे मास्टर प्लान को इन तीन बेसिनों में बांटने के कई फ़ायदे भी बताए गए हैं, जिनमें बेहतर बाढ़ प्रबंधन, बेहतर जल-गुणवत्ता और भूजल के स्तर में सुधार लाना मुख्य हैं। प्रत्येक बेसिन के लिए अलग मास्टर प्लान तैयार किया गया है और बजट भी उनके आकार और आवश्यकता के अनुसार बांटा गया है। जैसे, 123 ड्रेन वाले नजफ़गढ़ बेसिन के लिए 35 हज़ार करोड़ दिए गये हैं क्योंकि यह सबसे बड़ा बेसिन है। वहीं 44 ड्रेन वाले बारापुला बेसिन को 14 हज़ार करोड़ और 34 ड्रेनों वाले ट्रांस-यमुना बेसिन को 9 हज़ार करोड़ की राशि मिली है।
तकनीकी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण
इस योजना में पहली बार व्यापक रूप से आधुनिक तकनीक और डेटा-आधारित विश्लेषण शामिल किया गया है। मुख्य तकनीकी घटक हैं:
बारिश की मात्रा, आवृति और बारिश वाली जगहों का विश्लेषण - ताकि यह पता लगाया जा सके कि किन क्षेत्रों में पानी जल्दी भर सकता है या कहां जल-निकासी की ज़्यादा ज़रूरत है।
डिजिटल टेरेन मैप (DEM/DTM) का निर्माण - इससे किसी भी इलाके की सतह और पानी के बहाव की दिशा को समझा जा सकेगा।
मिट्टी के प्रकार और भूमि उपयोग का डेटाबेस तैयार करना - ऐसा करने से क्षेत्र विशेष की मिट्टी की प्रकृति के अनुसार पहले से ही जलभराव और बाढ़ रोकने के उपाय किए जा सकेंगे।
स्थलाकृतिक विश्लेषण (Terrain Analysis) - इसका अर्थ है इलाके की ऊंचाई, ढलान, सतह की दिशा, और भौगोलिक बनावट का अध्ययन। इससे, ज़मीन की सतह को समझने और उसके आधार पर बेहतर योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी।
मौजूदा स्टॉर्मवॉटर व्यवस्था की हाइड्रोलॉजिक और हाइड्रोडायनामिक मॉडलिंग
GIS (भौगोलिक सूचना प्रणाली) का उपयोग - जिससे भविष्य की बदलती परिस्थितियों के लिए गतिशील (dynamic) डेटा-आधारित योजना बनाई जा सके।
30 वर्षों की योजना, 5 वर्षों में बड़ा असर
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर इस मास्टर प्लान को चरणबद्ध तरीके से लागू किया गया, तो अगले 30 वर्षों के लिए दिल्ली को जलभराव और बाढ़ जैसी समस्याओं से राहत मिल सकती है। साथ ही, योजना लागू होने के पहले पांच वर्षों में ही जलजमाव की घटनाओं में 50% तक कमी देखी जा सकती है।
विशेषज्ञों की राय: एकीकृत दृष्टिकोण की ज़रूरत
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर तैयार किए गए मसौदे पर अमल करते हुए इस योजना को चरणबद्ध तरीके से लागू किया जाए तो इससे अगले 30 वर्षों तक दिल्ली को जलभराव और बाढ़ जैसी समस्याओं से जूझना नहीं पड़ेगा। इसके अलावा योजना के लागू होने के पांच सालों के भीतर ही शहर में जलजमाव और बाढ़ में 50 प्रतिशत तक कमी आ सकती है।
किसी भी प्रभावी ड्रेनेज मास्टर प्लान में स्टॉर्मवॉटर और सीवरेज नेटवर्क दोनों को साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए। एक अच्छी तरह डिज़ाइन किया गया सड़क कैम्बर (सड़क के दोनों किनारों के ढलान को कैम्बर कहते हैं) बारिश के पानी को नालियों तक पहुंचा सकता है, लेकिन जब तक सीवरेज नेटवर्क ठीक से काम नहीं करेगा, पूरी व्यवस्था कारगर नहीं होगी।”
एस. वेलमुरुगन, वैज्ञानिक, सीएसआईआर–सीआरआरआई
रिपोर्ट में सुझाए गए सुधार और आधुनिक तकनीकें
दिल्ली सरकार के सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण विभाग की रिपोर्ट में कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए गए हैं:
स्टॉर्मवॉटर नालों को आम सीवर लाइनों से अलग रखना और अतिक्रमण से बचाना।
सीवर में रुकावट आने पर उन्हें पंचर करके स्टॉर्म ड्रेन में सीवेज डालने की प्रथा को बंद करना।
ढंकी हुई नालियों से गाद नियमित रूप से निकालना, उसकी मात्रा और आवृत्ति को रिकॉर्ड करना।
सफ़ाई के बाद जिम्मेदार एजेंसी को सर्टिफिकेट देना।
SCADA प्रणाली, रडार सेंसर, और बायो-फ़िल्टर जैसी आधुनिक तकनीकों का उपयोग बढ़ाना ताकि मैनुअल डीसिल्टिंग पर निर्भरता कम की जा सके।
योजना और कार्यान्वन के समय ध्यान में रखी जाने वाली बातें
भौगोलिक और जनसांख्यिक स्थिति
नए ड्रेनेज मास्टर प्लान को सफल और कारगर बनाने के लिए ज़रूरी है कि नीति-निर्माता दिल्ली के भौगोलिक स्वरूप और जनसांख्यिक वास्तविकता को योजना के केंद्र में रखें। तेज़ी से हो रहे शहरीकरण, बढ़ती जनसंख्या घनत्व, और बदलते जलवायु पैटर्न को ध्यान में रखते हुए जल-निकासी की नई प्रणाली को डिज़ाइन किया जाना चाहिए।
जलभराव संभावित क्षेत्रों की पहचान और समाधान
जलभराव वाली जगहों की पहचान कर वहां समुचित ड्रेनेज व्यवस्था विकसित करना आवश्यक है। साथ ही, इन इलाक़ों में जलभराव को रोकने या कम करने के लिए नियमित निगरानी और रख-रखाव सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
सीवेज नेटवर्क की मरम्मत और अलगाव
कई इलाकों में सीवेज पाइपलाइन के अभाव या क्षतिग्रस्त होने के कारण बारिश के पानी और सीवेज के पानी का मिश्रण हो जाता है। यह स्थिति न केवल पर्यावरण को प्रभावित करती है, बल्कि लोगों के स्वास्थ्य के लिए भी ख़तरा पैदा करती है। इन सीवेज नेटवर्क की त्वरित मरम्मत और रख-रखाव ज़रूरी है, ताकि जल निकासी और स्वच्छता दोनों बनी रहें। इसके उचित प्रबंधन से भूजल स्तर में सुधार की संभावना भी बढ़ेगी।
तीनों बेसिनों का एकीकृत नेटवर्क
हालांकि, नज़फ़गढ़, बारापुला और ट्रांस-यमुना बेसिन, तीनों के अपने भौगोलिक और तकनीकी अंतर हैं, फिर भी विशेषज्ञों का मानना है कि इन्हें एकीकृत जल-प्रबंधन नेटवर्क के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। अलग-अलग नेटवर्क रखने के बजाय समग्र शहरव्यापी दृष्टिकोण से जल-निकासी प्रणाली अधिक कुशल बन सकती है।
मौजूदा ड्रेनेज सिस्टम की मरम्मत और रखरखाव
नई योजना लागू करते समय पुराने ड्रेनेज सिस्टम को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। मौजूदा नालों का विश्लेषण, उनकी मरम्मत और रखरखाव नई योजना की प्रभावशीलता को कई गुना बढ़ा सकता है।ऐसा करने से संसाधनों की बचत होगी और दीर्घकालिक स्थायित्व भी सुनिश्चित होगा।
अंतर-विभागीय समन्वय और जवाबदेही
सरकार ने ड्रेनेज प्लान के क्रियान्वन के लिए एक अंतर-विभागीय समन्वय समिति गठित करने की घोषणा की है। इस समिति का उद्देश्य विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी एजेंसियों के बीच जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करना है। ड्रेनेज प्रबंधन में बेहतर समन्वय से ही दीर्घकालिक परिणाम हासिल किए जा सकते हैं।
समय और लागत की चुनौती
पुराने ड्रेनेज सिस्टम को पूरी तरह बदलना एक लंबी और खर्चीली प्रक्रिया है। इसके लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन, तकनीकी दक्षता और निरंतर निगरानी की आवश्यकता होगी। इसलिए योजना को चरणबद्ध तरीके से और प्राथमिकता वाले क्षेत्रों से शुरू करना सबसे उपयुक्त रहेगा।
योजना की कमियां और चिंताएं
हालांकि, विशेषज्ञों ने इस ड्रेनेज सिस्टम को लागू करने की प्रक्रिया को चुनौतीपूर्ण बताया है। उनका मानना है कि अगर इस नई व्यवस्था को जल्दी लागू नहीं किया गया तो आने वाले समय में इसकी चुनौतियां बढ़ेंगी।विशेषज्ञों की इस राय पर नीति-निर्माताओं और सरकार को एक नज़र डालनी चाहिए।
सीमित कवरेज की चिंता
दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के पूर्व प्रधान आयुक्त ए. के. जैन ने कहा है कि योजना में केवल तीन बेसिनों (नजफगढ़, बारापुला, ट्रांस-यमुना) को शामिल किया गया है, जबकि दिल्ली में कुल छह प्रमुख बेसिन हैं।
बाकी बेसिनों को शामिल न करना भविष्य में असंतुलन और जलनिकासी के असमान विकास का कारण बन सकता है।
आर्द्रभूमि (वेटलैंड) को केंद्र में न रखना
डीडीए के ए के जैन ने यह भी सुझाव दिया है कि योजना में वेटलैंड को केंद्रीय तत्व के रूप में जोड़ा जाना चाहिए।
ये प्राकृतिक स्पंज की तरह बारिश का पानी सोखती हैं और बाढ़ नियंत्रण में मदद करती हैं।
कूड़ा प्रबंधन और जाम की समस्या
ड्रेनेज सिस्टम में कचरा और प्लास्टिक फेंकने को रोकने के लिए सख़्त नियमों और निगरानी तंत्र की कमी है।
नालों और पाइपों के जाम होने से प्रणाली की कार्यक्षमता घट सकती है।
जागरूकता बढ़ाए जाने की ज़रूरत
आम नागरिकों में सफ़ाई और जलनिकासी व्यवस्था के प्रति पर्याप्त जागरूकता नहीं है।
लोगों की सक्रिय भागीदारी के बिना कोई भी ड्रेनेज योजना स्थायी रूप से सफल नहीं हो सकती। ऐसे में, निवासियों को योजना और इसमें उनके सहयोग की भूमिका के बारे में जागरूक करना ज़रूरी होगा।
नियम और निगरानी की आवश्यकता
योजना के दीर्घकालिक असर के लिए सख़्त नियम, दंडात्मक प्रावधान, और नियमित निगरानी तंत्र आवश्यक हैं।
नागरिक सहभागिता और प्रशासनिक जवाबदेही, दोनों समान रूप से ज़रूरी हैं।
प्राकृतिक जलमार्गों का पुनर्जीवन आवश्यक
नई तकनीक और बजट के साथ-साथ, शहर के पारंपरिक नालों, आर्द्रभूमियों और प्राकृतिक जलमार्गों को पुनर्जीवित किए बिना योजना अधूरी रहेगी।
पारिस्थितिकी और विकास के बीच संतुलन
विकास योजनाओं में पारिस्थितिकी और नागरिक हितों के बीच संतुलन बनाना ज़रूरी है।
तभी दिल्ली को जलभराव और बाढ़ से स्थायी राहत मिल सकेगी।
नया ड्रेनेज सिस्टम दिल्ली के लिए एक बड़ी उम्मीद लेकर आया है, लेकिन इस उम्मीद को पूरा करने के लिए केवल नई तकनीक और बजट ही काफ़ी नहीं होगा। जब तक शहर अपने प्राकृतिक जलमार्गों, आर्द्रभूमियों और पारंपरिक नालों को पुनर्जीवित नहीं करेगा, साथ ही इस बारे में जनजागरूकता नहीं बढ़ाई जाएगी, तब तक कोई भी मास्टर प्लान अधूरा रहेगा।