ताप विद्युत संयंत्रों से निकलते धुएं में शामिल सल्‍फर डाईऑक्‍साइड व अन्‍य हानिकारक गैसें पर्यावरण और स्‍वास्‍थ्‍य के लिए एक खतरा बन गई हैं।
ताप विद्युत संयंत्रों से निकलते धुएं में शामिल सल्‍फर डाईऑक्‍साइड व अन्‍य हानिकारक गैसें पर्यावरण और स्‍वास्‍थ्‍य के लिए एक खतरा बन गई हैं। स्रोत : एनडीटीवी

ताप विद्युत संयत्रों को क्यों दी जा रही है उत्‍सर्जन मानदंडों में ढील

सरकार ने अधिसूचना जारी कर छह साल के लिए टाली सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और पार्टिकुलेट मैटर के उत्सर्जन मानदंडों के अनुपालन की समय-सीमा। विद्युत संयंत्रों को FGD यूनिट लगाने के लिए मिली 2031 तक की मोहलत।
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भारत सहित सारी दुनिया में ग्रीन एनर्जी और क्‍लीन एनर्जी को बढ़ावा देने की मुहिम चल रही है। इसके तहत घरों में सोलर पैनल लगाने से लेकर सड़कों पर इलेक्ट्रिक वाहन चलाने तक को बढ़ावा दिया जा रहा है। इन सारी कोशिशों के बीच एक कड़वी हकीक़त यह भी है कि आज भी हमारे देश में करीब 73 फीसदी बिजली उत्‍पादन कोयले, डीजल, गैस जैसे जीवाश्‍म ईंधनों से हो रहा है। इनसे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसें न केवल ग्‍लोबल तापमान में वृद्धि कर रही हैं, बल्कि सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) जैसी गैसें हवा को भी प्रदूषित कर रही हैं। 

इस चिंता को बढ़ाने वाली एक खबर पिछले सप्‍ताह सामने आई है। ग्‍लोबल समाचार एजेंसी रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र सरकार ने 11 जुलाई 2025 को एक अधिसूचना जारी करके सल्फर उत्सर्जन मानदंडों के पालन को लेकर थर्मल पावर संयंत्रों को एक बड़ी ढील दे दी है। इस अधिसूचना के ज़रिये भारत सरकार ने हाल ही में कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों के लिए फ्लू गैस डीसल्फराइज़ेशन (FGD) तकनीक अपनाने की समय-सीमा को 2031 तक टाल दिया है। 

साल 2015 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिए कड़े मानदंड लागू किए थे, ताकि सार्वजनिक स्वास्थ्य और वायु गुणवत्ता में सुधार लाया जा सके। इसमें सल्फर डाईऑक्साइड (SO₂) उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिए पुराने प्लांट्स के लिए अधिकतम सीमा 600 mg/Nm³ और 2017 के बाद स्थापित नए प्लांट्स के लिए 100 mg/Nm³ निर्धारित की गई। इस मानक को पूरा करने के लिए FGD यूनिट्स लगाना जरूरी किया गया।

इसी तरह नाइट्रोजन ऑक्साइड (NOx) उत्सर्जन की सीमा नए संयंत्रों के लिए 100 mg/Nm³ तक निर्धारित की गई, जबकि पुराने संयंत्रों के लिए यह 300 mg/Nm³ रखी गई। इसके लिए कम नाइट्रोजन फ्यूल तकनीक या सेलेक्टिव कैटालिटिक रिडक्‍शन (SCR) जैसी तकनीक अपनाने की सलाह दी गई। हालांकि, मानदंडों को लागू करने के साथ ही सरकार ने FGD इकाइयों की स्थापना की समय-सीमा को एक बार फिर से छह साल आगे बढ़ा दिया है।

इससे पहले भी इस मोहलत को 2017 और 2022 में बढ़ाया जा चुका है। यह कदम ऐसे समय में उठाया गया है जब 2015 में निर्धारित किए गए उत्सर्जन मानदंडों के पालन में संयंत्र पहले ही वर्षों से पिछड़ रहे हैं। ऐसे में पर्यावरण और वायु प्रदूषण को लेकर चिंताएं बढ़ गई हैं। 

FGD तकनीक क्या है और क्यों ज़रूरी है?

फ्लू गैस डीसल्फराइजेशन (FGD), कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों से निकलने वाली सल्फर डाइऑक्साइड गैस यानी SO₂ को निष्क्रिय करने के लिए उपयोग की जाने वाली प्रक्रिया है। इस तकनीक में चूना पत्थर या अन्य रासायनिक मिश्रणों का उपयोग करके धुएं से SO₂ को अवशोषित कर लिया जाता है, जिससे यह हानिकारक गैस वातावरण में न जाकर सल्फेट के रूप में ठोस अवशेष में एकत्र हो जाती है। 

FGD प्रणाली में, प्लांट से निकलने वाली गैस को स्क्रबर यूनिट के ज़रिए गुज़ारा जाता है। यूनिट में मौजूद पानी और चूना पत्थर (CaCO₃) का मिश्रण SO₂ के साथ प्रतिक्रिया करके कैल्शियम सल्फाइट (CaSO₃) या कैल्शियम सल्फेट (CaSO₄) में बनाता है। इनके ठोस होने के कारण इन्हें आसानी अलग कर लिया जाता है। इस तरह यह गैस वातावरण में फैलने से पहले ही नियंत्रित हो जाती है। 

अधिकतर  कोयला बिजली संयंत्र FGD न होने के कारण हवा में सल्‍फर डाईऑक्‍साइड व कार्बन के साथ ही भारी मात्रा में PM 2.5 कणों का प्रदूषण भी फैला रहे हैं। जाड़े के मौसम में इसकी समस्‍या और भी बढ़ जाती है। कोहरे और ओस से मिल कर ये कण 'स्‍मॉग' बना लेते हैं, जो भारी होने के कारण हवा की निचली परत में इकट्ठा हो जाता है। इससे यह हानिकारक कण आंखों में चुभन और जलन के साथ ही सांस के ज़रिये शरीर में जाकर स्‍वास्‍थ्‍य समस्‍याएं पैदा करते हैं।  

इनका उत्सर्जन पावर प्‍लांट के आसपास के इलाके से कहीं दूर तक जाकर वायु गुणवत्ता को प्रभावित करता है। FGD की प्रक्रिया वायु प्रदूषण और अम्ल वर्षा (acid rain) जैसी पर्यावरणीय समस्‍या से भी बचाव के लिए जरूरी है।

बीते दो-तीन दशकों में दुनिया भर में सल्‍फर डाईऑक्‍साइड के उत्‍सर्जन में अभूतपूर्व बढ़ोतरी देखने को मिली है। सन् 1750 से 2020 तक के ग्राफ में यह बढ़ोतरी इस प्रकार दिखाई देती है।
बीते दो-तीन दशकों में दुनिया भर में सल्‍फर डाईऑक्‍साइड के उत्‍सर्जन में अभूतपूर्व बढ़ोतरी देखने को मिली है। सन् 1750 से 2020 तक के ग्राफ में यह बढ़ोतरी इस प्रकार दिखाई देती है।स्रोत : विजुअलाइजिंग एनर्जी

सरकार का तर्क: लागत और ऊर्जा सुरक्षा

ताप विद्युत संयंत्रों को FGD यूनिट लगाने के नियमों में ढील देने के पीछे सरकार का तर्क है कि वर्तमान वायु गुणवत्ता स्तरों पर SO₂ से सार्वजनिक स्वास्थ्य को बड़ा खतरा साबित नहीं हुआ है। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का कहना है कि IIT दिल्ली जैसे वैज्ञानिक संस्थानों के अध्ययन की रिपोर्ट से पता चला कि थर्मल प्लांट के पास के शहरों में SO₂ से बनने वाले सल्फेट का पीएम 2.5 (PM2.5) में केवल 0.96% से 5.21% और पीएम 10 (PM10) में 0.57% से 3.67% योगदान है।

पावर प्‍लांट में FGD इकाइयों को स्‍थापित करने की लागत प्रति मेगावॉट ₹5–6 लाख तक हो सकती है। इस हिसाब से पूरे देश में FGD सिस्टम लगाने के लिए लागत 2.54 लाख करोड़ रुपये तक बैठेगी, जो बिजली उत्पादक कंपनियों के लिए काफी भारी निवेश होगा। इससे इन कंपनियों का वित्‍तीय ढांचा चरमरा सकता है।

साथ ही, सरकार और बिजली कंपनियों का तर्क है कि इतने भारी खर्च से बिजली महंगी हो जाएगी, क्‍योंकि यह खर्च उत्‍पादन लागत में जुड़ेगा। इससे उपभोक्ताओं पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा। कोयला आधारित संयंत्र अभी भी भारत की कुल बिजली आपूर्ति का लगभग 73% हिस्सा देते हैं। ऐसे में, इन पर कठोर मानदंड लागू करने से देश में ऊर्जा संकट पैदा होने की आशंका भी जताई जाती है। सरकार का मानना है कि धीरे-धीरे और चरणबद्ध तरीके से ही इन मानकों को अपनाना व्यावहारिक है। इसलिए उसे बार-बार समय सीमा को आगे बढ़ाना पड़ रहा है।

Q

वर्तमान स्थिति: कितने संयंत्रों ने किया पालन?

A

सेंटर पर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्‍लीन एयर (CREA) की नवंबर 2024 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक इस समय देश में 96% ताप विद्युत संयंत्र बिना FGD के चल रहे हैं। इनमें कोयला आधारित संयंत्रों की हिस्‍सेदारी 90% से अधिक है, जिनसे कुल 300 गीगावॉट बिजली का उत्‍पादन, उत्‍सर्जन मानदंडों का पालन किए बिना किया जा रहा है। 

बिजनेस आउटलुक की रिपोर्ट के मुताबिक अगस्‍त 2024 तक देश के 537 ताप विद्युत संयंत्रों में से केवल 39 में FGD यूनिट लगाई गई हैं। नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में FGD समय सीमा की बार-बार देरी और 92% संयंत्रों में FGD के न होने की आलोचना की है। अब तक देश में कुछ चुनिंदा सरकारी और निजी क्षेत्र के संयंत्रों ने ही आंशिक रूप से इस तकनीक को अपनाया है। 

इस ढिलाई भरे रवैये के चलते 2024 तक 10% से भी कम संयंत्रों में FGD इकाइयां स्थापित की जा सकी थीं। इस देरी के प्रमुख कारणों में पूंजीगत लागत, तकनीकी विशेषज्ञता की कमी के साथ-साथ सरकार द्वारा बार-बार उत्‍सर्जन मानकों के पालन की समय-सीमा में ढील दिया जाना शामिल है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों की चेतावनी

सल्फर डाइऑक्साइड गैस के उत्‍सर्जन पर लगाम लगाने में ढिलाई बरतने की सरकार की इस नीति से वैज्ञानिक और स्वास्थ्य विशेषज्ञ सहमत नहीं हैं। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) और सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) जैसी संस्थाओं ने अपनी रिपोर्ट में चेताया है कि सल्फर डाइऑक्साइड का वायुमंडल में अधिक उत्सर्जन श्वसन रोग, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और दिल की बीमारियों के मामलों को बढ़ा सकता है। 

संयुक्‍त राष्‍ट्र के स्‍वास्‍थ्‍य संगठन WHO की रिपोर्ट के अनुसार, भारत पहले ही दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों में शामिल है, और SO₂ जैसी गैसें इस संकट को और गंभीर बना रही हैं। साइंस जर्नल लांसेट प्लानेटरी हेल्थ में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार भारत में हर साल वायु प्रदूषण के कारण लगभग 13 लाख लोगों की असमय मृत्यु होती है, जिनमें एक बड़ा ताप विद्युत संयंत्रों से होने वाले उत्सर्जन का होता है।

सल्‍फर डाईऑक्‍साइड व नाइट्रोजन ऑक्‍साइड जैसी गैसों के उत्‍सर्जन के कारण एसिड रेन यानी अम्‍लीय वर्षा इस प्रकार होती है।
सल्‍फर डाईऑक्‍साइड व नाइट्रोजन ऑक्‍साइड जैसी गैसों के उत्‍सर्जन के कारण एसिड रेन यानी अम्‍लीय वर्षा इस प्रकार होती है। स्रोत : फ्री पिक

SO₂ के कारण ऐसे होती है ऐसिड रेन 

जब कोयला आधारित बिजली संयंत्र या अन्य औद्योगिक स्रोतों से सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) गैस वातावरण में निकलती है, तो यह सीधे वातावरण को प्रदूषित नहीं करती, बल्कि कई रासायनिक प्रक्रियाओं से गुजरती है। यह रासायनिक प्रक्रिया दो चरणों में इस प्रकार होती है- 

  1. SO2​+O2​→SO3​

  1. SO3​+H2​O→H2​SO4​

इस प्रक्रिया में सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) पहले सल्फर ट्राइऑक्साइड (SO₃) में बदलती है और फिर वह जल वाष्प (H₂O) के साथ मिलकर सल्फ्यूरिक एसिड बनाती है। यही एसिड बारिश की बूंदों में घुलकर “अम्ल वर्षा (acid rain)” के रूप में धरती पर गिरता है।अम्लीय वर्षा के प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभाव मिट्टी से लेकर वनस्‍पतियों, जीवों और समूचे पारिस्थितिक तंत्र पर देखने को मिलते हैं।

मिट्टी की गुणवत्ता, पेड़-पौधों और कृषि पर असर 

अम्लीय वर्षा से मिट्टी में मौजूद एल्यूमिनियम के घुलने की प्रवृत्ति (घुलनशीलता) बढ़ जाती है। इससे यह एल्यूमिनियम पानी में घुलकर पेड़-पौधों की जड़ों तक पहुंचता है, उन्हें नुकसान पहुंचाता है और पोषक तत्‍व अवशोषित करने की उनकी क्षमता को घटाता है। इसके अलावा पत्तियों की बाहरी परत (cuticle) अम्ल के संपर्क में आकर क्षतिग्रस्त हो जाती है, जिससे पौधों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया बुरी तरह प्रभावित होती है। पत्तियों में दाग, झड़ना और धीमी वृद्धि जैसे लक्षण दिखने लगते हैं। बार-बार ऐसी बारिश होने से पूरे के पूरे जंगल नष्‍ट हो सकते हैं। 

खेती को होने वाले नुकसान की बात करें, तो अम्लीय वर्षा मिट्टी की pH वैल्यू को कम कर देती है। अधिक अम्लीय मिट्टी में मौजूद आवश्यक पोषक तत्व जैसे, कैल्शियम, मैग्नीशियम और पोटैशियम धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं। परिणामस्वरूप, मिट्टी की उपजाऊ शक्ति खत्म हो जाती है, फसलें कमजोर हो जाती हैं और उपज घट जाती है।

जल स्रोतों और जैव विविधता पर प्रभाव

अम्ल वर्षा झीलों और तालाबों में पानी के pH को 6.5–8 के सामान्य स्तर से घटाकर 5 या उससे नीचे ले आती है। कई बार यह जलीय जीवों, जैसे मछलियों, मेंढकों और शैवालों के लिए जानलेवा होता है। कभी-कभी तो झीलें या तालाब इतने अम्लीय हो जाते हैं कि उनमें जलीय जीवन पूरी तरह समाप्त हो जाता है और इन्‍हें मृत झील  (dead lakes) घोषित कर दिया जाता है।

मछलियों और छोटे जलीय जीवों की कई संवेदनशील प्रजातियां जैसे ट्राउट मछलियाँ, क्रेफिश, और सूक्ष्म जीवाणु अम्लीय जल में जीवित नहीं रह पाते। इससे पूरी खाद्य श्रृंखला (food chain) प्रभावित हो जाती है और जैव विविधता में गिरावट आती है।

हिमालयी क्षेत्रों में खतरा और भी गंभीर 

हिमालय जैसे ठंडे और संवेदनशील पारिस्थितिकी क्षेत्रों में अम्ल वर्षा के प्रभाव अधिक तीव्र होते हैं, क्योंकि वहां मिट्टी की परत पतली और पोषक तत्वों के मामले में कमजोर होती है, जो अम्लीय वर्षा को सहन नहीं कर पाती।हवा में घुलने वाली सल्फर डाइऑक्साइड केवल बारिश में ही नहीं, बल्कि बर्फ या कोहरे में भी अम्ल घोल देती है। यह अम्‍लीय बर्फ पहाड़ों पर लंबे समय तक जमी रहती है जिससे वहां की मिट्टी, सूक्ष्‍म जीवों और वनस्‍पतियों पर लंबे समय तक अम्लीय प्रभाव बना रहता है। 

ऊंचाई वाले स्‍थानों पर स्थित जलस्रोतों में बफ़र क्षमता कम होती है, जिससे pH में तेजी से बदलाव होता है। बफ़र क्षमता का मतलब झील, नदी या झरनों के पानी की उस क्षमता से है, जिसके चलते वह पानी में अम्ल (acid) या क्षार (base) मिल जाने पर भी अपने pH स्तर को स्थिर बनाए रख सकें।

इस तरह, अम्‍ल का असर पहाड़ों के हिमनदों पर पड़ने से इसका प्रभाव पूरी नदी प्रणाली पर देखने को मिलता है। अम्लीय वर्षा और अम्‍लीय बर्फबारी के कारण ही हाल के वर्षों में सिक्किम और उत्तराखंड में कुछ पर्वतीय झीलों में pH स्तर सामान्य से नीचे पाए गए हैं। इनमें उत्तराखंड की देवरिया ताल, बेनी ताल, नचिकेता ताल और सिक्किम की गुरुडोंगमार झील, त्सोम्गो झील (चांगु झील) व खेचेओपलरी झील के नाम लिए जा सकते हैं।

दुनिया के विभन्‍न क्षेत्रों में सल्‍फर डाईऑक्‍साइड का उत्‍सर्जन बीती दो सदियों में कुछ इस प्रकार रहा।
दुनिया के विभन्‍न क्षेत्रों में सल्‍फर डाईऑक्‍साइड का उत्‍सर्जन बीती दो सदियों में कुछ इस प्रकार रहा। स्रोत : रिसर्च गेट

कानूनी और नीतिगत बहस

यदि सल्फर डाइऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसों का उत्सर्जन समय पर नियंत्रित नहीं किया गया, तो इसके दीर्घकालिक दुष्‍परिणाम न केवल प्राकृतिक संसाधनों, बल्कि मानव जीवन और अर्थव्यवस्था पर भी भारी पड़ सकते हैं। देश में पर्यावरण की निगरानी करने वाला नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (NGT) और सुप्रीम कोर्ट पहले भी कई बार इस मुद्दे पर सरकार और पावर कंपनियों की लापरवाही पर नाराज़गी जता चुके हैं।

साल 2019 में एनजीटी ने ताप विद्युत संयंत्रों को सख्त निर्देश दिए कि वे FGD तकनीक लगाएं, ताकि SO₂ उत्सर्जन को रोका जा सके। अगले वर्ष यानी 2020 में ट्राइब्यूनल ने उत्‍सर्जन मानकों में ढिलाई बरतने वाले कई ताप विद्युत संयंत्रों पर यह कहते हुए जुर्माना लगाया कि "पर्यावरणीय अनुपालन कोई विकल्प नहीं, बल्कि बाध्यता है।"

इसी तरह 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने अडाणी पावर केस में कहा कि यदि पावर कंपनियां पर्यावरण मानकों का पालन नहीं करतीं तो "यह संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन होगा।" कोर्ट ने 2021 में केंद्र सरकार से पूछा, "क्या सिर्फ आर्थिक विकास के लिए हम नागरिकों के स्वास्थ्य को दांव पर लगा सकते हैं?"

नीति आयोग और पर्यावरण मंत्रालय के बीच भी FGD मानदंडों के पालन को लेकर समय-समय पर रस्‍साकशी होती रही है। इस सबके बावजूद नीतिगत स्‍तर पर लिए गए हालिया निर्णयों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रदूषण नियंत्रण को अब भी वरीयता नहीं दी जा रही है।

अगले छह साल में FGD मानदंडों को पूरा करने के लिए सरकार ने ताप विद्युत संयंत्रों को तीन श्रेणी में बांटकर उनके लिए समय-सीमा निर्धारित की है। राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) या 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों के पास स्थित ऊर्जा संयंत्रों को श्रेणी A में रखते हुए  31 दिसंबर 2027 तक FGD लगाने का लक्ष्‍य दिया गया है।

इसी तरह ज्‍यादा प्रदूषण वाले क्षेत्रों में स्थित संयंत्रों को श्रेणी B में रखकर 31 दिसंबर 2028 तक का समय दिया गया है। अन्य क्षेत्रों के संयंत्रों को श्रेणी C में रखते हुए 31 दिसंबर 2029 तक उत्‍सर्जन मानदंडों के अनुपालन का समय दिया गया है।

देश के 39 ताप विद्युत संयंत्रों (लगभग 7%) में 2023–24 तक FGD सिस्टम लग चुका है, जबकि  238 यूनिट्स (लगभग 44%) की अनुबंध प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और आगे के चरणों में कार्य प्रगति पर है। इसके अलावा, मौदा, रामागुंडम, भिलाई, कोरबा, उत्तरी चेन्नई और बाढ़ टीपीपी में सरकारी कंपनी भारत हैवी इलेक्ट्रिल्‍स लिमिटेड (BHEL) द्वारा FGD निर्माण हेतु टेंडर जारी किया गया है।

Q

क्या हैं भविष्‍य के विकल्‍प

A

बिजली के लिए इन पर निर्भरता के चलते कोयले वाले संयत्रों को न तो तुरंत ही बंद किया जा सकता है, न ही इनमें महंगे FGD यूनिट लगाना बहुत आसान है। ऐसे में सबसे पहले PPP मॉडल के ज़रिए समस्या का हल निकालने का प्रयास किया जा सकता है।

औद्योगिक संगठन फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (FICCI) की पावर कमेटी ने सरकार से आग्रह किया था कि पावर प्‍लांट्स में FGD स्थापना के लिए PPP मॉडल पर आधारित वित्तीय सहयोग सुनिश्चित किया जाए। जुलाई 2020 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक कमेटी ने तकनीकी और वित्तीय बाधाओं को दूर करने के लिए सरकार से एक PPP फ्रेमवर्क की मांग की थी।

दूसरे, जर्मनी, अमेरिका, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और यूनाइटेड किंगडम जैसे कई देशों में प्रदूषण नियंत्रण के ऐसे उपायों के लिए सरकारों ने कॉरपोरेट सेक्‍टर को सब्सिडी और टैक्स छूट जैसी सहूलियतें भी दी हैं। भारत में भी इसी प्रकार से इंसेंटिव देकर कंपनियों को FGD अपनाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

इसके अलावा, भारत को विद्युत उत्‍पादन के लिए कोयले पर निर्भरता भी चरणबद्ध तरीके से कम करनी चाहिए। पहले चरण में कोयले से प्राकृतिक गैस की ओर बढ़ना चाहिए, जो कि कम प्रदूषणकारी होती है। आगे एक दीर्घकालीन योजना के तहत देश के पावर सेक्‍टर का रुख पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा जैसी नवीकरणीय ऊर्जा की ओर किया जा सकता है। 

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