caste census
केंद्र सरकार में आगामी जनगणना में जातिगत आंकड़ों को शामिल करने का निर्णय लिया है, जिसके दूरगामी परिणाम मिलने की उम्‍मीद है।

जातिगत जनगणना से आसान होगी भारत में 'जल न्याय' की राह

पानी और पर्यावरण नीति में जाति की गिनती ज़रूरी, क्‍योंकि देश में आज भी पानी पर नही है सबका समान अधिकार, अधूरा है जल संसाधनों पर सामाजिक न्याय का एजेंडा
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भारत में जल संकट की चर्चा आम है। सूखा, भूजल की गिरती सतह, प्रदूषित नदियाँ, और अक्षम सीवेज ट्रीटमेंट सिस्टम। पर एक सवाल, जो अकसर नजरअंदाज कर दिया जाता है। वह यह है कि क्या पानी की उपलब्धता और पर्यावरणीय संसाधनों पर सभी सामाजिक वर्गों की बराबर पहुंच व अधिकार है? इस सवाल का उत्तर खोजने के लिए हमें देश की सामाजिक संरचना, विशेष रूप से ‘जाति’ को भी समझना होगा। यहीं पर जातिगत जनगणना की प्रासंगिकता सामने आती है।

भारत में पानी का मुद्दा महज़ एक भौगोलिक और आर्थिक मसला नहीं है, बल्कि इसके गहरे सामाजिक पहलू भी हैं, जो जाति के सवाल से जुड़े हुए हैं, क्‍योंकि ‘जाति है कि जाती नहीं।' केंद्र सरकार का देश में जातिगत जनगणना (caste census) कराने का फैसला पानी के मुद्दे और देश की जल नीति बनाने और जल संसाधन से जुड़ी योजनाओं को तैयार करने में काफी महत्‍वपूर्ण साबित हो सकता है। उम्‍मीद की जा रही है कि जातियों के बारे में ठोस आंकड़े मिलने से नीति निर्माण को देश के एक बड़े ‘वंचित वर्ग’ के लिए पहले से बेहतर और ज्‍यादा कारगर बना कर 'जल न्‍याय' की राह को आसान किया जा सकेगा। 

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (NFHS-5) के अनुसार ग्रामीण भारत में अब भी लगभग 24% घरों में पीने का पानी घर के भीतर उपलब्ध नहीं है। गौर करने वाली बात यह है कि इनमें अधिकांश वे समुदाय हैं जो पारंपरिक रूप से वंचित या अनुसूचित जातियों से आते हैं। इसकी एक बड़ी वजह केंद्र और राज्य सरकारों की जल योजनाओं में जाति आधारित वितरण का कोई स्पष्ट आंकड़ा न होने को माना जाता है। यहीं पर जातिगत जनगणना का महत्व सामने आता है। यदि हमें यह पता हो कि किन जातीय समूहों की जल तक पहुंच सबसे कम है, तो योजनाओं को लक्षित (targeted) और न्यायपूर्ण (equitable) रूप से डिजाइन किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, SC/ST बहुल गांवों में पाइप जल आपूर्ति की कवरेज राष्ट्रीय औसत से 20-30% तक कम है (NITI Aayog रिपोर्ट, 2021)। ऐसे आंकड़ों की पहचान जातिगत डेटा से ही संभव है। जातिगत जनगणना केवल सामाजिक संरचना का आकलन नहीं, बल्कि ‘जल न्याय’ के लिए एक बुनियादी टूल बन सकती है। इसके इनपुट्स के आधार पर भौगोलिक या राजनीतिक दबावों को दरकिनार कर हर समुदाय की ज़रूरत, पहुंच और समस्याओं के आधार पर जल नीति बनाई जा सकती है। इससे जुड़े कुछ अहम पहलुओं को कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है : 

गांवों में जातीय असमानता की ज़मीनी सच्चाई

कुएं, तालाब और हैंडपंपों पर जातीय वर्चस्व

भारत के कई इलाकों में आज भी ऊंची जातियों के खेतों और बस्तियों में ही तालाब, कुएं और हैंडपंप जैसे प्राथमिक जल स्रोत होते हैं। आज़ादी के सात दशक बाद भी दलित या पिछड़े समुदायों को अकसर ‘अलग’ या ‘दूर’ हैंडपंप से पानी लाना पड़ता है। कई जगहों पर तो पानी छूने पर भी सामाजिक तनाव की घटनाएं सामने आती हैं। यह एक ज़मीनी हकीक़त है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता।

दलितों के निचले इलाकों में जल निकासी

ग्रामीण इलाकों में अकसर पारंपरिक बसावट संरचना में दलित समुदायों को प्राय: गांव के निचले इलाकों में बसाया गया है, जहां गांव के गंदे पानी की निकासी होती है। ये क्षेत्र जलभराव, गंदगी, और मच्छरजनित बीमारियों से सबसे अधिक प्रभावित रहते हैं। यह स्थिति अब भी बनी हुई है।

शहरी इलाकों में जातिगत पर्यावरणीय भेदभाव

स्लम बस्तियां: पर्यावरणीय असमानता की मिसालमिसाल

पानी और पर्यावरण के मामले में गांवों में दिखाई देने वाली जाति आधारित असमानता और पक्षपात एक अलग ही रूप में हमारे शहरों में भी विद्यमान है। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि शहरों की अधिकतर झुग्गी-बस्तियां सामाजिक रूप से वंचित जातियों की होती हैं। इन इलाकों में सार्वजनिक नल और टॉयलेट की संख्या बेहद कम होती है। पीने का पानी अक्सर दूषित होता है। साफ-सफाई की सरकारी व्‍यवस्‍था और कचरा प्रबंधन (Waste Management) तकरीबन न के बराबर होता है। इन इलाकों में जल निकासी की उचित व्‍यवस्‍था न होने के कारण जलभराव और सीवर ओवरफ्लो की समस्या आम होती है।

औद्योगिक कचरा और दलित बस्तियां

शहरों की दलित बस्तियां किस तर महानगरों के औद्योगिक कचरे का दंश झेल रही हैं। इसकी एक बानगी देखनी हो तो कभी दिल्ली के मंडोली या दक्षिण में चेन्नई का पेरुंगुडी जैसे इलाकों में हो आइए। देशभर में  बड़ी संख्‍या में ऐसे उदाहरण फैले पड़े हैं, जहां  खतरनाक लैंडफिल, उद्योगों का हानिकारक कचरा और नालों से उठती दुर्गंध व बीमारियां इन दलित बस्तियों के वासिंदों का नसीब बनी हुई हैं। यह महज़ संयोग नहीं, बल्कि संरचनात्मक जातीय असमानता का स्‍पष्‍ट संकेत है।

Dalit Basti.
देश की दलित बस्तियों और झुग्गियों का हाल कमोबेश ऐसा ही है, गंदगी और जलभराव की समस्‍याएं यहां आम हैं।

जल-नीति के लिए क्यों ज़रूरी है जातिगत जनगणना?

आज भारत में AMRUT (Atal Mission for Rejuvenation and Urban Transformation), स्‍वच्‍छ भारत मिशन (SBM) और जल जीवन मिशन (JJM) जैसी जल योजनाओं के तहत कई तरह के सर्वे और विकास कार्य किए जा रहे हैं। लेकिन, एक व्‍यावहारिक समस्‍या यह है कि इन योजनाओं के लाभों का सही ढंग से जातिगत वितरण नहीं होता। परिणामस्वरूप, अकसर इन योजनाओं का लाभ समाज के सबसे वंचित और ज़रूरतमंद तबकों तक नहीं पहुंच पाता। इस बात को कम शब्‍दों में इस समीकरण के जरिये समझा जा सकता है-  जातिगत डेटा की अनुपस्थिति = नीतिगत असमनाता

पॉलिसी डिज़ाइन में न्याय का अभाव

यदि हमें पता ही नहीं कि कौन-कौन जातियां सबसे ज़्यादा जल संकट झेल रही हैं, तो समानता आधारित जल योजनाएं कैसे बनेंगी? यह एक गंभीर और ज़रूरी सवाल है, जिसका सीधा सा जवाब है- जातिगत डेटा। क्‍योंकि, जातिगत डेटा से ही हम इन महत्‍पूर्ण बातों को जान सकते हैं कि किन समुदायों को सबसे कम पाइप (वाटर सप्‍लाई) का पानी मिलता है? कौन सी जातियां पानी के प्रदूषण से अधिक प्रभावित हैं? किन क्षेत्रों में जल-जागरूकता और प्रशिक्षण की सबसे अधिक ज़रूरत है?

पर्यावरणीय न्याय और जाति : एक जरूरी विमर्श

भारत और तकरीबन सारी दुनिया में ही अब तक ज्‍यादातर पर्यावरणीय नीतियां टेक्नोक्रेटिक दृष्टिकोण से ही बनाई जाती रही हैं, पर दुनिया भर में Environmental Justice (EJ) आंदोलन यह दिखा रहा है कि पर्यावरणीय असमानता अकसर नस्लीय और जातीय वजहों पर आधारित होती हैं। भारत की ज्‍यादातर झुग्‍गी बस्तियां तो इसकी जीती-जागती मिसाल हैं ही, बल्कि अमेरिका जैसे विकसित देश में भी इसे देखा जा सकता है। मिसाल के तौर पर ‘अमेरिका की ‘फ्लिंट वाटर क्राइसिस’ के उदाहरण को देखा जा सकता है, जो मुख्यतः अफ्रीकी-अमेरिकन समुदाय को ही प्रभावित करता है। इसी तरह दक्षिण अफ्रीका में Apartheid काल में बनाए गए क्षेत्रों में आज भी पानी की कमी है और यहां और ग्रीन एरिया नाम की कोई चीज दिखाई ही नहीं देती। ये तो महज़ चुनिंदा उदाहण हैं। पूरी दुनिया में यह समस्‍या बहुत व्‍यापक स्‍तर पर फैली हुई है।

caste census in village
जातिगत जनगणना से सामाजिक योजनाओं को समाज के वंचित वर्गों तक बेहतर ढंग से पहुंचाने में मदद मिलेगी।

संभावनाएं और समाधान

जल संसाधन और पर्यावरणीय मामलों में असमानता की समस्‍या के समाधान के लिए वॉटर बजटिंग में जातीय वर्गीकरण का ध्‍यान रखा जाना बेहद जरूरी है। इसे जाति आधारित जनगणना के आंकड़ों के जरिये आसानी से किया जा सकता है। हर ग्राम पंचायत या वार्ड के जल उपयोग डेटा में जातिगत उपभोग और वंचना (अनुपलब्‍धता) की रिपोर्ट अनिवार्य की जानी चाहिए। अनुसूचित जाति/जनजाति (SC/ST) बहुल क्षेत्रों में पाइपलाइन की जल आपूर्ति, जल रिचार्ज स्ट्रक्चर, और सामुदायिक जल केंद्र में वंचित वर्गों की समान रूप से सहभागिता सुनिश्चित की जानी चाहिए। यथा संभव इन कार्यों में  SC/ST बस्तियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। 'जल न्‍याय' के लिए जल नीति में सामाजिक प्रभाव का आकलन किया जाना भी जरूरी है।जैसे EIA (Environmental Impact Assessment) होता है, उसी तरह Social Impact Assessment with caste lens को लागू किया जाना चाहिए।

जाति, जल और जलवायु परिवर्तन का रिश्‍ता

जलवायु परिवर्तन यूं तो एक विश्‍व स्‍तरीय ग्‍लोबल समस्‍या है, पर ध्‍यान देने वाली बात यह है कि इसका असर भी सब पर समान रूप से नहीं पड़ता। दलित, आदिवासी और हाशिये के वर्ग के लोग ही जलवायु-जनित सूखा, बाढ़ और प्रदूषण से सबसे पहले और सबसे ज्‍यादा प्रभावित होते हैं। इनके पास न तो इससे निपटने के संसाधन होते हैं, न ही पुनर्वास की आर्थिक सामर्थ्‍य कि कहीं और जा कर रह सकें। जातिगत जनगणना के आंकड़ों की मदद से इन समस्‍याओं की पहचान कर पानी और पर्यावरण से जुड़ी योजनाओं में सुधार लाया जा सकता है।

Summary

सिर्फ संसाधन नहीं, सामाजिक अधिकार है पानी

जब तक जल नीति में सामाजिक विभेद की परतों को समझा और उखाड़ा नहीं जाएगा, तब तक यह नीति महज़ कागज़ी कार्यवाहीसे आगे नहीं बढ़ पाएगी। जातिगत जनगणना के आंकड़े इस मामले में सरकार और स्‍वयं सेवी संस्‍थाओं व संगठनों को दिशा दिखाने में काफी मददगार साबित हो सकते हैं। अगर हम वाकई चाहते हैं कि "हर घर जल" का सपना पूरा हो, तो हमें पहले यह देखना और समझना होगा कि "हर जाति तक पानी" पहुंचा है या नहीं।

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