पानी भरने के बाद खेत को धान रोपने के लिए तैयार करता किसान।
पानी भरने के बाद खेत को धान रोपने के लिए तैयार करता किसान।स्रोत : इंडिया वाटर पोर्टल

गेहूं और धान पर सब्सिडी सोख रही है हमारी धरती का पानी

उत्पादन सब्सिडी और सरकारी खरीद के लालच में किसान कर रहे हैं ज़्यादा पानी की खपत वाली इन फसलों की खेती।
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चावल और गेहूं जैसी पानी की ज़्यादा खपत वाली फसलें भारत में भूजल संकट की एक बड़ी वजह बन रही हैं। डेढ़ से दो दशक पहले ज़मीन के नीचे कुछ फीट खुदाई करके ही पानी मिल जाता था, लेकिन अब 300 फीट बोरिंग कराने पर भी पर्याप्त पानी नहीं मिल पाता है। इसकी वजह इन फसलों की खेती के लिए भारी मात्रा में किया जाने वाला भूजल दोहन है। यह बात नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक अध्ययन में सामने आई है। 

शौमित्रो चटर्जी, रोहित लांबा और ईशा डी. जावेरी द्वारा किए गए इस शोध में बताया गया है कि पिछले पांच दशकों में भारत में भूजल के उपयोग में 500 प्रतिशत की भारी वृद्धि देखी गई है, जिससे यह दुनिया भर में भूजल के सबसे बड़े उपभोक्ताओं में से एक बन गया है। रिसर्च के मुताबिक 1980 के दशक से देश में भूजल स्तर औसतन 8 मीटर से भी अधिक नीचे चला गया है। कुछ क्षेत्रों में 30 मीटर तक की गिरावट दर्ज़ की गई है। 

मध्य और दक्षिण भारत की तुलना में उत्तर-पश्चिम भारत के जलभृतों (aquifers) में स्थिति सबसे गंभीर है। अध्ययन में बताया गया है कि इस खामोश संकट की एक प्रमुख वजह कृषि उत्पादन सब्सिडी की गलत संरचना है, जिसे शुरू तो किसानों की आस को जोखिम-मुक्त करने और खेती को लाभकारी बनाने की नेकनीयती के साथ किया गया था, पर दूरंदेशी की कमी चलते यह भूजल संकट का कारण बन गई।

उत्पादन सब्सिडी से कैसे बढ़ रहा जल संकट?

कृषि उत्पाद सब्सिडी एक सरकारी पहल है, जो खाद्य सुरक्षा बढ़ाने और किसानों को स्थिर, जोखिम-मुक्त आय प्रदान करने के लिए फसलों, मुख्यतः चावल और गेहूं की निश्चित, पूर्व-निर्धारित कीमतों पर खरीद की गारंटी के रूप में दी जाती है। सबसे पहले इसे 1960 के दशक में हरित क्रांति के दौरान पंजाब में और बाद में अन्य राज्यों में भी लागू किया गया। 

हालांकि, उस समय इस नीति लाभकारी रही, लेकिन शोधपत्र के लेखकों का तर्क है कि यह अब प्रभावी नहीं है। उनका दावा है कि यह भूजल संसाधनों के तेज़ी से दोहन में योगदान देकर पर्यावरणीय स्थिरता को नुकसान पहुंचा रही है। दीर्घ कालीन नज़रिये से देखा जाए, तो इससे खाद्य सुरक्षा के अलावा किसानों की आय को भी नुकसान हो रहा है।

रिसर्च के मुताबिक सरकार की ओर से मिलने वाली उत्पादन सब्सिडी के कारण भारत में चावल और गेहूं की अतिरिक्त खेती हो रही है जो खपत की ज़रूरत और आपातकालीन भंडार से 30 प्रतिशत ज़्यादा है। सब्सिडी किसानों को इस अतिरिक्त उत्पादन के बावजूद, अन्य फसलों की बजाय पानी की ज़्यादा खपत वाली चावल और गेहूं की फसल उगाने के लिए प्रेरित कर रही है। 

इसके कारण देश में भूजल स्तर तेज़ी से घट रहा है। चावल और गेहूं की खेती के लिए किसानों को निजी सिंचाई प्रणालियों, जैसे ट्यूबवेल और कुओं पर निर्भर रहना पड़ता है, क्‍योंकि ज़्यादातर किसानों के पास नहरों, तालाबों जैसे सतही जल स्रोत की उपलब्‍धता नहीं होती। 

लेखकों ने चेतावनी दी है कि गेहूं और चावल की खेती के चलते भूजल स्तर में तेज़ी से आ रही यह गिरावट जलवायु परिवर्तन में तेज़ी ला सकती है। साथ ही, किसानों के लिए यह आर्थिक दृष्टि से भी नुकसानदायक होती जाएगी। भूजल स्तर जितना गहरा होगा, बोरिंग या कुओं को उतना गहरा करने आवश्‍यकता होगी। साथ ही, पंप चलाने की ज़रूरत भी ज़्यादा पड़ेगी। इस कारण किसानों की खेती की लागत बढ़ती जाएगी। इस तरह, सब्सिडी ने अनजाने में एक ऐसा दुष्‍चक्र रच दिया है, जिस पर ध्यान नहीं दिया गया तो भूजल में गिरावट के साथ खाद्य सुरक्षा और किसानों की आजीविका के लिए भी खतरा पैदा हो जाएगा। 

शोध में बताया गया है कि सरकारी सब्सिडी के कारण लगभग 26 करोड़ किसान चावल और गेहूं उगाते हैं। ये किसान आय के लिए सरकारी सब्सिडी पर निर्भर होते हैं। समय के साथ इनकी आय बढ़ाने की ज़रूरत और खेती की बढ़ती लागत के कारण सरकार को साल दर साल इनकी सब्सिडी भी बढ़ानी भी पड़ती है। इसका असर देश की अर्थव्‍यवस्‍था पर पड़ता है। इससे अलग-अलग राज्यों में सब्सिडी के खर्च को जोड़ें, तो वर्तमान खर्च लगभग 4 अरब अमेरिकी डॉलर प्रतिवर्ष हो जाता है।

धान के पौधों की रोपाई करते किसान व श्रमिक।
धान के पौधों की रोपाई करते किसान व श्रमिक। स्रोत : इंडिया वाटर पोर्टल

क्या दर्शाते हैं आंकड़े ?

भारत में भूजल दोहन पर सब्सिडी के प्रभाव के बारे में बहुत सीमित साक्ष्य उपलब्ध हैं। यह अध्ययन 1981 से अब तक के आंकड़ों का संकलन और विश्लेषण करके भारत में घटते भूजल स्तर के पीछे सब्सिडी नीति की भूमिका को लेकर कई महत्‍वपूर्ण सवाल खड़े करता है। अध्ययन में पाया गया है कि पानी की ज़्यादा खपत वाली चावल जैसी फसल की बढ़ती खेती भारत में भूजल के अंधाधुंध दोहन को बढ़ाने की समस्‍या से निकटता से जुड़ी हुई है। इसका परिणाम सूख चुके कुओं व नलकूपों की बढ़ती संख्या से स्पष्ट है।

आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि 1996 और 2015 के बीच चावल की खेती के क्षेत्रफल में वृद्धि, इलाके में निष्क्रिय कुओं की संख्या में 5.44 प्रतिशत अंकों (पीपी) की वृद्धि से जुड़ी है। यह इस बात की पुष्टि करता है कि नहरों जैसे सतही जलस्रोतों से सिंचाई करने के बजाय उन कुओं के पानी का उपयोग किया जाता है जो अत्यधिक जल निकासी के कारण सूख जाते हैं। चावल और गेहूं का 30 प्रतिशत अतिरिक्त उत्पादन इसीलिए किया जा रहा है क्योंकि सरकार बाज़ार मूल्य से अधिक देकर इन फसलों की खरीदने की गारंटी देती है। इस नीति का प्रभाव केवल उत्तर-पश्चिमी भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि विभिन्न जल-भूवैज्ञानिक स्थितियों में स्थित भारत के सभी क्षेत्रों पर पड़ सकता है।

अध्ययन में पंजाब और मध्य प्रदेश जैसे दो अलग-अलग जलभृत प्रणालियों वाले राज्‍यों के आंकड़ों की तुलना की गई है, ताकि यह स्पष्ट किया जा सके कि उत्पादन सब्सिडी नीति भूजल स्तर को किस प्रकार प्रभावित करती है। अध्ययन में पाया गया कि उत्पादन सब्सिडी नीति ने पंजाब में भूजल स्तर में स्थानीय गिरावट में कम से कम 50 प्रतिशत योगदान दिया।

इस क्षेत्र में गहरे जलभृतों में 6-7 वर्षों के बाद धीरे-धीरे कमी देखने को मिली है। मध्य प्रदेश में जहां कम भंडारण क्षमता वाले कठोर चट्टानी जलभृत हैं। साल 2008 में उत्पादन सब्सिडी नीति लागू होने के बाद से, सूखे कुओं की संख्या में 5.3 प्रतिशत और गहरे नलकूपों की मांग में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

बढ़ सकता है मरुस्‍थलीकरण

अध्ययन के आंकड़े बताते हैं कि भूजल और पर्यावरण पर सब्सिडी कार्यक्रमों के दूरगामी हानिकारक परिणाम हो सकते हैं। यहां तक कि बढ़ता भूजल दोहन भारत के सर्वाधिक उपजाऊ इलाकों के मरुस्थलीकरण का कारण बन सकता है। भूमिगत जलस्रोतों के पुनर्भरण में सदियां लग जाती हैं। इनके क्षीण होने से भारत के सर्वाधिक उत्पादक क्षेत्रों में खेती मुश्किल में पड़ सकती है।

सब्सिडी से पोषक मोटे अनाजों और दालों की खेती घटी

उत्पादन सब्सिडी आगे चलकर पोषण संबंधी समस्‍याएं भी पैदा कर सकती है। साल 1960 में, भारत खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा था। इसलिए कृषि नीतियों के तहत उत्पादन सब्सिडी को खाद्य नीति की उपभोग सब्सिडी के साथ जोड़ दिया गया। उत्पादन सब्सिडी कार्यक्रम के तहत प्राप्त अनाज कम आय वाले लोगों को सब्सिडी वाले भोजन के रूप में प्रदान किया जाता है और इसे उत्पादन सब्सिडी कार्यक्रम को जारी रखने के औचित्य के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

हालांकि, अनाज उत्पादन में वृद्धि से देश में अनाज की उपलब्धता और आत्‍मनिर्भरता सुनिश्चित हुई है, लेकिन मोटे अनाज और दालों जैसी अन्य पोषक तत्वों से भरपूर फसलों पर ध्यान न देने के कारण खेती में विविधता घटी है। 

दोषपूर्ण सब्सिडी नीतियों के कारण एक व्यापारिक विरोधाभास भी उत्‍पन्‍न हुआ है। भारत में मीठे पानी के भंडार की प्रति व्यक्ति उपलब्धता सबसे कम है। इसलिए आदर्श रूप से उसे अधिक पानी की आवश्यकता वाली फसलों का आयात और कम पानी की आवश्यकता वाली फसलों का निर्यात करना चाहिए। जबकि, सब्सिडी नीतियों के कारण स्थिति इसके विपरीत हो गई है।

इसके चलते भारत हर साल 25 × 109 घन मीटर भूजल दोहन करता है। अंतर्राष्ट्रीय खाद्य व्यापार से जुड़े वैश्विक भूजल क्षरण में भारत का योगदान 12 प्रतिशत है। ऐसा ही रहा तो भारत अगले 1000 वर्षों से कम समय में अपने पूरे भूजल को समाप्‍त कर सकता है।

पंजाब और हरियाणा में भूजल संकट सबसे गंभीर है। यहां किसान चावल और गेहूं की न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) खरीद प्रणाली पर निर्भर हैं। वैकल्पिक प्रणालियों की ओर सफलतापूर्वक बढ़ने के लिए किसानों को यह विश्वास दिलाना होगा कि समर्थन और सब्सिडी की ऐसी प्रणालियां भी कारगर हो सकती हैं जो पानी की अधिक खपत वाली फसलों से जुड़ी नहीं हैं। यह बहुत ज़रूरी है, क्योंकि भारतीय नीति निर्माता भारत के कृषि बाज़ारों को उदार बनाने की सरकार की योजना के तहत इन नीतियों के भविष्य पर जोरदार बहस कर रहे हैं।

किसानों को समर्थन देने के तरीकों पर हो पुनर्विचार

इस अध्ययन के शोधकर्ताओं का मानना है कि भारत के नीति-निर्माताओं को अब सब्सिडी नीति पर गहराई से पुनर्विचार करने और किसानों व उपभोक्ताओं की मदद के नए तरीके तय करने की ज़रूरत है।

बदलाव शायद आसान नहीं। इसमें सीमित सरकारी खरीद क्षमता, राजनीतिक विरोध और आर्थिक हकीकतों जैसी चुनौतियां हैं, जो बड़े बदलावों को लागू करना मुश्किल बनाती हैं। हालांकि, इस बीच एक आशाजनक कदम पीएम-किसान योजना के रूप में उठाया गया है। किसानों के लिए यह एक अलग तरह की आय सहायता योजना है। यह किसानों को सीधे पैसा भेजती है, चाहे वे कोई भी फसल उगाएं। यह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह किसानों को चावल या गेहूं जैसी पानी की कमी वाली फसलें उगाने के लिए मजबूर नहीं करती। लेकिन वर्तमान में, यह सहायता मौजूदा फसल सब्सिडी के अतिरिक्त दी जाती है, न कि उसकी जगह।

शोध के लेखक मूल्य न्यूनता भुगतान (पीडीपी) योजनाओं पर भी विचार करने का सुझाव देते हैं। क्‍योंकि, ये योजनाएं किसानों को बाजार में कीमतों में गिरावट आने पर उन्हें किसी विशेष फसल से जोड़े बिना मदद करेंगी। इनके ज़रिए खेती को और अधिक लचीला बनया जा सकता है, खासकर जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में।

शोध में बेहतर तकनीक में निवेश और कृषि अनुसंधान को बढ़ावा देने की आवश्‍यकता जताई गई है। सिर्फ सब्सिडी देने के बजाय नवाचार करने में भी किसानों की मदद की जानी चाहिए, ताकि वे टिकाऊ तरीके से खाद्यान्न उगा कर बेहतर आय अर्जित कर सकें और अपनी खेती को बदलती परिस्थितियों के अनुकूल ढाल सकें।

भारत का भूजल संकट सिर्फ वैज्ञानिकों या नीति-निर्माताओं की समस्या नहीं है। यह हमारी धरती में मौजूद पानी, हमारी भोजन की थाली और हमारे किसानों के भविष्य से जुड़ा मसला है। अगर हम इन सबको सुरक्षित रखना चाहते हैं, तो हमें इस बात पर दोबारा विचार करना होगा कि हम क्या उगाते हैं, क्यों उगाते हैं और इसकी कीमत कौन चुकाता है?

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