भारत के शहरी इलाकों में पानी की आपूर्ति की योजना और उसे लागू करने का काम प्रति व्यक्ति मानक के आधार पर किया जाता है।
भारत के शहरी इलाकों में पानी की आपूर्ति की योजना और उसे लागू करने का काम प्रति व्यक्ति मानक के आधार पर किया जाता है।चित्र: इंडिया वाटर पोर्टल/फ़्लिकर फ़ोटो

कौन तय करता है कि आपको कितना पानी मिलेगा?

योजना-निर्माता और इंजीनियर जिस प्रति व्यक्ति मानक का इस्तेमाल करते हैं वही आम नागरिकों के लिए अक्सर एक अव्यावहारिक संख्या बनकर क्यों रह जाता है? रिपोर्ट में जानें उस आंकड़े का सच जिससे भारत के शहरी इलाकों की जल-आपूर्ति तय होती है।
Published on
8 min read

एक ऐसे शहर में रहने की कल्पना कीजिए जिसमें आपको यह पता ही न हो कि कल सुबह आपके घर के नलों में पानी आएगा या नहीं और अगर आया तो कितनी देर और कितना पानी आएगा। पूरे देश में लाखों लोगों के लिए यह रोज़ का संकट है। इस अनिश्चितता के पीछे एक शक्तिशाली ताकत छिपी हुई है: वे मानक और आंकड़े, जो यह तय करते हैं कि आपको कितना पानी मिलना चाहिए।

ये आंकड़े इंजीनियरों के मैनुअल, नीति-निर्माताओं के दस्तावेजों और योजनाओं की स्प्रेडशीट में दर्ज़ हैं। लेकिन इन्हें कौन तय करता है? क्या ये आंकड़े वास्तविक मानवीय ज़रूरतों के आधार पर बनाए गए हैं या इनका आधार व्यवस्था की क्षमता है?

नेचर एंड स्पेस में प्रकाशित सचिन तिवाले के अध्ययन ‘व्हॉट स्टैंडर्ड्स डू एंड हूम दे सर्व: फिक्सिंग, प्रैक्टिसिंग एंड डिलिवरिंग पर कैपिटा वाटर सप्लाई स्टैंडर्ड्स इन सिटीज़ इन इंडिया’ में इन सवालों पर गहराई से विचार किया गया है। अपने इस लेख में उन्होंने “प्रति व्यक्ति जल आपूर्ति मानक" जैसी तटस्थ प्रतीत होने वाली चीज़ के पीछे की राजनीति और शक्ति की गतिशीलता को सामने लाने की कोशिश की है।

इसके लिए लेखक ने पिछले कई वर्षों में प्रति व्यक्ति मानकों को निर्धारित करने वाले दस्तावेजों का विश्लेषण किया है। साथ ही, देश भर के विभिन्न जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्डों और नगर निगमों में काम करने वाले वरिष्ठ जल आपूर्ति इंजीनियरों, केंद्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण इंजीनियरिंग संगठन (सीपीएचईईओ) के वरिष्ठ अधिकारियों, भारतीय जल कार्य संघ (आईडब्ल्यूडब्ल्यूए) के अध्यक्ष, स्वतंत्र जल नियामक एजेंसी के पूर्व सचिवों, वरिष्ठ सलाहकारों, कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों सहित अन्य विशेषज्ञों से बातचीत भी की है।

आंकड़ों के पीछे की शक्ति

भारत के शहरी इलाक़ों में पानी की आपूर्ति की योजना और उसे लागू करने का काम प्रति व्यक्ति मानक के आधार पर किया जाता है। यह एक ऐसा आंकड़ा है जो इंजीनियरों और योजना-निर्माताओं को बताता है कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन कितने लीटर पानी मिलना चाहिए। इन आंकड़ों का इस्तेमाल ज़रूरत का अनुमान लगाने, जल-संरचना का डिज़ाइन तैयार करने और भविष्य के निवेश की योजना बनाने के लिए किया जाता है। लेकिन ये आंकड़े न तो पत्थर की लकीर हैं और न ही पक्षपात से पूरी तरह मुक्त।

तिवाले के शोध से यह बात स्पष्ट होती है कि इन मानकों को तय करते समय नागरिकों की ज़रूरतों को केंद्र में नहीं रखा जाता है। बल्कि, ये मानक इन्हें बनाने वाले अलग-अलग विभागों या संस्थाओं के विरोधाभासी लक्ष्य और प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं। अक्सर इनका उद्देश्य खर्चों को नियंत्रित करना या फंडिंग की शर्तें पूरी करना होता है, न कि लोगों की असली ज़रूरतों को समझना।

प्रति व्यक्ति जल आपूर्ति मानक की ज़रूरत क्या है?

राज्य द्वारा तय किया गया प्रति व्यक्ति जल आपूर्ति मानक यह निर्धारित करता है कि हर व्यक्ति को अपनी घरेलू ज़रूरतों के लिए रोज़ाना कितना पानी मिलना चाहिए। इस मानक का इस्तेमाल यह जांचने के लिए किया जाता है कि लोगों को पर्याप्त पानी मिल रहा है या नहीं। इसके अलावा इसका उपयोग यह तय करने के लिए भी किया जाता है कि किसी शहर को अपने आसपास के स्रोतों से कितने पानी की ज़रूरत होगी।
यह मानक नगर निगमों द्वारा संचालित जल आपूर्ति प्रणालियों के डिज़ाइन में भी अहम भूमिका निभाता है। इसके ज़रिए इन प्रणालियों के निर्माण, संचालन, पानी के शोधन, पंपिंग और रख-रखाव पर आने वाले खर्च और भविष्य के निवेश का अनुमान लगाया जाता है।

विश्लेषण बताता है कि

  • प्रति व्यक्ति मानक विभिन्न उद्देश्यों के आधार पर निर्धारित किए जाते हैं। 

  • मानकों के रूप में निर्धारित परिभाषाओं और संख्याओं में एकरूपता नहीं है। 

  • मानक निर्धारित करने वाले प्राधिकारियों के बीच तालमेल की कमी है और मानक निर्धारण प्रक्रिया में साक्ष्य और पारदर्शिता की कमी के कारण कई तरह की समस्याएं पैदा होती हैं।

इन मानकों को कौन तय करता है?

1992 के 74वें संविधान संशोधन के बाद पानी की आपूर्ति की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों से लेकर शहरी स्थानीय निकायों (नगर निगमों और नगरपालिकाओं) को सौंप दी गई। हालांकि, राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय इस काम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन शहरी जल आपूर्ति पर केंद्र सरकार का प्रभाव अब भी बहुत ज़्यादा है। तकनीकी मानक और नियम तय करने, नीतिगत ढांचे बनाने, और मुख्य वित्तीय सहायता देने वाली संस्था के रूप में इसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
इसलिए केंद्र सरकार द्वारा वित्तपोषित शहरी जल आपूर्ति योजनाओं को तभी मंज़ूरी मिलती है जब वे सीपीएचईईओ (CPHEEO) मैनुअल में दिए गए मानकों, दिशानिर्देशों और तकनीकी प्रक्रियाओं का पालन करती हैं।
इनमें प्रति व्यक्ति जल आपूर्ति मानक भी शामिल हैं। जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी पुर्ननवीकरण मिशन (JNNURM), मध्यम और छोटे शहरों के लिए शहरी अवसंरचना विकास योजना (UIDSSMT), अटल मिशन फॉर रेजुवनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन (AMRUT) और स्मार्ट सिटी मिशन आदि इसके कुछ उदाहरण हैं।

प्रति व्यक्ति जल मानक तय करते समय अलग-अलग उद्देश्यों के कारण कई तरह की समस्याएं पैदा होती हैं।

विभिन्न संस्थाएं प्रति व्यक्ति जल आपूर्ति मानक अलग-अलग उद्देश्यों को ध्यान में रखकर तय करती हैं, जैसे कि जल आपूर्ति ढांचे के डिज़ाइन के लिए एक आधार तय करना, निवेश की ज़रूरत का अनुमान लगाना, और जल आपूर्ति सेवाओं के प्रदर्शन का मूल्यांकन करना।
लेकिन, इन अलग-अलग उद्देश्यों के कारण नीतियों को लागू करने में असंगतियां और भ्रम पैदा हो जाते हैं।

उदाहरण के लिए, अध्ययन में शुरुआती दस्तावेजों की समीक्षा से पता चलता है कि पर्यावरण स्वच्छता समिति, ज़कारिया समिति और निर्माण एवं आवास मंत्रालय, जल आपूर्ति प्रणाली को डिजाइन करने और उनके निर्धारित मानकों के अनुसार सेवाएं प्रदान करने के लिए आवश्यक निवेश का अनुमान लगाने के लिए प्रति व्यक्ति मानकों को निर्धारित करते हैं। 

इसके उलट, एनआईयूए और योजना आयोग द्वारा निर्धारित मानकों का उपयोग केवल शहरी जल आपूर्ति प्रावधान के लिए आवश्यक निवेश का निर्धारण करने के लिए किया जा सकता है (स्रोत: तिवाले, एस. (2025) व्हॉट स्टैंडर्ड्स डू एंड व्होम दे सर्व: फिक्सिंग, प्रैक्टिसिंग एंड डेलिवरिंग पर कैपिटा वाटर सप्लाई स्टैंडर्ड्स इन सिटीज इन इंडिया। ईपीई: नेचर एंड स्पेस 8 (2), पृष्ठ 10) 

साल 1989 में नौवीं वित्त आयोग के अनुरोध पर राष्ट्रीय शहरी कार्य संस्थान (NIUA) ने नगरपालिका सेवाओं में सुधार के लिए अतिरिक्त वित्तीय ज़रूरतों का आकलन करने के लिए 202.5 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन (lpcd) और 157.5 lpcd के मानक का उपयोग किया। यह मानक 1990 से 1995 की अवधि के लिए तय किया गया था।

लेकिन 1999 में जब नौवीं पंचवर्षीय योजना तैयार की जा रही थी, तब योजना आयोग ने सभी सीवरेज सिस्टम वाले शहरी क्षेत्रों के लिए 125 lpcd का मानक अपनाया, ताकि बुनियादी न्यूनतम सेवाएँ देने के लिए आवश्यक इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी और निवेश की ज़रूरत का पता लगाया जा सके। (स्रोत: तिवाले, एस. (2025) व्हॉट स्टैंडर्ड्स डू एंड व्होम दे सर्व: फिक्सिंग, प्रैक्टिसिंग एंड डेलिवरिंग पर कैपिटा वाटर सप्लाई स्टैंडर्ड्स इन सिटीज इन इंडिया। ईपीई: नेचर एंड स्पेस, 8 (2), पृष्ठ 10)

मानकों को परिभाषित करने और लागू करने के तरीके में विसंगतियां

कई संस्थाएं प्रति व्यक्ति जल मानक तय करते समय अलग-अलग परिभाषाओं को अपनाती हैं। इन परिभाषाओं में अंतर इसलिए होता है, क्योंकि कुछ संस्थाएं इसमें गैर-घरेलू जल उपयोग (जैसे उद्योग या सार्वजनिक उपयोग) और पानी की हानि को शामिल करती हैं।

इसके अलावा, मानक तय करने के मानदंड भी जनसंख्या, सीवरेज सिस्टम की उपलब्धता, और विशेषज्ञों द्वारा संख्या बताने के तरीकों, जैसे सटीक मान, दायरा, या सिर्फ़ ऊपरी या निचली सीमा आदि पर निर्भर करते हैं। नतीजतन, अलग-अलग संस्थाओं द्वारा तय किए गए इन मानकों की आपस में तुलना संभव नहीं हो पाती है।

मानक तय करने वाली संस्थाएं खुद भी संगत नहीं रहतीं, इसलिए इन मानकों की वैधता की अवधि भी छोटी होती है। उदाहरण के लिए, साल 1976 से 1999 के बीच बीआईएस (BIS), एनआईयूए (NIUA), और CPHEEO जैसी कई संस्थाओं ने आठ अलग-अलग प्रति व्यक्ति मानक तय किए और हर बार इनकी परिभाषाएं और प्रारूप अलग थे।

मानक तय करने वाली एजेंसियों के बीच कमज़ोर तालमेल और मेलज़ोल से भ्रम पैदा होते हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर, प्रति व्यक्ति मानक कई एजेंसियों द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। पहले, कार्य एवं आवास मंत्रालय और बाद में CPHEEO ने पूरे शहर में जल अवसंरचना के लिए सेवा कनेक्शन तक के मानक निर्धारित किए। सेवा कनेक्शन के बाद, आवासीय और वाणिज्यिक इमारतों की प्लंबिंग BIS यानी IS 2065:1983 और IS 1172:1993 मानकों के अनुसार डिज़ाइन की जाती है।

CPHEEO से उम्मीद की जाती है कि वह भारत में शहरी जल आपूर्ति के लिए मानक, नियम और दिशा-निर्देश तैयार करते समय भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) के साथ सहयोग में काम करे। हालांकि, ये दोनों एजेंसियां स्वतंत्र रूप से काम करती हैं और अलग-अलग मानक निर्धारित करती हैं।

मानक निर्धारित करने में प्रमाण और पारदर्शिता की कमी प्रगति में बाधा का कारण बनती है

मानक निर्धारित करने वाली किसी भी एजेंसी ने नए मानक तय करते समय पहले के मानकों को संशोधित करने का कारण नहीं बताया है। ज़कारिया समिति को छोड़कर, अन्य एजेंसियां बिना कोई प्रमाण प्रस्तुत किए, केवल प्रति व्यक्ति मानकों के आंकड़े मुहैया करवाती हैं। एजेंसियां यह भी नहीं बतातीं कि ये आंकड़े किन स्रोतों से लिए गए हैं।

प्रति व्यक्ति मानकों का उपयोग जल आपूर्ति योजनाओं की पूंजी लागत को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है

इंजीनियर CPHEEO के मानकों का पालन तो करते हैं, लेकिन इनका मुख्य उपयोग जल आपूर्ति योजनाओं की पूंजी लागत को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि ये केंद्रीय सरकार के पास उपलब्ध फंड से जुड़े होते हैं। नागरिकों की वास्तविक जल आवश्यकताओं को कभी मापा ही नहीं जाता।

CPHEEO द्वारा निर्धारित प्रति व्यक्ति मानकों को इंजीनियर बिना जांच के मान लेते हैं

सचिन तिवाले का कहना है कि, “CPHEEO मेगासिटी के लिए 50 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन (lpcd) और अन्य शहरों के लिए 135 lpcd मानक तय करता है, चाहे वहां मौजूदा या योजनाबद्ध सीवरेज सिस्टम हो, लेकिन इन आंकड़ों का समर्थन करने का कोई कारण नहीं देता।” 

भारत में जल आपूर्ति इंजीनियरिंग समुदाय में CPHEEO मैनुअल को अक्सर अंतिम प्राधिकरण माना जाता है। नतीजतन, मैनुअल में दिए गए मानक और तकनीकी प्रक्रियाओं का बिना किसी सवाल के पालन किया जाता है। इस तरह, परियोजना वित्तपोषण एजेंसी द्वारा निर्धारित प्रति व्यक्ति मानकों को इंजीनियर बिना जांच के मान लेते हैं। और योजना या डिज़ाइन मुख्य रूप से लागत के आधार पर तय होती है, कि नागरिकों की वास्तविक जल आवश्यकता को ध्यान में रखकर।

प्रति व्यक्ति मानक न तो मापा जा सकता है, न ही नागरिकों की पहुंच में है 

यह केवल अधिकारियों के नियंत्रण में रहता है, इसलिए यह एक झूठा या काल्पनिक आंकड़ा बन जाता है। हालांकि, इंजीनियर योजना बनाते समय CPHEEO के प्रति व्यक्ति जल मानकों का उपयोग करते हैं, लेकिन ये मानक अक्सर भारत के शहरों में वास्तविक जीवन में लागू नहीं होते। इसके अलावा, अधिकांश शहरों में जल मीटर नहीं होने के कारण यह जान पाना मुश्किल है कि लोगों को वास्तव में सही मात्रा में पानी मिल भी रहा है या नहीं।

कभी-कभी जल आपूर्ति प्रणाली के विभिन्न हिस्से, जैसे बांध, जल शोधन संयंत्र या भंडारण टैंक अलग-अलग समय पर, अलग बजट के साथ और अलग मानकों के आधार पर बनाए जाते हैं। इसके कारण शहरों में पानी की आपूर्ति अव्यवस्थित और असंगत हो सकती है। 

क्योंकि लोगों को प्रतिदिन मिलने वाले पानी की सही मात्रा को सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी इंजीनियरों की नहीं होती है, इसलिए मानक प्रक्रियाओं और नियमों में अक्सर लागत कम करने या पानी के प्रवाह को बदलने के लिए बदलाव कर दिया जाता है। इससे योजना अनुसार पानी की आपूर्ति नहीं हो पाती। ऊपर से, पुराने और खराब रखरखाव वाले पाइप और सिस्टम शहरों में लोगों के लिए अपेक्षित पानी की मात्रा और वास्तव में मिलने वाले पानी की मात्रा के अंतर को और भी बढ़ा देते हैं।

सचिन तिवाले का कहना है, “योजना बनाने वालों के लिए (फंड बांटने में) और इंजीनियरों के लिए (इंफ्रास्ट्रक्चर डिजाइन करने में) उपयोगी माना जाने वाला प्रति व्यक्ति मानक, आम नागरिकों के लिए केवल एक काल्पनिक संख्या बनकर रह जाता है।” वे आगे कहते हैं, “जल आपूर्ति विभागों को यह सुनिश्चित करने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए कि हर नागरिक को उसके घर में ही पानी मिले, और यह आपूर्ति उसी प्रति व्यक्ति मानक के अनुसार हो जिसे वे योजना और डिज़ाइन बनाते समय अपनाते हैं।”

इंडिया वाटर पोर्टल पर मूल रूप से अंग्रेज़ी में छपे इस लेख का अनुवाद डॉ. कुमारी रोहिणी ने किया है।

संबंधित कहानियां

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org